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Year: 2023

गीत-फ़रोश (काव्य संग्रह)/भवानी प्रसाद मिश्र

कवि क़लम अपनी साध, और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध ये कि तेरी-भर न हो तो कह, और बहते बने सादे ढंग से तो बह। जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख। चीज़ ऐसी दे कि स्वाद सर चढ़ जाए बीज ऐसा बो […]

दूसरा सप्तक/भवानी प्रसाद मिश्र

कमल के फूल फूल लाया हूँ कमल के। क्या करूँ’ इनका, पसारें आप आँचल, छोड़ दूँ; हो जाए जी हल्का। किन्तु होगा क्या कमल के फूल का? कुछ नहीं होता किसी की भूल का- मेरी कि तेरी हो- ये कमल के फूल केवल भूल हैं- भूल से आँचल भरूँ ना गोद में इनका सम्भाले मैं […]

तूस की आग/भवानी प्रसाद मिश्र

तूस की आग जैसे फैलती जाती है लगभग बिना अनुमान दिये तूस की आग ऐसे उतर रहा है मेरे भीतर-भीतर कोई एक जलने और जलाने वाला तत्व जिसे मैंने अनुराग माना है क्योंकि इतना जो जाना है मैंने कि मेरे भीतर उतर नही सकता ऐसी अलक्ष्य गति से ऊष्मा देता हुआ धीरे-धीरे… समूचे मेरे अस्तित्व […]

व्यक्तिगत/भवानी प्रसाद मिश्र

व्यक्तिगत (कविता) मैं कुछ दिनों से एक विचित्र सम्पन्नता में पड़ा हूँ संसार का सब कुछ जो बड़ा है और सुन्दर है व्यक्तिगत रूप से मेरा हो गया है सुबह सूरज आता है तो मित्र की तरह मुझे दस्तक देकर जगाता है और मैं उठकर घूमता हूँ उसके साथ लगभग डालकर हाथ में हाथ हरे […]

शरीर कविता फसलें और फूल/भवानी प्रसाद मिश्र

गीत-आघात तोड़ रहे हैं सुबह की ठंडी हवा को फूट रही सूरज की किरनें और नन्हें-नन्हें पंछियों के गीत मज़दूरों की काम पर निकली टोलियों को किरनों से भी ज़्यादा सहारा गीतों का है शायद नहीं तो कैसे निकलते वे इतनी ठंडी हवा में !  आँखें बोलेंगी जीभ की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कहकर या […]

त्रिकाल संध्या/भवानी प्रसाद मिश्र

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले, उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले उनके ढंग से उड़े,, रुकें, खायें और गायें वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में ये औगुनिए चार […]

बुनी हुई रस्सी/भवानी प्रसाद मिश्र

बुनी हुई रस्सी बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा तो वह खुल जाती हैं और अलग अलग देखे जा सकते हैं उसके सारे रेशे मगर कविता को कोई खोले ऐसा उल्टा तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव इस तरह क्योंकि अनुभव तो हमें जितने इसके माध्यम से हुए हैं उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों […]

इदं न मम/भवानी प्रसाद मिश्र

इदं न मम बड़ी मुश्किल से उठ पाता है कोई मामूली-सा भी दर्द इसलिए जब यह बड़ा दर्द आया है तो मानता हूँ कुछ नहीं है इसमें मेरा !  तुम्हारी छाया में जीवन की ऊष्मा की याद भी बनी है जब तक तब तक मैं घुटने में सिर डालकर नहीं बैठूँगा सिकुड़ा–सिकुड़ा भाई मरण तुम […]

बाल कविताएं/भवानी प्रसाद मिश्र

तुकों के खेल मेल बेमेल तुकों के खेल जैसे भाषा के ऊंट की नाक में नकेल ! इससे कुछ तो बनता है भाषा के ऊंट का सिर जितना तानो उतना तनता है!  साल दर साल साल शुरू हो दूध दही से, साल खत्म हो शक्कर घी से, पिपरमेंट, बिस्किट मिसरी से रहें लबालब दोनों खीसे। […]

टार्च बेचने वाले/हरिशंकर परसाई

वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था । बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा । कल फिर दिखा । मगर इस बार उसने दाढी बढा ली थी और लंबा कुरता पहन रखा था । मैंने पूछा, ”कहाँ रहे? और यह दाढी क्यों बढा रखी है? ” उसने जवाब दिया, ”बाहर गया […]