किसी रात
जब नींद भटकने लगती है
अनिद्रा के जंगल में
आंखों से कोसों दूर
अंधेरी घनी रात में
टिमटिमाते जगनुओं की जलती बुझती रोशनी के साथ
उस रात
उभरते हैं अतीत के दुःख –सुख
कई किस्से बचपन के
कुछ धुंधले चेहरे कुछ काली परछाइयां
परीक्षा का कोई कठिन सवाल
जिसका उत्तर अब पता हो
आम की बगिया पुराना पाहीघर
पुराना चोट जिसका अब भी बचा हो निशान
कई अधूरे दिन
तमाम किस्से कहानियों भरी छत पर बिताई रात
दीदी द्वारा सिखाए पहाड़े
भूले तो नहीं
दोहरा लूं 19का पहाड़ा ,
मम्मी ने परोस दिया खाना
दाल –भात ,चटनी ,अचार
जिह्वा चख लेती है
अतीत की थाली से वही पुराना स्वाद
इन सब के बीच आता है एक इतवार
अरे –अरे
छीन के जा रहा
पिता की छांव ..
आंसू भरे आंखों से सब धुंधला हो गया
पलकें झपकी और सवेरा हो गया
नींद !
तुम कल रात कहीं न जाना
तुम्हारे न आने से अतीत का दुःख गहरा हो गया …
भटकती नींद/कविता/पल्लवी पाण्डेय