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परीक्षा गुरु (प्रकरण1-11)/ लाला श्रीनिवास दास

निवेदन

अबतक नागरी और उर्दू भाषामैं अनेक तरह की अच्छी, अच्छी पुस्तकें तैयार हो चुकी हैं परन्तु मेरे जान इसरीतिसे कोई नहीं लिखी गई इसलिये अपनी भाषामैं यह नई चालकी पुस्तक होगी परंतु नई चाल होनेंसै ही कोई चीज अच्छी नहीं हो सक्ती बल्कि साधारण रीतिसै तो नई चालमैं तरह, तरह की भूल होनेंकी संभावना रहती है और मुझको अपनी मन्द बुद्धिसै और भी अधिक भूल होनेंका भरोसा है इसलिए मैं अपनी अनेक तरह की भूलोंसै क्षमा मिलने का आधार केवल सज्जनोंकी कृपा दृष्टि पर रखता हूं।

 

यह सच है कि नई चालकी चीज देखनेंको सबका जी ललचाता है परंतु पुरानी रीतिके मनमैं समाये रहने और नई रीतिको मन लगाकरर समझनेमैं थोड़ी मेहनत होनेंसै पहले पहल पढ़नेवाले का जी कुछ उलझनें लगता है और मन उछट जाता है इस्सै उसका हाल समझमैं आनेंके लिये मैं अपनी तरफसे यहां कुछ खुलासा किया चाहता हूं:-

 

पहलै तो पढ़नेंवाले इस पुस्तकमैं सौदागरकी दुकानका हाल पढ़ते ही चकरावेंगे क्योंकि अपनी भाषामैं अबतक वार्तारूपी जो पुस्तकें लिखी गई हैं उन्मैं अक्सर नायक, नायका वगैरैका हाल ठेटसै सिलसिलेवार (यथाक्रम) लिखा गया है “जैसै कोई राजा, बादशाह, सेठ, साहूकारका लड़का था उसके मनमैं इस बातसै यह रुचि हुई और उस्का यह परिणाम निकला” ऐसा सिलसिला इसमैं कुछभी नहीं मालूम होता ‘लाला मदनमोहन एक अग्रेजी सौदागरकी दूकान मैं अस्वाब देख रहे हैं लाला ब्रजकिशोर, मुन्शीचुन्नीलाल और मास्टर शिंभूदयाल उनके साथ हैं ”इन्मैं मदनमोहन कौन, ब्रजकिशोर कौन, चुन्नीलाल कौन और शिंभूदयाल कौन है ? इन्का स्वभाव कैसा है? परस्पर-सम्बन्ध कैसा है ? हरेककी हालत क्या है ? यहां इस्समय किस लिये इकठ्ठे हुए हैं? यह बातें पहलैसै कुछ भी नहीं जताई गई ! हां पढने वाले धैर्यसे सब पुस्तक पढ लेंगे तो अपने-अपने मौकेपर सब भेद खुल्ता चला जायगा और आदिसै अन्त तक सब मेल मिल जायगा परन्तु जो साहब इतना धैर्य न रक्खेंगे वह इस्का मतलब भी नहीं समझ सकेंगे

 

अलबत्ता किसी नाटकमैं यहरीति पहलैसै पाई जातीहै परंतु उस्की इस्की लिखनेंकी रीति जुदी जुदी है। नाटकोंमैं जिस्का बचन होता है उस्का नाम आदिमैं लिख देते हैं और वह पैरेग्राफ1 उस्का बचन समझा जाता है परंतु इस्मैं ऐसा नहीं होता इस्मैं ऐसा ” ” चिन्ह ( अर्थात इन्वरटेडकोमा या कुटेशन ) के भीतर कहनेंवालेका का वचन लिखा जाता है और कहनेंवाले का नाम बचनके बीचमैं या अंतमैं जहां पुस्तक रचने वालेको जगह मिल्ती है, वह लिख देता है अथवा नाम लिखे बिना पढ़नेवालेको कहनेंवालेका बचन मालूम हो सके तो नहीं भी लिखता। एक आदमीका बचन बहुत करके एक पैरेग्राफमैं पूरा होता है परंतु कहीं, कहीं किसी, किसीके बचन में और विषय आ जाते हैं तो ऐसे “चिन्ह (इन्वरटेड-कोमा ) से पहला वचन पूरा किये बिना दूसरे पैराग्राफ के आदि से ऐसे”चिन्ह लगाकर उसी का वचन जारी रखा जाताहै और वचन के बीच में दूसरे का वचन आ जाता है तो वहां उस वचन को अलग दिखाने के लिये उसपर भी अक्सर इन्वरटेडकोमा लगा दिये जाते हैं परंतु जो वचन ऐसे“ ” चिन्हों के भीतर नहीं होते वह पुस्तक रचने वाले की तरफ से होते हैं।

 

(1पैरग्राफके प्रारंभमें हर जगह नएसिरेसै से जरासी लकीर छोड़कर लिखा जाता है और वह पूरा होताहै वहां बाकी लकीर खाली छोड़ दी जातीहै, जैसे यह पैरेग्राफ ” “से प्रारम्भ होकर “होतेहैं” पर समाप्ति हुआ है।)

 

और चिन्हों में ऐसा , (कोमा) किंचित विश्राम,ऐसा;(सेमीकोलन) अथवा : (कोलन अर्ध बिश्राम,ऐसा।(फुलिस्टप) पूर्णविश्राम,ऐसा ? (इन्ट्रोगेशन) प्रश्न की जगह ऐसा ! (एक्सक्ल मेशन) आश्चर्य अथवा संबोधन वगैरे के जो शब्द जोर देकर बोलने चााहिए उन्के आगे ऐसा-चिन्ह बात अधूरी छोड़नें के समय लगाया जाता है और ऐसे () चिन्हों (पेरेन थिसेस) के भीतर पहले पद का खुलासा अर्थ या चलते प्रसंग में कोई दूतरफी अथवा विशेष बात जतानी होती है वह लिख देते हैं।

 

इस पुस्त्तक में दिल्ली के एक कल्पित (फर्जी) रईस का चित्र उतारा गया है और उस्को जैसे का तैसा (अर्थात्स्वा भाविक) दिखाने के लिये संस्कृत अथवा फारसी अरबी के कठिन कठिन,शब्दों की बनाई हुई भाषाके बदले दिल्लीके रहनेंवालोंकी साधारण बोलचाल पर ज्यादः दृष्टि रखी गई है। अलबत्ता जहां कुछ बिद्या- बिषय आ गया है वहां विवस होकर कुछ,कुछ शब्द संस्कृत आदि के लेने पड़े हैं परंतु जिनको ऐसी बातों समझने में कुछ झमेल मालूम हो उनकी सुगमता के लिये ऐसे प्रकरणों पर ऐसा[ ४ ]चिन्ह लगा दिया गया है जिस्सै उन प्रकरणों को छोड़कर हरेक मनुष्य सिलसिले वार वृतान्त पढ़ सक्ता है।

 

इस पुस्तक में संस्कृत, फारसी अंग्रेजी की कविता का तर्जुमा अपनी भाषा के छंदो में हुआ है परंतु छंदों के नियम और दूसरे देशों का चाल चलन जुदा होने की कठिनाई से पूरा तर्जुमा करने के बदले कहीं,कहीं भावार्थ ले लिया गया है।

 

अब इस पुस्तक गुणदोंषो पर विशेष विचार करने का काम बुद्धिमानों की बुद्घिपर छोड़कर मैं केवल इतनी बात निवेदन किया चाहता हूँ कि कृपा करके कोई महाशय पूरी पुस्तक बांचे बिना अपना विचार प्रकट करने की जल्दी न करैं और जो सज्जन इस विषय में अपना विचार प्रगट करैं बह कृपा करके उस्की एक नकल मेरे पास भी भेजदें ( यदी कोई अखबार वाला उस अंक की कीमत चाहेगा तो वह तत्काल उसके पास भेज दी जायगी ) जो सज्जन तरफदारी ( पक्षपात ) छोडकर इस विषय मैं , स्वतंत्रता से अपना विचार प्रगट करैंगे मैं उनका बहुत उपकार मानूंगा।

 

इस पुस्तक के रचनें मैं मुझको महाभारतदि संस्कृत, गुलिस्तां बगैरे फारसी, स्पेक्टेटर, लार्ड बेकल,गोल्डस्मिथ,विलियमकूपर आदि के पुराने लेखों और स्त्री बोध आदि के बर्तमान रिनालों से बड़ी सहायता मिली है इसलिये इन सबका मैं बहुत उपकार मानता हूं और दीनदयाल परमेश्वर की निर्हेतुक कृपा का सच्चे मन से अमित उपकार मानकर यह लेख समाप्त करता हूं।

 

सज्जनोंका कृपाभिलाषी

 

श्रीनिवासदास,दिल्ली।

परीक्षा गुरु (उपन्यास) : लाला श्रीनिवास दास

 

प्रकरण-१ : सौदागरकी दुकान

चतुर मनुष्‍य को जितनें खर्च मैं अच्‍छी प्रतिष्ठाअथवा धन मिल सक्ता है

मूर्ख को उस्‍सै अधिक खर्चनें पर भी कुछ नहीं मिलता।

लार्ड चेस्‍टरफील्‍ड।

लाला मदनमोहन एक अंग्रेजी सौदागर की दुकानमैं नई, नई फाशन का अंग्रेजी अस्‍बाब देख रहे हैं। लाला ब्रजकिशोर, मुन्शी चुन्‍नीलाल और मास्‍टर शिंभूदयाल उन्‍के साथ हैं।

“मिस्‍टर ब्राइट ! यह बड़ी काच की जोड़ी हमको पसंद है। इस्‍की क़ीमत क्‍या है ?” लाला मदनमोहन नें सौदागर सै पूछा।

“इस साथकी जोड़ी अभी तीन हजार रुपे मैं हमनें एक हिन्दुस्थानी रईस को दी है लेकिन आप हमारे दोस्‍त हैं आपको हम चारसौ रुपे कम कर दैंगे।”

“निस्‍सन्‍देह ये काच आपके कमरेके लायक है इन्के लगनें सै उस्‍की शोभा दुगुनी हो जायगी।” शिंभूदयाल बोले।

“आहा ! मैं तो इन्‍के चोखटोंकी कारीगरी देखकर चकित हूँ ! ऐसे अच्‍छे फूल पत्ते बनाये हैं कि सच्‍चे बेल बूटों को मात करते हैं। जी चाहता है कि कारीगर के हाथ चूम लूं” मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।

“इन्‍के बिना आपका इस्‍समय कौन्सा काम अटक रहा है ?” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “खेल तमाशेकी चीजों सै भोलेभाले आदमियों का जी ललचाता है। वह सौदागर की सब दुकान को अपनें घर लेजाया चाहते हैं परन्तु बुद्धिमान अपनी ज़रुरी चीजोंके सिवाय किसी पर दिल नहीं दौड़ाते” लाला ब्रजकिशोर बोले।

“ज़रुरत भी तो अपनी, अपनी रुचि के समान अलग, अलग होती है” मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।

“और जब दरिद्रियों की तरह धनवान भी अपनी रुचि के समान काम न कर सकैं तो फ़िर धनी और दरिद्रियों मैं अन्‍तर ही क्‍या रहा ?” मास्टर शिंभूदयालनें पूछा।

“नामुनासिब काम करके कोई नुक्‍सानसै नहीं बच सक्‍ता।”

“धनी दरिद्री सकल जन हैं जग के आधीन ।

चाहत धनी विशेष कछु तासों ते अति दीन ।।”

लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे, “मुनासिब रीति सै थोड़े खर्च मैं सब तरहका सुख मिल सक्ता है परन्तु इन्तज़ाम और कामके सिल्सिले बिना बड़ीसै बड़ी दौलत भी ज़रूरी खर्चों को पूरी नहीं हो सक्ती। जब थोथी बातों मैं बहुतसा रुपया खर्च हो जाता है तो ज़रूरी काम के लिये पीछेसै ज़रूर तकलीफ उठानी पड़ती है।”

“चित्त की प्रसन्नता के लिये मनुष्य सब काम करते हैं फ़िर जिन के देखनेंसै चित्त प्रसन्न हो उन्का खरीदना थोथी बातोंमैं कैसे समझा जाय ?” मुन्शी चुन्नीलालनें कहा।

“चित्त प्रसन्‍न रखनें की यही रीति नहीं है। चित्‍त तो उचित व्‍यवहारसै प्रसन्‍न रहता है” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।

“परन्‍तु निरी फिलासफीकी बातोंसै भी तो दुनियादारीका काम नहीं चल सक्‍ता” लाला मदनमोहननें दुनियादार बन कर कहा।

“बलायत की सब उन्‍नति का मूल लार्ड बेकन की यह नीति है कि ‘केवल बिचार ही बिचार मैं मकड़ी के जाले न बनाओ आप परीक्षा करके हरेक पदार्थ का स्‍वभाव जानों’ मिस्‍टर ब्राइट नें कहा।

“क्‍यौं साहब ! ये काच कहां के बनें हुए हैं ?” मुन्शी चुन्‍नीलालनें सौदागरसै पूछा।

“फ्रान्स के सिवाय ऐसी सुडोल चीज कहीं नहीं बन सक्‍ती। जबसै ये काच यहां आए हैं हर वक्‍त देखनेंवालों की भीड़ लगी रहती है और कई कारीगर तो इन्‍का नक्‍शा भी खींच लेगये हैं”

“अच्‍छा जी ! इन्की कीमत हमारे हिसाब मैं लिखो और ये हमारे यहां भेज दो”

“मैंनें एक हिन्‍दुस्थानी सौदागर की दुकान मैं इसी मेल के काच देखे हैं। उन्‍के चोखटों मैं निस्‍सन्‍देह ऐसी कारीगरी नहीं है परन्तु कीमत मैं यह इन्‍सै बहुत ही सस्‍ते हैं” लाला ब्रजकिशोर बोले।

“मैं तो अच्‍छी चीज़ का गाहक़ हूँ। चीज़ पसंद आये पीछे मुझको कीमत की कुछ परवा नहीं रहती।”

