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शिक्षा के आदर्शों में परिवर्तन/चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

पहले यह माना जाता था कि विद्या कोई बाहरी चीज़ है जिसे गुरु पढ़नेवाले के हृदय में घुसेड़ता है। पढ़नेवाले का हृदय कोरा काग़ज़ है और उस पर गुरु नए अक्षर और नए संस्कार अंकित करता है। उसके ख़ाली मस्तिष्क में या पोल मन में कोई बहुमूल्य पदार्थ बाहर से भरा जाता है जैसा कि रहीम ने एक सुंदर उपमा से कहा है :

रहिमन विद्या पढ़न में, बालक झोंका खाय ।
तन घट अरु विद्या रतन, भरत हिलाय हिलाय ।।

अथवा जैसा वैदिक-काल की एक पुरानी गाथा कहती है :

यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति ।
एवं गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ।।

(जैसे कुदाली से खोदते-खोदते आदमी को पानी मिल जाता है वैसे सेवा करने वाले को गुरु में से विद्या मिलती है)।

पर आदर्श अब बदल गया है। विद्या कोई बाहरी चीज़ नहीं है जो गुरु को बाहर से ठूँसकर भरनी पड़ती है। गुरु का काम शिष्य के हृदय की सोती हुई शक्तियों को जगाना है, उसके सहज और परंपरागत संस्कारों को चिताना है। पीढ़ियों से पशुत्व और मनुष्यत्व के जो भाव उसके मस्तिष्क में हैं उन्हें उत्तेजित करना, उनमें जो हानिकारक हों उन्हें मिटाना और जो अच्छे हों उन्हें प्रबल कर देना – ये गुरु का काम है। गुरु धोबी के गधे को जौनपुर का क़ाज़ी नहीं बना सकता। कथा के अनुसार वह फिर रस्सी देखकर दौड़ा चला जावेगा। गुरु बाहर से कुछ नहीं डालता, भीतर के अचेतन बलों को चमका देता है। गुरु का काम जिला करनेवाले का या रत्नों को घिसनेवाले का है, नई वस्तु गढ़नेवाले का नहीं। भवभूति इस सत्य को कुछ-कुछ कह गया है :

वितरति गुरु प्राज्ञे विद्यां तथैव, तथा जडे
न च खलु तयोर्ज्ञाने शक्तिं करोत्यपहन्ति वा।
भवति च त्तयोर्भूर्यान् ‘भेद:’ फलं प्रति तद्यथा,
प्रभवति शुचिर्विंबोद्ग्राहे मृणिर्न मृदां चय: ।।

जिसकी आँखों पर पट्टी बंधी हो, उसे जैसे सड़क की लीक पर छोड़ दिया और यह कह दिया कि इधर दाहिने हाथ जाना और उधर बाएँ हाथ, और उपनिषदों की भाषा में, वह ‘पंडित मेधावी गांधार देश पहुँच जाएगा।’ वैसे ही गुरु मार्ग दिखा सकता है, अज्ञान तिमिरांध की आँखें वह ज्ञानंजन शलाका से खोल सकता है, जनमांध को वह आँख नहीं दे सकता। विद्यार्थी अनगढ़ लकड़ी के कुंदे नहीं होते, वे पशु होते हैं, मनुष्य होते हैं। प्रकृति उन्हें शिक्षा दे रही है। गुरु का काम केवल प्रकृति की सहायता करना है, बल्कि बालक निचले नहीं बैठ सकते। जो गुरु उन्हें चित्र की तरह नि:स्पंद बिठाकर स्थिरोपवेश बनाना चाहता है, वह बड़ी भूल करता है। वह प्रकृति की चलती चक्की में कंकर डालता है, प्रवृत्ति के स्वाभाविक रस के स्रोत को सुखाता है। चतुर गुरु वह है जो उनकी इस प्रवृत्ति को उचित मार्ग में जोतकर वनस्पति-विज्ञान, पदार्थ-परिचय और सहयोगिता की शिक्षा देता है। पहले यह माना जाता था कि सीखनेवाले सिखाया जाना नहीं चाहते। रीते मुँह पाठशाला में जाते हैं और छूटते ही तीर की तरह भागते हैं। खेलना वे चाहते हैं। पढ़ना नहीं। खेलने से ख़राब होने की धमकी और पढ़ने से नवाब होने की प्रलोभन कहावतों में उनकी आँखों के सामने नचाई जाती थी। अब यह सब बदल गया है। खेलना बड़ी भारी शिक्षा है। जितने मनुष्यत्व के अंग खेल में और खुले में सीखे जाते हैं उतने गुरु जी की तंग कोठरी में पट्टी और खड़िया से नहीं। एक बात में पहले पंडित बनाने का यत्न किया जाता था, अब मनुष्य बनाने का यत्न आदर्श माना जाता है। यह दूसरी बात है कि आजकल की शिक्षा में कुछ दोष बिना बुलाए आ घुसते हैं, जैसे पहले की शिक्षा में गुण अकस्मात् आ जाते थे। यहाँ केवल आदर्शों का विचार है, व्यावहारिक गुण-दोष का नहीं। यही दावा है कि नई आदर्श प्रणाली जैसी चाहिए वैसी यहाँ चल रही है। प्रत्युत शिक्षा प्रणाली में यह देश बड़ी असमंजस में पड़ा हुआ है। न पुरानी चाल के अच्छे ढंग ही रहे हैं और न नई के गुण अभी चल सके हैं। इस लेख में केवल सिद्धांतों का विचार है।

