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सबसे ख़तरनाक/कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

 

बैठे-सोए पकड़े जाना – बुरा तो है

सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है

पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता

 

कपट के शोर में

सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है

किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना – बुरा तो है

भींचकर जबड़े बस वक्‍त काट लेना – बुरा तो है

सबसे ख़तरनाक नहीं होता

 

सबसे ख़तरनाक होता है

मुर्दा शान्ति से भर जाना

न होना तड़प का, सब सहन कर जाना,

घर से निकलना काम पर

और काम से लौटकर घर आना

सबसे ख़तरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना

 

सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है

तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो

तुम्हारी नज़र के लिए रुकी होती है

 

सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है

जो सबकुछ देखती हुई भी ठण्डी बर्फ होती है

जिसकी नज़र दुनिया को

मुहब्बत से चूमना भूल जाती है

जो चीज़ों से उठती अन्धेपन की

भाप पर मोहित हो जाती है

जो रोज़मर्रा की साधारणतया को पीती हुई

एक लक्ष्यहीन दोहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है

 

सबसे ख़तरनाक वह चाँद होता है

जो हर कत्ल-काण्ड के बाद

वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है

लेकिन तुम्हारी आँखों में मिर्चों की तरह नहीं लड़ता है

 

सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है

तुम्हारे कान तक पहुंचने के लिए

जो विलाप को लाँघता है

डरे हुए लोगों के दरवाज़े पर जो

गुण्डे की तरह हुँकारता है

 

सबसे ख़तरनाक वह रात होती है

जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर

जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते गीदड़ हुआते

चिपक जाता सदैवी अँधेरा बन्द दरवाज़ों की चैगाठों पर

 

सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है

जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये

और उसकी मुर्दा धूप की कोई फांस

तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाये

 

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

ग़द्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

 

लेखक

  • अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच, लड़ांगे साथी, खिल्लरे होए वर्के आदि हैं। पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। त्रासदी यह भी कि भगतसिंह को आदर्श मानने वाले पाश को भगतसिंह के ही शहादत दिन 23 मार्च 1988 को मार दिया गया। धार्मिक कट्टरपंथ और सरकारी आतंकवाद दोनों के साथ एक ही समय लड़ने वाले पाश का वही सपना था जो भगतसिंह का था। कविताओं के लिए ही पाश को 1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने दो साल के लिए जेल में डाला था।  

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