“अंग्रेजों की भी यही चाल है” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“परन्तु सब बातों मैं अंग्रेजों की नकल करनी क्‍या ज़रूर है ?” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।

“देखिये ! जबसै लाला साहब यह अमीरी चाल रखनें लगे हैं लोगों मैं इन्‍की इज्‍ज़त कितनी बढ़ती जाती है !” मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा।

“सर सामानसै सच्‍ची इज्‍ज़त नहीं मिल सक्‍ती। सच्‍ची इज्‍ज़त तो सच्‍ची लियाकतसै मिलती है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “और जब कोई मनुष्‍य बुद्धि के विपरीत इस रीतिसै इज्‍ज़त चाहता है तो उस्‍का परिणाम बड़ा ही भयंकर होता है।”

“साहब ! इतनी बात तो मैं हिम्‍मतसे कहता हूँ कि जो इस साथ की जोड़ी शहर में दूसरी जगह निकल आवेगी तो मैं ये काच मुफ्त नज़र करूँगा” मिस्‍टर ब्राइटनें जोर देकर कहा।

“कदाचित इस साथकी जोड़ी दिल्‍ली भरमैं न होगी परन्तु कीमतकी कम्‍ती बढ़ती भी तो चीजकी हैसियत के बमूजिब होनी चाहिये” लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया।

“जिस तरह मोतियोंके हिसाब मैं किसी दानेंकी तोल ज़रा ज्‍याद: होनेंसै चौ बहुत ज्‍याद: बढ़ जाती है इसी तरह इन शीशोंकी कीमतका भी हाल है। मुझको लाला साहबसै ज्‍याद: नफ़ा लेना मंजूर न था इस वास्‍तै मैंनें पहले ही असली कीमत मैं चार सौ रूपे कम कर दिये इसपर भी आपको कुछ संदेह हो तो आप तीसरे पहर मास्‍टर साहब को यहां भेज दें। मैं बीजक दिखला कर इन्‍सै कीमत ठैरा लूंगा।”

“अच्‍छा ! मास्‍टर शिंभूदयाल मदरसेसै लोटती बार आपके पास आयेँगे पर ये काच हमसै पूछे बिना आप और किसीको न दैं” लाला मदनमोहननें कहा।

इस बातसै सब अपनें-अपनें जीमें राजी हुए, ब्रजकिशोर नें इतना अवकाश बहुत समझा, मदनमोहनके मनमैं हाथसे चीज निकल जानेंका खटका न रहा, चुन्‍नीलाल और शिंभूदयालका अपनें कमीशन सही करनें का समय हाथ आया और मिस्‍टर ब्राइटको लाला मदनमोहन की असली हालत जान्‍नेंके लिये फुरसत मिली।

“बहुत अच्‍छा” मिस्‍टर ब्राइटनें जवाब दिया “लेकिन आपको फुरसत हो तो आप एक बार यहां फ़िर भी तशरीफ लायं। हालमैं नई-नई तरहकी बहुतसी चीज़ैं वलायतसै ऐसी उम्‍दा आई हैं जिन्‍को देखकर आप बहुत खुश होंगे परन्तु अभी वह खोली नहीं गईं हैं और इस्‍समय मुझको रुपेकी कुछ ज़रूरत है। इन चीज़ोंकी कीमतके बिलका रुपया देना है। आप मेहरबानी करके अपनें हिसाब मैंसै थोड़ा रुपया मुझको इस्समय भेज दें तो बड़ी इनायत हो।”

इस बचनमैं मिस्‍टर ब्राइट अपनें अस्वाबकी खरीदारीके लिये लाला मदनमोहन को ललचाता है परन्तु अपनें रुपेके वास्‍तै मीठा तकाज़ा भी करता है। चुन्‍नीलाल और शिंभूदयालके कारण उस्‍को मदनमोहन के लेन-देनमें बहुत कम फायदा हुआ परन्तु उसके पचास हजार रुपे इस समय मदनमोहनकी तरफ़ बाकी हैं और शहरमैं मदनमोहनकी बाबत तरह, तरहकी चर्चा फैल रही हैं बहुत लोग मदनमोहन को फ़िजूल खर्च, दिवालिया बताते हैं और हकीकत मैं मदनमोहन का खर्च दिन पर दिन बढ़ता जाता है। इस्‍सै मिस्टर ब्राइट को अपनी रकम का खटका है इसीलिये उस्‍नें इन काचों का सौदा इस्‍समय अटकाया है और तीसरे पहर मास्‍टर शिंभूदयाल को अपनें पास बुलाया है।

“रुपया ! ऐसी जल्‍दी !” लाला ब्रजकिशोरनें मिस्‍टर ब्राइट को वहम मैं डालनें के लिये आश्‍चर्यसै इतनी बात कहक़र मनमैं कहा “हाय ! इन् कारीगरी की निरर्थक चीजोंके बदले हिंदुस्थानी अपनी दौलत वृथा खोये देते हैं”

“सच है पहले आप अपना हिसाब तैयार करायँ, उस्‍को देखकर अंदाजसै रुपे भेजे जायंगे” मुन्शी चुन्‍नीलालनें बात बनाकर कहा।

“और बहुत जल्दी हो तो बिल करके काम चला लीजिये, जब तक कागज के घोड़े दौड़ते हैं रुपे की क्‍या कमी है ?” ब्रजकिशोर बीच मैं बोल उठे।

“अच्‍छा ! मैं हिसाब अभी उतरवाकर भेजता हूँ मुझको इस्समय रुपे की बहुत ज़रूरत है” मिस्‍टर ब्राइटनें कहा।

“आपनें साढ़े नौ बजे मिस्‍टर रसल को मुलाकातके लिये बुलयाहै। इस वास्‍ते अब वहां चलना चाहिये” मास्‍टर शिंभूदयाल नें याद दिवाई।

“अच्‍छा मिस्‍टर ब्राइट ! इन् काचों की याद रखना और नया अस्वाब खुलै जब हम को ज़रूर बुला लेना” यह कह कर लाला मदनमोहन नें मिस्टर ब्राइट सै हाथ मिलाया और अपनें साथियों समेत जोड़ी की एक निहायत उम्‍दा वलायती फिटन मैं सवार होकर रवानें हुए।

जब बग्‍गी कंपनी बाग मैं पहुँची तो सवेरे का सुहावना समय देखकर सब का जी हरा हो गया। उस्‍समयकी शीतल, मंद, सुगंधित हवा बहुत प्‍यारी लगती थी। वृक्षों पर हर तरहके पक्षी मीठे मीठे सुरों सैं चहचहा रहे थे ! नहरके पानी की धीरी, धीरी आवाज कानको बहुत अच्‍छी मालूम होती थी ! पन्‍ने सी हरी घास की भूमिपर मोतीसी ओस की बूंदे बिखर रहीं थी ! और तरह, तरहकी फुलवाड़ी हरी मखमल मैं रंग-रंगके बूंटों की तरह बड़ी बहार दिखा रही थी। इस स्‍वाभाविक शोभाको देखकर लाला ब्रजकिशोरनें मदनमोहन सै थोड़ी देर वहां ठैरनें के वास्‍ते कहा।

इस्‍समय मुन्शीचुन्‍नीलाल नें जेबसै निकालकर घड़ी मैं चाबी दी और घड़ी देखकर घबराहटसै कहा “ओ ! हो ! नौपर बीस मिनिट चले गए तो अब मकान को जल्‍दी चलना चाहिये”

निदान लाला मदनमोहन की बग्‍गी म‍कानपर पहुँची और ब्रजकिशोर उन्‍सै रुखसत् होकर अपनें घर गए।

प्रकरण-२ : अकालमैं अधिकमास

अप्रापति के दिनन मैं खर्च होत अबिचार

घर आवत है पाहुनो बणिज न लाभ लगार

बृन्द।

“हैं अभी तो यहां के घन्टे मैं पौनें नौ ही बजे हैं तो क्‍या मेरी घड़ी आध घन्टे आगे थी ?” मुन्शीचुन्‍नीलालनें मकान पर पहुँचते ही बड़े घन्टे की तरफ़ देखकर कहा। परन्तु ये उस्‍की चालाकी थी उसनें ब्रजकिशोर सै पीछा छुड़ानें के लिये अपनी घड़ी चाबी देनें के बहानें सै आध घन्टे आगे कर दी थी !

“कदाचित् ये घन्टा आध घन्टे पीछे हो” मास्‍टर शिंभूदयाल नें बात साध कर कहा।

“नहीं, नहीं ये घन्टा तोप सै मिला हुआ है” लाला मदनमोहन बोले।

“तो लाला ब्रजकिशोर साहब की लच्‍छेदार बातैं नाहक़ अधूरी रह गईं ?” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“लाला ब्रजकिशोर की बातें क्‍या हैं चकाबू का जाल है। वह चाहते हैं कि कोई उन्‍के चक्‍कर सै बाहर न निकालनें पाय” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“मैं यों तो ये काच लेता या न लेता पर अब उन्‍की ज़िद सै अदबद कर लूंगा”

“निस्सन्देह जब वे अपनी जिद नहीं छोड़ते तो आपको अपनी बात हारनी क्‍या ज़रूर है ?” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें छींटा दिया।

हितोपदेश मैं कहा है “आज्ञालोपी सुतहु कों क्षमैं न नृपति विनीत ।।
को बिशेष नृप, चित्र जो न गहे यहरीति”2।।

(2आज्ञा भङ्गकरान राजा न क्षमेत सुतानपि । विशेष: कौन राज्ञय राज्ञ श्चित्नगतस्य च ।।)

पंडित पुरुषोत्तमदासनें मिल्‍तीमैं मिलाकर कहा।

“बहुत पढ़नें लिखनें सै आदमी की बुद्धि कुछ ऐसी निर्बल हो जाती है कि बड़े, बड़े फिलासफर छोटी, बातों मैं चक्‍कर खानें लगते हैं” मास्‍टर शिंभूदयाल कहनें लगे, “सर आईजिक न्‍यूटन कितनी बार खाना खाकर भूल जाते थे, जरमन का प्रसिद्ध विद्वान लेसिंग एक बार बहुत रात गए अपनें घर आया और कुन्दा खड़कानें लगा, नोकर नें गैर आदमी समझ कर भीतर सै कहाकि “मालिक घर मैं नहीं हैं कल आना” इस्‍पर लेसिंग सचमुच लौट चला ! ! ! इटली का मारीनी नामी कवि एक दिन कविता बनानेंमैं ऐसा मग्‍न हुआ कि अंगीठी सै उस्‍का पैर जल गया तोभी उसै कुछ खबर न हुई!”

“लाला ब्रजकिशोर साहब का भी कुछ, कुछ ऐसा ही हाल है। यह सीधी, सीधी बातों को बिचार ही बिचार मैं खेंच तान कर ऐसी पेचीदा बनालेते हैं कि उन्‍का सुलझाना मुश्किल पड़ जाता है” मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।

“मैंनें तो मिस्‍टर ब्राइट के रोबरू ही कह दिया था कि कोरी फिलासोफी की बातौं सै दुनियादारी का काम न‍हीं चलता” लाला मदनमोहननें अपनी अकल मंदी ज़ाहर की।

इतनेंमैं मिस्‍टर रसल की गाड़ी कमरे के नीचे आ पहुँची और मिस्‍टर रसल खट, खट करते हुए कमरे मैं दाखिल हुए। लाला मदनमोहन नें मिस्‍टर रसल सै शेकिग्हैंड करके उन्‍हें कुर्सी पर बिठाया और मिज़ाज की खैरोआफियत पूछी।

मिस्‍टर रसल नील का एक होसले मंद सौदागर है परन्तु इस्‍के पास रुपया नहीं है। यह नील के सिवाय रुई और सन वगैरे का भी कुछ, कुछ व्‍यापार कर लिया करता है। इस्‍का लेन देन डेढ़, पौनें दो बरस सै एक दोस्‍तकी सिफारस पर लाला मदनमोहन के यहां हुआ है। पहले बरसमैं लाला मदनमोहन का जितना रुपया लगा था माल की बिक्री सै ब्‍याज समेत वसूल होगया, परन्तु दूसरे साल रुई की भरती की जिस्मैं सात आठ हजार रुपे टूटते रहे इस्का घाटा भरनेंके लिये पहले सै दुगनी नील बनवायी जिस्‍मैं एक तो परता कम बैठा दूसरे माल कलकत्‍ते पहुँचा उस्‍समय भाव मंदा रह गया जिस्‍मैं नफे के बदले दस, बारह हजार इस्‍मैं टूटते रहे। लाला मदनमोहन के लेन देन सै पहले मिस्‍टर रसल का लेन देन रामप्रसाद बनारसीदास सै था। उन्के आठ हजार रुपे अबतक इस्‍की तरफ़ बाकी थे जब उन्‍की मयाद जानें लगी तो उन्‍होंनैं नालिश करके साढ़ेग्‍यारह हजारकी डिक्री इस्‍पर कराली अब उन्‍की इजराय डिक्री मैं इस्का सब कारखाना नीलाम पर चढ़ रहा है और नीलाम की तारीखमैं केवल चार दिन बाकी हैं इस लिये यह बड़े घबराहट मैं रुपे का बंदोबस्‍त करनें के लिये लाला मदनमोहन के पास आया है।

“मेरे मिज़ाज का तो इस्‍समय कोसों पता नहीं लगता परन्तु उस्‍को ठिकानें लाना आपके हाथ है” मिस्‍टर रसल नें मदनमोहन के कुशलप्रश्‍न (मिज़ाजपुर्सी) पर कहा “जो आफत एकाएक इस्‍समय मेरे सिर पर आपड़ी है उस्‍को आप अच्‍छी तरह जान्‍ते हैं। इस कठिन समय मैं आपके सिवाय मेरा सहायक कोई नहीं है। आप चाहैं तो दम भर मैं मेरा बेड़ा पार लगा सक्‍ते हैं नहीं तो मैं तो इस तूफान मैं ग़ारत हो चुका।”

