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एक पठनीय कृति : दर्पण समय का/राजेन्द्र वर्मा

  • राजेन्द्र वर्मा

‘दर्पण समय का’ चर्चित कवि, श्री हरीलाल मिलन का दोहा-संग्रह है। उनके दोहे समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं और दोहा-संकलनों में प्रकाशित होते रहे हैं और हिंदी काव्य-जगत से समादृत होते रहे हैं। उनके दोहों में जहाँ मानवता, देशभक्ति, नीति आदि पर्याप्त स्थान पाते रहे हैं, वहीं उनमें युग की पीड़ा का भी मार्मिक चित्रण हुआ है। भावानुरूप भाषा से, जिसमें करुणा, संवेदना और व्यंग्यादि का समुचित उपयोग है, अभिव्यक्ति प्रभावी हो गई है और दोहों की मारक क्षमता बढ़ गयी है। दोहों का शिल्प भी प्रायः पुष्ट है, जिससे उनके पाठ से वह तोष प्राप्त होता है जो किसी अच्छी कविता से मिलता है।

कविता के उत्स के बारे में सभी कवियों  ने अपने-अपने ढंग से कहा है, लेकिन क्रौंच-वध के निकली करुण वेदना को आदि कविता का स्रोत माना गया। इसकी अभिव्यक्ति भी अनेक प्रकार से की गई है। मिलन जी की दृष्टि देखिए—

रचा वेदना ने प्रथम, वाल्मीकि का श्लोक ।

कविता है संवेदना, कविता कवि का शोक ॥(पृ. 23)

दर्पण का स्वभाव है कि वह झूठ नहीं बोलता। जो जैसा होता है, वह वैसा ही दिखाता है, भले किसी को अच्छा लगे या बुरा। इस भाव की सुंदर अभिव्यक्ति इस दोहे में हुई है—

चाहे भाव-विभोर हों, चाहे जाएँ रूठ ।

दर्पण सच को सच कहे, कहे झूठ को झूठ ॥(पृ. 24)

आज समय ऐसा आया है कि धर्म अथवा धन के नाम पर आदमी और आदमी के बीच दूरी बढ़ती जा रहा है। अन्याय-शोषण और पाखंड थमने का नाम नहीं ले रहा। क्या गाँव, क्या नगर, हर जगह एक-सा माहौल है : ग़रीब आदमी का जीवन दुश्वार हो रहा है। देश में लोकतंत्र बस कहने को है, सामंतवाद और बाहुबल अभी भी सत्ता पर हावी है। लोकतंत्र की छाँव का लाभ आम आदमी तक नहीं पहुँच पा रहा है। ऐसे परिवेश को कोई संवेदनशील रचनाकार कैसे अनदेखा कर सकता है? मिलन जी ने कवि-धर्म का निर्वाह करते हुए सटीक अभिव्यंजना देने वाले दोहे कहे हैं जो पाठक को सोचने को विवश करते हैं।

 

 

 

साहित्य का कार्य ही मनुष्य चेतना को ऊँचा उठाना और उसकी संवेदना को जगाना और तीव्र करना होता है। इस लिहाज से दोहाकार को विशेष सफलता मिली है। सटीक कथ्य का कहन भी वैविध्यपूर्ण है— कहीं मर्म को छूती हुई अभिधा में कही गई बात है तो कहीं व्यंजना शैली में, लेकिन उसकी बिम्ब-योजना ऐसी है कि अभिव्यक्ति प्रभावी बन गई है। युग की विडम्बना को दर्शाते और पाठक के मानस को झंकृत करने वाले कुछ दोहे देखिए—

 

बाग़ अभागा क्या करे, होने लगा अधर्म ।

कलियाँ तक बचती नहीं, मौसम है बेशर्म ॥(पृ. 25)

 

प्रेम-आस्था- त्याग, सब, हुए स्वार्थ में खर्च ।

लड़ने को बस रह गए, मंदिर-मसजिद चर्च ॥(पृ. 41)

