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Year: 2023

ख़ुश्बू चुराते बच्चे/अनिता रश्मि

कोलतार चुपड़ी काली सड़क से दौड़ते हुए आ मिलते वे बच्चे सवेरे-सवेरे जो फूटती किरण के साथ गए थे सुंदर, साफ, उजर यूनिफाॅर्म में कई स्कूलों में पंक्तिबद्ध अपने-अपने बाबा का हाथ थामे गँवीली पगडंडियों से गुजरकर । दुपहरिया होते घर लौटते ही बाबा के संग, छोड़ उन्हें ओसारे पर भागकर आ गए हैं पगडंडी, […]

अब चुप न रहो/अनिता रश्मि

सारे भेद खोलने दो कविता कवियों के कोने अंतरे में घुसकर किसान की आत्महत्या बेटी की भ्रूण हत्या बेटों के आत्मघाती हमले, पँख पसारे बगूलों सा दो फैलने सारे राग-विराग समय के बेटियों ने कैसे आँचल को बना लिया है परचम सुपुत्रों की कैसे खड़ी हो गई लंबी फौज कैसे धरित्री ‘औ’ आकाश सम माता-पिता […]

ये खिलाड़ी लड़कियांँ/अनिता रश्मि

गाय-भैंसिया, बकरी जंगल में चराते-चराते धींगा-मुश्ती करते अभाव से न जाने कब सीख जातीं हाॅकी खेलना, मारना किक गेंद को, कुश्ती लड़ना या उछाल देना आकाश में एक अबूझ सपना मैदान मार लेने का ओलंपिक का ताज जीत लेने का सपना। आम-इमली पर साधते हुए निशाना थाम लेतीं हैं बिरसा का तीर-धनुष न जाने कब, […]

मुकरियाँ/तारकेश्वरी ‘सुधि’

जब भी बैठा थाम कलाई। मैं मन ही मन में इतराई । नहीं कर पाती मैं प्रतिकार । क्या सखि, साजन? नहीं, मनिहार । धरता रूप सदा बहुतेरे। जगती आशा जब ले फेरे। कभी निर्दयी कर देता छल। क्या सखि, साजन? ना सखि, बादल। राज छुपाकर रखता गहरे। तरह-तरह के उन पर पहरे। करता कभी […]

कुण्डलियां/तारकेश्वरी ‘सुधि’

सुखमय हो जीवन सदा, मुख पर हो मुस्कान । ये तब ही संभव बने, जब हो संग में ज्ञान ।। संग में हो जब ज्ञान, सोच का रूप बदलता । तम का हो अवसान, काज में मिले सफलता। कहती है सुधि सत्य, बने न पल पल दुखमय । कर लें अर्जित ज्ञान, तभी जीवन हो […]

परिणति/डॉ. शिप्रा मिश्रा

नदी अपना मार्ग स्वयं बनाती है कोई नहीं पुचकारता उछालता उसे कोई उसकी ठेस पर मरहम नहीं लगाता दुलारना तो दूर कोई आंख भर देखता भी नहीं तो क्या नदी रुक जाती है या हार मान लेती है कोई उसे मार्ग भी नहीं बताता चट्टानों से भिड़ना उसकी नियति है और उसे अपनी नियति या […]

मेरे भीतर का पिता/डॉ. शिप्रा मिश्रा

मेरे भीतर रहता है एक पिता… जब मैं देखती हूँ उसकी आँखों से जब मैं सुनती हूँ उसी के कानों से जब मैं बोलती हूँ उसी की भाषा जब मैं महसूसती हूँ उसी की संवेदनाएँ मेरे भीतर हमेशा होता है एक पिता…. जो संकेत करता है जब मैं विचलित होती हूँ वह संकेत करता है […]

अर्घ्य/डॉ. शिप्रा मिश्रा

हे सूर्य! तुम इतने प्रखर, तेजस्वी,तेजपुंज के आकर होकर भी हो कितने सहज.. हे आदित्य! तुम संसार को नित्य, नूतन,निरंतर करते हो पुनर्नवा स्वर्ण- रश्मियों से हे भास्कर! अतुल्य,अद्वितीय आभा- मुकुट से कृतार्थ करते हो कण-कण को, क्षण-क्षण.. हे दिनकर! तुम परितृप्त,परिपूर्ण पोषित होते हो हमारी अनभिज्ञ उपासना,अर्चना से.. हे दिवाकर! तुम्हारा अस्त होना कितना […]

लोकतंत्र/डॉ. शिप्रा मिश्रा

बिछ चुकी है बिसात अब फिर नए सिरे से, झोकेंगे अपनी समूची ताकत और सब खेलेंगे दिमाग़ से अपनी चाल अपनी पारी और मंगरुवा ऐसे ही चलाता रहेगा बिना थके चाय,नाश्ता,पान,सिगरेट,शराब बदले में मिल जाऍंगी कुछ फेंकी हुईं हड्डियाँ इन फेंकी,सूखी,चूसी हडि्ड्यों से ही तो सदियों से पोषित होती रही उसकी समूची बिरादरी और पैदा […]

वानप्रस्थ/डॉ. शिप्रा मिश्रा

चले गए सब चले गए जाने दो चले गए अच्छा हुआ चले गए क्या करना जो चले गए अब मैं आराम से खाऊँगी अपने हिस्से की रोटी पहले तो एक ही रोटी के हुआ करते थे कई-कई टुकड़े जाने दो चले गए बहुत अच्छा है चले गए उनके पोतड़े धोते- धोते घिस गईं थीं मेरी […]