“आप इतनें क्‍यों घबराते हैं ?” ज़रा धीरज रखिये” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें पहले की मिलावट के अनुसार सहारा लगाकर कहा “लाला साहब के स्‍वभाव को आप अच्‍छी तरह जान्ते हैं जहां तक हो सकेगा यह आप की सहायता मैं क़भी कसर न करेंगे।”

“पहले आप मुझे यह तो बताइये कि आप मुझसै किस तरह की सहायता चाहते हैं ?” लाला मदनमोहन नें पूछा।

“मैं इस्‍समय सिर्फ इतनी सहायता चाहता हूँ कि आप रामप्रसाद बनारसीदास की डिक्री का रुपया चुका दें। मुझसै हो सकेगा जहां तक मैं आपका सब कर्जा एक बरसके भीतर चुका दूंगा” मिस्‍टर रसल नें कहा “मुझको अपनी बरबादी का इतना खयाल नहीं है जितनी आपके कर्जे की चिन्‍ता है। रामप्रसाद बनारसीदास की डिक्रीमैं मेरी जायदाद बिक गई तो और लेनदार कोरे रह जायंगे और मैंनें इन्‍सालवन्‍ट होनें की दरखास्‍त की तो आप लोगों के पल्‍ले रुपे मैं चार आनें भी न पड़ेंगे।

“अफ्सोस ! आपकी यह हकीकत सुन् कर मेरा दिल आप सै आप उम्ड़ा आता है” लाला मदनमोहन बोले।

“सच है महा कवि शेक्‍सपीअर नें कहा है” मास्‍टर शिंभूदयाल कहनें लगे :-

कोमल मन होत न किये होत प्रकृति अनुसार ।

जों पृथ्वी हित गगन ते वारिद द्रवित फुहार ।।

वारिद द्रवित फुहार द्रवहि मन कोमलताई ।

लेत, देत शुभ हेत दोउनको मन हरषाई ।।

सब गुनते उतकृष्‍ट सकल बैभव को भूषन ।

राजहु ते कछु अधिक देत शोभा कोमलमन ।।3

3The quality of mercy is not strained;
It droppeth as the gentle rain from heaven
Upon the place beneath. It is twice blest;
It blesseth him that gives and him that takes:
‘T is mightiest in the mightiest; it becomes
The throned monarch better than his crown:

William Shakespeare

“हजरत सादी कहते हैं कि “दुर्बल तपस्‍वी सै कठिन समय मैं उस्‍के दु:ख का हाल न पूछ और पूछै तो उस्‍के दु:ख की दवा कर”4

(4दरवेशजईफ़े हालरा दरखुशकी तङ्गेसाल मपुर्सके चुनी इल्ला बशर्त आंकि मरहमे बरेंशनिही)

मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“अच्‍छा इस रुपे के लिये ये हमारी दिल जमई क्‍या कर देंगे ?” लाला मदनमोहन नें बड़ी गम्‍भीरता सै पूछा।

“हां हां लाला साहब सच कहते हैं आप इस रुपये के लिये हमारी दिल जमई क्‍या कर देंगे ?” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें दिल-जमई की चर्चा हुए पीछे अपनी सफाई जतानें के लिये मिस्‍टर रसल सै पूछा।

“मैं थोड़े दिन मैं शीशे बरतन का एक कारखाना यहां बनाया चाहता हूँ। अबतक शीशे बरतन की सब चीजें वलायत सै आती हैं इसलिये खर्च और टूट फूट के कारण उन्‍की लागत बहुत बढ़ जाती है। जो वह चीजे यहां तैयार की जायंगी तो उन्‍मैं ज़रूर फायदा रहेगा और खुदा नें चाहा तो एक बरस के भीतर भीतर आपकी सब रकम जमा हो जायगी परन्तु आपको इस्‍समय इस बात पर पूरा भरोसा नहीं तो मेरा नील का कारखाना आपकी दिलजमईके वास्तै हाजिर है” मिस्‍टर रसल नें जवाब दिया।

“हिन्‍दुस्‍थान मैं अब तक कलों के कारखानें नहीं हैं इस्‍सै हिंदुस्‍थानियों को बड़ा नुक्सान उठाना पड़ता है। मैं जान्‍ता हूँ कि इस्‍समय हिम्‍मत करके जो कलों के कारखानें पहले जारी करेगा उस्‍को ज़रूर फायदा रहेगा” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“आपको रामप्रसाद बनारसीदास के सिवाय किसी और का रुपया तो नहीं देना !” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें पूछा।

“रामप्रसाद बनारसीदास की डिक्री का रुपया चुके पीछै मुझको लाला साहब के सिवाय किसी की फूटी कौड़ी नहीं देनी रहैगी” मिस्‍टर रसल नें जवाब दिया।

परन्‍तु काच का कारखाना बनानें के लिये रुपे कहां सै आयंगे ? और लाला मदनमोहन के कर्जे लायक नील के कारखानें की हैसियत कहां है ? इन्‍सालवेन्ट होनें सै लेनदारों के पल्‍ले चार आनें भी न पड़ेंगे यह बात मिस्‍टर रसल अपनें मुंह सै अभी कह चुका है पर यहां इन् बातोंकी याद कौन दिलावै ?

“इस सूरत मैं रामप्रसाद बनारसीदास की डिक्री का रुपया न दिया जायगा तो उन्‍की डिक्री मैं इस्‍का कारखाना बिकजायगा और अपनी रकम वसूल होनें की कोई सूरत न रहैगी” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें लाला मदनमोहन के कान मैं झुक कर कहा।

“परन्तु इस्समय इस्‍को देनें के लिये अपनें पास नकद रुपया कहां है ?” लाला मदनमोहन नें धीरे सै जवाब दिया।

“अब मेरी शर्म आप को है ‘वक्‍त निकल जाता है बात रह जाती है’ जो आप इस्‍समय मुझको सहारा देकर उभार लोगे तो मैं आपका अहसान जन्‍म भर नहीं भूलूंगा” मिस्‍टर रसल नें गिड़ गिड़ा कर कहा।

“मैं मनसै तुम्‍हारी सहायता किया चाहता हूँ परन्‍तु मेरा रुपया इस्‍समय और कामों मैं लग रहा है इस्‍सै मैं कुछ नहीं कर सक्ता” लाला मदनमोहन नें शर्माते, शर्माते कहा।

“अजीहुजूर ! आप यह क्‍या कहते हैं ?” आपके वास्तै रुपे की क्‍या कमी है ? आप कहें जितना रुपया इसी समय हाजिर हो” मास्‍टर शिंभूदयाल बोले ।

“अच्‍छा ! मुझसै होसकेगा जिस तरह दस हजार रुपे का बंदोबस्‍त करके मैं कल तक आपके पास भेजदूंगा आप किसी तरह की चिन्‍ता न करैं” लाला मदनमोहननें कहा।

“आपनें बड़ी महरबानी की मैं आपकी इनायत सै जी गया अब मैं आपके भरोसे बिल्‍कुल निश्चिन्‍त रहूँगा” मिस्‍टर रसल नें जाते, जाते बड़ी खुशी सै हाथ मिला कर कहा। और मिस्‍टर रसल के जाते ही लाला मदनमोहन भी भोजन करनें चले गए।

प्रकरण-३ : संगतिका फल

सहबासी बसहोत नृप गुण कुल रीति विहाय

नृप युवती अरु तरुलता मिलत प्राय संग पाय5

हितोपदेशे

(5आसन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्य विद्याविहीन मकुलीन मसङ्गतं वा

प्रायेण भूमिपतय:प्रमदा लता श्च, या: पार्श्व तो वसति तं परिवेष्टयन्ति ।।)

लाला मदनमोहन भोजन करके आए उस्‍समय सब मुसाहब कमरे में मौजूद थे। मदनमोहन कुर्सी पर बैठ कर पान खानें लगे और इन् लोगों नें अपनी, अपनी बात छेड़ी।

हरगोविंद (पन्सारी के लड़के) नें अपनी बगल सै लखनऊ की बनी टोपियें निकाल कर कहा “हजूर ये टोपियें अभी लखनऊसै एक बजाज के यहां आई हैं सोगात मैं भेजनें के लिये अच्‍छी हैं। पसंद हों तो दो, चार ले आऊं ?”

“कीमत क्‍या है ?”

“वह तो पच्‍चीस, पच्‍चीस रुपे कहता है परन्तु मैं वाजबी ठैरा लूंगा”

“बीस, बीस रुपे मैं आवें तो ये चार टोपियें ले आना।”

“अच्‍छा ! मैं जाता हूँ अपनें बस पड़ते तोड़ जोड़ मैं कसर नहीं रक्खूंगा” यह कह कर हरगोविंद वहां सै चल दिया।

“हुजूर ! यह हिना का अतर अजमेर सै एक गंधी लाया है वह कहता है कि मैं हुजूर की तारीफ सुनकर तरह, तरह का निहायत उम्‍दा अतर अजमेर सै लाता था परन्तु रस्‍ते मैं चोरी होगई सब माल अस्‍बाब जाता रहा सिर्फ यह शीशी बची है वह आपकी नजर करता हूँ” यह कह कर अहमद हुसेन हकीमनें वह शीशी लाला साहब के आगे रखदी।

“जो लाला साहब को मंजूर करनें मैं कुछ चारा बिचार हो तो हमारी नज़र करो हम इस्‍को मंजूर करके उस्‍की इच्‍छा पूरी करेंगे” पंडित पुरुषोत्‍तमदास नें बड़ीवजेदारी सै कहा।

“आपकी नज़र तो सिवाय करेले के और कुछ नहीं हो सक्ता मरज़ी हो; मंगवांय ?” हकीमजीनें जवाब दिया।

“करेले तुम खाओ, तुम्‍हारे घरके खांय हमको मुंह कड़वा करनें की क्‍या ज़रूरत है ? हम तो लाला साहब के कारण नित्‍य लड्डू उड़ाते हैं और चैन करते हैं” पंडित जी नें कहा।

“लड्डू ही लड्डूओं की बातें करनी आती हैं या कुछ और भी सीखे हो ?” मास्‍टर शिंभूदयाल नें छेड़ की।

“तुम सरीखे छोकरे मदरसे मैं दो एक किताबें पढ़ कर अपनें को अरस्‍तातालीस (Aristotle) समझनें लगते हैं परन्‍तु हमारी विद्या ऐसी नहीं है। तुम को परीक्षा करनी होतो लो इस कागज पर अपनें मन की बात लिखकर अपनें पास रहनें दो जो तुमनें लिखा होगा हम अपनी विद्या सै बता देंगे” यह कह कर पंडितजी नें अपनें अंगोछे मैं सै कागज पेनसिल और पुष्‍टीपत्र निकाल दिया।

मास्‍टर शिंभूदयालनें उस कागज पर कुछ लिखकर अपनें पास रख लिया और पंडितजी अपना पुष्‍टीपत्र लेकर थोड़ी देर कुंडली खेंचते रहे फ़िर बोले “बच्‍चा तुमको हर बात मैं हंसी सूझती है तुमनें कागज मैं ‘करेला’ लिखा है परन्तु ऐसी हंसी अच्‍छी नहीं”

लाला मदनमोहन के कहनें से मास्‍टर शिंभूदयाल नें कागज खोलकर दिखाया तो हकीकत मैं ‘करेला’ लिखा पाया अब तो पंडितजी की खूब चढ़ बनी मूछों पर ताव दे, दे कर खखारनें लगे।

परन्तु पंडितजी नें ये ‘करेला’ कैसे बता दिया ? लाला मदनमोहनके रोबरू आपस की मिलावट सै बकरी का कुत्‍ता बना देना सहजसी बात थी परन्तु पंडित जी का चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल सै ऐसा मेल न था और न पंडितजी को इतनी विद्या थी कि उस्‍के बल सै करेला बता देते। असल बात यह थी कि पंडित जीनें कागज पर काजल लगा कर पुष्टिपत्र मैं रख छोड़ा था जिस्‍समय पुष्टिपत्र पर कागज रख कर कोई कुछ लिखता था कलम के दबाव सै काजलके अक्षर दूसरे कागज पर उतर आते थे फ़िर पंडितजी कुंडली खेंचती बार किसी ढब सै उस्‍को देखकर थोड़ी देर पीछे बता देते थे।

“तो हुजूर ! उस गंधीके वास्तै क्‍या हुक्म है ?” हकीमजीनें फ़िर याद दिलाई।

अतर मैं चंदनके तैल की मिलावट मालूम होती है और मिलावट की चीज बेचनें का सरकार सै हुक्म नहीं है इस वास्तै कह दो शीशी जप्त हुई वह अपना रस्‍ता ले” पंडितजी शीशी सूंघ कर बीच मैं बोल उठे।

“हां हकीम जी ! आपकी राय मैं गन्धी का कहना सच है ?” लाला मदनमोहननें पूछा।

“बेशक, अंदाज सै तो ऐसा ही मालूम होता है आगे खुदा जानें” हकीमजी बोले।

“तो लो यह पच्‍चीस रुपे के नोट इस्‍समय उस्‍को खर्च के वास्‍तै दे दो। बिदा पीछे सै सामनें बुलाकर की जायगी” लाला मदनमोहन नें पच्‍चीस रुपे के नोट पाकट सै निकाल दिये।

“उदारता इस्‍का नाम है”, “दयालुता इसे कहते हैं”, “सच्‍चे यश मिलनेंकी यह राह है”, “परमेश्‍वर इस्‍सै प्रसन्‍न होता है”, चारों तरफ़ सै वाह-वाह की बोछार होनें लगी।

“ये बहियाँ मुलाहजे के वास्‍तै हाजिर हैं और बहुत सी रकमों का जमाखर्च आपके हुक्‍म बिना अटक रहा है जो अवकाश हो तो इस्‍समय कुछ अर्ज करूं ?” लाला जवाहरलाल नें आते ही बस्‍ता आगे रखकर डरते, डरते कहा।

“लाला जवाहरलाल इतनें बरस सै काम करते हैं परन्तु लाला साहब की तबियत, और कागज दिखानें का मोका अबतक नहीं पहचान्ते” लाला मदनमोहन को सुनाकर चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आपसमैं कानाफूसी करनें लगे।

