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मैं अब विदा लेता हूं/कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

मैं अब विदा लेता हूं

मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं

मैंने एक कविता लिखनी चाही थी

सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं

 

उस कविता में

महकते हुए धनिए का जिक्र होना था

ईख की सरसराहट का जिक्र होना था

उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस

और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना था

और जो भी कुछ

मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा

उस सब कुछ का जिक्र होना था

 

उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था

मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था

और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से

स्निग्धता की लपटें उठनी थीं

उस कविता में

तेरे लिए

मेरे लिए

और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त

लेकिन बहुत ही बेस्वाद है

दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना

और यदि मैं लिख भी लेता

शगुनों से भरी वह कविता

तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था

तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर

मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है

जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं

और अब हर तरह की कविता से पहले

हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है

युद्ध में

हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है

अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह

और इस स्थिति में

मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को

धरती के आकार की उपमा देना

या तेरी कमर के लहरने की

समुद्र के सांस लेने से तुलना करना

बड़ा मज़ाक-सा लगता था

सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया

तुम्हें

मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को

और युद्ध के समूचेपन को

एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ

और अब मैं विदा लेता हूं

मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे

कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले

अपने गांव के टीले

रात को फूलों की तरह महक उठते हैं

और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर

स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है

हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि

जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता

याद करना बहुत ही अच्छा लगता है

 

मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं

उन सभी हसीन चीज़ों का

जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं

और उन आम जगहों का

जो हमारे मिलने से हसीन हो गई

मैं शुक्रिया करता हूं

अपने सिर पर ठहर जाने वाली

तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का

जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में

रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का

जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था

टींडों से उतरी कपास का

जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया

और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई

गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का

जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी

जवान हुए गेंहू की बालियों का

जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही

मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का

जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया

तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का

मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं

और उन सभी चीज़ों के लिए

जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा

मेरे पास शुक्राना है

मैं शुक्रिया करना चाहता हूं

 

प्यार करना बहुत ही सहज है

जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना

या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से

किसी गुफा में पड़े रहकर

जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे

प्यार करना

और लड़ सकना

जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है

 

धूप की तरह धरती पर खिल जाना

और फिर आलिंगन में सिमट जाना

बारूद की तरह भड़क उठना

और चारों दिशाओं में गूंज जाना –

जीने का यही सलीका होता है

 

प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा

जिन्हें जिन्दगी ने बनिए बना दिया

जिस्म का रिश्ता समझ सकना,

खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना,

जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना,

सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,

बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,

मैं अब विदा लेता हूं

 

तू भूल जाना

मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया

कि मेरी नजरों ने क्या कुछ नहीं किया

तेरे नक्शों की धार बांधने में

कि मेरे चुंबनों ने

कितना खूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने

तेरा मोम जैसा बदन कैसे सांचे में ढाला

 

तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त

सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी

कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था

मेरे भी हिस्से का जी लेना

मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना।

 

लेखक

  • अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच, लड़ांगे साथी, खिल्लरे होए वर्के आदि हैं। पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। त्रासदी यह भी कि भगतसिंह को आदर्श मानने वाले पाश को भगतसिंह के ही शहादत दिन 23 मार्च 1988 को मार दिया गया। धार्मिक कट्टरपंथ और सरकारी आतंकवाद दोनों के साथ एक ही समय लड़ने वाले पाश का वही सपना था जो भगतसिंह का था। कविताओं के लिए ही पाश को 1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने दो साल के लिए जेल में डाला था।  

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