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स्वप्न झरे फूल से/गीत/गोपालदास नीरज

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठें कि राह रथ निकल गई,
पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गई,
फाँस तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्रु बन चले,
छन्द हो हवन चले,
साथ के सभी दिए धुआँ पहन-पहन चले,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके रुके,
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे,
कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!

(नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे।)

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार का उठा,
क्या सुरूप था कि देख आईना सिहर उठा,
इस तरफ जमीन और आसमाँ उधर उठा,
थामकर जिगर उठा कि जो मिला नजर उठा,
एक दिन मगरछली-
वह-हवा यहाँ चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम दबी नजर,
देह की दुकान पर,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे,
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे!

(क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे।)

आँख थी मिली मुझे कि अश्रु-अश्रु बीन लूँ,
होंठ थे खुले कि चूम हर नज़र हसीन लूँ,
दर्द था दिया गया कि प्यार से यक़ीन लूँ,
और गीत यूँ कि रात से चिराग़ छीन लूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि ढह गए क़िले बिखर-बिखर,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
दाम गाँठ के गँवा, बज़ार देखते रहे,
कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!

(हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!)

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे।

एक रोज एक गेह चाँद जब नया उगा,
नौबतें बजीं, हुई छटी, डठौन, रतजगा,
कुँडली बनी कि जब मुहूर्त पुन्यमय लगा,
इसलिए कि दे सके न मृत्यु जन्म को दग़ा,
एक दिन न पर हुआ,
उड़ गया पला सुआ,
कुछ न कर सके शकुन, न काम आ सकी दुआ,
और हम डरे-डरे,
नीर नैन में भरे,
ओढ़कर कफन पड़े मजार देखते रहे,
चाह थी न, किंतु बार-बार देखते रहे,
कारवाँ गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे!

लेखक

  • गोपालदास 'नीरज' का जन्म 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के इटावा ज़िले के पुरावली गाँव में हुआ था। एटा से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया, फिर एक सिनेमाघर में नौकरी की। कई छोटी-मोटी नौकरीयाँ करते हुए 1953 में हिंदी साहित्य से एम.ए. किया और अध्यापन कार्य से संबद्ध हुए। इस बीच कवि सम्मेलनों में उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। इसी लोकप्रियता के कारण कालांतर में उन्हें बंबई से एक फ़िल्म के लिए गीत लिखने का प्रस्ताव मिला और फिर यह सिलसिला आगे बढ़ता गया। वह वहाँ भी अत्यंत लोकप्रिय गीतकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए और उन्हें तीन बार फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। बाद में वह बंबई के जीवन से ऊब गए और अलीगढ़ वापस लौट आए। उनका पहला काव्य-संग्रह ‘संघर्ष’ 1944 में प्रकाशित हुआ था। अंतर्ध्वनि, विभावरी, प्राणगीत, दर्द दिया है, बादल बरस गयो, मुक्तकी, दो गीत, नीरज की पाती, गीत भी अगीत भी, आसावरी, नदी किनारे, कारवाँ गुज़र गया, फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिए आदि उनके प्रमुख काव्य और गीत-संग्रह हैं। वह विश्व उर्दू परिषद पुरस्कार और यश भारती से सम्मानित किए गए थे। भारत सरकार ने उन्हें 1991 में पदम् श्री और 2007 में पद्म भूषण से अलंकृत किया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें भाषा संस्थान का अध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया था।

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