“भला इस्‍समय इन्बातोंका कौन प्रसंग हैं ? और मुझको बार, बार दिक करनें सै क्‍या फायदा है ? मैं पहले कह चुका हूँ कि तुम्‍हारी समझमैं आवै जैसे जमा खर्च करलो। मेरा मन ऐसे कामों मैं नहीं लगता” लाला मदनमोहन नें झिड़ककर कहा और जवाहरलाल वहां सै उठकर चुपचाप अपनें रस्‍ते लगे।

“चलो अच्‍छा हुआ ! थोड़े ही मैं टल गई। मैं तो बहियोंका अटंबार देखकर घबरा गया था कि आज उस्‍तादजी घेरे बिना न रहैंगे” जवाहरलाल के जाते ही लाला मदनमोहन खुश हो, हो कर कहनें लगे।

“इन्‍का तो इतना होसला नहीं है परन्तु ब्रजकिशोर होते तो वे थोड़े बहुत उलझे बिना क़भी न रहते” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“जब तक लाला साहब लिहाज करते है तब ही तक उन्‍का उलझना उलझाना बन रहा है नहीं तो घड़ी भर मैं अकल ठिकानें आजायगी” मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।

“हुजूर ! मैं लाला हरदयाल साहब के पास हो आया उन्‍होंनें बहुत, बहुत करकै आपकी खैरोआफ़ियत पूछी है। और आज शामको आपसै बागमैं मिलनें का करार किया है” हरकिसन दलाल नें आकर कहा।

“तुम गये जब वो क्‍या कर रहे थे ?” लाला मदनमोहन नें खुश होकर पूछा।

“भोजन करके पलंग पर लेटे ही थे आपका नाम सुनकर तुर्त उठ आए और बड़े जोश सै आपकी खैरोआफ़ियत पूछनें लगे”

“मैं अच्‍छी तरह जानता हूँ वे मुझको प्राण सै भी अधिक समझते हैं” लाला मदनमोहननें पुलकित होकर कहा।

“आपकी चाल ही ऐसी है जो एक बार मिल्‍ता है हमेशेके लिये चेला बन् जाता है” मुन्शी चुन्‍नीलालनें बढ़ावा देकर कहा।

“परन्तु क़ानूनीबंदे इस्‍सै अलग हैं” मास्‍टर शिंभूदयाल ब्रजकिशोर की तरफ़ इशारा करके बोले।

“लीजिये ये टोपियां अठारह, अठारह रूपमैं ठैरा लाया हूँ” हरगोविंदनें लाला मदनमोहनके आगे चारों टोपियें रखकर कहा।

“तुमनें तो उसकी आंखोंमैं धूल डालदी ! अठारह, अठारह रूपे मैं कैसे ठैरालाये ? मुझको तो बाईस, बाईस रुपे सै कमकी किसी तरह नहीं जंचती” लाला मदनमोहननें हरगोविंद का हाथ पकड़कर कहा।

“मैनें उस्‍को आगेका फायदा दिखाकर ललचाया और बड़ी बड़ी पट्टियें पढाईं तब उस्‍नें लागत मैं दो, दो रुपे कम लेकर आपके नाम ये टोपियें दीं हैं”।

“अच्‍छा ! यह लाला हरकिशोर आते हैं इन्‍सै तो पूछिये ऐसी टोपी कितनें, कितनें मैं लादेंगे ?” दूरसै हरकिशोर बज़ाज को आते देखकर पंडित पुरुषोत्तमदासनें कहा।

“ये टोपियें हरनारायण बज़ाज के हां कल लखनऊ सै आई हैं और बाजार मैं बारह, बारह रुपे को बिकी हैं पर यहां तो तेरह तेरह मैं आई होंगी” हरकिशोर नें जवाब दिया।

“तुम हमें पंदरह, पंदरह रुपे मैं लादो” हरगोविंद नें झुंझला कर कहा।

“मैं अभी लाता हूँ। तुम्‍हारे मनमैं आवै जितनी लेलेना”

“ला चुके, लाचुके लानें की यही सूरत है ?” हरगोविंद नें बात उड़ानें के वास्तै कहा।

“क्‍यों ? मेरी सूरत को क्‍या हुआ ? मैं अभी टोपियां लाकर तुम्‍हारे सामनें रखेदेता हूँ” हरकिशोर नें हिम्‍मत सै जवाब दिया।

“तुम टोपियें क्‍या लाओगे ? तुम्‍हारी सूरत पर तो खिसियानपन अभी सै छा गया !” हरगोविंद नें मुस्‍कराकर कहा।

“मुझको नहीं मालूम था कि मेरी सूरत मैं दर्पण की खासियत है” हरकिशोरनें हँसकर जवाब दिया।

“चलो चुप रहो क्‍यों थोथी बातें बनाते हो ?” मुन्शी चुन्‍नीलाल रोकनें के वास्‍तै भरम मैं बोले।

“बहुत अच्‍छा ! मैं टोपी लाये पीछे ही बात करूंगा” य‍ह कह कर हरकिशोर वहां सै चल दिये।

“यहां के दुकानदारों मैं यह बड़ा ऐब है कि जलन के मारे दूसरेके माल को बारह आनेंका जांच देते हैं” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“और किसी समय मुकाबला आपड़े तो अपनी गिरह सै घाटा भी दे बैठते हैं” मास्टर शिंभूदयाल बोले।

“न जानें लोगों को अपनी नाक कटा कर औरों की बदशगूनी करनें मैं क्‍या मजा आता है” हकीमजीनें कहा।

“और जो हरगोविंद कुछ ठगा आया होगा तो क्‍या मैं इन्‍के पीछे उस्‍का मन बिगाडूंगा” लाला मदनमोहन बोले।

“आपकी ये ही बातैं तो लोगों को बेदाम गुलाम बना लेती हैं” मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।

“कुछ दिन सै यहां ग्वालियर के दो गवैये निहायत अच्छे आए हैं मरजी हो दो घड़ी के वास्‍तै आज की मजलिस मैं उन्‍‍हें बुला लिया जाय” हरकिसन दलालनें पूछा।

“अच्‍छा ! बुलाओ तुम्‍हारी पसंद हैं यो ज़रूर अच्‍छे होंगे” मदनमोहननें कहा।

“लखनऊ की अमीरजान भी इन दिनों यहीं है इस्‍के गानें की बड़ी तारीफ सुनी गई है पर मैंनें अपनें कान सै अब तक उस्‍का गाना नहीं सुना” हकीमजी बोले।

“अच्‍छा ! आपके सुन्ने को हम उसे भी यहां बुलाये लेते हैं पर उस्‍के गानें मैं समा न बंधा तो उस्के बदले आपको गाना पड़ेगा !” लाला मदनमोहन नें हंस कर कहा।

“सच तो ये है कि आपके सबब सै दिल्‍ली की बात बन रही है जो गुणी यहां आता है कुछ न कुछ ज़रूर ले जाता है आप ना होते तो उन बिचारों को यहां कौन पूछता ? आपकी इस उदारता सै आपका नाम बिक्रम और हातम की तरह दूर दूर, तक फैल गया है और बहुत लोग आपके दर्शनोंकी अभिलाषा रखते हैं” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें छींटा दिया।

इतनें मैं हरकिशोर टोपी लेकर आ पहुँचे और बारह, बारह रुपे मैं खुशी सै देनें लगे।

“सच कहो तुमनें इस्‍मैं अपनी गिरह का पलोथन क्‍या लगाया है ?” शिंभूदयाल नें पूछा।

“पलोथन लगानें की क्‍या जरुरत थी मैं तो इस्मैं लाला साहब सै कुछ इनाम लिया चाहता हूँ” हरकिशोर नें जवाब दिया।

“मुझको टोपियें लेनी होती तो मैं किसी न किसी तरह सै आपही तुम्‍हारा घाटा निकालता पर मैं तो अपनी ज़रूरतके लायक पहलै ले चुका” लाला मदनमोहन नें रूखाई सै कहा।

“आपको इस्की कीमत मैं कुछ संदेह हो तो मैं असल मालिक को रोबरू कर सक्ता हूँ ?”

“जिस गाँव नहीं जाना उस्का रास्‍ता पूछना क्‍या ज़रूर”

“तो मैं इन्‍हें ले जाउं ?”

“मैंनें मंगाई कब थी जो मुझसै पूछते हो” यह कहक़र लाला मदनमोहननें कुछ ऐसी त्‍योरी बदली कि हरकिशोर का दिल खट्ठा हो गया और लोग तरह, तरह की न‍कलै करके उस्‍का ठट्ठा उड़ानें लगे।

हरकिशोर उस्‍समय वहां सै उठकर सीधा अपनें घर चला गया पर उस्के मन मैं इन् बातोंका बड़ा खेद रहा।

प्रकरण-४ : मित्रमिलाप (!)

दूरहिसों करबढ़ाय, नयननते जलबहाय,

आदरसों ढिंगबूलाय, अर्धासन देतसो ।।

हितसोंहियमैं लगाय, रुचिसमबाणी बनाय,

कहत सुनत अति सुभाय, आनंदभरि लेत जो ।।

ऊपरसों मधु समान, भीतर हलाहल जान,

छलमैं पंडितमहान् कपटको निकेतवो।।

ऐसो नाटक विचित्र, देख्‍यो न कबहु मित्र,

दुष्‍टनकों यह चरित्र, सिखवे को हेतको6

(6दूरा दुछ्रितपाणिं रार्द्रनयन: प्रात्सारिताङ्घसिनो

गाढ़लिङ्गनतत्पर: प्रिवक्ककथाद्रत्रेषु दत्तादर: ।।

अन्तर्भूतविषी वहिर्मघुमयश्चातीव मायापटु ।

कोनामायमपूर्वनाटकविधिर्य: शिक्षितोदुर्जन: ।। १ ।।)

लाला मदनमोहन को हरदयाल सै मिलनें की लालसा मैं दिन पूरा करना कठिन होगया वह घड़ी, घड़ी घन्टे की तरह देखते थे और उखताते थे, जब ठीक चार बजे अपनें मकान सै सवार होकर मिस्‍तरीखानें मैं पहुँचै यहां तीन बग्गियें लाला मदनमोहन की फर्मायश सै नई चाल की बन रही थीं उन्‍के लिये बहुतसा सामान वलायत सै मंगवाया गया था और मुंबई के दो कारीगरों की राह सै वह बनाई जाती थीं। लाला मदनमोहन नें कह रक्‍खा था कि “चीज़ अच्‍छी बनें खर्च की कुछ नहीं अटकी जो होगा हम करेंगे” निदान लाला मदनमोहन इन बग्गियों को देख भाल कर वहां सै आगा हसनजान के तबेले में गये और वहां तीन घोड़े पांच हजार, पांच सो रुपे मैं लेनें करके वहां सै सीधे अपनें बाग ‘दिलपसंद’ को चले गये।

यह बाग सबजी मंडी सै आगे बढ़ कर नहर की पटड़ी के किनारे पर था इस्‍की रविशों के दोनों तरफ़ रेलिया की कतार, सुहावनी क्‍यारियों मैं रंग, रंग के फूलों की बहार, कहीं हरी, हरी घासका सुहावना फर्श, कहीं घनघोर वृक्षों की गहरी छाया, कहीं बनावट के झरनें, और बेट, कहीं पेढ़ और टट्टियों पर बेलों की लपेट। एक तरफ़ को संगमरमर के एक कुंड मैं तरह, तरह के जलचर अपना रंग ढंग दिखा रहे थे बाग के बीच मैं एक बड़ा कमरा हवादार बहुत अच्‍छा बना हुआ था उस्‍के चारों तरफ़ संगमरमर का साईवान और साईवान के गिर्द फव्वारों की कतार लगी थी। जिस समय ये फव्वारे छुटते थे जेठ बैसाख को सावन भादों समझ कर मोर नाच उठते थे। बीच के कमरे मैं रेशमी गलीचे की बड़ी उम्‍दा बिछायत थी और बढिया साठन की मडी हुई सुनहरी कौंच, कुर्सियाँ जगह, जगह मोके सै रक्‍खी थीं। दीवार के सहारे संगमरमर की मेजोंपर बड़े, बड़े आठ काच आम्‍नें-साम्‍नें लगे हुए थे। छत मैं बहुमूल्‍य झाड़ लटक रहे थे, गोल बैजई और चौखूटी मेजों के गुलदस्‍ते, हाथीदांत, चंदन, आबनूस, चीनी, सीप और काच वगैरेके के उम्‍दा, उम्दा खिलौनें मिसल सै रक्‍खे थे, चांदी की रकेबियों मैं इलायची, सुपारी चुनी हुई थी। समय, तारीख, बार, महीना बतानें की घड़ी, हारमोनियम बाजा, अंटा खेलनें की मेज, अलबम्, सैरबीन, सितार और शतरंज बगैरे मन बहलानें का सब सामान अपनें, अपनें ठिकानें पर रक्‍खा हुआ था। दिवारों पर गच के फूल पत्तों का सादा काम अबरख की चमक सै चाँदी के डले की तरह चमक रहा था और इसी मकान के लिये हजारों रुपे का सामान हर महीनें नया खरीदा जाता था।

इस्‍समय लाला मदनमोहन को कमरे मैं पांव रखते ही बिचार आया कि इस्‍के दरवाजों पर बढिया साठन के पर्दे अवश्‍य होनें चाहियें उसी समय हरकिशोर के नाम हुक्‍म गया कि तरह, तरह की बढिया साठन लेकर अभी चले आओ, हरकिशोर समझा कि “अब पिछली बातों के याद आनें सै अपनें जी मैं कुछ लज्जित हुए होंगे चलो सवेरे का भूला सांझ को घर आजाय तो भूला नहीं बाजता” यह बिचार कर हरकिशोर साठन इकट्ठी करनें लगा पर यहां इन्बातों की चर्चा भी न थी। यहां तो लाला मदनमोहन को लाला हरदयाल की लौ लगरही थी। निदान रोशनी हुए पीछे बड़ी देर बाट दिखाकर लाला हरदयाल आये। उन्को देखकर मदनमोहन की खुशी की कुछ हद न‍हीं रही। बग्गी के आनें की आवाज सुनते ही लाला मदनमोहन बाहर आकर उन्‍को लिवा लाए और दोनों कौंच पर बैठ कर बड़ी प्रीति सै बातैं करनें लगे।