विद्यार्थी पात्र (बरतन) माना जाता था। पर कुछ खेदनेवाले का-सा परिश्रम करने की उससे आशा की जाती थी। ऊपर की वैदिक भाषा में शुश्रूषु पर ध्यान दीजिए। जिस समाज में गुरु कुछ वेतन नहीं पाते थे, जहाँ विद्या का बेचना पाप था, वहाँ सेवा में शिष्यों को जोतना अर्थशास्त्र के अनुसार था। गुरु शिष्य के मन को सुधारने में जो श्रम करता था उसका विनिमय (क्योंकि बदला अवश्य चाहिए, चाहे माहवारी तनख़्वाह हो, चाहे खेती की रखवाली और चाहे समावर्तन के पीछे गुरुदक्षिणा की आशा) छात्रों की मेहनत से हो जाता था। संस्कृत का इतिहास इस सेवा के कितने ही उल्लेखों से भरा पड़ा है। कहीं गुरु बरसते पानी में शिष्य को अपनी बह जानेवाली खेत की मेंड बना देता है, कहीं वह चार सौ दुर्बल गाएँ सौंपकर उसे कहता है कि उन्हें बिना हज़ार किए जंगल से मत लौटना, कहीं अपने वीर शिष्यों के द्वारा अपने पराजय का बदला किसी अभिमानी राजा से निकालना चाहता है और गुरूपत्नियाँ कहीं अपनी भूषणप्रियता से राजमहिषी के कुंडल मंगवाती हैं, विद्यार्थियों को गौओं का दूध पीना तो दूर रहा, बछड़ों के मुँह पर लगा हुआ पीने से रोकती हैं, कहीं रगड़कर इतनी मज़दूरी लेती हैं कि विद्यार्थी पढ़ने को प्रणाम करके हिमालय में तपस्या करने चला जाता है और शिव जी को प्रसन्न करके जगत् भर से कहलाता है कि हता: पापिनिना वयम्। हमें पापिनी ने मार डाला। और विद्यार्थी पंडित होकर किस प्रकार उस अपनी कठोर सेवा को प्रेम से याद करते हैं। मुरारि ‘गुरुकुल क्लिष्ट’ होने का अभिमान करता है और श्रीहर्ष अपनी कविता की गाँठें श्रद्धा से गुरुसेवा करनेवालों से खुलवाने की आशा करता है। पर इतना पानी भरने और लकड़ियाँ ढोने पर भी जिसे कुछ आ गया, उसे आ गया, गुरु का कुछ दायित्व नहीं। अब सारा परिश्रम गुरु के सिर पर है। यदि विद्यार्थी न समझे तो उसका दोष है, समझाने का ढंग नहीं आता। वह बालक-मनोविज्ञान से अजान है। उसे प्रत्येक बालक के इतिहास से, उसके वंशगत विचारों से, उसकी रुचियों से, जानकार होना चाहिए, जिससे वह उनका सुधार कर सके।

