“ओह! यह क्या? मैं पारिजात समर्पित कर रही हूँ पर आपके शरीर पर ये तुलसी के पत्ते कहाँ से आ रहे हैं ? कहीं ये चाल रुक्मिणी की तो नहीं माधव”?
कन्हैया के अधरों की मुस्कान देख सत्याभामा झुंझला उठी । ।
“ न प्रिये न । तुम हमेशा रुक्मिणी को ही दोषी मानती हो । हाँ .माना कि एक बार उसने तुम्हारे अतुल ऐश्वर्य को धता बताकर मुझे एक पत्ते से तोल लिया था पर तुलसी से द्वेष कहाँ तक उचित है देवी ? जरा पार्थिव लोक पर भी एक दृष्टि डालो” ।
त्रिभंगी मुद्रा पर वक्र स्मित । सत्याभामा के भौंहों की प्रत्यंचा तन गई । नथुने फूल गए और तीर तरकश से निकलने वाला था कि दृष्टि नीचे मृत्यु लोक की ओर गई ।
संध्या समय वहाँ उपवन में बैठी मीरा आज अपना श्रृंगार कर रही थी । वृंदा के कोमल हरे नरम पत्ते तोड़ती उलट पुलट कर उन्हें देखती ,स्नेह से दुलारती और माला में पिरो पहन लेती अपने शरीर पर । कर्ण फूल कानों में ,एक माला गले में, एक कटि पर और एक पाँव में पायल बनाकर । उसकी पूरी काया तुलसी के पत्तों से ढंक चुकी थी । कभी उन्हें सहलाती ,कभी पुचकारती …और तो और उनसे बतिया भी रही थी ।
उसे देख सत्यभामा क्षण भर के लिए सन्न रह गई। पर अगले ही पल संभलकर बोली,
“ ये मूढ़ा तुलसी अपने ऊपर क्यों धारण कर रही है मुकुंद ? इसे क्या कहेंगे? मतिभ्रम ,बालपन या विक्षिप्तता की पराकाष्ठा? जो आप को समर्पित करना चाहिए ,उससे स्वयं को अलंकृत किया जा रहा है । आश्चर्य ।…वो पर्ण आप पर सज रहें है? क्या रहस्य है भक्त वत्सल?
“सत्य वचन सत्या । बताओ अभी तुमने क्या कहकर पुकारा ?”
“क्या …माधव?”
“न …न।कुछ और कहकर पुकारा था वल्ल्भे” ।
“ हाँ…’भक्त वत्सल’ ।वो तो मैं हमेशा कहती हूँ । इसमें नयी बात क्या?”
“ हाँ देवी । अब तक तुम कहती थी…आज उन शब्दों की सार्थकता भी तनिक जान लो । उस पगली की मनोदशा साधारण जन के लिए अज्ञेय है और इंद्रियातीत भी । पर तुम …तुम भी न जान सकी ? अब आश्चर्य करने की बारी मेरी हुई न देवी ? देखिए उसे …उस पगली को। उसने मुझे अपने से पृथक माना ही नहीं। वह मुझे अपनी हर साँस में हर अणु में अनुभूत कर रही है । अब वह मीरा कहाँ रही… वह तो स्वयं कृष्ण हो गई है । सोचिए… मैं उसका विश्वास भला कैसे तोड़ सकता हूँ । क्या इतना सामर्थ्य है मुझमें ?जब साधक साध्य से पृथक न रहकर एकाकार हो जाए, तो लौकिक शब्दों में उसे क्या कहेंगे,,,, पागलपन ही न ? रहस्य यह है देवी कि उस उन्मादी ने मुझे अपने वश में कर लिया है । और मैं …आज मैं हार गया..। दास को मूल्य चुकाना पड़ा – ‘आत्म समर्पण’ ।
विह्वल प्रभु के नयन मुंद गए ।
अवसर पा दो बूंदें पलकों से ढुलकीं और इससे पहले सत्यभामा उन्हें अपनी अंजुली में ले लेती, कपोलों से फिसलती वे प्रभु के पीतांबर पर गिर जंघा को भिगो गईं ।
सत्यभामा को जिसकी आशंका थी हुआ वही ।
भूलोक में ‘घनश्याम’ बरसे और मीरा आपादमस्तक अभिषिक्त हो गई ।
समाप्त