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लोहा/कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

आप लोहे की कार का आनन्द लेते हो

मेरे पास लोहे की बन्दूक़ है

 

मैंने लोहा खाया है

आप लोहे की बात करते हो

लोहा जब पिघलता है

तो भाप नहीं निकलती

जब कुठाली उठाने वालों के दिल से

भाप निकलती है

तो लोहा पिघल जाता है

पिघले हुए लोहे को

किसी भी आकार में

ढाला जा सकता है

 

कुठाली में देश की तक़दीर ढली होती है

यह मेरी बन्दूक़

आपके बैंकों के सेफ़;

और पहाड़ों को उल्टाने वाली मशीनें,

सब लोहे के हैं

शहर से वीराने तक हर फ़र्क़

बहन से वेश्या तक हर एहसास

मालिक से मुलाज़िम तक हर रिश्ता

बिल से क़ानून तक हर सफ़र

शोषणतंत्र से इंक़लाब तक हर इतिहास

जंगल, कोठरियों व झोंपड़ियों से लेकर इंटेरोगेशन तक

हर मुक़ाम सब लोहे के हैं।

 

लोहे ने बड़ी देर इंतज़ार किया है

कि लोहे पर निर्भर लोग

लोहे की पत्तियाँ खाकर

ख़ुदकुशी करना छोड़ दें

मशीनों में फँसकर फूस की तरह उड़नेवाले

लावारिसों की बीवियाँ

लोहे की कुर्सियों पर बैठे वारिसों के पास

कपड़े तक भी ख़ुद उतारने के लिए मजबूर न हों

 

लेकिन आख़िर लोहे को

पिस्तौलों, बन्दूक़ों और बमों की

शक्ल लेनी पड़ी है

आप लोहे की चमक में चुँधियाकर

अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं,

(लेकिन) मैं लोहे की आँख से

दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन भी पहचान सकता हूँ

क्योंकि मैंने लोहा खाया है

आप लोहे की बात करते हो।

 

लेखक

  • अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच, लड़ांगे साथी, खिल्लरे होए वर्के आदि हैं। पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। त्रासदी यह भी कि भगतसिंह को आदर्श मानने वाले पाश को भगतसिंह के ही शहादत दिन 23 मार्च 1988 को मार दिया गया। धार्मिक कट्टरपंथ और सरकारी आतंकवाद दोनों के साथ एक ही समय लड़ने वाले पाश का वही सपना था जो भगतसिंह का था। कविताओं के लिए ही पाश को 1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने दो साल के लिए जेल में डाला था।  

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