नहीं गढ़े चाक पर हमने
सूरज, चाँद
और मिलती है हमें
ढेर धूप-चाँदनी
मौसम नहीं सजाये हमने
और सेंकता है जेठ
भिंगोता है सावन
हमें भी
हमारे हाँके नहीं चलती बयार
और साँस लेने के लिए
पूरे आज़ाद हैं हम
अनाज, हाँ
पसीने से सींच-सींच
हमने उगाये हैं अनाज
तब भी दाने-दाने को
क्यों हैं मोहताज ?
कपड़े, हाँ भाई
धुन-धुन, बुन-बुन कर
हमने बनाये हैं कपड़े
क्यों मगर
हमारे तन पर
झूल रहे लत्ते, चिथड़े?
मकान
जिनकी ईंट-ईंट में
अंकित है
हमारी, थकान
हमारे ही हैं निर्माण
श्रीमान् !
फिर भी क्यों है
हमारे हिस्से
वही जर्जर मचान ?
बहुत उगाये अनाज
अब उगायेंगे प्रश्न
बहुत बुने वस्त्र
अब बुनेंगे प्रश्न
बहुत उठाये मकान
अब उठायेंगे प्रश्न
सिर्फ़ प्रश्न, प्रश्न, प्रश्न
प्रश्न/कविता/रवीन्द्र उपाध्याय