+91-9997111311,    support@sahityaratan.com

रत्नसेन-बिदाई-खंड-32 पद्मावत/जायसी

रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति जोग जीभ नहिं मोरी ॥
सहस जीभ जौ होहिं, गोसाईं । कहि न जाइ अस्तुति जहँ ताईं ॥
काँच रहा तुम कंचन कीन्हा । तब भा रतन जोति तुम दीन्हा ॥
गंग जो निरमल-नीर कुलीना । नार मिले जल होइ मलीना ॥
पानि समुद्र मिला होइ सोती । पाप हरा, निरमल भा मोती ॥
तस हौं अहा मलीनी कला । मिला आइ तुम्ह, भा निरमला ॥
तुम्ह मन आवा सिंघलपुरी । तुम्ह तैं चढ़ा राज औ कुरी ॥

सात समुद तुम राजा, सरि न पाव कोइ खाट ।
सबै आइ सिर नावहिं जहँ तुम साजा पाट ॥1॥

(कुरी=कुल,कुलीनता, खाट=खटाता है,ठहरता है, सरि न
पाव….खाट=बराबरी करने में कोई नहीं ठहर सकता)

अब बिनती एक करौं, गोसाईं । तौ लगि कया जीउ जब ताईं ॥
आवा आजु हमार परेवा । पाती आनि दीन्ह मोहिं देवा!॥
राज-काज औ भुइँ उपराहीं । सत्रु भाइ सम कोई नाहीं ॥
आपन आपन करहिं सो लीका । एकहिं मारि एक चह टीका ॥
भए अमावस नखतन्ह राजू । हम्ह कै चंद चलावहु आजू ॥
राज हमार जहाँ चलि आवा । लिखि पठइनि अब होइ परावा ॥
उहाँ नियर दिल्ली सुलतानू । होइ जो भौर उठे जिमि भानू ॥

रहहु अमर महि गगन लगि तुम महि लेइ हम्ह आउ ॥
सीस हमार तहाँ निति जहाँ तुम्हारा पाउ ॥2॥

(देवा=हे देव! उपराहीं=ऊपर, लीका करहिं=अपना सिक्का
जमाते हैं, लीका=थाप, हम्ह कै चाँद….आजू=उन नक्षत्रों
के बीच चंदमा ( उनका स्वामी) बनाकर हमें भेजिए,
भोर=प्रभात,भूला हुआ,असावधान, महि लेइ…आउ=
पृथ्वी पर हमारी आयु लेकर)

राजसभा पुनि उठी सवारी । ‘अनु, बिनती राखिय पति भारी ॥
भाइन्ह माहँ होइ जिनि फूटी । घर के भेद लंक अस टूटी ॥
बिरवा लाइन सूखै दीजै । पावै पानि दिस्टि सो कीजै ॥
आनि रखा तुम दीपक लेसी । पै न रहै पाहुन परदेसी ॥
जाकर राज जहाँ चलि आवा । उहै देस पै ताकहँ भावा ॥
हम तुम नैन घालि कै राखे ।ऐसि भाख एहि जीभ नभाखे ॥
दिवस देहु सह कुसल सिधावहिं । दीरघ आइ होइ, पुनि आवहिं”॥

सबहि विचार परा अस, भा गवने कर साज ।
सिद्धि गनेस मनावहिं, बिधि पुरवहु सब काज ॥3॥

(राजसभा=रत्नसेन के साथियों की सभा, सवारी=सब,
अनु=हाँ,यही बात है, फूटी….फूट, दीपक लेसी=पद्मावती
ऐसा प्रज्वलित करके, पाहुन=अतिथि)

बिनय करै पदमावति बारी । “हौं पिउ! जैसी कुंद नेवारी ॥
मोहि असि कहाँ सो मालति बेली । कदम सेवती चंप चमेली ॥
हौ सिंगारहार सज तागा ।पुहुप कली अस हिरदय लागा ॥
हौं सो बसंत करौं निति पूजा । कुसुम गुलाल सुदरसन कूजा ॥
बकुचन बिनवौं रोस न मोही । सुनु बकाउ तजि चाहु न जूही ॥
नागसेर जो है मन तोरे । पूजि न सकै बोल सरि मोरे ॥
होइ सदबरग लीन्ह मैं सरना । आगे करु जो, कंत! तोहि करना “॥

