चूल्हे पे खाना बनाती थी,
भर पेट सबको खिलाती थी ,
कभी स्वयं भूखी रह जाती थी ।
अपना दुख-दर्द छुपाती थी
पर संस्कार का दीप जलाती थी,
वो माँ हमारी कहलाती थी ।
पैसों की रहती तंगी थी ,
पापा के काम में मंदी थी ।
माँ शिकवा न कभी करती थी,
थोड़े में गुजर कर लेती थी।
संयम का सबक सिखाती थी ।
वो माँ हमारी कहलाती थी ।
घर ही उसका संसार था ,
किसी और चीज का न मलाल था ।
बच्चों की हँसी में खुश हो जाती थी,
अपनी दुनिया उसी मे पा जाती थी ।
अच्छे-बुरे का फ़र्क समझाती थी,
वो माँ हमारी कहलाती थी।
चूल्हे के उठते धूएं से
आँसू को छुपा जाती थी,
नज़र धुंधली होती गई ,
पर नज़रिया न मिटा पाती थी।
ज्ञान की जोत जलाती थी
वो माँ हमारी कहलाती थी ।
अक्षरों को न समझ पाती थी
पर दुनियादारी समझ मे आती थी ।
जीवन -पथ पर राह दिखाती थी,
वो माँ हमारी कहलाती थी ।
माँ/दया शर्मा