 

जीवन-भर फाँका हुआ, चुभे सैकड़ों शूल ।

उसकी अर्थी पर चढ़े, आज हज़ारों फूल ॥(पृ. 33)

 

ये बेचारी झुग्गियाँ, क्या जाने जनतंत्र ।

सुबह-शाम दुहरा रहीं, रोटी के गुरु-मंत्र ॥ (पृ. 34)

 

जोत लिया चकरोड तक, छीन लिया खलिहान ।

ज़मींदार की रूह में, जीवित रहा प्रधान ॥(पृ. 34)

 

जब तक जीवन है, तब तक जीवन-संघर्ष है। लेकिन यह संघर्ष तब और बढ़ जाता है जब सागर को पार करने के लिए कागज़ की नौका और दफ़्ती की पतवार हो। प्रतीकों में दोहाकार द्वारा अपनी बात कहने ढंग बहुत मार्मिक है—

 

काग़ज़ की नौका मिली, दफ़्ती की पतवार ।

जाना है तूफ़ान में, व्यथा-सिंधु के पार ॥ (पृ. 43)

शृंगार रस का काव्य में विशेष महत्त्व है। जीवन में प्रेम ऐसा तत्त्व है जो अनिवार्य है ही, उससे कोई बच भी नहीं सकता, बस आवश्यकता है उसके मर्यादित आचरण की, दृष्टि की पावनता की, पारस्परिक प्रेम-भावना के रक्षा की। इन सब भावों को समेटते कुछ दोहों पर नज़र डालिए। इन दोहों से गुज़रने पर किसी के भी हृदय में प्रेम की हिलोर उठने लगेगी—

उमड़े बादल देखकर, नाच उठा मन-मोर ।

आया तेरी ओर से, सावन मेरी ओर ॥   (पृ. 46)

 

दर्पण के आगे खड़ी, वह थी भाव-विभोर ।

दृष्टि अचानक झुक गई, पीछे था चितचोर ॥(पृ. 58)

 

कर न सकेंगी बिजलियाँ, कोई घर बरबाद ।

मुझ जैसे छत हो अगर, तुझ जैसी बुनियाद ॥(पृ. 57)

 

सरस सुवासित शीत में, सुखद भोर-सा रूप ।

ढूँढ़ रही है प्रिय तुम्हें, वही गुनगुनी धूप ॥(पृ. 58)

 

प्रेम का स्थान व्यक्तिगत जीवन में ऊँचा है, तो पारिवारिक और सामाजिक जीवन में उससे भी ऊँचा, क्योंकि उसमें बलिदान की भी आवश्यकता होती है। एक-दूसरे की भावनाओं को समझने के साथ-साथ पारस्परिक निर्वाह के लिए औदार्य, क्षमा आदि गुणों को जीवन में उतारना पड़ता है। संसार में सौंदर्य की पहचान ही मनुष्यों के आपसी प्रेम पर आधारित है, वे चाहे नर-नारी के रूप में हों, या कौटुम्बिक रिश्तों में माता-पिता, पुत्र-पुत्री आदि कुछ भी हों— सभी की अपनी-अपनी भूमिका निभानी पड़ती है। इन भावों को दोहों में कवि ने कैसे उतारा है, तीन दोहों में देखिए—

 

नारी नर की सहचरी, नारी नर का प्यार ।

दोनों ने मिलकर रचा, यह सुंदर संसार ॥(पृ. 80)

माँ धरती, अम्बर पिता, जीवन का आधार ।

इनसे ही है ज़िंदगी, इनसे ही संसार ॥   (पृ. 80)     

 

श्रवण सदृश माँ-बाप की, सेवा ही है धर्म ।

पत्नी का निर्वाह भी, पति का पावन कर्म ॥(पृ. 80)

 

