+91-9997111311,    support@sahityaratan.com

गूदड़ साईं/कहानी/जयशंकर प्रसाद

”साईं! ओ साईं!!” एक लड़के ने पुकारा। साईं घूम पड़ा। उसने देखा कि एक 8 वर्ष का बालक उसे पुकार रहा है।
आज कई दिन पर उस मुहल्ले में साईं दिखलाई पड़ा है। साईं वैरागी था,-माया नहीं, मोह नहीं। परन्तु कुछ दिनों से उसकी आदत पड़ गयी थी कि दोपहर को मोहन के घर जाना, अपने दो-तीन गन्दे गूदड़ यत्न से रख कर उन्हीं पर बैठ जाता और मोहन से बातें करता। जब कभी मोहन उसे गरीब और भिखमंगा जानकर माँ से अभिमान करके पिता की नजर बचाकर कुछ साग-रोटी लाकर दे देता, तब उस साईं के मुख पर पवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता। गूदड़ साईं उस समय 10 बरस के बालक के समान अभिमान, सराहना और उलाहना के आदान-प्रदान के बाद उसे बड़े चाव से खा लेता; मोहन की दी हुई एक रोटी उसकी अक्षय-तृप्ति का कारण होती।
एक दिन मोहन के पिता ने देख लिया। वह बहुत बिगड़े। वह थे कट्टर आर्यसमाजी, ‘ढोंगी फकीरों पर उनकी साधारण और स्वाभाविक चिढ़ थी।’ मोहन को डाँटा कि वह इन लोगों के साथ बातें न किया करे। साईं हँस पड़ा, चला गया।
उसके बाद आज कई दिन पर साईं आया और वह जान-बूझकर उस बालक के मकान की ओर नहीं गया; परन्तु पढक़र लौटते हुए मोहन ने उसे देखकर पुकारा और वह लौट भी आया।
”मोहन!”
”तुम आजकल आते नहीं?”
”तुम्हारे बाबा बिगड़ते थे।”
”नहीं, तुम रोटी ले जाया करो।”
”भूख नहीं लगती।”
”अच्छा, कल जरूर आना; भूलना मत!”
इतने में एक दूसरा लडक़ा साईं का गूदड़ खींचकर भागा। गूदड़ लेने के लिए साईं उस लड़के के पीछे दौड़ा। मोहन खड़ा देखता रहा, साईं आँखों से ओझल हो गया।
चौराहे तक दौड़ते-दौड़ते साईं को ठोकर लगी, वह गिर पड़ा। सिर से खून बहने लगा। खिझाने के लिए जो लडक़ा उसका गूदड़ लेकर भागा था, वह डर से ठिठका रहा। दूसरी ओर से मोहन के पिता ने उसे पकड़ लिया, दूसरे हाथ से साईं को पकड़ कर उठाया। नटखट लड़के के सर पर चपत पड़ने लगी; साईं उठकर खड़ा हो गया।
”मत मारो, मत मारो, चोट आती होगी!” साईं ने कहा-और लड़के को छुड़ाने लगा! मोहन के पिता ने साईं से पूछा-”तब चीथड़े के लिए दौड़ते क्यों थे?”
सिर फटने पर भी जिसको रुलाई नहीं आयी थी, वह साईं लड़के को रोते देखकर रोने लगा। उसने कहा-”बाबा, मेरे पास, दूसरी कौन वस्तु है, जिसे देकर इन ‘रामरूप’ भगवान को प्रसन्न करता!”
”तो क्या तुम इसीलिए गूदड़ रखते हो?”
”इस चीथड़े को लेकर भागते हैं भगवान् और मैं उनसे लड़कर छीन लेता हूँ; रखता हूँ फिर उन्हीं से छिनवाने के लिए, उनके मनोविनोद के लिए। सोने का खिलौना तो उचक्के भी छीनते हैं, पर चीथड़ों पर भगवान् ही दया करते हैं!” इतना कहकर बालक का मुँह पोंछते हुए मित्र के समान गलबाँही डाले हुए साईं चला गया।
मोहन के पिता आश्चर्य से बोले-”गूदड़ साईं! तुम निरे गूदड़ नहीं; गुदड़ी के लाल हो!!”