यह सम्भव नहीं कि हर किसी को हर पढ़ा ले। तभी तो कहा गया है कि ‘मातृमान्’, ‘पितृमान्’, ‘आचार्यमान्’ ‘पुरुषो वेद’ – जिसे माता, पिता और पीछे आचार्य सिखावे, वही सीख सकता है। इसी से तो कहा गया है कि पितैबोधनयेत् पुत्रम् पिता ही पुत्र को सिखावे। जितनी बालक की प्रवृत्तियों की जानकारी माता को और उसके पीछे पिता को होती है, उतनी बाहर के किसको हो सकती है! परंतु सभ्यता के कारण काम करने की शक्ति इतनी बिखर जाती है कि प्रत्येक पिता अपने पुत्र को नहीं पढ़ा सकता और यह श्रम-विभाग का भी एक उदाहरण है कि सिखाने वालों का एक समूह पृथक बन जाए। पुराने लोग अपने खेत में अन्न उपजाकर अपने लिए आप ही कपड़ा बुनते और लकड़ी काटने के लिए आप ही कुल्हाड़ी बनाकर चौंकियाँ बना लेते हों, पर अब किसान और जुलाहा, लोहार और खाती का काम न्यारा-न्यारा है। पर पढ़ाने के काम में इतनी छीछालेदर है जितनी किसी में नहीं। रोगी अपनी चिकित्सा आप नहीं करता, न वह चाहता है कि मेरे पुत्र की चिकित्सा अनाड़ी डॉक्टर करे। अपना रुपया हम ऐसे कोठीवाले के यहाँ रखना नहीं चाहते, जो धन विनियोग के सिद्धांतों को न जानता हो। अपना मुक़दमा हम स्वयं कचहरी में नहीं ले जाते और न ऐसे वक़ील को सौंपते हैं जो पैरवी न कर सकता हो। पर अपने बालकों की शिक्षा का भार हम या तो स्वयं उठाने का बहाना करते हैं या ऐसे लोगों को सौंपते हैं जो डॉक्टर या वक़ील या कुछ और बनने में अयोग्य सिद्ध होकर लड़के पढ़ाना प्रारम्भ करते हैं। जो और पेशों में सफलता नहीं पा सकते हैं उनके लिए मास्टरी का द्वार खुला है, आफिसों के क्लर्क अपने क़लम रगड़ने से फ़ुरसत के समय को लड़के पढ़ाने में लगाना चाहते हैं और यह एक साधारण उक्ति है कि और रोज़गार नहीं हुआ तो चार लड़के पढ़ाकर गुज़ारा करेंगे। शाहजहाँ ने भी अपनी क़ैद के दिनों में अपने सुपुत्र औरंगज़ेब से समय काटने के लिए पढ़ाने को लड़के माँगे थे।

विश्वविद्यालय के नए उपाधिकारियों को गुरु बनाना, नाई का हाथ जम जाय इसलिए अपना सिर छिलवाना है। यों रटाई होती है, पढ़ाई नहीं। पढ़ाना भी एक कला है जिसे पूरी तरह न जाननेवाला निभा नहीं सकता। यों तो सिखाना कविता की तरह ईश्वर की देन है, सौ-सौ ट्रेनिंग स्कूलों में धक्के खाने पर भी वह योग्यता नहीं हो सकती जो ‘जन्म के गुरु’ को होती है, पर आजकल पढ़ाना भी पढ़ना चाहिए। पढ़ाने की परीक्षा होती है। समझाने का विज्ञान जानना पड़ता है। अच्छे पढ़ानेवालों का ढंग सीखना होता है। बालक-मनोविज्ञान समझना होता है। विकासवाद के तत्त्व टटोलने पड़ते हैं। समाजशास्त्र और प्राणिशास्त्र, ज्ञानतंतुशास्त्र और आचारशास्त्र का मनन करना होता है। यह कोई आवश्यक बात नहीं कि अच्छा विद्वान अच्छा अध्यापक हो। कभी-कभी इसके बिलकुल विपरीत होता है। विद्वान् अपने को बालकों की बुद्धि के पलड़े पर नहीं बिठा सकता, वह चौमंज़िले से खड़ा-खड़ा बालकों के क्षितिज के ऊपर देख सकता है। बालक छोटी-सी झड़बेरी के फल तोड़ सकते हैं, ऊँचे आम के नहीं।