कुटुम्ब का जब विस्तार होता है, स्वजनों से परिजनों तक, परिजनों से पुरजनों तक और पुरजनों से संपूर्ण राज्य और विश्व के नागरिकों तक, तब न कोई अपना रह जाता है और न पराया। फिर तो सारी दुनिया ही अपना परिवार हो जाता है। भारत में ऐसे वृहद परिवार की कल्पना बहुत पहले ही की गई है जिसे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहा गया है। दोहाकार ने इसे एक दोहे में देखिए, कैसे ढाल दिया है—

 

है ‘वसुधैव कुटुंबकं, जीने का आधार ।

भारत ने माना सदा, विश्व एक परिवार ॥(पृ. 107)

 

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि परिवार के साथ कोई छेड़छड़ करे। हम दुनिया के साथ ज़रूर हैं, लेकिन हमारा अपना अस्तित्त्व भी है। हमारी अस्मिता है। उसकी रक्षा करना भी हमारा ही धर्म है। पड़ोसी देश की नज़रें जब टेढ़ी हों, तो हमें भी यथोचित उत्तर देना पड़ता है। ऐसे में कवि कह उठता है—

सदा रहेगा देश के, नक़्शे में कश्मीर ।

बदल नहीं सकती ‘मिलन’, भारत की तस्वीर॥

(पृ. 107)

अपना देश विविधताओं से भरा है। यहाँ कई धर्मों के लोग रहते हैं और सभी के धार्मिक स्थलों, प्रतीकों आदि का मान-सम्मान है। इसकी प्रेरणा हमें भारतीय संविधान से मिलती है। लेकिन इधर कुछ शक्तियाँ इस वैविध्य को तोड़ने में लगी हैं। कवि की नज़र उन पर है। वह स्पष्ट शब्दों में कहता है—

 

मंदिर का भी मान है, मसजिद का भी मान ।

कितना प्यारा देश है, अपना हिंदुस्तान ॥(पृ. 108)

 

एक रहेगी भावना, एक रहेंगे पंथ ।

संविधान को हम अगर, मानें पावन ग्रंथ ॥(पृ. 108)

 

देश को एक सूत्र में बाँधने का काम संविधान ने किया है, लेकिन इसका प्रामाणिक पाठ अंग्रेज़ी ही है। यों इसमें हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रावधान है, लेकिन वह भी खटाई में पड़ा है। भाषा के मामले में हिंदी की भूमिका सर्वविदित है, वह चाहे आज़ादी की लड़ाई का मामला हो, या सामाजिक काम-काज की। राजनीति, साहित्य, पर्यटन, खेल आदि सभी क्षेत्रों के व्यवहार में हिदी का प्रचलन है, फिर भी अंग्रेज़ी आज भी न्यायालय, और केंद्र सरकार की भाषा बनी हुई है। वास्तव में यह प्रभु वर्ग की भाषा है जिसका वर्चस्व टूटने को नहीं आता। दोहाकार ने इस संबंध में सटीक अभिव्यक्ति की है—

 

हिंदी से इस देश को, मिले विजय के फूल ।

बदले में उसको मिले, अंग्रेज़ी के शूल ॥  (पृ. 67)

 

भाषा की अभिधा शक्ति की जो सादगी है, वह उद्बोधनात्मक कविता को संप्रेषित करने के लिए बहुत उपयोगी है। इस कारण कविता अधिकाधिक लोगों तक पहुँचती है और स्मृति में भी बनी रहती है। अभिव्यक्ति की यह प्रविधि सभी कवियों को अपनी ओर खींचती है। दोहाकार ने भी इसका लाभ उठाया है। उसके कुछ प्रबोध देने वाले दोहे देखिए—

 

स्वार्थ-सिद्धि में दोस्तो, मत बेचो ईमान ।

बन न सको भगवान तो, बने रहो इनसान ॥(पृ. 110)

 

शक, शंका, संदेह से, उजड़ गए घरबार ।

अनायास ही छिन गया, मन से मन का प्यार ॥

                                  (पृ. 110)

