गुरदीप और उसकी पत्नी जीतो आधे घंटे से बस अड्डे पर गांव डिंडोर जाने के लिए तेज धूप में खड़े थे। जीतो याद करती है कि करीब पन्द्रह साल पहले जब वह इस गांव में शादी के बाद आई थी तब इस बस अड्डे पर बहुत सारे पेड़ लगे हुए थे और जीतो अपने मायके जाने के लिए उन्हीं पेड़ों की छाया में बस का इंतजार करती थी। गांव का बूढ़ा बाबा जरनैल सिंह वहां बस अड्डे पर लगे पीपल के पेड़ के नीचे रोज शाम को 10-12 घड़ों में साथ वाले सरकारी स्कूल से पानी भरकर रख देता था और फिर उन घड़ों के ऊपर गीली बोरी डाल देता था ताकि मुसाफिरों को आते जाते तपती गर्मी में ठंडा पानी पीने को मिल सके। समय-समय की बात है, अब ना वहां पेड़ रहे और ना ठंडी छाया और ना ही रहे भीगी बोरियों वाले रखे हुए घड़े। पेड़ों की जगह अब कोल्ड ड्रिंक और कुल्फी वाली दुकान बन चुकी थी जिससे गर्मी दे कारण लोग पानी खरीदकर पीने को मजबूर हो गए थे। कहते हैं कि अच्छे लोगों की परमात्मा को भी जरूरत होती है इसलिए एक दिन बाबा जनरल जब रोजाना की तरह पानी के घड़े को आधी-आधी बाल्टी नलके से भर के सारे खड़े धोकर भर ही रहे थे कि तेज रफ्तार से आते हुए ट्रक ने बाबा की सांस बंद कर दी। लगभग सारा गांव बाबा जनरल की अंतिम अरदास पर इकट्ठा हुआ जब बीबी जीतो व उसका पति अंतिम अरदास से वापस घर की तरफ मुड़े तब जीतो रास्ते में पीपल के पेड़ के नीचे पड़े खाली एवं सूखे घड़ों की तरफ देखती हुई अपने पति को कहती है कि,”आज बाबा जनरल का लड़का ही नहीं बल्कि यह घड़े भी लावारिस हो गए हैं।”
अनुवाद-लेखिका द्वारा स्वयं