‘मारना’ गुरुओं का एक अमोघ शस्त्र है। जो बात समझाने से किसी शिष्य के मन में न बैठे, मारकर बिठाई जाए। हज़रत सुलेमान कह गए हैं कि ‘लाठी को बचाओ और बालक को बिगाड़ो।’ मनुस्मृति में शिष्य और पुत्र के मारने की मनाही नहीं है और भाष्यकार पतंजलि खंडिकोपाध्याय की चपेटिकाओं को जगह-जगह याद करके एक पुराने श्लोक को उद्धृत करते हैं जिसके अनुसार चोर, क्रुद्ध, गुरु और भयदायक पड़ोस से दूर रहने में ही भलाई कही गई है :

दूरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम् ।
दूराच्च भाव्यं दस्युभ्यो दूराच्च कुपितोद्गुरौ: ।।

एक और स्थान पर उन्होंने गुरु के हाथों को अमृतमय कहा है, परंतु ताड़न में गुण और लाड़ लड़ाने में दोष समझने की पुरानी कहावत है :

सामृतै: पाणिर्भिन्ति गुरुवो न विषोक्षितैः ।
लालनाश्रयिणो दोषासतडनाश्रयिणो गुणा: ।।

‘जोशी की चोट और विद्या की पोट’ वाली कहावत के बल पर गुरु की ‘मूरख समझावनी’ राजदंड से भी बढ़कर चला करती थी। वर्तमान शिक्षा-विज्ञान ने यह प्रतिमा भी तोड़ दी है। आजकल बालक को मारना एक कायरपन है, जिसका सहारा यह जानकर कि बालक लट्ठ नहीं मार सकता, केवल कापुरुष ही लेते हैं। आचरण सम्बंधी अपराधों में शासन के लिए मारने की उपयोगिता मानी गई है, पर वह भी भय उपजाने के लिए और दंड की बुद्धि से पीड़ा पहुँचाने और बदला लेने की नीयत से नहीं। अधिक मार से बालक निर्लज्ज हो जाते हैं और बुद्धि के दोषों, न समझने और न याद रखने आदि पर शारीरिक दंड का प्रयोग अनुचित है। गुरु की आँख का दंड, साथियों के सामने हँसे जाने का दंड और गुरु प्रसाद का पुरस्कार अब इस प्राचीन प्रथा को निर्दय और अनावश्यक सिद्ध करने जाते हैं।

यह कहा जा चुका है कि पहले पंडित बनाने का यत्न किया जाता था, अब मनुष्य बनाने का। पहले भाषा के जानने पर अनावश्यक ज़ोर दिया जाता था, अब विषयों पर ध्यान है। लैटिन या ग्रीक, या संस्कृत का कोश और व्याकरण की रटाई के भरोसे पढ़ना विद्या की सीमा थी। कितने वर्ष व्यर्थ इस अलूनी सिला को चाटने में बीतते थे। अब भाषा पढ़ाई जाती है तो वह ज्ञान का लक्ष्य नहीं मानी जाती, ज्ञान का साधन मानी जाती है। भाषा ‘भाषा’ की तरह कान और मुख को सिखाई जाती है, तोते की तरह स्मृति को नहीं। न अधिकारी और अनधिकारी का भेद था। उदार शिक्षा और विशिष्ट अभ्यास में कोई अंतर नहीं किया जाता था। संस्कृत भाषा को भाषा समझकर नहीं पढ़ा जाता था, परंतु प्रत्येक मनुष्य ही नागोजी भट्ट के लच्छेदार परिष्कारों में उलझकर रात बिताकर फिर सवेरे जहाँ से चला वहीं लंघाई के भाड़े की कुटिया पर खड़ा मिलता था। तभी तो ज्ञानी पश्चाताप करते थे कि काल के आने पर ‘डुकृज करणें’ नहीं बचाता। जो समय शब्दों में बीतता था, वह भावों में लगाया जाता है। गणित, पदार्थ-विज्ञान, रसायन आदि की शिक्षा मनुष्यों में क्यों और कैसे के प्रश्नों को नित्य जगाती जाती है। पहले जो आचार्य ने लिखा है वह बिना समझे ही मानना होता था, पीछे वर्षों के श्रम के बाद चाहे समझ में आवे, चाहे न आवे। अब गणित के नियम सूत्र या गुर से नहीं सिखाए जाते, पचास सवाल करके स्वयं गुर या सूत्र निकालने के लिए शिष्य तैयार किया जाता है। स्मृति को अनावश्यक बोझ से लादा नहीं जाता, परंतु उसे जागती हुई समझ का जेबी बटुआ बनाया जाता है। इतिहास केवल तारीख़ों की कड़ी या राजाओं की नामावली नहीं रहा है, वह मनुष्य के व्यवहारों के अनिष्फल परिणामों का अनुशीलन है। भूगोल केवल नदियों और शहरों की सूची नहीं है, वह जल, स्थल और ऋतुओं के परिवर्तन और बस्ती के बदलने के कारणों की खोज है। एक बात में पहले हम छात्रावास में मुँह में भरी हुई घास की जन्म-भर जुगाली करते थे, अब काम की चीज़ों को चुन सकने और ले सकने के लिए तैयार कर दिए जाते हैं। अपनी खोज से पाया हुआ एक आलू दूसरे के दिए हुए ज़मींकंद से अच्छा है – इस सिद्धांत के लिए छात्र तैयार किए जाते हैं। गुरु का काम साधारण और उदार शिक्षा से मन का मैल धो देना है, पीछे खोजी अपने आप जैसा रंग चाहे वैसा चढ़ा ले।

