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प्रसाद/कहानी/जयशंकर प्रसाद

मधुप अभी किसलय-शय्या पर, मकरन्द-मदिरा पान किये सो रहे थे। सुन्दरी के मुख-मण्डल पर प्रस्वेद बिन्दु के समान फूलों के ओस अभी सूखने न पाये थे। अरुण की स्वर्ण-किरणों ने उन्हें गरमी न पहुँचायी थी। फूल कुछ खिल चुके थे! परन्तु थे अर्ध-विकसित। ऐसे सौरभपूर्ण सुमन सवेरे ही जाकर उपवन से चुन लिये थे। पर्ण-पुट का उन्हें पवित्र वेष्ठन देकर अञ्चल में छिपाये हुए सरला देव-मन्दिर में पहुँची। घण्टा अपने दम्भ का घोर नाद कर रहा था। चन्दन और केसर की चहल-पहल हो रही थी। अगुरु-धूप-गन्ध से तोरण और प्राचीर परिपूर्ण था। स्थान-स्थान पर स्वर्ण-शृंगार और रजत के नैवेद्य-पात्र, बड़ी-बड़ी आरतियाँ, फूल-चंगेर सजाये हुए धरे थे। देव-प्रतिमा रत्न-आभूषणों से लदी हुई थी।
सरला ने भीड़ में घुस कर उसका दर्शन किया और देखा कि वहाँ मल्लिका की माला, पारिजात के हार, मालती की मालिका, और भी अनेक प्रकार के सौरभित सुमन देव-प्रतिमा के पदतल में विकीर्ण हैं। शतदल लोट रहे हैं और कला की अभिव्यक्तिपूर्ण देव-प्रतिमा के ओष्ठाधार में रत्न की ज्योति के साथ बिजली-सी मुसक्यान-रेखा खेल रही थी, जैसे उन फूलों का उपहास कर रही हो। सरला को यही विदित हुआ कि फूलों की यहाँ गिनती नहीं, पूछ नहीं। सरला अपने पाणि-पल्लव में पर्णपुट लिये कोने में खड़ी हो गयी।
भक्तवृन्द अपने नैवेद्य, उपहार देवता को अर्पण करते थे, रत्न-खण्ड, स्वर्ण-मुद्राएँ देवता के चरणों में गिरती थीं। पुजारी भक्तों को फल-फूलों का प्रसाद देते थे। वे प्रसन्न होकर जाते थे। सरला से न रहा गया। उसने अपने अर्ध-विकसित फूलों का पर्ण-पुट खोला भी नहीं। बड़ी लज्जा से, जिसमें कोई देखे नहीं, ज्यों-का-त्यों, फेंक दिया; परन्तु वह गिरा ठीक देवता के चरणों पर। पुजारी ने सब की आँख बचा कर रख लिया। सरला फिर कोने में जाकर खड़ी हो गयी। देर तक दर्शकों का आना, दर्शन करना, घण्टे का बजाना, फूलों का रौंद, चन्दन-केसर की कीच और रत्न-स्वर्ण की क्रीड़ा होती रही। सरला चुपचाप खड़ी देखती रही।
शयन आरती का समय हुआ। दर्शक बाहर हो गये। रत्न-जटित स्वर्ण आरती लेकर पुजारी ने आरती आरम्भ करने के पहले देव-प्रतिमा के पास के फूल हटाये। रत्न-आभूषण उतारे, उपहार के स्वर्ण-रत्न बटोरे। मूर्ति नग्न और विरल-शृंगार थी। अकस्मात् पुजारी का ध्यान उस पर्ण-पुट की ओर गया। उसने खोल कर उन थोड़े-से अर्ध-विकसित कुसुमों को, जो अवहेलना से सूखा ही चाहते थे, भगवान् के नग्न शरीर पर यथावकाश सजा दिया। कई जन्म का अतृत्प शिल्पी ही जैसे पुजारी होकर आया है। मूर्ति की पूर्णता का उद्योग कर रहा है। शिल्पी की शेष कला की पूर्ति हो गयी। पुजारी विशेष भावापन्न होकर आरती करने लगा। सरला को देखकर भी किसी ने न देखा, न पूछा कि ‘तुम इस समय मन्दिर में क्यों हो?’
आरती हो रही थी, बाहर का घण्टा बज रहा था। सरला मन में सोच रही थी, मैं दो-चार फूल-पत्ते ही लेकर आयी। परन्तु चढ़ाने का, अर्पण करने का हृदय में गौरव था। दान की सो भी किसे! भगवान को! मन में उत्साह था। परन्तु हाय! ‘प्रसाद’ की आशा ने, शुभ कामना के बदले की लिप्सा ने मुझे छोटा बनाकर अभी तक रोक रक्खा। सब दर्शक चले गये, मैं खड़ी हूँ, किस लिए। अपने उन्हीं अर्पण किये हुए दो-चार फूल लौटा लेने के लिए, ‘‘तो चलूँ।’’
अकस्मात् आरती बन्द हुई। सरला ने जाने के लिए आशा का उत्सर्ग करके एक बार देव-प्रतिमा की ओर देखा। देखा कि उसके फूल भगवान के अंग पर सुशोभित हैं। वह ठिठक गयी। पुजारी ने सहसा घूम कर देखा और कहा,-‘‘अरे तुम! अभी यहीं हो, तुम्हें प्रसाद नहीं मिला, लो।’’ जान में या अनजान में, पुजारी ने भगवान् की एकावली सरला के नत गले में डाल दी! प्रतिमा प्रसन्न होकर हँस पड़ी।

