कुंडलिया दोहा और रोला के संयोग से बना छंद है। इस छंद के 6 चरण होते हैं तथा प्रत्येकचरण में 24 मात्राएँ होती है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि कुंडलिया के पहले दो चरण दोहा तथा शेष चार चरण रोला से बने होते है।
दोहा के प्रथम एवं तृतीय चरण में 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं।
रोला के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती है। यति 11वीं मात्रा तथा पादान्त पर होती है। कुंडलिया छंद में दूसरे चरण का उत्तरार्ध तीसरे चरण का पूर्वार्ध होता है।
कुंडलिया छंद का प्रारंभ जिस शब्द या शब्द-समूहसे होता है, छंद का अंत भी उसी शब्द या शब्द-समूह से होता है। रोला में 11वीं मात्रा लघु तथा उससे ठीक पहले गुरु होना आवश्यक है।
कुंडलिया छंद के रोला के अंत में दो गुरु, चार लघु, एक गुरु दो लघु अथवा दो लघु एक गुरु आना आवश्यक है।
कुण्डलिया छंद के उदाहरण –
रत्नाकर सबके लिए, होता एक समान ।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान ।।
सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता ।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता ।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर ।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर ।।
– त्रिलोक सिंह ठकुरेला
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तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़ ।
अगर मिले नेत्तृत्व तो, ताकत बनती भीड़ ।।
ताकत बनती भीड़, नये इतिहास रचाती ।
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती ।।
‘ठकुरेला’ कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका ।
रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका ।।
– त्रिलोक सिंह ठकुरेला
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धीरे धीरे समय ही, भर देता है घाव ।
मंजिल पर जा पंहुचती, डगमग होती नाव ।।
डगमग होती नाव, अंततः मिले किनारा ।
मन की मिटती पीर, टूटती तम की कारा ।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के बजें मजीरे ।
धीरज रखिये मीत, मिले सब धीरे धीरे ।।
– त्रिलोक सिंह ठकुरेला
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आजादी की आड़ में, नारी हुई असभ्य ।
रँगी पश्चिमी रंग में, खुद को समझे सभ्य ।।
खुद को समझे सभ्य, भूल बैठी मर्यादा ।
सभ्य जनों की सीख, न उसको भाती ज्यादा ।
कहे ‘साधना’ सत्य, कर रही खुद बर्बादी ।
विस्मित हैं सब लोग, भला ये क्या आजादी ।।
– साधना ठकुरेला
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पीड़ा दें संसार में, कुछ अपने ही कर्म ।
लेकिन जो अनभिज्ञ हैं, नहीं जानते मर्म ।।
नहीं जानते मर्म, दोष ईश्वर पर मढ़ते ।
कोसें अपना भाग्य, कहानी नित नव गढ़ते ।
कहे ‘साधना’ सत्य, सुखों की बाजे वीणा ।
करते रहो सुकर्म, हरे ईश्वर सब पीड़ा ।।
– साधना ठकुरेला