केत बारि समुझावै , भँवर न काँटे बेध ।
कहै मरौं पै चितउर, जज्ञ करौं असुमेध ॥4॥

(मालति=अर्थात् नागमती, कदम सेवती=चरण सेवा
करती है,कदंब और सफेद गुलाब, हौ सिंगारहार…तागा=
हार के बीच पड़े हुए डोरे के समान तुम हो, पुहुप-कली
लागा=कली के हृदय के भीतर इस प्रकार पैठे हुए हो,
बकुचन=बद्धांजलि,जुड़ा हुआ हाथ, गुच्छा, बकाउ=
बकावली, नागसेर=नागमती,एक फूल, बोल=एक झाड़ी
जो अरब, शाम की ओर होती है, कोत बारि=केतकी,
रूपवाला,कितना ही वह स्त्री)

गवन-चार पदमावति सुना । उठा धसकि जिउ औ सिर धुना ॥
गहबर नैन आए भरि आँसू । छाँड़ब यह सिंघल कबिलासू ॥
छाँडिउँ नैहर, चलिउँ बिछौई । एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई ॥
छाँडिउँ आपन सखी सहेली । दूरि गवन, तजि चलिउँ अकेली ॥
जहाँ न रहन भएउ बिनु चालू । होतहि कस न तहाँ भा कालू ॥
नैहर आइ काह सुख देखा?। जनु होइगा सपने कर लेखा ॥
राखत बारि सो पिता निछोहा । कित बियाहि अस दीन्ह बिछोहा?॥

हिये आइ दुख बाजा, जिउ जानहु गा छेंकि ।
मन तेवान कै रोवै हर मंदिर कर टेकि ॥5॥

(धसकि उठा=दहल उठा, गहबर=गीले, होतहि…कालू=जन्म
लेते ही क्यों न मर गई?, बाजा=पड़ा, तेवान=सोच,चिंता,
हर मंदिर=प्रत्येक घर में)

पुनि पदमावति सखी बोलाई । सुनि कै गवन मिलै सब आईं ॥
मिलहु, सखी! हम तहँवाँ जाहीं । जहाँ जाइ पुनि आउब नाहीं ॥
सात समुद्र पार वह देसा । कित रे मिलन, कित आव सँदेसा ॥
अगम पंथ परदेस सिधारी । न जनौं कुसल कि बिथा हमारी ॥
पितै न छोह कीन्ह हिय माहाँ । तहँ को हमहिं राख गहि बाहाँ? ॥
हम तुम मिलि एकै सँग खेला । अंत बिछोह आनि गिउ मेला ॥
तुम्ह अस हित संघती पियारी ।जियत जीउ नहिं करौं निनारी ॥

कंत चलाई का करौं आयसु जाइ न मेटि ।
पुनि हम मिलहिं कि ना मिलहिं, लेहु सहेली भेंटि ॥6॥

(बिथा=दुःख गिउ मेला=गले पड़ा)

धनि रोवत रोवहिं सब सखी । हम तुम्ह देखि आपु कहँ झँखी ॥
तुम्ह ऐसी जौ रहै न पाई । पुनि हम काह जो आहिं पराई ॥
आदि अंत जो पिता हमारा । ओहु न यह दिन हिये बिचारा ॥
छोह न कीन्ह निछोही ओहू । का हम्ह दोष लाग एक गोहूँ ॥
मकु गोहूँ कर हिया चिराना । पै सो पिता न हिये छोहाना ॥
औ हम देखा सखी सरेखा । एहि नैहर पाहुन के लेखा ॥
तब तेइ नैहर नाहीं चाहा । जौ ससुरारि होइ अति लाहा ॥