पहले जल्दी बहुत की जाती थी। आठ वर्ष की नियत अवस्था तक जिसे ब्रह्मचर्य पा सकने की प्रतीक्षा न थी उसका उपनयन पाँच वर्ष की ही उमर में किया जा सकता था। पतंजलि ने आह भरकर कहा है कि वेदमधीत्यव्वरिता: प्रवक्तारो भवंति और मध्य समय के यूरोप के विश्वविद्यालयों में जितनी छोटी उमर में डॉक्टर की पदवी पाई जाती थी उतनी ही प्रतिष्ठा होती थी। यहाँ भी यह घमंड मारा जाता है कि ‘अमुक ने बारह वर्ष की अवस्था में मैट्रीकुलेशन कर लिया था।’ इसका फल वही होता था, जो बाल विवाह का होता है। उधर दादा जी की गोदी में नाती खिलाने का सौभाग्य मिलता है, इधर दूध के दाँत टूटते न टूटते त्रिकोणमिति होने लगती है। जब सीखने की प्रकृत अवस्था आती है तब कमर झुक और आँख धँस चुकती है। प्रकृति का पृष्ठ खुलने के पहले बंद हो जाता है। वर्तमान शिक्षाशास्त्र समय को यों सरपट दौड़ाने की सम्मति नहीं देता। वह कहता है कि जब तक देह का पूरा विकास न हो ले, तब तक मन को लादने का उद्योग न करो, नहीं तो मिठाई के मार से छींके के टूटने का शोकमय नाटक अभिनीत होगा।

एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था 8 वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफ़ेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण वह सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीघ्रता में फैल जाने के कारण और मछलियों की प्राणरक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने न मानने का शास्त्रार्थ कह गया और इंग्लैंड के राजा हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया। यह पूछा गया कि तू क्या करेगा। बालक ने सीखा-सिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोक-सेवा करूँगा। सभा ‘वाह-वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था। एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम माँगे वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पुस्तक माँगता है। बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ़ कर नक़ली परदे के हट जाने पर स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, “लड्डू।” पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख की साँस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था। पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है, क्योंकि वह ‘लड्डू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं।

(विद्यार्थी; 18 नवम्बर, 1914 ईसवी)