“मित्र तुम बड़े निष्ठुर हो मैं इतनें दिनसै तुम्‍हारी मोहनी मुर्ति देखनें-के लिये तरस रहा हूँ पर तुम याद भी नहीं करते” लाला मदनमोहन नें सच्‍चे मन सै कहा।

“मुझको एक पल आपके बिना कल नहीं पड़ती पर क्‍या करूं ? चुगलखोरों के हाथसै तंग हूँ जब कोई बहाना निकालकर आनें का उपाय करता हूँ वे लोग तत्‍काल जाकर लालाजी (अर्थात् पिता) सै कह देते हैं और लालाजी खुलकर तो कुछ नहीं कहते पर बातों ही बातों मैं ऐसा झंझोड़ते हैं कि जी जलकर राख हो जाता है। आजतो मैंनें उन्‍सै भी साफ कह दिया कि आप राजी हों, या नाराज हों मुझसें लाला मदनमोहन की दोस्ती नहीं छूट सकती” लाला हरदयालनें यह बात ऐसी गर्मा गर्मी से कही कि लाला मदनमोहन के मनपर लकीर होगई। पर यह सब बनावट थी। उस्नें ऐसी बातें बना, बना कर लाला मदनमोहन सै “तोफा तहायफ़” मैं बहुत कुछ फायदा उठाया था इस लिये इस सोनें की चिड़िया को जाल मैं फसानें के लिये भीतर पेटे सबघर के शामिल थे और मदनमोहन के मनमैं मिलनें की चाह बढ़ानें के लिये उसनें अब की बार आनें मैं जान बूझ कर देर की थी।

“भाई ! लोग तो मुझे भी बहुत बहकाते हैं। कोई कहता है “ये रुपे के दोस्‍त हैं,” कोई कहता है “ये मतलब के दोस्‍त हैं” पर मैं उनको जरा भी मुंह नहीं लगाता क्‍योंकि मुझ को ओथेलो की बरबादी का हाल अच्‍छी तरह मालूम है” लाला मदनमोहन नें साफ मन सै कहा पर हरदयाल के पापी मन को इतनी ही बात सै खटका हो गया।

“दुनिया के लोगों का ढंग सदा अनोखा देखनें मैं आता है उन्‍मैं सै कोई अपना मतलब दृष्‍टांत और कहावतों के द्वारा कह जाता है, कोई अपना भाव दिल्लगी और हंसी की बातों मैं जता जाता है, कोई अपना प्रयोजन औरों पर रखकर सुना जाता है, कोई अपना आशय जताकर फ़िर पलट जानें का पहलू बनायें रखता है, पर मुझको ये बातें नहीं आतीं। मैं तो सच्‍चा आदमी हूँ जो मनमैं होती है वह ज़बान सै कहता हूँ जो जबान से कहता हूँ वह पूरी करता हूँ” लाला हरदयाल नें भरमा भरमी अपना संदेह प्रगट करके अन्त मैं अपनी सचाई जताई।

“तो क्‍या आपको इस्‍समय यह संदेह हुआ कि मैंनें बहकानें वालों पर रख कर अपनी तरफ़ सै आपको “रुपेका दोस्‍त” और “मतलब का दोस्‍त” ठैराया है ?” लाला मदनमोहन गिड़ गिड़ा कर कहनें लगे “हाय ! आपनें मुझको अबतक नहीं पहचाना। मैं अपनें प्राणसै अधिक आपको सदा समझता रहा हूँ। इस संसार मैं आपसै बढ़कर मेरा कोई मित्र नहीं है जिस्‍पर आपको मेरी तरफ़ सै अबतक इतना संदेह बन रहा है मुझको आप इतना नादान समझते हैं। क्‍या मैं अपनें मित्र और शत्रु को भी नहीं पहचान्‍ता ? क्‍या आप सै अधिक मुझको संसार मैं कोई मनुष्‍य प्‍यारा है ? मैं कलेजा चीरकर दिखाऊं तों आपको मालूम हो कि आपकी प्रीति मेरे हृदय मैं कैसी अंकित हो रही है !”

“आप वृथा खेद करते हैं। मैं आपकी सच्‍ची प्रीति को अच्‍छी तरह जान्ता हूँ और मुझको भी इस संसार मैं आप सै बढ़कर कोई प्यारा नहीं है। मैंनें दुनिया का यह ढङ्ग केवल चालाक आदमियों की चालाकी जतानें के लिये आपसै कहा था आप वृथा अपनें ऊपर ले दोड़े। मुझको तो आपकी प्रीति का यहां तक विश्‍वास है कि सूर्य चन्‍द्रमा की चाल बदल जायगी तो भी आप की प्रीति मैं क़भी अन्तर न आयगा” लाला हरदयालनें मदनमोहन के गले मैं हाथ डाल कर कहा।

“प्रीति के बराबर संसार मैं कौन्‍सा पदार्थ है ?” लाला मदनमोहन कहनें लगे “और सब तरह के सुख मनुष्‍य को द्रव्‍य सै मिल सक्ते हैं पर प्रीति का सुख सच्‍चे मित्र बिना किसी तरह नहीं मिल्‍ता जिस्‍नें संसार मैं जन्‍म लेकर प्रीति का रस नहीं लिया उसका जन्‍म लेना बृथा है इसी तरह जो लोग प्रीति करके उस्‍पर द्रढ़ नहीं वह उस्‍के रस सै नावाफिक है।”

“निस्सन्देह ! प्रीति का सुख ऐसा ही अलौकिक है। संसार मैं जिन लोगों को भोजन के लिये अन्‍न और पहन्ने के लिये वस्‍त्र तक नहीं मिल्‍ता उन्‍को भी अपनें दु:ख सुख के साथी प्राणोपम मित्र के आगे अपना दु:ख रोकर छाती का बोझ हल्‍का करनें पर, अपनें दुखों को सुन, सुन कर उस्‍के जी भर आनें पर, उस्‍के धैर्य देनें पर, उस्‍के हाथ सै अपनी डबडबाई हुई आंखों के आंसू पुछ जानें पर, जो संतोष होता है वह किसी बड़े राजा को लाखों रुपे खर्च करनें सै भी नहीं होसक्ता” लाला हरदयाल नें कहा।

“निस्सन्देह ! मित्रता ऐसीही चीज है पर जो लोग प्रीति का सुख नहीं जान्‍ते वह किसी तरह का इस्‍का भेद नहीं समझ सक्ते” लाला मदनमोहन कहनें लगें।

“दुनियां के लोग बहुत करके रुपे के नफे नुक्‍सान पर प्रीति का आधार समझते हैं। आज हरगोविंद नें लखनऊ की चार टोपियां मुझको अठारह रुपेमैं ला दी थीं इस्‍पर हरकिशोर जल गये और मेरी प्रीति बढ़ानें के लिये बारह रुपे में वैसी ही टोपियां देनें लगे। इन्‍के निकट प्रीति और मित्रता कोई ऐसी चीज है जो दस पांच रुपे की कसर खानें सै बातों मैं हाथ आसक्ती है !”

“हरकिशोरनें हरगोविंद की तरफ़सै आपका मन उछांटनें के लिये यह तद्वीर की हो तो भी कुछ आश्‍चर्य नहीं।” हरदयाल बोले “मैं जान्ता हूँ कि हरकिशोर एक बड़ा”-

इतनेंमैं एकाएक कमरे का दरवाजा खुला और हरकिशोर भीतर दाखल हुआ। उसको देखतेही हरदयाल की जबान बंद हो गई और दोनों नें लजाकर सिर झुका लिया।

“पहलै आप अपनें शुभ चिन्‍तकों के लिये सजा तजवीज कर लीजिये फ़िर मैं साठन मुलाहजें कराऊंगा। ऐसे वाहियात कामौं के वास्‍ते इस जरूरी काम मैं हर्ज करना मुनासिब नहीं। हां लाला हरदयाल साहब क्‍या फरमा रहे थे “हरकिशोर एक बड़ा-” क्‍या है ?” हरकिशोरनें कमरे मैं पांव रखते ही कहा।

“चलो दिल्‍लगी की बातैं रहनें दो लाओ, दिखलाओ तुम कैसी साठन लाए हो ? हम अपनी निज की सलाह के वास्‍ते औरों का काम हर्ज नहीं किया चाहते” लाला हरदयाल नें पहली बात उड़ाकर कहा।

“मैं और नहीं हूँ पर अब आप चाहे जो बना दैं मुझको अपना माल दिखानें मैं कुछ उज्र नहीं पर इतना बिचार है कि आजकल सच्‍चे माल की निस्‍बत नकली या झूंटे माल पर ज्‍याद: चम‍क दमक मालूम होती है। मोतियों को देखिये चाहै मणियों को देखिये, कपड़ों को देखिये, चाहै गोटे किनारी को देखिये, जो सफाई झूंटे पर होगी वो सच्‍चे पर हरगिज न होगी इस लिये मैं डरता हूँ कि शायद मेरा माल पसन्द न आय” हरकिशोरनें मुस्कराकर कहा।

“तुम कपड़ा दिखानें आए हो या बातोंकी दुकानदारी लगानें आए हो ? जो कपड़ा दिखाना हो तो झट पट दिखा दो नहीं तो अपना रस्‍ता लो। हमको थोथी बातों के लिए इस्‍समय अवकाश नहीं है” लाला मदनमोहननें भौं चढ़ा कर कहा।

“यह तो मैंनें पहले ही कहा था अच्‍छा ! अब मैं जाता हूँ फ़िर किसी वक्‍त हाजिर होऊंगा”

“तो तुम कल नो, दस बजे मकान पर आना” यह कह कर लाला मदनमोहन नें उसै रूख़सत किया।

“आपस मैं क्‍या मजे की बातैं हो रही थीं न जानें यह हत्‍या बीच मैं कहां सै आगई” लाला हरदयाल बोले।

“खैर अब कुछ दिल्‍लगी की बात छेडिये !” लाला मदनमोहन नें फरमायश की।

निदान बहुत देर तक अच्‍छी तरह मिल भेट कर लाला हरदयाल अपनें मकान को गए और लाला मदनमोहन अपनें मकान को गए।

प्रकरण-५ : विषयासक्त

इच्‍छा फलके लाभसों कबहुंन पूरहि आश

जैसे पावक घृत मिले बहु विधि करत प्रकाश7

हरिवंश ।

(7नजातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति ।। हविषा कृष्णवर्त्मैव भूय एवावभिर्द्धते ।।)

लाला मदनमोहन बाग सै आए पीछे ब्‍यालू करके अपनें कमरे मैं आए उस्समय लाला ब्रजकिशोर, मुन्शी चुन्‍नीलाल, मास्‍टर शिंभूदयाल, बाबू बैजनाथ, पंडित पुरुषोत्तमदास, हकीम अहमदहुसैन वगैरे सब दरबारी लोग मौजूद थे। लाला साहब के आते ही ग्‍वालियर के गवैयों का गाना होनें लगा।

“मैं जान्ता हूँ कि आप इस निर्दोष दिल्‍लगी को तो अवश्‍य पसंद करते होंगे। देखिये इस्‍सै दिन भर की थकान उतर जाती है और चित्त प्रसन्‍न हो जाता है” लाला मदनमोहन नें थोडी देर पीछै ब्रजकिशोर सै कहा।

“सब बातें काम के पीछे अच्‍छी लगती हैं। जो सब तरह का प्रबंध बन्ध रहा हो, काम के उसूलों पर दृष्टि हो, भले बुरे काम और भले बुरे आदमियों की पहचान हो, तो अपना काम किये पीछै घड़ी, दो घड़ी की दिल्‍लगी मैं कुछ बिगाड़ नहीं है पर उस्‍समय भी इस्‍का व्‍यसन न होना चाहिये” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।

“अमीरौं को ऐश के सिवाय और क्‍या काम है ?” मास्टर शिंभूदयाल नें कहा।

“राजनीति मैं कहा है “राजा सुख भोगहि सदा मंत्री करहि सम्‍हार ।। राजकाज बिगरे कछू तो मंत्री सिर भार ।।”8

(8भोगस्य भाजनं राजा मन्त्री कार्य्यस्य भाजनम् ।। राजकार्य्यपरिध्वंसी मन्त्री दोषेण लिप्यते ।।)

पंडित पुरुषोत्तमदास बोले।

“हां यहां के अमीरों का ढंग तो यही है। पर यह ढंग दुनियां सै निराला है। जो बात सब संसार के लिये अनुचित गिनी जाती है वही उन्‍के लिये उचित समझी जाती है ! उन्‍की एक, बात पर सुननें वाले लोट पोट हो जाते हैं ! उन्की कोई बात हिकमत सै खाली नहीं ठैरती ! जिन बातों को सब लोग बुरी जान्‍ते हैं, जिन बातों को करनें मैं कमीनें भी लजाते हैं, जिन बातों के प्रगट होनें सै बदचलन भी शर्माते हैं, उन्‍का करना यहां के धनवानों के लिये कुछ अनुचित नहीं हैं ! इन् लोगों को न किसी काम के प्रारंभ की चिन्‍ता होती है ! न किसी काम के परिणाम का बिचार होता है ! यहां के धनपति तो अपनें को लक्ष्‍मी पति समझते हैं परन्तु ईश्‍वर के हां का यह नियम नहीं है। उस्‍ने अपनी सृष्टि मैं सब गरीब अमीरों को एकसा बनाया है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “जो मनुष्‍य ईश्‍वर का नियम तोड़ेगा उस्‍को अपनें पाप का अवश्‍य दंड मिलैगा। जो लोग सुख भोग मैं पड़ कर अपनें शरीर या मन को कुछ परिश्रम नहीं देते प्रथम तो असावधान्‍ता के कारण उन्‍का वह बैभव ही नहीं रहता और रहा भी तो कुदरती कायदे के मूजिब उन्‍का शरीर और मन क्रम सै दुर्बल होकर किसी काम का नहीं रहता। पाचन शक्तिके घटनें सै तरह, तरह के रोग उत्‍पन्‍न होते हैं और मानसिक शक्तिके घटनें सै चित्त की बिकलता, बुद्धि की अस्थिरता, और काम करनें की अरुचि उत्‍पन्‍न हो जाती है जिस्‍सै थोड़े दिन मैं संसार दु:खरूप मालूम होनें लगता है।”