चालन कहँ हम अवतरीं, चलन सिखा नहिं आय ।
अब सो चलन चलावै, कौ राखै गहि पाय?॥7॥

(झंखी=झीखी,पछताई, का हम्ह दोष….गोहूँ=हम लोगों
को एक गेहूँ के कारण क्या ऐसा दोष लगा (मुसलमानों
के अनुसार जिस पौधे के फल को खुदा के मना करने
पर भी हौवा ने आदम को खिलाया था वह गेहूँ था,
इसी निषिद्ध फल के कारण खुदा ने हौवा को शाप
दिया और दोनों को बहिश्त से निकाल दिया),
चिराना=बीच से चिर गया, छोहाना=दया की,
सरेखा=चतुर)

तुम बारी, पिउ दुहुँ जग राजा । गरब किरोध ओहि पै छाजा ॥
सब फर फूल ओहि के साखा । चहै सो तूरै, चाहै राखा ॥
आयसु लिहे रहिहु निति हाथा । सेवा करिहु लाइ भुइँ माथा ॥
बर पीपर सिर उभ जो कीन्हा । पाकरि तिन्हहिं छीन फर दीन्हा ॥
बौरिं जो पौढ़ि सीस भुइँ लावा । बड़ फल सुफल ओहि जग पावा ॥
आम जो फरि कै नवै तराहीं । फल अमृत भा सब उपराहीं ॥
सोइ पियारी पियहि पिरीती । रहै जो आयसु सेवा जीती ॥

पत्रा काढ़ि गवन दिन देखहि, कौन दिवस दहुँ चाल ।
दिसासूल चक जोगिनी सौंह न चलिए, काल ॥8॥

(तूरै=तोड़े, ऊभ=ऊँचा,उठा हुआ, बौंरि=लता, पौढ़ि=
लेट कर, तराहा=नीचे, सेवा जीता=सेवा में सबसे
जीती हुई अर्थात् बढ़कर रहे)

अदित सूक पच्छिउँ दिसि राहू । बीफै दखिन लंक-दिसि दाहू ॥
सोम सनीचर पुरुब न चालू । मंगल बुद्ध उतर दिसि कालू ॥
अवसि चला चाहै जौ कोई । ओषद कहौं, रोग नहिं होई ॥
मंगल चलत मेल मुख धनिया ।चलत सोम देखै दरपनिया ॥
सूकहिं चलत मेल मुख राई । बीफै चलै दखिन गुड़ खाई ॥
अदिति तँबोल मेलि मुख मंडै । बायबिरंग सनीचर खंडै ॥
बुद्धहिं दही चलहु कर भोजन । ओषध इहै, और नहिं खोजन ॥

अब सुनु चक्र जोगिनी, ते पुनि थिर न रहाहिं ।
तीसौं दिवस चंद्रमा आठो दिसा फिराहिं ॥9॥

(अदित=आदित्यवार, सूक=शुक्र, खंडै=चबाय)

बारह ओनइस चारि सताइस । जोगिनि परिच्छउँ दिसा गनाइस ॥
नौ सोरह चौबिस औ एका । दक्खिन पुरुष कोन तेइ टेका ॥
तीन इगारह छबिस अठारहु । जोगिनि दक्खिन दिसा बिचारहु ॥
दुइ पचीस सत्रह औ दसा । दक्खिन पछिउँ कोन बिच बसा ॥
तेरस तीस आठ पंद्रहा । जोगिनि उत्तर होहिं पुरुब सामुहा ॥
चौदह बाइस ओनतिस साता । जोगिनि उत्तर दिसि कहँ जाता ॥
बीस अठारह तेरह पाँचा । उत्तर पछिउँ कोन तेइ नाचा ॥

एकइस औ छ जोगिनि उतर पुरुब के कोन ।
यह गनि चक्र जोगिनि बाँचु जौ चह सिध होन ॥10॥

(दसा=दस, सामुहा=सामने, बाँचु=तू बच)

