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Year: 2023

ज्ञानदान/यशपाल

महर्षि दीर्घलोम प्रकृति से ही विरक्त थे। गृहस्थ आश्रम में वे केवल थोड़े ही समय के लिए रह पाये थे। उस समय ऋषि पत्नी ने एक कन्यारत्न प्रसव किया था । महर्षि भ्रम और मोह के बन्धनों को ज्ञान की अग्नि में भस्म कर, वैराग्य साधना द्वारा मुक्ति पाने के लिए नर्मदा तीर पर एक […]

आदमी का बच्चा/यशपाल

दो पहर तक डौली कान्वेंट (अंग्रेज़ी स्कूल) में रहती है। इसके बाद उसका समय प्रायः पाया ‘बिंदी’ के साथ कटता है। मामा दोपहर में लंच के लिए साहब की प्रतीक्षा करती है। साहब जल्दी में रहते हैं। ठीक एक बजकर सात मिनट पर आये, गुसलखाने में हाथ-मुंह धोया, इतने में मेज पर खाना आ जाता […]

कुत्ते की पूँछ/यशपाल

श्रीमती जी कई दिन से कह रही थीं- “उलटी बयार” फ़िल्म का बहुत चर्चा है, देख लेते तो अच्छा था। देख आने में ऐतराज़ न था परन्तु सिनेमा शुरू होने के समय अर्थात साढ़े छः बजे तक तो दफ़्तर के काम से ही छुट्टी नहीं मिल पाती। दूसरे शो में जाने का मतलब है- बहुत […]

मक्रील/यशपाल

गर्मी का मौसम था। मक्रील की सुहावनी पहाड़ी। आबोहवा में छुट्टी के दिन बिताने के लिए आई सम्पूर्ण भद्र जनता खिंचकर मोटरों के अड्डे पर, जहाँ पंजाब से आनेवाली सड़क की गाड़ियाँ ठहरती हैं – एकत्र हो रही थी। सूर्य पश्चिम की ओर देवदारों से छाई पहाड़ी की चोटी के पीछे सरक गया था। सूर्य […]

सेवाग्राम के दर्शन/यशपाल

सन 1939 में दूसरा महायुद्ध आरंभ हुआ तो ब्रिटिश साम्राज्‍यशाही सरकार ने भारत की इच्‍छा के विरुद्ध भी देश को उस युद्ध में लपेट लिया। उस समय देश के सभी राजनैतिक दल युद्ध में भाग लेने के विरुद्ध थे। ब्रिटिश सरकार के इस अन्‍याय के विरोध में कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने शासन से असहयोग कर त्‍यागपत्र […]

काबुल/यशपाल

प्राहा में लेखक कांग्रेस के समय जर्मन कवि जिमरिंग से परिचय हुआ था। प्रसंग में बात चली कि मैं कुछ समय के लिए जर्मनी जा सकूँगा या नहीं। बर्लिन देखने की उत्‍सुकता मुझे स्‍वयं थी। तीसरे-चौथे दिन ही प्राहा में पूर्वी जर्मनी के राजदूतावास के एक सज्‍जन ने आकर बात की – ‘प्राहा से बर्लिन […]

सतपुड़ा के जंगल/भवानी प्रसाद मिश्र

सतपुड़ा के घने जंगल नींद मे डूबे हुए-से, ऊँघते अनमने जंगल। झाड़ ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँख मीचे, घास चुप है, कास चुप है मूक शाल, पलाश चुप है। बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल। सड़े पत्ते, गले पत्ते, हरे पत्ते, जले […]

गीत-फ़रोश/भवानी प्रसाद मिश्र

गीत–फ़रोश जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ। मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ; मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ। जी, माल देखिए दाम बताऊँगा, बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा; कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने, कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने; यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलाएगा; यह गीत पिया को पास बुलाएगा। […]

घर की याद/भवानी प्रसाद मिश्र

आज पानी गिर रहा है, बहुत पानी गिर रहा है, रात भर गिरता रहा है, प्राण मन घिरता रहा है, अब सवेरा हो गया है, कब सवेरा हो गया है, ठीक से मैंने न जाना, बहुत सोकर सिर्फ़ माना— क्योंकि बादल की अँधेरी, है अभी तक भी घनेरी, अभी तक चुपचाप है सब, रातवाली छाप […]

सन्नाटा/भवानी प्रसाद मिश्र

तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको, फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमको तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको। कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं, कुछ निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ मैं मौन नहीं हूँ, […]