“परन्‍तु अत्‍यन्‍त महनत करनें सै भी तो शिथिलता हो जाती है” बाबू बैजनाथनें कहा।

“इस्‍सै वह बात नहीं निकलती कि बिल्कुल महनत न करो सब काम अंदाजसिर करनें चाहियें” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “लिडिया का बादशाह कारून साईरस सै हारा उस्‍समय साईरस उस्‍की प्रजा को दास बनानें लगा तब कारूननें कहा “हमको दास किस लिये बनाते हो ? हमारे नाश करनें का सीधा उपाय यह है कि हमारे शस्‍त्र लेलो, हम को उत्तमोत्तम वस्‍त्र भूषण पहननें दो, नाच रंग देखनें दो, श्रृंगार रसका अनुभव करनें दो, फ़िर थोड़े दिन मैं देखोगे कि हमारे शूरबीर अबला बन जायंगे और सर्वथा तुम सै युद्ध न कर सकेंगे” निदान ऐसाही हुआ। पृथ्‍वीराज का संयोगिता सै विवाह हुए पीछै वह इसी सुख मैं लिपट कर हिन्‍दुस्‍थान का राज खो बैठा और मुसल्मानों का राज भी अन्त मैं इसी भोग बिलास के कारण नष्‍ट हुआ”

“आप तो जिस्‍बात को कहते हैं हद्द के दरजे पर पहुँचा देते हैं भला ! पृथ्‍वीराज और मुसल्मानों की बादशाहत का लाला साहब के काम काज सै क्‍या सम्बन्ध है ? उन्‍का द्रव्‍य बहुत कर के अपनें भोग विलास मैं खर्च होता था परन्तु लाला साहब का तो परोपकार मैं होता है” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“देखिये लाला साहब का मन पहले नाच तमाशे मैं बिल्‍कुल नहीं लगता था पर इन्हों नें चार मित्रों का मेल मिलाप बढ़ानें के लिये अपना मन रोक कर उन्‍की प्रसन्‍नता की।” पंडित पुरुषोत्तमदास बोले।

“बुरे कामों के प्रसंग मात्र सै मनुष्‍य के मन मैं पाप की ग्‍लानि घटती जाती है। पहले लाला साहब को नाच रंग अच्‍छा नहीं लगता था पर अब देखते, देखते व्‍यसन हो गया। फ़िर जिन् लोगों की सोहबत सै यह व्‍यसन हुआ उन्‍को मैं लाला साहबका मित्र कैसे समझूं ? मित्रता का काम करे वह मित्र समझा जाता है अपनें मतलब के लिये लंबी, लंबी बातैं बनानें सै कोई मित्र नहीं हो सक्ता” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे” सादी नें कहा है “एक दिवस मैं मनुज की विद्या जानी जाय ! पै न भूल, मन को कपट बरसन लग न लखाय”9।।

(9तवां शनाख्त बयकरोज दर शमायल मरद ।
किता कुजाश रसीदस्त पायगाह उलूम ।
वले ज बातिनश एमन मवाशो गर्रा मशो ।
के खुब्स नफ़्स नगदर्द बसालहा मालूम ।)

“तो क्‍या आप इन् सब को स्‍वार्थपर ठैराकर इन्‍का अपमान करते हैं ?” लाला मदनमोहन नें जरा तेज होकर कहा।

“नहीं, मैं सबको एकसा नहीं ठैराता परन्तु परीक्षा हुए बिना किसी को सच्‍चा मित्र भी नहीं कह सक्ता” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। “केलीप्‍स नामी एक एथीनियन सै साइराक्‍यूस के बादशाह डिओन की बड़ी मित्रता थी। डिओन बहुधा केलीप्‍स के मकान पर जाकर महीनों रहा करता था एक बार डिओन को मालूम हुआ कि केलीप्‍स उस्‍का राज छीन्ने के लिये कुछ उद्योग कर रहा है। डिओन नें केलीप्‍स सै इस्‍का वृत्तान्त पूछा। तब वह डिओन के पांव पकड़कर रोनें लगा और देवमंदिर मैं जाकर अपनी सच्‍ची मित्रता के लिये कठिन सै कठिन सौगंध खा गया पर असल मैं यह बात झूंटी न थी। अन्त मैं केलीप्‍स नें साइराक्‍यूस पर चढ़ाई की और डिओन को महल ही मैं मरवा डाला ! इसलिये मैं कहता हूँ कि दूसरे की बातों मैं आकर अपना कर्तव्‍य भूलना बड़ी भूल की बात है”

“अच्‍छा ! फ़िर आप खुलकर क्‍यों नहीं कहते आपके निकट लाला साहब को बहकानें वाला कौन, कौन है ?” पंडितजी नें जुगत सै पूछा।

“मैं यह नहीं कह सक्‍ता जो बहकाते होंगे; अपनें जीमैं आप समझते होंगे मुझको लाला साहब के फ़ायदे सै काम है और लोगों के जी दुखानें सै कुछ काम नहीं है। मनुस्‍मृति मैं कहा है “सत्‍य कहहु अरु प्रिय कहहु अप्रिय सत्‍य न भाख ।। प्रियहु असत्‍य न बोलिये धर्म्म सनातन राख।”10

(10सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।।

प्रियं च नानृतं ब्रूया देशधर्मस्सनातन: ।।)

 

“इस लिये मैं इस्‍समय इतना ही कहना उचित समझता हूँ” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।

और इस्पर थोड़ी देर सब चुप रहे।

प्रकरण-६ : भले बुरे की पहचान

धर्म्म, अर्थ शुभ कहत कोउ काम, अर्थ कहिं आन

कहत धर्म्म कोउ अर्थ कोउ तीनहुं मिल शुभ जान11

मनुस्मृति।

(11धर्म्मार्थाकुच्येते श्रेय: कामर्थों धर्म एव च ।।

अर्थ एवेह वा श्रेय स्विवर्ग इति तू स्थिति: ।।)

“आप के कहनें मूजब किसी आदमी की बातों सै उस्‍का स्‍वभाव नहीं जाना जाता फ़िर उस्‍का स्‍वभाव पहचान्‍नें के लिये क्‍या उपाय करैं ?” लाला मदनमोहननें तर्क की।

“उपाय करनें की कुछ जरुरत नहीं है, समय पाकर सब अपनें आप खुल जाता है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मनुष्‍य के मन मैं ईश्‍वरनें अनेक प्रकार की वृत्ति उत्‍पन्‍न की हैं जिन्‍मैं परोपकारकी इच्‍छा, भक्ति और न्‍याय परता धर्म्‍मप्रवृत्ति मैं गिनी जाती हैं; दृष्‍टांत और अनुमानादि के द्वारा उचित अनुचित कामों की विवेचना, पदार्थज्ञान, और बिचारशक्ति का नाम बुद्धिबृत्ति है। बिना बिचारे अनेकबार के देखनें, सुन्‍नें आदि सै जिस काम मैं मन की प्रबृत्ति हो, उसै आनुसंगिक प्रवृत्ति कहते हैं। काम, सन्तानस्‍नेह, संग्रह करनें की लालसा, जिघांसा और आत्‍मसुख की अभिरुचि इत्‍यादि निकृष्‍ट प्रवृत्ति मैं शामिल हैं और इन् सब के अविरोध सै जो काम किया जाय वह ईश्वर के नियमानुसार समझा जाता है परन्तु किसी काम मैं दो बृत्तियों का विरोध किसी तरह न मिट सके तो वहां ज़रूरत के लायक आनुसंगिक प्रबृत्ति और निकृष्‍ट प्रबृत्ति को धर्मप्रबृत्ति और बुद्धि बृत्ति सै दबा देना चाहिये जैसे श्रीरामचन्‍द्रजी नें राज पाट छोड़ कर बन मैं जानें सै धर्म्म प्रबृत्ति को उत्तेजित किया था।”

“यह तो सवाल और जवाब और हुआ मैंनें आपसै मनुष्‍य का स्‍वभाव पहिचान्‍नें की राय पूछी थी आप बीच मैं मन की बृत्तियों का हाल कहनें लगे” लाला मदनमोहन नें कहा।

“इसी सै आगे चलकर मनुष्‍य के स्‍वभाव पहचान्‍नें की रीति मालूम होगी-”

“पर आप तो काम सन्‍तानस्‍नेह आदि के अविरोध सै भक्ति और परोपकारादि करनें के लिये कहते हैं और शास्‍त्रों मैं काम, क्रोध, लोभ, मोहादिक की बारम्बार निन्‍दा की है फ़िर आप का कहना ईश्‍वर के नियमानुसार कैसै हो सक्ता है ?” पंडित पुरूषोत्तमदास बीच मैं बोल उठे।

“मैं पहले कह चुका हूँ कि धर्म्मप्रबृत्ति और निकृष्‍टप्रबृत्ति मैं विरोध हो वहां ज़रूरत के लायक धर्म्मप्रबृत्ति को प्रबल मान्ना चाहिये परन्तु धर्म्मप्रबृत्ति और बुद्धिप्रबृत्ति का बचाव किए पीछै भी निकृष्‍टप्रबृत्ति का त्‍याग किया जायगा तो ईश्‍वर की यह रचना सर्वथा निरर्थक ठैरेगी पर ईश्‍वर का कोई काम निरर्थक नहीं है। मनुष्‍य निकृष्‍टप्रबृत्ति के बस होकर धर्म्मप्रबृत्ति और बुद्धिबृत्ति की रोक नहीं मान्‍ता इसी सै शास्‍त्र मैं बारम्‍बार उस्‍का निषेध किया है। परन्तु धर्म्मप्रबृत्ति और बुद्धि को मुख्‍य मानें पीछै उचित रीति सै निकृष्‍टप्रबृत्ति का आचरण किया जाये तो गृहस्‍थ के लिये दूषित नहीं हो सक्ता। हां उस्‍का नियम उल्‍लंघन कर किसी एक बृत्ति की प्रबलता सै और, और बृत्तियों के विपरीत आचरण कर कोई दु:ख पावै तो इस्‍मैं किसी बस नहीं। सबसै मुख्‍य धर्म्मप्रबृत्ति है परन्तु उस्‍मैं भी जबतक और बृत्तियों के हक़ की रक्षा न की जायगी अनेक तरह के बिगाड़ होनें की सम्‍भावना बनी रहैगी।”

“मुझको आपकी यह बात बिल्कुल अनोखी मालूम होती है भला परोपकारादि शुभ कामों का परिणाम कैसै बुरा हो सक्‍ता है ?” पंडित पुरुषोत्तमदास नें कहा।

“जैसे अन्‍न प्राणाधार है परन्तु अति भोजन सै रोग उत्‍पन्‍न होता है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “देखिये परोपकार की इच्‍छा ही अत्‍यन्‍त उपकारी है परन्तु हद्द सै आगे बढ़नें पर वह भी फ़िजूलखर्ची समझी जायगी और अपनें कुटुंब परवारादि का सुख नष्‍ट हो जायगा जो आलसी अथवा अधर्म्मियों की सहायता की तो उस्‍सै संसार मैं आलस्‍य और पाप की बृद्धि होगी इसी तरह कुपात्र मैं भक्ति होनें सै लोक, परलोक दोनों नष्‍ट हो जायंगे। न्‍यायपरता यद्यपि सब बृत्तियों को समान रखनें वाली है परन्तु इस्‍की अधिकता सै भी मनुष्‍य के स्‍वभाव मैं मिलनसारी नहीं रहती, क्षमा नहीं रहती। जब बुद्धि बृत्ति के कारण किसी वस्‍तु के बिचार मैं मन अत्‍यन्‍त लग जायगा तो और जान्‍नें लायक पदार्थों की अज्ञानता बनी रहैगी मन को अत्‍यन्‍त परिश्रम होनें सै वह निर्बल हो जायगा और शरीर का परिश्रम बिल्कुल न होनें के कारण शरीर भी बलहीन हो जायगा। आनुसंगिक प्रबृत्ति के प्रबल होनें सै जैसा संग होगा वैसा रंग तुरत लग जाया करेगा। काम की प्रबलता सै समय असमय और स्‍वस्‍त्री परस्‍त्री आदि का कुछ बिचार न रहैगा। संतानस्‍नेह की बृत्ति बढ़ गई तो उस्‍के लिये आप अधर्म्म करनें लगेगा, उस्को लाड, प्‍यार मैं रखकर उस्‍के लिये जुदे कांटे बोयेगा। संग्रह करनें की लालसा प्रबल हुई तो जोरी सै, चोरी सै, छल सै, खुशामद सै, कमानें की डिढ्या पड़ैगी और खानें खर्चनें के नाम सै जान निकल जायगी। जिघांसा बृत्ति प्रबल हुई तो छोटी, छोटी सी बातों पर अथवा खाली संदेह पर ही दूसरों का सत्‍यानाश करनें की इच्‍छा होगी और दूसरों को दंड देती बार आप दंड योग्‍य बन जायगा। आत्‍म सुख की अभिरुचि हद्द सै आगे बढ़ गई तो मन को परिश्रम के कामों सै बचानें के लिये गानें बजानें की इच्‍छा होगी, अथवा तरह, तरह के खेल तमाशे हंसी चुहल की बातें, नशेबाजी, और खुशामद मैं मन लगैगा। द्रब्‍य के बल सै बिना धर्म्म किये धर्मात्मा बना चाहैंगे, दिन रात बनाव सिंगार मैं लगे रहैंगे। अपनी मानसिक उन्‍नति करनें के बदले उन्‍नति करनें वालों सै द्रोह करैंगे, अपनी झूंटी ज़िद निबाहनें मैं सब बढ़ाई समझैंगे, अपनें फ़ायदे की बातों मैं औरों के हक़ का कुछ बिचार न करेंगे। अपनें काम निकालनें के समय आप खुशामदी बन जायंगे, द्रब्य की चाहना हुई तो उचित उपायों सै पैदा करनें के बदले जुआ, बदनी धरोहड़, रसायन, या धरी ढकी दोलत ढूंडते फिरैंगे।”

