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एक कड़वा सच ये भी/अनिरुद्ध पाण्डेय

धीरे – धीरे सब कुछ बदल रहा है, ये दुनियां एक नई रूप ले रही है और इस बदलती दौर में प्रेम ने तो अपना सहचर ही बदल लिया, अत्यंत सुंदर और अपने इस वशीकरण के रूप से आज की युवा पीढ़ी को आकर्षित कर रही है। कितने ही हास्यस्पद की बात है की इस प्रेम के रूपवती से आज का युवा पीढ़ी मिलने जा रहा है, वोह! ये मैं क्या लिख रहा हूं, युवा पीढ़ी ही नहीं अपितु सभी मिलने जा रहे हैं, और जायेंगे भी क्यों नहीं, नई दौर है देश बदल रहा है, तरकी कर रहा है, तो प्रेम की भाषा भी तो बदलेगी, हां, सच में! युवा पीढ़ी सच ही तो कह रहा है । सच मे इस बदलते दौर ने तो प्रेम की व्याख्या ही बदल दी है।

कुछ लिखना पढ़ना ये जान गए हैं तो कह रहे है , ” ये मॉर्डन युग है ,मॉर्डन, तो मॉर्डन प्यार भी होगा, सब चीजों के नाम बदल रहे हो तो इस प्रेम को पुराना नाम क्यों दे , इसे भी मॉर्डन बनाओ और हास्य की बात यह है की मॉर्डन युग इसे पहला प्यार बता रहा है, इस मॉर्डन युग के पहले प्यार ने न जानें कितने घरों के आंगन और द्वार लूटे होंगे
कितनों की तो शर्म से पगड़ियां झुकी होगी। ये सब बाते लिख कर आपको मैं प्रेरित नहीं कर रहा हूं , ये बता रहा हूं की बातों को पढ़कर, आज की दौर डिग्रियों से बात करती है , प्रतिष्ठा और सम्मान से नहीं।
और बड़े गर्व से इसे प्रचिलित भी कर रही है । इस नई प्रेम की व्याख्या को आपनी ललचाई हुईं आंखों से देख रहे है। और इस नए रूप को निहार भी रहे हैं।
आप भी निहारने चलोगे? मतलब! दर्शन करने, इस नई रूपवती का, चलोगे
तो देखिए आज के प्रेम की काया, जिसने काट कर रह दीया, उस लड़की की काया को , और आधुनिक प्रेम इतनी रूपवती है की आज कल के लड़कों और युवाओं को प्रेम करने से ज्यादा यह डर सता रहा है कहीं ब्रेकअप न हो जाए, और इस रूपवती की नज़र लगी और ब्रकअप हुआ तो लडका समाज के सोच में सम्माननीय बनने के लिए अपने ही प्रेमिका पर तेज़ाब फेंक कर उसके रूप को बिगाड़ देगा और तो और इस अश्लीलता यों के रूपवती के वश में इस दौर के युवा ही नहीं अपितु बच्चे भी धीरे धीर शिकार होते जा रहे हैं,
बस दिखावे की दुनियां है जनाब, कुछ भी कर के यहां के लोगो को नाम चहिए, क्यों सही कहा न
बेबी
कौन जिम्मेदार है ऐसी दौर लाने का, जो समाज को इतना नीचे गिरा दिया है, की किसी के आगे सर झुकाओ तो दस्तार गिर जाती हैं, कहीं से चल कर ये परंपरा नहीं आई है या एका एक आंधी अंपने साथ ऐसे दौर का वेग लेकर आई, अचानक कहीं पर कोई विश फोट नहीं हुआ जो ऐसी दुनियां का निर्माण करें, अगर ऐसी कोई बात होती तो शायद अखबारों में इसकी जानकारी मिलती, अगर होती भी ऐसी घटना तो भी न मिलती, मीडिया तो बड़े बड़े लोग कैसी अपनी जिंदगी को जीते है बस यही आम जनता को दिखा रही है , देश के जरूरत मंद मुद्दे कहा है किसी की कोई ख़बर नहीं
तो फिर ऐसी दौर का जिम्मेदार है।
जो घटनाएं घट रही है उसका जिम्मेदार ये दौर नही है यहां के रहने वाले लोगों का है, जिसकी मति ही फिर गई है, सोच ही बदल गई है , ये पृथ्वी वहीं अपनी ध्रुव पर घुम रही है पर यहां के लोगो की जैसी जैसी सोच बदली, रफ्ता रफ्ता वैसी ही युग बदला
एक युग हुआ करता था, द्वापर युग, इस युग में प्रभु श्री कृष्ण ने प्रेम के भावार्थ को समझाते हुए प्रेम को उसके सबसे सुंदर परिभाषा के मोतियों के साथ भर दिया था और उन्होंने कहा है की प्रेम ब्रह्मांड के सबसे मीठे फल में से एक है जिसके रस में आगर आप डूबे वो भी निस्वार्थ तो फ़िर मधुर रस का आभार होगा। इसका रस अत्यंत मीठा होगा बुरी वासनाओं और अश्लिलतयो को दूर रख के इस रस को चखें, तो
मन को शांति, और आनंद महसूस होगा।
पर ये क्या कलियुग में इसकी स्वाद खट्टी होती जा रहीं है
आज का समाज आपने ही बरसो पुरानी संस्कृति को भूल क्यूं रहा है? क्या उसे मृत्यु पर विजय पाने का शोध मिल गया है या उस बरसो पुरानी संस्कृति को रूढ़ीवादिता सोच कह के समाज में उसे बदनाम कर रहे हो अपने बनाए हुए बहु विज्ञापित विज्ञापन
और अनुकरण की संस्कृति को अपनाकर तुम लोग अपना ही क्षरण हरण कर रहे हो छदम की संस्कृति को अपना रहे हो तुम दृगभ्रमित हो चुके हो
कलियुग में भी जिसने प्रेम को समझ लिया वो पहाड़ को चीर सकता है, सावभिमान और प्रेम के सम्मान के लिए जलती हुई अग्नि में जौहर व्रत कर सकता है
आज कल की प्रेम की निशानी ये है की कोई चॉकलेट दे रहा है तो कोई उसके लिए टिफिन ला रहा है मै विद्यार्थियों की बात कर रहा हूं जो घर पर मां से ये बोल कर टिफिन एक्स्ट्रा पैक कर वा रहा है की मां दोस्त खा जाते है,
ये दिखवा है प्रेम नहीं
प्रेम का असल निशानी ये नहीं है की संगमरमर का ताज महल बनवा दिया, लहू से प्रेम पत्र पर प्रेमिका का नाम लिख दिया, आदि बहुत है
मैं व्यंग करता हूं, आधुनिक युग पर व्यंग करता हूं
उसके प्रेम की निशानी पर व्यंग करता हूं
“सत्य है, ये बात परंतु छप नहीं सकता” ऐसी बात संपादक ने क्यों कहा? ?

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एक कड़वा सच ये भी/अनिरुद्ध पाण्डेय

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