लेखक

  • प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1890 को काशी में हुआ था। वह संपन्न व्यापारिक घराने के थे और उनका परिवार संपन्नता में केवल काशी नरेश से ही पीछे था। पिता और बड़े भाई की असामयिक मृत्यु के कारण उन्हें आठवीं कक्षा में ही विद्यालय छोड़कर व्यवसाय में उतरना पड़ा। उनकी ज्ञान वृद्धि फिर स्वाध्याय से हुई। उन्होंने घर पर रहकर ही हिंदी, संस्कृत एवं फ़ारसी भाषा एवं साहित्य का अध्ययन किया, साथ ही वैदिक वांग्मय और भारतीय दर्शन का भी ज्ञान अर्जित किया। वह बचपन से ही प्रतिभा-संपन्न थे। आठ-नौ वर्ष की आयु में अमरकोश और लघु कौमुदी कंठस्थ कर लिया था जबकि ‘कलाधर’ उपनाम से कवित्त और सवैये भी लिखने लगे थे। जयशंकर प्रसाद की कविताओं में छायावादी काव्य का वैभव अपनी क्लासिक पूर्णता के साथ प्रकट होता है और उनका सौंदर्य-बोध इस बात की पुष्टि करता नज़र आता है कि छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है। सौंदर्य दर्शन और शृंगारिकता, स्वानुभूति, जड़ चेतन संबंध और आध्यात्मिक दर्शन, नारी की महत्ता, मानवीयता, प्राकृतिक अवयव, चित्रात्मकता आदि उनकी प्रमुख काव्य-प्रवृत्तियाँ हैं। उनकी भाषा तत्समपरक और संस्कृतनिष्ठ है। वैयक्तिकता, भावात्मकता, संगीतात्मकता, कोमलता, ध्वन्यात्मकता, नाद-सौंदर्य जैसे गीति शैली के सभी तत्त्व उनके काव्य में मौजूद हैं। उन्होंने प्रबंध और मुक्तक दोनों शैलियों का प्रयोग किया है जबकि शब्दों का अधिकाधिक मात्रा में लाक्षणिक प्रयोग, सूक्ष्म प्रतीक योजना, ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग, सतर्क शब्द चयन, वर्णप्रियता, प्रकृति का सूक्ष्मातिसूक्ष्म निरीक्षण, अमूर्त उपमान योजना उनके द्वारा किए गए नए प्रयोग थे। ‘उर्वशी’, ‘झरना’, ‘चित्राधार’, ‘आँसू’, ‘लहर’, ‘कानन-कुसुम’, ‘करुणालय’, ‘प्रेम पथिक’, ‘महाराणा का महत्त्व’, ‘कामायनी’, ‘वन मिलन’ उनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ हैं। ‘कामायनी’ उनकी विशिष्ट रचना है जिसे मुक्तिबोध ने विराट फ़ैंटेसी के रूप में देखा है और नामवर सिंह ने इसे आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य कहा है। कविताओं के अलावे उन्होंने गद्य में भी विपुल मौलिक योगदान किया है। ‘कामना’, विशाख, एक घूँट, अजातशत्रु, जनमेजय का नाग-यज्ञ, राज्यश्री, स्कंदगुप्त, सज्जन, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, कल्याणी, प्रायश्चित उनके नाटक हैं, जबकि कहानियों का संकलन छाया, आँधी, प्रतिध्वनि, इंद्रजाल, आकाशदीप में हुआ है। कंकाल, तितली और इरावती उनके उपन्यास हैं और ‘काव्य और कला तथा अन्य निबंध’ उनका निबंध-संग्रह है। जयशंकर प्रसाद को ‘कामायिनी’ के लिए मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।

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