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चलल लाठी, पूजायल चौरि/आलेख/प्रवीण वशिष्ठ

कुछ आख्यानों और सुनी सुनाई घटनाओं के पीछे लंबा मौखिक इतिहास होता है। ऐसे लोक आख्यानों के बारे में चर्चा- परिचर्चा करना एक प्रासंगिक पहल हो सकता है। कभी-कभी हम किसी समृद्ध परंपरा या लोक मान्यताओं के बारे में पढ़ते हैं तो उसका मज़ाक उड़ाने लगते हैं, लेकिन यथार्थ में उन परंपरा एवं मान्यताओं के पीछे एक कहानी होती है या यूं कहें एक धुंधला इतिहास होता है। आज एक ऐसे ही कहानी का जिक्र करेंगे जिसका साक्ष्य तो है पर स्रोत नहीं है उसी प्रकार इतिहास तो है लेकिन उसके बारे में कभी लिखा नहीं गया। कहानी में कितनी सच्चाई है इस उत्सुकता को अतीत के आईने में अगर देखा जाए तो मूक साक्ष्य मुखर हो सकते हैं। जिस गांव सहसपुरा में हम रहते हैं उस गांव के ठीक बगल में सटा बेला गाँव है। ब्रिटिश कालीन दस्तावेजों में बेला गाँव के चौधरी परिवार के जमींदारी का प्रमाण हमें मिलता है। काशी राजा के अंदर हमारे तरफ कोलना, बेला और जलालपुर माफ़ी ये तीन बड़ी जमींदारियाँ थी। आज भी इन गांवों में स्थित मंदिरों एवं पुराने मकानों के अवशेष उस विरासत की कहानी को बयां करते हैं। कहानी कुछ इस प्रकार है कि हमारे कुल के एक पूर्वज थे जिन्हें काशी नरेश महाराजा चेतसिंह ने ख़ुश होकर 52 बीघा जमीन भूदान के रूप में दिया था। ऐसा कहा जाता है कि हमारे परिवार के कुलश्रेष्ठ माँ भगवती के अनन्य उपासक थे। एक बार काशी नरेश गंगा तट पर खड़े होकर उनसे कहने लगे कि बताईये पानी में जो मछली का जाल फेंका गया है उसमें से मछली के अलावा और क्या निकल सकता है? उन्होंने कहा महाराज आप जाल फेकवाइये नदी से मछली की जगह खरगोश निकलेगा! इस बात की परीक्षा लेने के लिए काशी नरेश ने जाल नदी में फिकवाया और खरगोश निकल भी गया। काशी नरेश खुश होकर 52 बीघा जमीन और एक लिखित अभिलेख के साथ दो शिव-पार्वती की प्रतिमा उन्हें भेंट स्वरूप प्रदान किया। दोनों प्रतिमाएं और अभिलेख आज भी हमारे परिवार के पास है। लेकिन जब भूदान भूमि पर कब्जा की बात आई तो स्थानीय चौधरी ने जमीन देने से मना कर दिया। उसके बाद वर्षों तक उस जमीन के लिए चौधरी साहब के लठैतों और हमारे परिवार के लोगों के बीच में संघर्ष होता रहा। ऐसा भी कहा जाता है कि उस समय चौधरी साहब को समझाने के लिए एक कहावत कहा जाता था जो बाद में मशहूर हुआ कि “न पकी लिट्टी न जरी भौरी, चलावा लाठी पूजिहै चौरि” इसका अर्थ यह है कि जिनका जमीन है, उन्हें व्यर्थ में परेशान न करें साथ ही उनसे संघर्ष न करें अन्यथा उनके मर जाने पर चौरि पूजना पड़ेगा। इसी बीच हमारे परिवार में गद्दी पर आए शुकुल लोग और हमारे परिवार के बीच जमीन के हिस्सेदारी को लेकर भी संघर्ष हुआ और ऐसा कहा जाता है कि शुकुल लोगों ने उस अभिलेख को कुछ समय के लिए गायब कर दिया। लेकिन चौधरी साहब के हट पर अड़े होने के कारण हमारे परिवार के एक पूर्वज ने बिना अन्न-जल ग्रहण किए उनके दरवाजे पर प्राण त्यागने का प्रण लिया और कई दिनों तक बिना खाये-पिये उन्होंने वहीं चौधरी साहब के चौखट पर प्राण त्याग दिया। उन्होंने मृत्यु से पहले हमारे परिवार के सदस्यों से कहा कि उनके मृत्यु के बाद उनके वंश का कोई भी लड़का बेला गाँव का अन्न-जल ग्रहण नहीं कर सकता है। उस दिन के बाद से आज तक हमारे परिवार के लोग बेला गाँव का अन्न जल ग्रहण नहीं करते हैं। चौधरी साहब के जिस बखरी (कच्चा मकान) के सामने हमारे कुल के पूर्वज ने प्राण त्याग दिया वहाँ आज भी उनका चौरा बना है और वह मकान गिर के खंडहर बन गया है। चौधरी साहब की मृत्यु उस घटना के कुछ ही दिनों बाद हो गयी और उस वंश में एक मौनी चौधरी हुए। मौनी चौधरी ने भी इस संघर्ष को हमारे परदादा भगौती मिश्र के समय तक जारी रखा। बाद में लंबे संघर्ष के बाद 52 बीघा जमीन हमारे परिवार को चौधरी परिवार ने दिया। जिसमें से बीस बीघा जमीन एवं एक शिव-पार्वती प्रतिमा गद्दी पर आए शुकुल परिवार को बंटवारे में चला गया और शेष 32 बीघा जमीन और एक शिव-पार्वती प्रतिमा हमारे परिवार के हिस्से में आया। इस कहानी को आज भी बेला गाँव के पुरौधा लोग जानते हैं और सुनाते हैं। हम लोग भी उस शब्द का आज भी पालन करते हैं। अगल-बगल हर गाँव में हमारे परिवार का न्योता (निमंत्रण) होता है लेकिन बेला गाँव में एक भी न्योता नहीं होता है। बेला में बहुत से लोग हैं जिनसे हमारे परिवार का सम्बंध ठीक है और उनके घर भी जाना होता है लेकिन उस गाँव का अन्न-जल हमारे परिवार के लिए हमेशा शापित है। आज चौधरी साहब नहीं रहे और हमारे पूर्वज भी नहीं रहे लेकिन उस दौर की दहशत और दास्तां का मौखिक दस्तावेज दोनों दहलीज़ के बीच एक दरार का कारण बना हुआ है। ऐसी मान्यताओं को ऐतिहासिक रूप प्रदान करने के लिए गहन अन्वेषण की जरूरत भले हो लेकिन दृश्यमान साक्ष्य के प्रमाण व मान्यताओं का अनुसरण इस बात की पुष्टि जरूर करते हैं कि इतिहास के असीमित दायरे में एक अंश इस कहानी और उसकी मान्यता का भी है।

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चलल लाठी, पूजायल चौरि/आलेख/प्रवीण वशिष्ठ

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