ये पंक्तियाँ मेरे निकट
ये पंक्तियाँ मेरे निकट आईं नहीं
मैं ही गया उनके निकट
उनको मनाने,
ढीठ, उच्छृंखल अबाध्य इकाइयों को
पास लाने :
कुछ दूर उड़ते बादलों की बेसंवारी रेख,
या खोते, निकलते, डूबते, तिरते
गगन में पक्षियों की पांत लहराती :
अमा से छलछलाती रूप-मदिरा देख
सरिता की सतह पर नाचती लहरें,
बिखरे फूल अल्हड़ वनश्री गाती…
… कभी भी पास मेरे नहीं आए :
मैं गया उनके निकट उनको बुलाने,
गैर को अपना बनाने :
क्योंकि मुझमें पिण्डवासी
है कहीं कोई अकेली-सी उदासी
जो कि ऐहिक सिलसिलों से
कुछ संबंध रखती उन परायी पंक्तियों से !
और जिस की गांठ भर मैं बांधता हूं
किसी विधि से
विविध छंदों के कलावों से।
गहरा स्वप्न
सत्य से कहीं अधिक स्वप्न वह गहरा था
प्राण जिन प्रपंचों में एक नींद ठहरा था :
भम्नावशेषों की दुर्व्यस्थ छायाएँ
झुल्सी हुई लपटों-सी ईर्ष्यालु,
जीवन के शुद्ध आकर्षण पर गुदी हुई…
काल की समस्त माँग
बूढ़ी दुनिया अपंग :
आदि से अन्त तक,
अन्त से अनन्त तक,
देखा पर्यनन्त तक,
मौन हो बोल कर
जीवन के पतों की
कई तहें खोल कर…
पहलदार सत्यों का छाया-तन इकहरा था,
जीवन का मूलमन्त्र सपनों पर ठहरा था ।
दर्पण
वस्तु का दर्पण उधर सुनसान,
जो अपनों बिना वीरान,
इधर धूसर बुद्धि जो अति
ज़िन्दगी के प्रति
उठाती स्वप्न की प्रतिध्वनि :
कुछ अवनि के अंक से आश्वस्त,
कुछ ऊँचाइयों से पस्त,
दृष्टियों में जन्म लेता प्यार :
दर्पण की सतह पर तैर आये
जिस तरह कोई निजीपन ।
ख़ामोशी : हलचल
कितना ख़ामोश है मेरा कुल आस-पास,
कितनी बेख़्वाब है सारी चीज़ें उदास,
दरवाज़े खुले हुए, सुनते कुछ, बिना कहे,
बेबकूफ़ नज़रों से मुँह बाये देख रहे :
चीज़ें ही चीज़े हैं, चीज़ें बेजान हैं,
फिर भी यह लगता है बेहद परेशान हैं,
मेरी नाकामी से ये भी नाकाम हैं,
मेरी हैरानी से ये भी हैरान हैं :
टिकि-टिक कर एक घड़ी चुप्पी को कुचल रही,
लगता है दिल की ही धड़कन को निगल रही,
कैसे कुछ अपने-आप गिर जाये, पड़ जाये,-
ख़नक कर भनक कर लड़ जाये भिड़ जाये ?