परिवा, नवमी पुरुब न भाए । दूइज दसमी उतर अदाए ॥
तीज एकादसि अगनिउ मारै । चौथि दुवादसि नैऋत वारे ॥
पाँचइँ तेरसि दखिन रमेसरी । छठि चौदसि पच्छिउँ परमेसरी ॥
सतमी पूनिउँ बायब आछी । अठइँ अमावस ईसन लाछी ॥
तिथि नछत्र पुनि बार कहीजै । सुदिन साथ प्रस्थान धरीजै ॥
सगुन दुघरिया लगन साधना । भद्रा औ दिकसूल बाँचना ॥
चक्र जोमिनी गनै जो जानै । पर बर जीति लच्छि घर आनै ॥

सुख समाधि आनंद घर कीन्ह पयाना पीउ ।
थरथराइ तन काँपै धरकि धरकि उठ जीउ ॥11॥

(न भाए=नहीं अच्छा है, अदाएँ=वाम,बुरा, अगनिउ=
आग्नेय दिशा, मारै=घातक है, वारै=बचावे, रमेसरी=
लक्ष्मी,परमेसरी देवी, बायब=वायव्य, ईसन=ईसान
कोण, लाछी=लक्ष्मी, सगुन दुघरिया=दुघरिया मुहूर्त्त
जो होरा के अनुसार निकाला जाता है और जिसमें
दिन का विचार नहीं किया जाता रात दिन को दो
दो घड़ियों में विभक्त करके राशि के अनुसार
शुभाशुभ का विचार किया जाता है)

मेष, सिंह धन पूरुब बसै । बिरखि, मकर कन्या जम-दिसै ॥
मिथुन तुला औ कुंभ पछाहाँ । करक, मीन, बिरछिक उतराहाँ ॥
गवन करै कहँ उगरै कोई । सनमुख सोम लाभ बहु होई ॥
दहिन चंद्रमा सुख सरबदा । बाएँ चंद त दुख आपदा ॥
अदित होइ उत्तर कहँ कालू । सोम काल बायब नहिं चालू ॥
भौम काल पच्छिउ, बुध निऋता । गुरु दक्खिन और सुक अगनइता ॥
पूरब काल सनीचर बसै । पीठि काल देइ चलै त हँसै ॥

धन नछत्र औ चंद्रमा औ तारा बल सोइ ।
समय एक दिन गवनै लछमी केतिक होइ ॥12॥

(बिरछिक=वृश्चिक राशि, उगरे=निकले, अगनइता=आग्नेय दिशा)

पहिले चाँद पुरुब दिसि तारा । दूजे बसै इसान विचारा ॥
तीजे उतर औ चौथे बायब । पचएँ पच्छिउँ दिसा गनाइब ॥
छठएँ नैऋत, दक्खिन सतए । बसै जाइ अगनिउँ सो अठएँ ॥
नवए चंद्र सो पृथिबी बासा । दसएँ चंद जो रहै अकासा ॥
ग्यरहें चंद पुरुब फिरि जाई । बहु कलेस सौं दिवस बिहाई ॥
असुनि, भरनि, रेवती भली । मृगसिर, मूल, पुनरबसु बली ॥
पुष्य, ज्येष्ठा, हरत, अनुराधा । जो सुख चाहै पूजै साधा ॥

तिथि, नछत्र और बार एक अस्ट सात खँड भाग ।
आदि अंत बुध सो एहि दुख सुख अंकम लाग ॥13॥

परवा, छट्ठि, एकादसि नंदा । दुइज, सत्तमी, द्वादसि मंदा ॥
तीज, अस्टमी, तेरसि जया । चौथि चतुरदसि नवमी खया ॥
पूरन पूनिउँ, दसमी, पाँचै । सुक्रै नंदै, बुध भए नाचै ॥
अदित सौं हस्त नखत सिधि लहिए । बीफै पुष्य स्रवन ससि कहिए ॥
भरनि रेवती बुध अनुराधा । भए अमावस रोहिनि साधा ॥
राहु चंद्र भू संपत्ति आए । चंद गहन तब लाग सजाए ॥
सनि रिकता कुज अज्ञा लोजै । सिद्धि-जोग गुरु परिवा कीजै ॥

