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तुम्हारे बग़ैर मैं होता ही नहीं /कविता/अवतार सिंह संधू ‘पाश’

तुम्हारे बग़ैर मैं बहुत खचाखच रहता हूँ

यह दुनिया सारी धक्कम-पेल सहित

बेघर पाश की दहलीजें लाँघ कर आती-जाती है

तुम्हारे बग़ैर मैं पूरे का पूरा तूफ़ान होता हूँ

ज्वार-भाटा और भूकम्प होता हूँ

तुम्हारे बग़ैर

मुझे रोज़ मिलने आते हैं आईंस्टाइन और लेनिन

मेरे साथ बहुत बातें करते हैं

जिनमें तुम्हारा बिलकुल ही ज़िक्र नहीं होता

मसलन: समय एक ऐसा परिंदा है

जो गाँव और तहसील के बीच उड़ता रहता है

और कभी नहीं थकता

सितारे ज़ुल्फ़ों में गुँथे जाते

या जुल्फ़ें सितारों में-एक ही बात है

मसलन: आदमी का एक और नाम मेनशेविक है

और आदमी की असलियत हर साँस के बीच को खोजना है

लेकिन हाय-हाय!

बीच का रास्ता कहीं नहीं होता

वैसे इन सारी बातों से तुम्हारा ज़िक्र ग़ायब रहता है ।

 

तुम्हारे बग़ैर

मेरे पर्स में हमेशा ही हिटलर का चित्र परेड करता है

उस चित्र की पृष्ठभूमि में

अपने गाँव की पूरे वीराने और बंजर की पटवार होती है

जिसमें मेरे द्वारा निक्की के ब्याह में गिरवी रखी ज़मीन के सिवा

बची ज़मीन भी सिर्फ़ जर्मनों के लिए ही होती है ।

 

तुम्हारे बग़ैर, मैं सिद्धार्थ नहीं, बुद्ध होता हूँ

और अपना राहुल

जिसे कभी जन्म नहीं देना

कपिलवस्तु का उत्तराधिकारी नहीं

एक भिक्षु होता है ।

 

तुम्हारे बग़ैर मेरे घर का फ़र्श सेज नहीं

ईंटों का एक समाज होता है

तुम्हारे बग़ैर सरपंच और उसके गुर्गे

हमारी गुप्त डाक के भेदिए नहीं

श्रीमान बी०डी०ओ० के कर्मचारी होते हैं

तुम्हारे बग़ैर अवतार सिंह संधू महज पाश

और पाश के सिवाय कुछ नहीं होता

 

तुम्हारे बग़ैर धरती का गुरुत्व

भुगत रही दुनिया की तक़दीर होती है

या मेरे ज़िस्म को खरोंचकर गुज़रते अ-हादसे

मेरे भविष्य होते हैं

लेकिन किंदर ! जलता जीवन माथे लगता है

तुम्हारे बग़ैर मैं होता ही नहीं ।

 

लेखक

  • अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 09 सितम्बर 1950 को ग्राम तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर और निधन 37 साल की युवावस्था में 23 मार्च 1988 अपने गांव तलवंडी में ही हुआ था। वे गुरु नानक देव युनिवर्सिटी, अमृतसर के छात्र रहे हैं। उनकी साहित्यिक कृतियां, लौहकथा, उड्ड्दे बाजाँ मगर, साडे समियाँ विच, लड़ांगे साथी, खिल्लरे होए वर्के आदि हैं। पाश एक विद्रोही कवि थे। वे अपने निजी जीवन में बहुत बेबाक थे, और अपनी कविताओं में तो वे अपने जीवन से भी अधिक बेबाक रहे। वे घुट घुटकर, डर डरकर जीनेवालों में से बिलकुल नहीं थे। उनको सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त एक समतावादी संसार चाहिए था। यही उनका सपना था और इसके लिए आवाज़ उठाना उनकी मजबूरी थी। उनके पास कोई बीच का रास्ता नहीं था। त्रासदी यह भी कि भगतसिंह को आदर्श मानने वाले पाश को भगतसिंह के ही शहादत दिन 23 मार्च 1988 को मार दिया गया। धार्मिक कट्टरपंथ और सरकारी आतंकवाद दोनों के साथ एक ही समय लड़ने वाले पाश का वही सपना था जो भगतसिंह का था। कविताओं के लिए ही पाश को 1970 में इंदिरा गांधी सरकार ने दो साल के लिए जेल में डाला था।  

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