गीत-ग़ज़ल-कविता रचें, कहें कथाएँ नित्य ।

मानव-समय-समाज को, बदलेगा साहित्य ॥(पृ. 111)

 

कवि अपने समय को लिखता है। जब कोई आपदा आती है तो उससे जीवन प्रभावित होता ही है। कवि संवेदनशील होने के नाते एक सामान्य व्यक्ति से अधिक व्यथित होता है, फिर वह अपनी व्यथा को कैसे न व्यक्त करे? विगत दो वर्षों में ‘कोरोना काल’ ने कवियों ने ख़ूब रचनाएँ करवाई हैं, लेकिन वे या तो पद्य हैं, या सपाटबयानी। अधिकांश रचनाएँ साहित्य की श्रेणी में नहीं आतीं। मिलन जी ने इस पर अच्छे दोहे लिखे है। नमूने के तौर पर दो दोहे देखिए जिनका फलक बहुत व्यापक है—

 

ये विषाणु हैं मौत के, नहीं जानते प्यार ।

निकल पड़े हैं विश्व में, करने नर-संहार ॥(पृ. 115)

 

कैसी-कैसी आपदा, कैसी-कैसी शाम ।

मौत नाचती फिर रही, सदी हुई बदनाम ॥(पृ. 122)

 

कविता में यद्यपि कथ्य ही प्रमुख होता है, परंतु जब शिल्प भी सधा रहता है, तो ही वह कविता पुष्ट होती है। दोहा के साथ भी यही बात है। इसकी रचना देखने में आसान लगती है, लेकिन यह बहुत साधना माँगती है। एक अच्छे और दोषरहित दोहे के लिए, चार चरणों में विभक्त मात्रिक विधान, लय, तुकांत, कथ्य का औचित्य और भावों का उचित संयोजन तथा भावानुरूप भाषा और उसकी तरलता की आवश्यकता होती है। मिलन जी साधक रचनाकार हैं, उन्हें अच्छे दोहे रचने में सफलता भी मिली है, परंतु कहीं-कहीं उनसे भी चूक हो गई है। एकाध स्थलों पर शिल्प के साथ समझौता करने की विवशता भी दिखती है। यदि ऐसा न किया जाता तो दोहे के कथ्य का प्रभाव कम हो जाता। सौंदर्य केवल शिल्प का ही नहीं होता। वह तो कला की बात है, प्रमुख बात तो कथ्य की है, इसलिए कथ्य के सौंदर्य को भी ध्यान में रखना होगा।

निम्नलिखित दोहे, जो शीर्षक दोहा भी है, के पहले चरण के अंत में ‘यगण’ (ISS) आ गया है। इससे लय बाधित हो गई है—

 

दोहा दर्पण समय का, सुंदर स्वच्छ चरित्र ।

जो जैसा है सामने, उसे दिखाए चित्र ॥  (पृ. 24)

 

इसी प्रकार, निम्नलिखित दोहे के पहले चरण में ‘यगण’ आया ही है, उसका तुकांत भी त्रुटिपूर्ण है। ‘फरियाद’ का तुकांत ‘याद’ कैसे हो सकता है?  

 

मिल मालिक ने कुचल दी, श्रमिकों की फरियाद ।

ईस्ट इंडिया कंपनी, आई फिर से याद ॥ (पृ. 29)

 

निम्नलिखित दोहे के तुकांत में अनुस्वार के आने से स्वर में भिन्नता आ गई है। इसके अलावा, ‘फिर’ शब्द भी भरती का है—

 

सँजो रही है प्यार से, वह भट्टे की राख ।

टिकी हुई है देह पर, फिर मुनीम की आँख ॥(पृ. 36)

 