लेखक

  • प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1890 को काशी में हुआ था। वह संपन्न व्यापारिक घराने के थे और उनका परिवार संपन्नता में केवल काशी नरेश से ही पीछे था। पिता और बड़े भाई की असामयिक मृत्यु के कारण उन्हें आठवीं कक्षा में ही विद्यालय छोड़कर व्यवसाय में उतरना पड़ा। उनकी ज्ञान वृद्धि फिर स्वाध्याय से हुई। उन्होंने घर पर रहकर ही हिंदी, संस्कृत एवं फ़ारसी भाषा एवं साहित्य का अध्ययन किया, साथ ही वैदिक वांग्मय और भारतीय दर्शन का भी ज्ञान अर्जित किया। वह बचपन से ही प्रतिभा-संपन्न थे। आठ-नौ वर्ष की आयु में अमरकोश और लघु कौमुदी कंठस्थ कर लिया था जबकि ‘कलाधर’ उपनाम से कवित्त और सवैये भी लिखने लगे थे। जयशंकर प्रसाद की कविताओं में छायावादी काव्य का वैभव अपनी क्लासिक पूर्णता के साथ प्रकट होता है और उनका सौंदर्य-बोध इस बात की पुष्टि करता नज़र आता है कि छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है। सौंदर्य दर्शन और शृंगारिकता, स्वानुभूति, जड़ चेतन संबंध और आध्यात्मिक दर्शन, नारी की महत्ता, मानवीयता, प्राकृतिक अवयव, चित्रात्मकता आदि उनकी प्रमुख काव्य-प्रवृत्तियाँ हैं। उनकी भाषा तत्समपरक और संस्कृतनिष्ठ है। वैयक्तिकता, भावात्मकता, संगीतात्मकता, कोमलता, ध्वन्यात्मकता, नाद-सौंदर्य जैसे गीति शैली के सभी तत्त्व उनके काव्य में मौजूद हैं। उन्होंने प्रबंध और मुक्तक दोनों शैलियों का प्रयोग किया है जबकि शब्दों का अधिकाधिक मात्रा में लाक्षणिक प्रयोग, सूक्ष्म प्रतीक योजना, ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग, सतर्क शब्द चयन, वर्णप्रियता, प्रकृति का सूक्ष्मातिसूक्ष्म निरीक्षण, अमूर्त उपमान योजना उनके द्वारा किए गए नए प्रयोग थे। ‘उर्वशी’, ‘झरना’, ‘चित्राधार’, ‘आँसू’, ‘लहर’, ‘कानन-कुसुम’, ‘करुणालय’, ‘प्रेम पथिक’, ‘महाराणा का महत्त्व’, ‘कामायनी’, ‘वन मिलन’ उनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ हैं। ‘कामायनी’ उनकी विशिष्ट रचना है जिसे मुक्तिबोध ने विराट फ़ैंटेसी के रूप में देखा है और नामवर सिंह ने इसे आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य कहा है। कविताओं के अलावे उन्होंने गद्य में भी विपुल मौलिक योगदान किया है। ‘कामना’, विशाख, एक घूँट, अजातशत्रु, जनमेजय का नाग-यज्ञ, राज्यश्री, स्कंदगुप्त, सज्जन, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, कल्याणी, प्रायश्चित उनके नाटक हैं, जबकि कहानियों का संकलन छाया, आँधी, प्रतिध्वनि, इंद्रजाल, आकाशदीप में हुआ है। कंकाल, तितली और इरावती उनके उपन्यास हैं और ‘काव्य और कला तथा अन्य निबंध’ उनका निबंध-संग्रह है। जयशंकर प्रसाद को ‘कामायिनी’ के लिए मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।

    View all posts
गूदड़ साईं/कहानी/जयशंकर प्रसाद

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *