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मुझे चाहिए कुछ बोल/कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

मुझे चाहिए कुछ बोल

जिनका एक गीत बन सके……

 

छीन लो मुझसे ये भीड़ की टें टें

जला दो मुझे मेरी कविता की धूनी पर

मेरी खोपड़ी पर बेशक खनकाएं शासन का काला डंडा

लेकिन मुझे दे दो कुछ बोल

जिनका गीत बन सके……

 

मुझे नहीं चाहिए अमीन सयानी के डायलॉग

संभाले आनंद बक्षी, आप जाने लक्ष्मीकांत

मुझे क्या करना है इंदिरा का भाषण

मुझे तो चाहिए कुछ बोल

जिनका गीत बन सके……

 

मेरे मुंह में ठूस दे यमले जट्टे की तूम्बी

मेरे माथे पे घसीट दे टैगोर का नेशनल एंथम

मेरे सीन पे चिपका दे गुलशन नंदा के नॉवेल

 

मुझे क्यों पढ़ना है ज़फरनामा

गर मुझे मिल जाए कुछ बोल

जिनका एक गीत बन सके……

 

मेरी पीठ पर लाद दे वाजपेयी का बोझिल बदन

मेरी गर्दन में डाल दे हेमंत बसु की लाश

मेरी गुदा में दे दे लाला जगत नारायण का सिर

 

चलो मैं माओ का नाम भी नहीं लेता

लेकिन मुझे दे तो सही कुछ बोल

जिनका एक गीत बन सके ……

 

मुझे पेन में स्याही न भरने दे

मैं अपनी ‘लौह कथा’ भी जला देता हूँ

मैं चन्दन* से भी कट्टी कर लेता हूँ

गर मुझे दे दे कुछ बोल

जिनका एक गीत बन सके ……

 

यह गीत मुझे उन गूंगो को देना है

जिन्हें गीतों की कद्र है

लेकिन जिनका आपके हिसाब से गाना नहीं बनता

गर आपके पास नहीं है कोई बोल, कोई गीत

मुझे बकने दे जो मैं बकता हूँ।

 

लेखक

  • अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच, लड़ांगे साथी, खिल्लरे होए वर्के आदि हैं। पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। त्रासदी यह भी कि भगतसिंह को आदर्श मानने वाले पाश को भगतसिंह के ही शहादत दिन 23 मार्च 1988 को मार दिया गया। धार्मिक कट्टरपंथ और सरकारी आतंकवाद दोनों के साथ एक ही समय लड़ने वाले पाश का वही सपना था जो भगतसिंह का था। कविताओं के लिए ही पाश को 1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने दो साल के लिए जेल में डाला था।  

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