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तुम्हारे रुक-रुक कर जाते पावों की सौगन्ध बापू/कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

तुम्हारे रुक-रुक कर जाते पाँवों की सौगन्ध बापू

तुम्हें खाने को आते रातों के जाड़ों का हिसाब

मैं लेकर दूँगा

तुम मेरी फ़ीस की चिंता न करना

मैं अब कौटिल्य से शास्त्र लिखने के लिए

विद्यालय नहीं जाया करूँगा

मैं अब मार्शल और स्मिथ से

बहिन बिंदरों की शादी की चिंता की तरह

बढ़ती क़ीमतों का हिसाब पूछने नहीं जाऊँगा

बापू तुम यों ही हड्डियों में चिंता न जमाओं

मैं आज पटवारी के पैमाने से नहीं

पूरी उम्र भत्ता ले जा रही माँ के पैरों की बिवाईयों से

अपने खेत मापूँगा

मैं आज सन्दूक के ख़ाली ही रहे ख़ाने की

भायँ – भायँ से तुम्हारा आज तक का दिया लगान गिनूँगा

तुम्हारे रुक-रुक कर जाते पाँवों की सौगन्ध बापू

मैं आज शमशान-भूमि में जा कर

अपने दादा और दादा के दादा के साथ गुप्त बैठक करूँगा

मैं अपने पुरखों से गुफ़्तगू कर जान लूँगा

यह सब कुछ किस तरह हुआ

कि जब दुकानों जमा दुकानों का जोड़ मंडी बन गया

यह सब कुछ किस तरह हुआ

कि मंडी जमा तहसील का जोड़ शहर बन गया

मैं रहस्य जानूँगा

मंडी और तहसील बाँझ मैदानों में

कैसे उग आया था थाने का पेड़

बापू तुम मेरी फ़ीस की चिंता न करना

मैं कॉलेज के क्लर्कों के सामने

अब रीं-रीं नहीं करूँगा

मैं लेक्चर कम होने की सफ़ाई देने के लिए

अब कभी बेबे या बिंदरों को

झूठा बुखार न चढ़ाया करूँगा

मैं झूठमूठ तुम्हें वृक्ष काटने को गिराकर

तुम्हारी टाँग टूटने जैसा कोई बदशगुन-सा बहाना न करूँगा

मैं अब अंबेडकर के फ़ण्डामेंटल राइट्स

सचमुच के न समझूँगा

मैं तुम्हारे पीले चहरे पर

किसी बेजमीर टाउट की मुस्कराहट जैसे सफ़ेद केशों की

शोकमयी नज़रों को न देख सकूँगा

कभी भी उस संजय गांधी को पकड़ कर

मैं तुम्हारे क़दमो में पटक दूँगा

मैं उसकी ऊटपटाँग बड़को को

तुम्हारें ईश्वर को निकाली ग़ाली के सामने पटक दूँगा

बापू तुम ग़म न करना

मैं उस नौजवान हिप्पी से तुम्हारें सामने पूछूँगा

मेरे बचपन की अगली उम्र का क्रम

द्वापर युग की तरह आगे पीछे किस बदमाश ने किया है

मैं उन्हें बताऊँगा

निःसत्व फ़तवों से चीज़ों को पुराना करते जाना

बेगाने बेटों की माँओं के उलटे सीधे नाम रखने

सिर्फ़फ लोरी के लोरी के संगीत में ही सुरक्षित होता हैं

मैं उससे कहूँगा

ममता की लोरी से ज़रा बाहर तो निकलो

तुम्हें पता चले

बाक़ी का पूरा देश बूढ़ा नहीं है…

 

लेखक

  • अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच, लड़ांगे साथी, खिल्लरे होए वर्के आदि हैं। पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। त्रासदी यह भी कि भगतसिंह को आदर्श मानने वाले पाश को भगतसिंह के ही शहादत दिन 23 मार्च 1988 को मार दिया गया। धार्मिक कट्टरपंथ और सरकारी आतंकवाद दोनों के साथ एक ही समय लड़ने वाले पाश का वही सपना था जो भगतसिंह का था। कविताओं के लिए ही पाश को 1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने दो साल के लिए जेल में डाला था।  

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