धूप लिखेंगे-छाँह लिखेंगे
मंजिल वाली राह लिखेंगे
खुशियों के कोलाहल में जो
दबी-दबी है आह, लिखेंगे।
बादल काले – उजला पानी
निशा-गर्भ में उषा सुहानी
रंग-गन्ध की कथा चल रही
श्रोता विवश शूल अभिमानी
सतत् सत्य-सन्धानी हैं हम
कैसे हम अफ़वाह लिखेंगे!
जलता एक दीप काफ़ी है
चाहे जितना तम हो गहरा
कब रुकते हैं अभियानी पग?
विघ्न भले हो दुहरा-तिहरा
होंगे और लहर गिनते जो
हम दरिया की थाह लिखेंगे।
बे-मक़सद जीना क्या जीना!
बिना पाल जिस तरह सफ़ीना
हर हताश को हास बाँटना
पड़े न क्यों खुद आँसू पीना
मायूसी के मस्तक पर भी
पल-पल का उत्साह लिखेंगे।
हमें न कोठी, कार चाहिए
श्रम का पर सत्कार चाहिए
फूलों की दो-चार क्यारियाँ
पूरी नहीं बहार चाहिए
हम विरुद्ध हर दमन-दंभ के
होकर बे-परवाह लिखेंगे।
धूप लिखेंगे-छाँह लिखेंगे/नवगीत/रवीन्द्र उपाध्याय