लेखक

  • चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' (1883 - 12 सितम्बर 1922) हिन्दी के कथाकार, व्यंगकार, निबन्धकार तथा सम्पादक थे। मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के वासी ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री राजसम्मान पाकर जयपुर (राजस्थान) में बस गए थे। उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने सन् 1883 में चन्द्रधर को जन्म दिया। घर में बालक को संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला और मेधावी चन्द्रधर ने इन सभी संस्कारों और विद्याओं आत्मसात् किया। आगे चलकर उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा भी प्राप्त की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम. ए. (प्रथम श्रेणी में द्वितीय और प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. (प्रथम श्रेणी में प्रथम) करने के बाद चाहते हुए भी वे आगे की पढ़ाई परिस्थितिवश जारी न रख पाए हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने "द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स" शीर्षक अंग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की। अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे। जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं॰ मदन मोहन मालवीय के प्रबंध आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया। इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितम्बर को पीलिया के बाद तेज ज्वर से मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया। कार्य इस थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत प्राकृत बांग्ला मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन भाषाविज्ञान शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में बराबर मिलता रहता है। पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के साथ एक बहुत बड़ी विडम्बना यह है कि उनके अध्ययन, ज्ञान और रुचि का क्षेत्र हालाँकि बेहद विस्तृत था और उनकी प्रतिभा का प्रसार भी अनेक कृतियों, कृतिरूपों और विधाओं में हुआ था, किन्तु आम हिन्दी पाठक ही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें अमर कहानी ‘उसने कहा था’ के रचनाकार के रूप में ही पहचानता है। इस कहानी की प्रखर चौंध ने उनके बाकी वैविध्य भरे सशक्त कृति संसार को मानो ग्रस लिया है। उनके प्रबल प्रशंसक और प्रखर आलोचक भी अमूमन इसी कहानी को लेकर उलझते रहे हैं। प्राचीन साहित्य, संस्कृति, हिन्दी भाषा समकालीन समाज, राजनीति आदि विषयों से जुड़ी इनकी विद्वता का जिक्र यदा-कदा होता रहता है, पर ‘कछुआ धरम’ और ‘मारेसि मोहि कुठाऊँ’ जैसे एक दो निबन्धों और पुरानी हिन्दी जैसी लेखमाला के उल्लेख को छोड़कर उस विद्वता की बानगी आम पाठक तक शायद ही पहुँची हो। व्यापक हिन्दी समाज उनकी प्रकाण्ड विद्वता और सर्जनात्मक प्रतिभा से लगभग अनजान है। अपने 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में गुलेरी जी ने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना तो नहीं कि किन्तु फुटकर रूप में बहुत लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा और अनेक विधाओं की विशेषताओं और रूपों को समेटते-समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ विशुद्ध अकादमिक अथवा शोधपरक है, उनकी शास्त्रज्ञता तथा पाण्डित्य का परिचायक है; वहीं, उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी दृष्टि और समकालीन समाज, धर्म राजनीति आदि से गहन सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी ‘पुरानी हिन्दी’ जैसी अकादमिक और ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ जैसी शोधपरक रचनाओं तक में दिखाई देता है। इन बातों के अतिरिक्त गुलेरी जी के विचारों की आधुनिकता भी हमसे आज उनके पुराविष्कार की माँग करती है। मात्र 39 वर्ष की जीवन-अवधि को देखते हुए गुलेरी जी के लेखन का परिमाण और उनकी विषय-वस्तु