बापू की बकरी बंधी, रस्सी वही प्रसिद्ध।
राजगुरू सुखदेव का, फंदा नोचें गिद्ध।
फन्दा नोचें गिद्ध, चन्द्रशेखर की गोली।
स्वार्थ हुवे सब सिद्ध, सफल चाचा की टोली।
गाँधी नाम भुनाय, नहीं सत्ता से चूकी।
क्रान्तिवीर निष्प्राण, बोल मन जय बापू की।।
आये गाँधी नर्क से, दो टुकड़े करवाय।
हाथ छोड़ के, “गोड़ से”, चरखा रहे चलाय।
चरखा रहे चलाय, सामने तीनों बंदर।
रख के मुँह पर हाथ, हँसे इक मस्त-कलंदर।
आँख दूसरा मूँद, अदालत रोज चलाये।
कान बन्द कर अन्य, यहाँ सत्ता में आये।
कम्बल देंगे भेड़ को, खरगोशों को हैट।
हर घोड़े को नाल दूं, बिल्लों को दूँ रैट।
बिल्लों को दूँ रैट, इलेक्शन बस जितवाओ।
बहुमत की सरकार, अरे रविकर बनवाओ।
कहता रँगा सियार, प्रान्त यह होगा अव्वल।
पियें शुद्ध घी रोज, ओढ़कर भेड़ें कम्बल।।
लोकतंत्र की शक्ल में, दिखने लगी चुड़ैल |
हुश्न परी सा है मगर, मन-मिजाज में मैल |
मन-मिजाज में मैल, मौज मतदाता मारे |
जाति-धर्म को वोट, बड़े सिद्धांत बघारे |
फिर जन गण दे रोय, जीत हो तंत्र-मंत्र की।
वोट बैंक ले खाय, मलाई लोकतंत्र की ।।
बढ़ती भीड़ मशान में, हस्पताल में मर्ज।
दारुण दुर्घटना घटे, मनुज चुकाये कर्ज।
मनुज चुकाये कर्ज, भ्रूण हत्या नित होवे।
दाहिज करता क़त्ल, गली में कुत्ता रोवे ।
धूर्त बजाते गाल, चुड़ैलें सिर पर चढ़तीं |
दंगा नंगा नाच, दूरियां दिल में बढ़तीं ||
कुण्डलियां/व्यंग्य / दिनेश चन्द्र गुप्ता ‘रविकर’