“आप तो फ़िर वोही मन की बृत्तियों का झगड़ा ले बैठे। मेरे सवाल का जवाब दीजिये या हार मानिये” लाला मदनमोहन उखता कर कहनें लगे।

“जब आप पूरी बात ही न सुनें तो मैं क्‍या जवाब दूं ? मेरा मतलब इतनें बिस्‍तार सै यह था कि बृत्तियों का सम्बन्ध मिला कर अपना कर्तव्‍य कर्म निश्‍चय करना चाहिये। किसी एक बृत्ति की प्रबलता सै और बृत्तियों का बिचार किया जायगा तो उस्‍में बहुत नुक्‍सान होगा” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे:-

“वाल्‍मीकि रामायण मैं भरत सै रामचन्‍द्र नें और महाभारत मैं नारदमुनि नें राजायुधिष्ठिर सै ये प्रश्‍न किया है “धर्महि धन, अर्थहिधरम बाधक तो कहुं नाहिं ?।। काम न करत बिगार कछु पुन इन दोउन मांहिं ?12।।”

(12कच्चिदर्थेन वा धर्म धर्मेणार्थे मथा पिवा ।।

उभी वा प्रीतिसारेण न कामेन प्रबाधसे ।।)

“बिदुरप्रजागर मैं बिदुरजी राजाधृतराष्‍ट्र सै कहते हैं धर्म अर्थ अरु काम, यथा समय सेवत जु नर ।। मिल तीनहुँ अभिराम, ताहि देत दुहुंलोक सुख ।।”13

(13योधर्म मर्थ कामं च यथा कालं निषेवते ।।

धर्मार्थ काम संयोगं सोमुत्नेहच विन्‍दति ।।)

 

“बिष्णु पुराण मैं कहा है “धर्म बिचारै प्रथम पुनि अर्थ, धर्म अविरोधि ।। धर्म, अर्थ बाधा रहित सेवै काम सुसोधि ।।”14

(14विबुद्धश्चिन्तयेद्धर्मं मर्थं चास्या विरोधीनम् ।।

अपीडया तयो: काम मुभयोरपि चिन्तयेत् ।।)

“रघुबंश मैं अतिथि की प्रशंसा करतीबार महाकवि कालिदास नें कहा है “निरीनीति कायरपनो केवल बल पशुधर्म्म ।। तासों उभय मिलाय इन सिद्ध किये सब कर्म्म ।।”15

(15कातर्यं केवलानीति: शौर्यंश्वापदचेष्टितम् ।।)

“हीन निकम्‍मे होत हैं बली उपद्रववान ।। तासों कीन्‍हें मित्र तिन मध्‍यम बल अनुमान16 ।।”

(16हीनान्यनुपकर्तृणि प्रवृद्धानि विकुर्वते ।।

तेन मध्यमशक्तिनी मित्राणि स्थापितान्यत:)

“चाणक्‍य मैं लिखा है “बहुत दान ते बलि बँध्‍यो मान मरो कुरुराज ।। लंपट पन रावण हत्‍यो अति वर्जित सब काज17 ।।”

(17अतिदानाद् वलिर्बद्धो नष्टो मानात् सुयोधन ।।

विनष्टो रावणो लौल्या अतिसर्वत्र वजयेत्)

“फ्रीजिया के मशहूर हकीम एपिक्‍टेट्स की सब नीति इन दो बचनों मैं समाई हुई है कि “धैर्य सै सहना” और “मध्‍यम भाव सै रहना” चाहिये।

“कुरान मैं कहा है कि “अय (लोगों) ! खाओ, पीओ परन्तु फ़िजूलखर्ची न करो18 ।।”

(18कुलू वश्रबू न ला तुस्त्रिफू)

“बृन्‍द कहता है “कारज सोई सुधर है जो करिये समभाय ।। अति बरसे बरसे बिना जों खेती कुम्‍हलाय ।।”

“अच्छा संसार मैं किसी मनुष्‍य का इसरीति पर पूरा बरताव भी आज तक हुआ है ?” बाबू बैजनाथ नें पूछा।

“क्‍यों नहीं देखिये पाईसिस्‍ट्रेट्रस नामी एथीनियन का नाम इसी कारण इतिहास मैं चमक रहा है। वह उदार होनें पर फ़िजूलखर्च न था और किसी के साथ उपकार कर के प्रत्‍युपकार नहीं चाहता था बल्कि अपनी मानवरी की भी चाह न रखता था। वह किसी दरिद्र के मरनें की खबर पाता तो उस्‍की क्रिया कर्म के लिये तत्‍काल अपनें पास सै खर्च भेज देता, किसी दरिद्र को बिपद ग्रस्थ देखता तो अपनें पास सै सहायता कर के उस्‍के दु:ख दूर करनें का उपाय करता, पर क़भी किसी मनुष्‍य को उस्‍की आवश्‍यकता सै अधिक देकर आलसी और निरूद्यमी नहीं होनें देता था। हां सब मनुष्‍यों की प्रकृति ऐसी नहीं हो सक्ती, बहुधा जिस मनुष्‍य के मन मैं जो वृत्ति प्रबल होती है वह उस्‍को खींच खांच कर अपनी ही राह पर ले जाती है जैसे एक मनुष्‍य को जंगल मैं रुपों की थैली पड़ी पावै और उस्‍समय उस्‍के आस पास कोई न हो तब संग्रह करनें की लालसा कहती है कि “इसै उठा लो” सन्‍तानस्‍नेह और आत्‍म सुख की अभिरुचि सम्‍मति देती है कि “इस काम सै हम को भी सहायता मिलेगी” न्‍याय परता कहती है कि “न अपनी प्रसन्‍नता सै यह किसी नें हमको दी न हमनें परिश्रम करके यह किसी सै पाई फ़िर इस पर हमारा क्‍या हक़ है ? और इस्‍का लेना चोरी सै क्‍या कम है ? इसै पर धन समझ कर छोड़ चलो” परोपकार की इच्‍छा कहती है कि “केवल इस्‍का छोंड़ जाना उचित नहीं, जहां तक हो सके उचित रीति सै इस्‍को इस्‍के मालिक के पास पहुँचानें का उपाय करो” अब इन् बृत्तियों सै जिस बृत्ति के अनुसार मनुष्‍य काम करे वह उसी मेल मैं गिना जाता है यदि धर्म्मप्रबृत्ति प्रबल रही तो वह मनुष्‍य अच्‍छा समझा जायगा, और इस रीति सै भले बुरे मनुष्‍यों की परीक्षा समय पाकर अपनें आप हो जायगी बल्कि अपनी बृत्तियों को पहचान कर मनुष्‍य अपनी परीक्षा भी आप कर सकेगा, राजपाट, धन दौलत, शिक्षा, स्‍वरूप, बंश मर्यादा सै भले बुरे मनुष्‍य की परीक्षा नहीं हो सक्ती। बिदुरजी नें कहा है, “उत्तमकुल आचार बिन करे प्रमाण न कोई ।। कुलहीनो आचारयुत लहे बड़ाई सोइ ।।”

प्रकरण-७ 19: सावधानी (होशयारी)

सब भूतनको तत्‍व लख कर्म योग पहिचान ।।

मनुजनके यत्‍नहि लखहिं सो पंडित गुणवान20 ।।

बिदुर प्रजागरे

(19न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाण मिति मे मति: ।।

अन्तेष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते ।।)

(20तत्वज्ञ: सर्वभूतानां योगज्ञ: सर्वकर्मणाम् ।।

उपायज्ञो मनुष्याणां नर: पंडित उच्यते ।।)

“यहां तो आप अपनें कहनें पर खुद ही पक्‍के न रहें, आपनें केलीप्‍स और डिओन का दृष्‍टांत देकर यह बात साबित की थी कि किसी की जाहिरी बातों सै उस्‍की परीक्षा नहीं हो सक्ती परन्‍तु अन्‍त मैं आप नें उसी के कामों सै उस्‍को पहचान्‍नें की राय बतलाई” बाबू बैजनाथ नें कहा।

“मैंनें केलीप्‍सके दृष्‍टांत मैं पिछले कामों सै पहली बातों का भेद खोल कर उस्‍का निज स्‍वभाव बता दिया था इसी तरह समय पाकर हर आदमी के कामों सै मन की बृत्तियों पर निगाह करकै उस्‍की भलाई बुराई पहचान्‍नें की राह बतलाई तो इस्‍सै पहली बातों सै क्‍या बिरोध हुआ ?” लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे।

“अच्‍छा ! जब आप के निकट मनुष्‍य की परीक्षा बहुत दिनों मैं उस्‍के कामों सै हो सक्ती है तो पहले कैसा बरताव रक्‍खैं ? क्या उस्‍की परीक्षा न हो जब तक उस्‍को अपनें पास न आनें दें ?” लाला मदनमोहन नें पूछा।

“नहीं, केवल संदेह सै किसी को बुरा समझना, अथवा किसी का अपमान करना सर्वथा अनुचित है परन्तु किसी की झूंटी बातों मैं आकर ठगा जाना भी मूर्खता सै खाली नहीं।” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “महाभारत मैं कहा है “मन न भरे पतियाहु जिन पतियायेहु अति नाही।। भेदी सों भय होत ही जर उखरे छिन माहिं ।।” 21

(21न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नाति विश्वसेत् ।।

विश्वासाद् भयमुत्पन्न सूलान्यपी निकृन्तति ।।)

 

इस्‍कारण जब तक मनुष्‍य की परीक्षा न हो साधारण बातों मैं उस्‍के जाहिरी बरताव पर दृष्टि रखनी चाहिये परन्तु जोखों के काम मैं उस्‍सै सावधान रहना चाहिये। उस्‍का दोष प्रगट होनें पर उस्‍को छोड़नें मैं संकोच न हो इस लिये अपना भेदी बना कर, उस्‍का अहसान उठाकर, अथवा किसी तरह की लिखावट और जबान सै उस्‍के बसवर्ती होकर अपनी स्‍वतन्त्रता न खोवै यद्यपि किसी, किसी के बिचार मैं छल, बल की प्रतिज्ञाओं का निबाहना आवश्‍यक नहीं है परन्तु प्रतिज्ञा भंग करनें की अपेक्षा पहले बिचार कर प्रतिज्ञा करना हर भांत अच्‍छा है”

“ऐसी सावधानी तो केवल आप लोगों ही सै हो सक्ती है जो दिन रात इन्‍हीं बातों के चारा बिचार मैं लगे रहैं” लाला मदनमोहन नें हँसकर कहा।

मैं ऐसा सावधान नहीं हूँ परन्तु हर काम के लिये सावधानी की बहुत जरुरत है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैं अभी मन की बृत्तियों का हाल कहक़र अच्‍छे बुरे मनुष्‍यों की पहचान बता चुका हूँ परन्तु उन मैं सै धर्म्मप्रबृत्ति की प्रबलता रखनें वाले अच्छे आदमी भी सावधानी बिना किसी काम के नहीं हैं क्‍योंकि वे बुरी बातों को अच्‍छा समझ कर धोखा खा जाते हैं आपनें सुना होगा कि हीरा और कोयला दोनों मैं कार्बोन है और उन्‍के बन्नें की रसायनिक क्रिया भी एक सी है और दोनों मैं कार्बोन रहता है केवल इतना अन्तर है हीरे मैं निरा कार्बोन जमा रहता है और कोयले मैं उस्‍की कोई खास सूरत नहीं होती जो कार्बोन जमा हुआ, दृढ़ रहनें सै बहुत कठोर, स्‍वच्‍छ, स्‍वेत और चमकदार होकर हीरा कहलाता है वही कार्बोन परमाणुओं के फैल फुट और उलट पुलट होनें के कारण काला, झिर्झिरा, बोदा और एक सूरत मैं र‍हकर कोयला कहलाता है ! येही भेद अच्‍छे मनुष्‍यों मैं और अच्‍छी प्रकृतिवाले सावधान मनुष्यों मैं है कोयला बहुतसी जहरीली और दुर्गंधित हवाओं को सोख लेता है अपनें पास की चीजों को गलनें सड़नें की हानि सै बचाता है। और अमोनिया इत्‍यादि के द्वारा वनस्‍पति को फ़ायदा पहुँचाता है इसी तरह अच्‍छे आदमी दुष्‍कर्मों सै बचते हैं परन्तु सावधानी का योग मिले बिना हीरा की तरह कीमती नहीं हो सक्ते”