तथा विधाओं का वैविध्य सचमुच विस्मयकर है। उनकी रचनाओं में कहानियाँ कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ-सभी शामिल हैं। विषय-वस्तु की व्यापकता की दृष्टि से गुलेरी जी का लेखन धर्म पुरातत्त्व, इतिहास और भाषाशास्त्र जैसे गम्भीर विषयों से लेकर काशी की नींद जैसे हलके-फुलके विषयों तक को समान भाव से समेटता है। विषयों का इतना वैविध्य लेखक के अध्ययन, अभिरुचि और ज्ञान के विस्तार की गवाही देता है, तो हर विषय पर इतनी गहराई से समकालीन परिप्रेक्ष्य में विचार अपने समय और नए विचारों के प्रति उसकी सजगता को रेखांकित करता है। राज ज्योतिषी के परिवार में जन्मे, हिन्दू धर्म के तमाम कर्मकाण्डों में विधिवत् दीक्षित, त्रिपुण्डधारी निष्ठावान ब्राह्मण की छवि से यह रूढ़िभंजक यथार्थ शायद मेल नहीं खाता, मगर उस सामाजिक-राजनीतिक-साहित्यिक उत्तेजना के काल में उनका प्रतिगामी रुढ़ियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाना स्वाभाविक ही था। यह याद रखना ज़रूरी है कि वे रूढियों के विरोध के नाम पर केवल आँख मूँदकर तलवार नहीं भाँजते। खण्डन के साथ ही वे उचित और उपयुक्त का मंडन भी करते हैं। किन्तु धर्म, समाज, राजनीति और साहित्य में उन्हें जहाँ कहीं भी पाखण्ड या अनौचित्य नज़र आता है, उस पर वे जमकर प्रहार करते हैं। इस क्रम में उनकी वैचारिक पारदर्शिता, गहराई और दूरदर्शिता इसी बात से सिद्ध है कि उनके उठाए हुए अधिकतर मुद्दे और उनकी आलोचना आज भी प्रासंगिक हैं। उनके लेखन की रोचकता उसकी प्रासंगिकता के अतिरिक्त उसकी प्रस्तुति की अनोखी भंगिमा में भी निहित है। उस युग के कई अन्य निबन्धकारों की तरह गुलेरी जी के लेखन में भी मस्ती तथा विनोद भाव एक अन्तर्धारा लगातार प्रवाहित होती रहती है। धर्मसिद्धान्त, अध्यात्म आदि जैसे कुछ एक गम्भीर विषयों को छोड़कर लगभग हर विषय के लेखन में यह विनोद भाव प्रसंगों के चुनाव में भाषा के मुहावरों में उद्धरणों और उक्तियों में बराबर झंकृत रहता है। जहाँ आलोचना कुछ अधिक भेदक होती है, वहाँ यह विनोद व्यंग्य में बदल जाता है-जैसे शिक्षा, सामाजिक, रूढ़ियों तथा राजनीति सम्बन्धी लेखों में इससे गुलेरी जी की रचनाएँ कभी गुदगुदाकर, कभी झकझोरकर पाठक की रुचि को बाँधे रहती हैं। भाषा-शैली गुलेरी जी की शैली मुख्यतः वार्तालाप की शैली है जहाँ वे किस्साबयानी के लहजे़ में मानो सीधे पाठक से मुख़ातिब होते हैं। यह साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली को सँवरने का काल था। अतः शब्दावली और प्रयोगों के स्तर पर सामरस्य और परिमार्जन की कहीं-कहीं कमी भी नज़र आती है। कहीं वे ‘पृश्णि’, ‘क्लृप्ति’ और ‘आग्मीघ्र’ जैसे अप्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं तो कहीं ‘बेर’, ‘बिछोड़ा’ और ‘पैंड़’ जैसे ठेठ लोकभाषा के शब्दों का। अंग्रेज़ी अरबी-फारसी आदि के शब्द ही नहीं पूरे-के-पूरे मुहावरे भी उनके लेखन में तत्सम या अनूदित रूप में चले आते हैं। पर भाषा के इस मिले-जुले रूप और बातचीत के लहज़े से उनके लेखन में एक अनौपचारिकता और आत्मीयता भी आ गई है। हाँ गुलेरी जी अपने लेखन में उद्धरण और उदाहरण बहुत देते हैं। इन उद्धरणों और उदाहरणों से आमतौर पर उनका कथ्य और अधिक स्पष्ट तथा रोचक हो उठता है पर कई जगह यह पाठक से उदाहरण की पृष्ठभूमि और प्रसंग के ज्ञान की माँग भी करता है आम पाठक से प्राचीन भारतीय वाङ्मय, पश्चिमी साहित्य, इतिहास आदि के इतने ज्ञान की अपेक्षा करना ही गलत है। इसलिए यह अतिरिक्त ‘प्रसंगगर्भत्व’ उनके लेखन के सहज रसास्वाद में कहीं-कहीं अवश्य ही बाधक होता है। बहरहाल गुलेरी जी की अभिव्यक्ति में कहीं भी जो भी कमियाँ रही हों, हिन्दी भाषा और शब्दावली के विकास में उनके सकारात्मक योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे खड़ी बोली का प्रयोग अनेक विषयों और अनेक प्रसंगों में कर रहे थे-शायद किसी भी अन्य समकालीन विद्वान से कहीं बढ़कर। साहित्य पुराण-प्रसंग इतिहास, विज्ञान, भाषाविज्ञान, पुरातत्त्व, धर्म, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि अनेक विषयों की वाहक उनकी भाषा स्वाभाविक रूप से ही अनेक प्रयुक्तियों और शैलियों के लिए गुंजाइश बना रही थी। वह विभिन्न विषयों को अभिव्यक्त करने में हिन्दी की सक्षमता का जीवन्त प्रमाण है। हर सन्दर्भ में उनकी भाषा आत्मीय तथा सजीव रहती है, भले ही कहीं-कहीं वह अधिक जटिल या अधिक हलकी क्यों न हो जाती हो। गुलेरी जी की भाषा और शैली उनके विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं थी। वह युग-सन्धि पर खड़े एक विवेकी मानस का और उस युग की मानसिकता का भी प्रामाणिक दस्तावेज़ है। इसी ओर इंगित करते हुए प्रो॰ नामवर सिंह का भी कहना है, ‘‘गुलेरी जी हिन्दी में सिर्फ एक नया गद्य या नयी शैली नहीं गढ़ रहे थे बल्कि वे वस्तुतः एक नयी चेतना का निर्माण कर रहे थे और यह नया गद्य नयी चेतना का सर्जनात्मक साधन है।’’ आज के युग में गुलेरी जी की प्रासंगिकता अपने और आधुनिकता’ समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थितियों से उनके गम्भीर जुड़ाव और इनसे सम्बद्ध उनके चिन्तन तथा प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट होती है। उनका सरोकार अपने समय के केवल भाषिक और साहित्यिक आन्दोलनों से ही नहीं, उस युग के जीवन के हर पक्ष से था। किसी भी प्रसंग में जो स्थिति उनके मानस को आकर्षित या उत्तेजित करती थी, उस पर टिप्पणी किए बगैर वे रह नहीं पाते थे। ये टिप्पणियाँ उनके सरोकारों, कुशाग्रता और नज़रिये के खुलेपन की गवाही देती हैं। अनेक प्रसंगों में गलेरी जी अपने समय से इतना आगे थे कि उनकी टिप्पणियाँ आज भी हमें अपने चारों ओर देखने और सोचने को मज़बूर करती हैं। ‘खेलोगे कूदोगे होगे खराब’ की मान्यता वाले युग में गुलेरी जी खेल को शिक्षा का सशक्त माध्यम मानते थे। बाल-विवाह के विरोध और स्त्री-शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सहशिक्षा को आवश्यक माना था। ये सब आज हम शहरी जनों को इतिहास के रोचक प्रसंग लग सकते हैं किन्तु पूरे देश के सन्दर्भ में, यहाँ फैले अशिक्षा और अन्धविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं। भारतवासियों की कमज़ोरियाँ का वे लगातार ज़िक्र करते रहते हैं-विशेषकर सामाजिक राजनीतिक सन्दर्भों में। हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है-‘‘यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है’’ (डिनामिनेशन कॉलेज : 1904) जाति-व्यवस्था भी हमारी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। गुलेरी जी सबसे मन की संकीर्णता त्यागकर उस भव्य कर्मक्षेत्र में आने का आह्वान करते हैं जहाँ सामाजिक जाति भेद नहीं, मानसिक जाति भेद नहीं और जहाँ जाति भेद है तो कार्य व्यवस्था के हित (वर्ण विषयक कतिपय विचार : 1920)। छुआछूत को वे सनातन धर्म के विरुद्ध मानते हैं। अर्थहीन कर्मकाण्डों और ज्योतिष से जुड़े अन्धविश्वासों का वे जगह-जगह ज़ोरदार खण्डन करते हैं। केवल शास्त्रमूलक धर्म को वे बाह्यधर्म मानते हैं और धर्म को कर्मकाण्ड से न जोड़कर इतिहास और समाजशास्त्र से जोड़ते हैं। धर्म का अर्थ उनके लिए ‘‘सार्वजनिक प्रीतिभाव है’’ ‘‘जो साम्प्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष को बुरा मानता है’’ (श्री भारतवर्ष महामण्डल रहस्य : 1906)। उनके अनुसार उदारता सौहार्द और मानवतावाद ही धर्म के प्राणतत्त्व होते हैं और इस तथ्य की पहचान बेहद ज़रूरी है-‘‘आजकल वह उदार धर्म चाहिए जो हिन्दू, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान, कृस्तान सबको एक भाव से चलावै और इनमें बिरादरी का भाव पैदा करे, किन्तु संकीर्ण धर्मशिक्षा...(आदि) हमारी बीच की खाई को और भी चौड़ी बनाएँगे।’’ (डिनामिनेशनल कॉलेज : 1904)। धर्म को गुलेरी जी बराबर कर्मकाण्ड नहीं बल्कि आचार-विचार, लोक-कल्याण और जन-सेवा से जोड़ते रहे।

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शिक्षा के आदर्शों में परिवर्तन/चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

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