छठे नछत्र होइ रवि, ओहि अमावस होइ ।
बीचहि परिबा जौ मिलै सुरुज-गहन तब होई ॥14॥

(नंदा=आनंददायिनी,शुभ, मंदा=अशुभ, जया=विजय
देनेवाली, खया=क्षय करने वाली, सनि रिकता=शनि
रिक्ता, शनिवार रिक्ता तिथि या खाली दिन)

`चलहु चलहु’ भा पिउ कर चालू । घरी न देख लेत जिउ कालू ॥
समदि लोग पुनि चढ़ी बिवाना । जेहि दिन डरी सो आइ तुलाना ॥
रोवहिं मात पिता औ भाई । कोउ न टेक जौ कंत चलाई ॥
रोवहिं सब नैहर सिंघला । लेइ बजाइ कै राजा चला ॥
तजा राज रावन, का केहू? । छाँडा लंक बिभीषन लेहु ॥
भरीं सखी सब भेंटत फेरा । अंत कंत सौं भएउ गुरेरा ॥
कोउ काहू कर नाहिं निआना । मया मोह बाँधा अरुझाना ॥

कंचन-कया सो रानी रहा न तोला माँसु ।
कंत कसौटी घालि कै चूरा गढ़ै कि हाँसु ॥15॥

(समदि=विदा के समय मिलकर (समदन=बिदाई; जैसे,
पितृ समदन अमावस्या), आइ तुलाना=आ पहुँचा, टेक=
पकड़ता है, का केहू=और कोई क्या है? गुरेरा=देखा-देखी,
साक्षात्कार)

जब पहुँचाइ फिरा सब कोऊ । चला साथ गुन अवगुन दोऊ ॥
औ सँग चला गवन सब साजा । उहै देइ अस पारे राजा ॥
डोली सहस चलीं सँग चेरी । सबै पदमिनी सिंघल केरी ॥
भले पटोर जराव सँवारे । लाख चारि एक भरे पेटारे ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । काढि भँडार दीन्ह रथ जोती ॥
परखि सो रतन पारखिन्ह कहा । एक अक दीप एक एक लहा ॥
सहसन पाँति तुरय कै चली । औ सौ पाँति हस्ति सिंघली ॥

लिखनी लागि जौ लेखै, कहै न परै जोरि ।
अब,खरब दस, नील, संख औ अरबुद पदुम करोरि ॥16॥

(एक एक दीप….लहा=एक एक रत्न का मोल
एक एक द्वीप था)

देखि दरब राजा गरबाना । दिस्टि माहँ कोई और न आना ॥
जौ मैं होहुँ समुद के पारा । को है मोहिं सरिस संसारा ॥
दरब ते गरब, लोभ बिष-मूरी । दत्त न रहै, सत्त होइ दूरी ॥
दत्त सत्त हैं दूनौं भाई । दत्त न रहै, सत्त पै जाई ॥
जहाँ लोभ तहँ पाप सँघाती । सँचि कै मरै आनि कै थाती ॥
सिद्ध जो दरब आगि कै थापा। कोई जार, जारि कोइ तापा ॥
काहू चाँद, काहु भा राहू । काहू अमृत, विष भा काहू ॥

तस भुलान मन राजा । लोभ पाप अँधकूप ।
आइ समुद्र ठाढ़ भा कै दानी कर रूप ॥17॥

(दत्त=दान, सत्त=सत्य, सँचि कै=संचित करके, सिद्ध
जो… थापा=जो सिद्ध हैं वे द्रव्य को अग्नि ठहराते हैं,
थापा=थापते हैं, ठहराते हैं, दानी=दान लेने वाला,
भिक्षुक, कै दानी कर रूप=मंगन का रूप धरकर)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

    View all posts
रत्नसेन-बिदाई-खंड-32 पद्मावत/जायसी

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

×