लगता है, बैठा हूँ भृतों के डेरे में,
सजे हुए सीलबन्द एक बड़े कमरे में,
सदियों से दूर किसी अन्धे उजियाले में
अपनों से दूर एक पिरामिडी घेरे में :
एक-टक घूर रहीं मुझ को बस दीवारें,
जी करता उन पर जा यह मत्था दे मारें,
चिल्ला कर गूँजों से पत्थर को थर्रा दें…
घेरी ख़ामोशी की दीवारें बिखरा दें,
इन मुर्दा महलों की मीनारें हिल जायें,
इन रोगी ख़्यालों की सीमाएँ घुल जायें,
अन्दर से बाहर आ सदियों की कुंठाएँ
बहुत बड़े जीवन की हलचल से मिल जायें।
जाड़ों की एक सुबह
रात के कम्बल में
दुबकी उजियाली ने
धीरे से मुँह खोला,
नीड़ों में कुलबुल कर,
अल्साया-अलसाया,
पहला पंछी बोला :
दूर कहीं चीख़ उठा
सीले स्वर से इंजन,
भर्राता, खाँस-खूँस
फिर छूटा कहँर-कहँर,
कड़ुवी आवाज़ों से
ख़ामोशी चलनी कर,
सिसकी पर सिसकी भर
गयी ट्रेंन क्षितिज पार :
क्रमश: ध्वनि ड्रब चली,
चुप्पी ने झुंझला कर
मानों फिर करवट ली,
ओढ़ लिया ऊपर तक
खींच सन्नाटे को,
धीरे से उढ़का कर
निद्रा के खुले द्वार :
बह निकली तेज़ हवा
पेड़ों से सर-सर-सर,
काँप रहे ठिठुरे-से
पत्ते थर-थर थर-थर,
शबनम से भीगे तन
सुमन खड़े सिहर रहे,
चितकबरी नागिन-सी
भाग रही शीत रात,
लुक-छिप कर आशंकित
लहराती पौधों में
बिछलन-सी चमकदार,
छोड़ गयी कोहरे की
केंचुल अपने पीछे,
डंसती ठंडी बयार :
तालों के समतल तल
लहरों से चौंक गये
सपनों की भीड़ छंटी,
निद्राल्स पलकों से
मंड़राते चेहरों की
व्यक्तिगत रात हटी;
धीमे हलकोरों में
नीम की टहनियों का
निर्झर स्वर मर्मर कर
ढरता है वृक्षों से
प्राणों में हर-हर भर,
शिशुवत् तन-मन दुलार :
फूलों के गुच्छों से
मेघ-खंड रंग-भरे,
झुक आये मखमल के
खेतों पर रुक ठहरे,
पहिनाते धरती को
फूलझड़ियों के गजरे;
प्राची के सोतों से
मीठी गरमाहट के
फ़ब्बारे फूट रहे,
धूप के गुलाबी रंग
पेड़ों की गीली
हरियाली पर छूट रहे,
चाँद कट पतंग-सा
दूर उस झुरमुट के
पीछे गिरता जाता…
किलकारी भर-भर खग
दौड़-दौड़ अम्बर में
किरण-डोर लूट रहे :
मैला तम चीर-फाड़
स्वर्ण-ज्योति मचल रही,
डाह-भरी, रंजनी के
आभूषण कुचल रही,
फेक रही इधर-उधर
लत्ते-सा अन्धकार ।
रात चितकबरी
चाँदनी सित रात चितकबरी,
डसे भूखंडकी गंजी सतह पर
खोह से खंडहर,
कपालों में धंसा ज्यों रेंगता मनहूस अँधियारा :
अचानक चौंक कर
बुत छाँव में दो पंख फड़के,
ज्यों किसी स्मृति ने ;
कँगूरों पर खड़े हो
दूर को मेहराब में घुसती हुई
प्रेतात्माओं को पुकारा :
“प्यार की अतृप्त खंडित आत्मा !
आश्वस्त हो-
वह दर्द जीवित है तुम्हारा !”
लुढ़क पड़ी छाया
चाँद से ठुढ़की पड़ी छाया घनी,
एक बूढ़ी रात ओढ़े चाँदनी;
एक फीकी किरण सूजी लाश पर,
स्वप्न कोई हँस रहा आकाश पर;
देह से कुल भूख ग़ायब, कुलबुलाती आँत;
खोपड़ी से देह ग़ायब, खिलखिलाते दाँत :
एक सूखा फूल ठंडी क़ब्र पर,
एक करुणादृष्टि लाखों सब्र पर…
वसन्त की एक लहर
वही जो कुछ सुन रहा हूँ कोकिलों में,
वही जो कुछ हो रहा तय कोपलों में,
वही जो कुछ ढूँढ़ते हम सब दिलों में,
वही जो कुछ बीत जाता है पलों में,
-बोल दो यदि…
कीच से तन-मन सरोवर के ढँके हैं,
प्यार पर कुछ बेतुके पहरे लगे हैं,
गाँठ जो प्रत्यक्ष दिखलाई न देती-
किन्तु हम को चाह भर खुलने न देती,
-खोल दो यदि…
बहुत सम्भव, चुप इन्हीं अमराइयों में
गान आ जाये,
अवांछित, डरी-सी परछाइयों में
जान आ जाये,
बहुत सम्भव है इसी उन्माद में
बह दीख जाये
जिसे हम-तुम चाह कर भी
कह न पाये :
वायु के रंगीन आँचल में
भरी अँगड़ाइयाँ बेचैन फूलों की
सतातीं-
तुम्हीं बढ़ कर
एक प्याला धूप छलका दो अँधेरे हृदय में-
कि नाचे बेझिझक हर दृश्य इन मदहोश आँखों में
तुम्हारा स्पर्श मन में सिमट आये
इस तरह
ज्यों एक मीठी धूप में
कोई बहुत ही शोख़ चेहरा खिलखिला कर
सैकड़ों सूरजमुखी-सा
दृष्टि की हर वासना से लिपट जाये !