तुकांत के मामले में अक्सर दोहाकार ‘स’ अक्षर से समाप्त होनेवाले शब्द का तुकांत ‘श’ या ‘ष’ अक्षर से समाप्त होनेवाले शब्द से, अथवा इसका उलटा कर देते हैं। इसी प्रकार, न/ण या इसका उलटा प्रयोग है। परिणामतः तुकांत त्रुटिपूर्ण हो जाते हैं। तुकांत का पहला और मूलभूत सिद्धांत है कि स्वर में किसी प्रकार का बदलाव न हो। नीचे लिखे दो दोहे देखिए जिनमें तुकांत की इसी प्रकार की ग़लतियाँ हैं। दोनों ही अच्छे दोहे हैं, लेकिन साहित्यिक दृष्टि से उद्धरण के योग्य नहीं रह गए—

 

हरी दूब की देह पर, मोती जैसी ओस ।

भरने आती धूप नित, अपना ख़ाली कोष ॥(पृ. 63)

 

दवा-दुवाएँ क्या करें, जब मुमूर्ष इनसान ।

अपनों को कर संक्रमित, स्वयं ले रहा प्राण ॥(पृ. 117)

 

निम्नलिखित दोहों में उपमान त्रुटिपूर्ण हैं। पहले में वे उलट गए हैं— फूल, सुख का प्रतीक है और शूल  दुख का, परंतु दोहे में इसका उलटा दिखाया गया है। दूसरे दोहे में ‘बेटा-बेटी’ के लिए तीन उपमान-युग्मों का प्रयोग किया गया है— कोंपल-कुसुम, सूर्य-चंद्र और चाँदनी-धूप। इसमें पहले और तीसरे उपमान-युग्म स्त्रीलिंग हैं और दूसरा पुल्लिंग है, जबकि ज़रूरत थी क्रमश: पुल्लिंग-स्त्रीलिंग की। इस कारण दोहे का अलंकार नष्ट हो गया है—

 

दोनों के अस्तित्त्व से, निर्मित होते मूल ।

सुख गुलाब के शूल हैं, दुख गुलाब के फूल ॥(पृ. 46)

 

कोंपल-कुसुम समान हैं, सूर्य-चंद्र के रूप ।

बेटा-बेटी एक है, यथा चाँदनी धूप ॥    (पृ. 79)

 

निम्नलिखित दोहों में औचित्य-दोष है। पहले दोहे में खराब बिस्तर के कारण सपनों के कुरूप होने की  बात कही गई है, जो अस्वाभाविक है। सपनों का संबंध नींद से होता है। यों बिस्तर का नींद से संबंध है; बिस्तर अच्छा हो तो नींद अच्छी आती है, पर नींद तो बिना अच्छे बिस्तर के भी आती है। कहावत भी है : नींद न जाने टूटी खाट। दोहे के अगले चरण : लुटी-लुटी-सी चाँदनी, बिकी-बिकी-सी धूप, पूर्व कथन से संबद्ध नहीं होते। इसी प्रकार, दूसरे दोहे में न्याय मिलने में देरी को दर्शाया गया है। आरोप तो ठीक है कि न्यायाधीश बदल जाते हैं और मुकदमे अनसुने ही रह जाते हैं, न्याय नहीं मिल पाता। दोहे में गड़बड़ी ‘तफ़्तीश’ को लेकर है। जब न्यायालय में मुकदमा आ जाता है तो तफ़्तीश पूरी होने के बाद ही आता है। न्यायालय द्वारा तफ़्तीश नहीं कराई जाती, साक्ष्य लिए जाते हैं, बहस होती है, तफ़्तीश पुलिस आदि द्वारा पहले ही कर ली जाती है। तफ़्तीश सही हुई है या नहीं, इस पर न्यायालय को ज़रूर विचार करना होता है, पर ऐसा तथ्य दोहे में आरोपित नहीं है—

 

युग ने यों बिस्तर दिए, सपने हुए कुरूप ।

लुटी-लुटी-सी चाँदनी, बिकी-बिकी-सी धूप ॥(पृ. 53)

 

दस वर्षों के बाद भी, हुई नहीं तफ़्तीश ।

समय बदलता रह गया, केवल न्यायाधीश ॥     (पृ. 83) न्यायालय का कार्य तफ़्तीश?

