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Year: 2023

युगवाणी/सुमित्रानंदन पंत

बदली का प्रभात निशि के तम में झर झर हलकी जल की फूही धरती को कर गई सजल । अंधियाली में छन कर निर्मल जल की फूही तृण तरु को कर उज्जवल ! बीती रात,… धूमिल सजल प्रभात वृष्टि शून्य, नव स्नात । अलस, उनींदा सा जग, कोमलाभ, दृग सुभग ! कहाँ मनुज को अवसर […]

कला और बूढ़ा/सुमित्रानंदन पंत

बूढ़ा चाँद बूढ़ा चांद कला की गोरी बाहों में क्षण भर सोया है । यह अमृत कला है शोभा असि, वह बूढ़ा प्रहरी प्रेम की ढाल । हाथी दांत की स्‍वप्‍नों की मीनार सुलभ नहीं,- न सही । ओ बाहरी खोखली समते, नाग दंतों विष दंतों की खेती मत उगा। राख की ढेरी से ढंका […]

स्वर्णधूलि/सुमित्रानंदन पंत

मुझे असत् से मुझे असत् से ले जाओ हे सत्य ओर मुझे तमस से उठा, दिखाओ ज्योति छोर, मुझे मृत्यु से बचा, बनाओ अमृत भोर! बार बार आकर अंतर में हे चिर परिचित, दक्षिण मुख से, रुद्र, करो मेरी रक्षा नित! स्वर्णधूलि स्वर्ण बालुका किसने बरसा दी रे जगती के मरुथल मे, सिकता पर स्वर्णांकित […]

युगांत/सुमित्रानंदन पंत

1. द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण! हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत, तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!! निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग! जग-नीड़, शब्द औ’ श्वास-हीन, च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम झर-झर अनन्त में हो विलीन! कंकाल-जाल जग में फैले फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली! प्राणों की मर्मर से मुखरित जीव की मांसल हरियाली! […]

ग्राम्या/सुमित्रानंदन पंत

1. स्वप्न पट ग्राम नहीं, वे ग्राम आज औ’ नगर न नगर जनाकर, मानव कर से निखिल प्रकृति जग संस्कृत, सार्थक, सुंदर। देश राष्ट्र वे नहीं, जीर्ण जग पतझर त्रास समापन, नील गगन है: हरित धरा: नव युग: नव मानव जीवन। आज मिट गए दैन्य दुःख, सब क्षुधा तृषा के क्रंदन भावी स्वप्नों के पट […]

गुंजन/सुमित्रानंदन पंत

1. वन-वन, उपवन वन-वन, उपवन- छाया उन्मन-उन्मन गुंजन, नव-वय के अलियों का गुंजन! रुपहले, सुनहले आम्र-बौर, नीले, पीले औ ताम्र भौंर, रे गंध-अंध हो ठौर-ठौर उड़ पाँति-पाँति में चिर-उन्मन करते मधु के वन में गुंजन! वन के विटपों की डाल-डाल कोमल कलियों से लाल-लाल, फैली नव-मधु की रूप-ज्वाल, जल-जल प्राणों के अलि उन्मन करते स्पन्दन, […]

पल्लव/सुमित्रानंदन पंत

1. पल्लव अरे! ये पल्लव-बाल! सजा सुमनों के सौरभ-हार गूँथते वे उपहार; अभी तो हैं ये नवल-प्रवाल, नहीं छूटो तरु-डाल; विश्व पर विस्मित-चितवन डाल, हिलाते अधर-प्रवाल! न पत्रों का मर्मरु संगीत, न पुरुषों का रस, राग, पराग; एक अस्फुट, अस्पष्ट, अगीत, सुप्ति की ये स्वप्निल मुसकान; सरल शिशुओं के शुचि अनुराग, वन्य विहगों के गान […]

मेरी पहली कविता/सुमित्रानंदन पंत

अल्मोड़े में पादरियों तथा ईसाई धर्म प्रचारकों के भाषण प्रायः ही सुनने को मिलते थे, जिनसे मैं छुटपन में बहुत प्रभावित रहा हूँ। वे पवित्र जीवन व्यतीत करने की बातें करते थे और प्रभु की शरण आने का उपदेश देते थे जो मुझे बहुत अच्छा लगता था। गिरजे के घंटे की ध्वनि से प्रेरणा पाकर […]

मैं क्यों लिखता हूँ/सुमित्रानंदन पंत

मैं क्यों लिखता हूँ—यह प्रश्न मेरे जैसे व्यक्ति के लिए उतना स्वाभाविक नहीं जितना कि मैं क्यों न लिखूँ। जब लिखने को जी करता है, उसमें सुख मिलता है जो कि एक उपेक्षणीय वस्तु नहीं—तब कोई क्यों न लिखे? किन्तु जागतिक ऊहापोहों के कारण कभी मेरे मन में भी यह बात आती है कि मैं […]

कवि के स्वप्नों का महत्व/सुमित्रानंदन पंत

कवि के स्वप्नों का महत्त्व!—विषय सम्भवतः थोड़ा गम्भीर है। स्वप्न और यथार्थ मानव-जीवन-सत्य के दो पहलू हैं : स्वप्न यथार्थ बनता जाता है और यथार्थ स्वप्न। ‘एक सौ वर्ष नगर उपवन, एक सौ वर्ष विजन वन’—इस अणु-संहार के युग में इस सत्य को समझना कठिन नहीं है। वास्तव में स्वप्न और वास्तविकता के चरणों पर […]