दो बत्तख़ें
दोनों ही बत्तख़ हैं,
दोनों ही मानी हैं,
छोटी-सी तलैया के
राजा और रानी हैं;
गन्दे हों, सौदे हों,
मुझ को मराल हैं,
हीरे के दो टुकड़े,
गुदड़ी के लाल हैं,
कीचड़ में जीवन है
पानी का पानी है,
कहने को पंछी हैं,
उड़न को कहानी हैं;
क्या जाने कहाँ गये
कीड़ों को देख-भाल,
कविता-से सुन्दर थे,
सूना कर गये ताल !
शाहज़ादे की कहानी
कभी बचपन में सुनी थी
शाहज़ादे की कहानी
याद आता है…
समुन्दर पार कैसे दानवी
माया-नगर में वह बिचारा
भूल जाता है,
भटकता, खोजता, पर अन्त में
राजी ख़ुशी घर
लौट आता है :
+
आज पर जब एक दानव
शिशु मनोरथ के घरौंदे
रौंद जाता है
न जाने क्यों सदा को एक नाता
इस व्यथा का उस कथा से
टूट जाता है,
और मुझ को कहीं समयातीत
हो जाना
अधिक भाता है ।
गुड़िया
मेले से लाया हूँ इसको
छोटी सी प्यारी गुड़िया,
बेच रही थी इसे भीड़ में
बैठी नुक्कड़ पर बुढ़िया
मोल-भव करके लया हूँ
ठोक-बजाकर देख लिया,
आँखें खोल मूँद सकती है
वह कहती पिया-पिया।
जड़ी सितारों से है इसकी
चुनरी लाल रंग वाली,
बड़ी भली हैं इसकी आँखें
मतवाली काली-काली।
ऊपर से है बड़ी सलोनी
अंदर गुदड़ी है तो क्या?
ओ गुड़िया तू इस पल मेरे
शिशुमन पर विजयी माया।
रखूँगा मैं तूझे खिलौने की
अपनी अलमारी में,
कागज़ के फूलों की नन्हीं
रंगारंग फूलवारी में।
नए-नए कपड़े-गहनों से
तुझको राज़ सजाऊँगा,
खेल-खिलौनों की दुनिया में
तुझको परी बनाऊँगा।
ओ गुड़िया उठ नाच छमा-छम,
तू रानी महरानी है :
गुड्डे दिल को थामे बैठे,
तेरी गज़ब जवानी है :
तेरे रूपरंग पर आधी
दुनियाँ ही दीवानी है :
राज कर रही तू हर दिल पर,
अक्किल पानी-पानी है ।
कपड़ा ला दूँ, ज़ेवर ला दूँ,
बिन्दी ला दूँ, टिकली-
बीच-बज़ार आज तू गुड़िया
मेरे हाथों बिक ली :
तुझे मसख़रा नौकर ला दूँ :
ला दूँ बुद्धू दूल्हा,
तू इतराती घूम और वह
घर पर फूँके चूल्हा :
तू है खेल, खिलाड़ी मैं हूँ,
स्वाँग रचाऊँ ख़ासा :
सब नादान, अनाड़ी सब हैं,
दुनिया बने तमाशा ।
टूटा तारा
तारा दीखा :
तम के अथाह में वह नन्हीं-सी ज्योति-शिखा
मन से कुछ नाता जोड़ गयी।
तारा चमका :
अजनबी पराई दुनिया से ममता आ कर
कुछ मोह हृदय में छोड़ गयी।
तारा टूटा :
आलोक-विमज्जित स्फुलिंग की वह दरार
सहसा छाती को तोड़ गयी।
ताग फूटा :
भू तक झपटी विहल चिनगी की दिव्य धार
तप के अलंघ्य को फोड़ गयी।
तारा खोया :
पर गति उस की मेरी भी जीवनगति सहसा
अज्ञात दिशा में मोड़ गयी।
जो सोता है
जो सोता है उसे सोने दो
वह सुखी है,
जो जगता है उसे जगने दो
उसे जगना है,
जो भोग चुके उसे भूल जाओ
वह नहीं है,
जो दुखता है उसे दुखने दो
उसे पकना है,
जो जाता है उसे जाने दो
उसे जाना है,
जो आता है उसे आने दो
वह अपना है,
जो रहा है जो रहेगा
उसे पाना है,
जो मिटता है उसे मिटने दो
वह सपना है!