 

लेकिन ये ऐसी त्रुटियाँ हैं कि प्रायः सभी कवियों से हो जाया करती हैं। किसी पुस्तक का मूल्यांकन उसकी समग्रता में होना चाहिए। इस लिहाज से कवि ने अच्छे दोहे रचे हैं। दोहों की उनकी लम्बे समय की साधना यहाँ सहज द्रष्टव्य है। दोहाकार का मानना है, जो काफी हद तक सही भी है, दोहे का जैसा रूप तद्भव और देशज शब्दों में निखरता है, वह तत्सम में नहीं। ऐसे दोहे साधारण से असाधारण पाठक या श्रोता तक सीधे पहुँच जाते है। कृति के दोहे इसी शैल्पिक धारणा से उपजे हैं, लेकिन जो महत्त्व की बात है वह यह कि क्रिया पदों में देशज बोली के शब्द जैसे— आय/जाय/खाय/पाय नहीं आए हैं।  संग्रह के दोहों की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें मात्राओं का पतन नहीं हुआ है। इस कारण दोहों की उस लय का पालन हुआ है जो दोहों को उनके भेद के अनुसार लघु और गुरु के मात्रिक गणना में सहायक होती है, यथा— ‘भ्रमर, भ्रामर, नर, वानर, हंस, गयंद’ आदिक मात्रिक विधान के दोहे।

ंग्रह का रंगीन आवरण आकर्षक है, छपाई सुंदर है। इस कारण संग्रह के पाठ में रुचि उत्पन्न होती है। पुस्तक का मूल्य अधिक लगता है, पर आजकल किताबों का मूल्य रखे जाने का प्रचलन है, यह उसके अनुरूप ही कहा जाएगा। वस्तु और प्रस्तुति, दोनों ही दृष्टियों से यह एक सफल दोहा कृति है और काव्य-जगत में समादृत होने योग्य है।

  • 3/29, विकास नगर, लखनऊ
  • -226 022 (मो
  • . 80096 60096)

 

पुस्तक विवरण
पुस्तक का नाम दर्पण समय का (दोहा संग्रह)
दोहाकार हरीलाल ‘मिलन’ (मो.99352-99939)
प्रकाशक भावना प्रकाशन,

109-ए, पटपड़गंज गाँव, दिल्ली- 110091

(मो.88001-39684, 93128-69947

पृष्ठ 136
मूल्य (सजिल्द) रु.350/-

लेखक

  • राजेन्द्र वर्मा जन्म-8 नवम्बर 1957, बाराबंकी (उ.प्र.) के एक गाँव में। प्रकाशन पाँच ग़ज़ल संग्रह, तीन गीत/नवगीत-संग्रह, दो दोहा-संग्रह, दो हाइकु-संग्रह, ताँका, पद, और छह व्यंग्य-संग्रह, निबंध, उपन्यास, कहानी, आलोचना, काव्य-शास्त्र विधाओं में दो दर्ज़न से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। महत्वपूर्ण संकलनों में सम्मिलित। संपादन हिंदी ग़ज़ल के हज़ार शेर, गीत-शती, गीत-गुंजन तथा साहित्यिक पत्रिका अविरल मंथन (1996-2003) पुरस्कार-सम्मान उ.प्र.हिन्दी संस्थान के श्रीनारायण चतुर्वेदी और महावीरप्रसाद द्विवेदी नामित पुरस्कारों सहित देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित। अन्य लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा रचनाकार पर एम्-फिल.। अनेक शोधग्रन्थों में संदर्भित। चुनी हुई कविताओं का अँगरेज़ी में अनुवाद। एक निबंध पाठ्यक्रम में सम्मिलित। सम्पर्क 3/29 विकास नगर, लखनऊ 226 022 (मो. 80096 60096)

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