“मुझे तो यह बातें मन: कल्पित मालूम होती हैं क्‍योंकि संसार के बरताव सै इन्‍की कुछ बिध नहीं मिल्‍ती संसार मैं धनवान् कुपढ़, दरिद्री, पंडित, पापी सुखी, धर्मात्‍मा दुखी, असावधान अधिकारी, सावधान आज्ञाकारी, भी देखनें में आते हैं” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“इस्‍के कई कारण हैं” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “मैं पहले कह चुका हूँ कि ईश्‍वर के नियमानुसार मनुष्‍य जिस विषय मैं भूल करता है बहुधा उस्‍को उसी विषय मैं दंड मिलता है। जो बिद्वान दरिद्री मालूम होतें हैं वह अपनी विद्या मैं निपुण हैं परन्तु सांसारिक व्‍यवहार नहीं जान्‍ते अथवा जान बूझ कर उस्‍के अनुसार नही बरतते। इसी तरह जो कुपढ़ धनवान दिखाई देते हैं वह विद्या नहीं पढ़े परन्तु द्रव्‍योपार्जन करनें और उस्‍के रक्षा करनें की रीति जान्‍ते हैं। बहुदा धनवान रोगी होते हैं और गरीब नैरोग्‍य रहते हैं इस्‍का यह कारण है कि धनवान द्रव्‍योपार्जन करनें की रीति जान्‍ते हैं परन्तु शरीर की रक्षा उचित रीति सै नहीं करते और गरीबों की शरीर रक्षा उचित रीति सै बन् जाती है परन्तु वे धनवान होनें की रीति नहीं जान्‍ते। इसी तरह जहां जिस बात की कसर होती है वहां उसी चीज की कमी दिखाई देती है। परन्तु कहीं, कहीं प्रकृति के विपरीत पापी सुखी, धर्मात्‍मा दुखी, असावधान अधिकारी, सावधान आज्ञाकारी दिखाई देते हैं। इस्‍के दो कारण हैं। एक यह है कि संसार की बर्तमान दशा के साथ मनुष्‍य का बड़ा दृढ़ सम्बन्ध रहता है इस लिये क़भी, क़भी औरों के हेतु उस्‍का विपरीत भाव हो जाता है जैसे मा बाप कें विरसे सै द्रव्‍य, अधिकार या ऋण रोगादि मिल्‍ते हैं, अथवा किसी और की धरी हुई दौलत किसी और के हाथ लगजानें सै उस्‍का मालिक बन बैठता है, अथवा किसी अमीर की उदारता सै कोई नालायक धनवान बन जाता है, अथवा किसी पास पड़ौसी की गफ़लत सै अपना सामान जल जाता है, अथवा किसी दयालु बिद्वान के हितकारी उपदेशों सै कुपढ़ मनुष्‍य विद्या का लाभ ले सक्ते हैं, अथवा किसी बलवान लुटेरे की लूट मार सै कोई गृहस्‍थ बेसबव धन और तन्दुरस्‍ती खो बैठता है और ये सब बात लोगों के हक़ मैं अनायास होती रहती हैं इसलिये इनको सब लोग प्रारब्‍ध फल मान्‍ते हैं परन्तु ऐसे प्रारब्‍धी लोगों मैं जिस्को कोई वस्‍तु अनायास मिल गई पर उस्‍के स्थिर रखनें के लिये उस्‍के लायक कोई बृत्ति अथवा सब बृत्तियों की सहायता स्‍वरूप सावधानी ईश्‍वर नें नहीं दी तो वह उसचीज़ को अन्त मैं अपनी स्‍वाभाविक बृत्तियों की प्रबलता सै वह वस्तु अधिक हुई तो उस्मैं उन बृत्तियों का नुक्सान गुप्‍त रहक़र समय पर ऐसे प्रगट होता है जैसे बचपन की बेमालूम चोट बड़ी अवस्‍था मैं शरीर को निर्बल पाकर अचानक कसक उठे, या शतरंज मैं किसी चाल की भूल का असर दसबीस चाल पीछै मालूम हो। पर ईश्‍वर की कृपा सै किसी को कोई बस्‍तु मिलती है तो उस्‍के साथ ही उस्‍के लायक बुद्धि भी मिल जाती है या ईश्‍वर की कृपा सैकिसी कायम मुकाम (प्रतिनिधि) वगैरे की सहायता पाकर उस्‍के ठीक, ठीक‍ काम चलनें का बानक बन जाता है जिस्‍सै वह नियम निभे जाते हैं परन्तु ईश्‍वर के नियम मनुष्‍य सै किसी तरह नहीं टूट सक्ते।”

“मनुष्‍य क्‍या मैं तो जान्‍ता हूँ ईश्‍वरसे भी नहीं टूट सक्‍ते” बाबू बैजनाथनें कहा।

“ऐसा बिचारना अनुचित है ईश्‍वर को सब सामर्थ्‍य है देखो प्रकृतिका यह नियम सब जगह एकसा देखा जाता है कि गर्म होनें से हरेक चीज फैलती है और ठंडी होनें सै सिमट जाती है यही नियम २१२ डिक्री तक जल के लिये भी है परन्तु जब जल बहुत ठंडा होकर ३२ डिक्री पर बर्फ बन्‍ने लगता है तो वह ठंड सै सिमटनें केबदले फैलता जाता और हल्‍का होनें के कारण पानी के ऊपर तैरता रहता है इसमैं जल जंतुओंकी प्राणरक्षा के लिये यह साधारण नियम बदल दिया गया ऐसी बातों सै उस्‍की अपरिमित शक्ति का पूरा प्रमाण मिलता है उसनें मनुष्‍य के मानसिक भावादि सै संसार के बहुतसे कामोंका गुप्त सम्बन्ध इस तरह मिला रक्‍खा है कि जिस्के आभास मात्र सै अपना चित्त चकित होजाता है। यद्यपि ईश्‍वर के ऐसे बहुतसे कामोंकी पूरी थाह मनुष्‍य की तुच्‍छ बुद्धि को नहीं मिली तथापि उसनें मनुष्य को बुद्धि दी है। इस लिये यथाशक्ति उस्‍के नियमों का बिचार करना, उन्‍के अनुसार बरतना और बिपरीत भावका कारण ढूंढना उस्‍को उचित है, सो मैं अपनी तुच्‍छ बुद्धि के अनुसार एक कारण पहले कह चुकाहूँ। दूसरा यह मालूम होता है कि जैसे तारों की छांह चंद्रमा की चांदनी मैं और चंद्रमाकी चांदनी सूर्य्य की धूपमैं मिलकर अपनें आप उस्‍का तेज बढ़ानें लगती है इसी तरह बहुत उन्‍नति मैं साधारण उन्नति अपनें आप मिल जाती है। जबतक दो मनुष्‍यों का अथवा दो देशों का बल बराबर रहता है कोई किसी को नहीं हरा सक्ता, परन्तु जब एक उन्‍नतिशाली होता है, आकर्षणशक्ति के नियमानुसार दूसरे की समृद्धि अपनें आप उसकी तरफ़को खिचनें लगती है देखिये जबतक हिन्दुस्थान मैं और देशों सै बड़कर मनुष्‍य के लिये वस्‍त्र और सब तरह के सुख की सामग्री तैयार होती थी, रक्षाके उपाय ठीक, ठीक बनरहे थे, हिन्दुस्थान का वैभव प्रतिदिन बढ़ता जाता था परन्तु जबसै हिन्दुस्थान का एका टूटा और और देशोंमैं उन्‍नति हुई बाफ और बिजली आदि कलोंके द्वारा हिन्दुस्थान की अपेक्षा थोड़े खर्च थोड़ी महनत, और थोड़े समय मैं सब काम होनें लगा हिन्दुस्थान की घटती के दिन आगए; जब तक हिन्दुस्थान इन बातों मैं और देशों की बराबर उन्‍नति न करेगा यह घाटा क़भी पूरा न होगा। हिन्दुस्थान की भूमि मैं ईश्‍वर की कृपा सै उन्‍नति करनें के लायक सब सामान बहुतायतसे मौजूद हैं केवल नदियों के पानी ही सै बहुत तरह की कलैं चल सक्ती हैं परन्तु हाथ हिलाये बिना अपनें आप ग्रास मुख मैं नहीं जाता नई, नई युक्तियों का उपयोग किये बिना काम नहीं चलता। पर इन बातों सै मेरा यह मतलब हरगिज नहीं है कि पुरानी, पुरानी सब बातैं बुरी और नई, नई सब बातें एकदम अच्‍छी समझ ली जायं। मैंनें यह दृष्‍टांत केवल इस बिचार सै दिया है कि अधिकार और व्‍यापारादि के कामों मैं कोई, कोई युक्ति किसी समय कामकी होती है वह भी कालान्‍तर मैं पुरानी रीति भांत पलटजानें पर अथवा किसी और तरह की सूधी राह से निकल आनें पर अपनें आप निरर्थक हो जाती है और संसार के सब कामों का सम्बन्ध परस्‍पर ऐसा मिला रहता है कि एक की उन्‍नति अवनति का असर दूसरों पर तत्‍काल हो जाता है इस कारण एक सावधानी बिना मनकी बृत्तियों के ठीक होनें पर भी जमानें के पीछै रह जानें सै क़भी, क़भी अपनें आप अवनति हो जाती है और इन्हीं कारणों सै कहीं, कहीं प्रकृति के विपरीत भाव दिखाई देता है।”

“इस्‍सै तो यह बात निकली की हिन्दुस्थान मैं इस्‍समय कोई सावधान नहीं है” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा।

“नहीं यह बात हरगिज नहीं है, परन्तु सावधानी का फल प्रसंग के अनुसार अलग, अलग होता है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “तुम अच्‍छी तरह बिचार कर देखोगे तो मालूम हो जायगा कि हरेक समाजका मुखिया कोई निरा विद्वान अथवा धनवान नहीं होता, बल्कि बहुधा सावधान मनुष्‍य होता है और जो खुशी बड़े राजाओंको अपनें बराबर वालों मैं प्रतिष्‍ठा लाभ सै होती है वही एक गरीब सै गरीब लकड़हारे को भी अपनें बराबर वालोंमैं इज्‍जत मिलनें सै होती है और उन्‍नति का प्रसंग हो तो वह धीरै, धीरै उन्‍नति भी करता जाता है परन्तु इन दोनों की उन्‍नतिका फल बराबर नहीं होता क्‍योंकि दोनोंको उन्‍नति करनें के साधन एकसे नहीं मिलते। मनुष्‍य जिन कामोंमैं सदैव लगा रहता है अथवा जिन बातों का बारबार अनुभव करता है बहुधा उन्‍हीं कामोंमैं उस्‍की बुद्धि दौड़ती है और किसी सावधान मनुष्‍यकी बुद्धि किसी अनूठे काममैं दौड़ी भी तो उसै काममैं लानें के लिये बहुत करकै मौका नहीं मिलता। देशकी उन्‍नति अवनतिका आधार वहां के निवासियों की प्रकृति पर है। सब देशोंमैं सावधान और असावधान मनुष्‍य र‍हते हैं परन्तु जिस देशके बहुत मनुष्‍य सावधान और उद्योगी होते हैं उस्‍की उन्‍नति होती जाती है और जिस देशमैं असावधान और कमकस विशेष होते हैं उस्‍की अवनति होती जाती है। हिन्दुस्थान मैं इस समय और देशों की अपेक्षा सच्‍चे सावधान बहुत कम हैं और जो हैं वे द्रव्‍य की असंगति सै, अथवा द्रव्यवानों की अज्ञानता सै, अथवा उपयोगी पदार्थों की अप्राप्तिसै, अथवा नई, नई युक्तियों के अनुभव करनें की कठिनाइयोंसै, निरर्थक से हो रहे हैं और उन्‍की सावधानता बनके फूलोंकी तरह कुछ उपयोग किये बिना बृथा नष्ट हो जाती है परन्तु हिन्दुस्थान मैं इस समय कोई सावधान न हो यह बात हर‍गिज नहीं है”

“मेरे जान तो आजकल हिन्दुस्थान मैं बराबर उन्‍नति होती जाती है, जगह, जगह पढ़नें लिखनें की चर्चा सुनाई देती है, और लोग अपना हक़ पहचान्नें लगे हैं” बाबू बैजनाथनें कहा।

“इन सब बातों मैं बहुत सी स्‍वार्थपरता और बहुत सी अज्ञानता मिली हुई है परन्तु हकीकत मैं देशोन्‍नति बहुत थोड़ी है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “जो लोग पढ़ते हैं वे अपनें बाप दादोंका रोजगार छोड़कर केवल नौकरींके लिये पढ़ते हैं और जो देशोन्‍नतिके हेतु चर्चा करते हैं उनका लक्ष अच्‍छा नहीं है वे थोथी बातों पर बहुत हल्‍ला मचाते हैं परन्तु विद्याकी उन्‍नति, कलोंके प्रचार, पृथ्‍वीके पैदावार बढ़ानें की नई, नई युक्ति और लाभदायक व्‍यापारादि आवश्‍यक बातों पर जैसा चाहिये ध्‍यान नहीं देते जिस्‍सै अपनें यहांका घाटा पूरा हो। मैं पहले कह चुका हूँ कि जिन मनुष्‍यों की जो बृत्तियाँ प्रबल होती हैं वह उनको खींच खांचकर उसी तरफ़ ले जाती हैं सो देख लीजिए कि हिन्दुस्थान मैं इतनें दिन सै देशोन्‍नति चर्चा हो रही है परन्तु अबतक कुछ उन्‍नति नहीं हुई और फ्रांसवालों को जर्मनीवालों सै हारे अभी पूरे दस बर्ष नहीं हुए जिस्‍मैं फ्रांसवालों नें सच्ची सावधानी के कारण ऐसी उन्‍नति करली कि वे आज सब सुधरी हुई बलायतों सै आगै दिखाई देते हैं”

“अच्‍छा ! आपके निकट सावधानी की पहचान क्‍या है ?” लाला मदनमोहन नैं पूछा।

“सुनिये” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “जिस तरह पांच, सात गोलियें बराबर बराबर चुन्दी जायं और उन्‍मैं सै सिरे की एक गोली को हाथ सै धक्‍का देदिया जाय तो हाथ का बल, पृथ्वी की आकर्षणशक्ति, हवा आदि सब कार्य कारणों के ठीक, ठीक जान्‍नेसै आपस्‍मैं टकरा कर अन्त की गोली कितनी दूर लुढ़कैगी इस्‍का अन्दाज़ हो सक्ता है इसी तरह मनुष्यों की प्रकृति और पदार्थों की जुदी, जुदी शक्ति का परस्‍पर सम्बन्ध बिचार कर दूर और पास की हरेक बात का ठीक परिणाम समझ लेना पूरी सावधानी है परन्तु इन बातों को जान्‍नें के लिये अभी बहुत से साधनों की कसर है और किसी समय यह सब साधन पा कर एक मनुष्‍य बहुत दूर, दूर की बातों का परिणाम निकाल सकै यह बात असम्‍भव मालूम होती है तथापि अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार जो मनुष्‍य इस राह पर चलै वह अपनें समाज मैं साधारण रीति सै सावधान समझा जाता है। एक मोमबत्ती एक तरफ़ सै जल्‍ती हो और दूसरी दोनों तरफ़ जलती हो तो उस्‍के बर्तमान प्रकाश पर न भूलना परिणाम पर दृष्टि करना सावधानी का साधारण काम है और इसी सै सावधानता पहचानी जाती है।”

“आपनें अपनी सावधानता जतानें के लिये इतना परिश्रम करके सावधानी का वर्णन किया इस लिये मैं आपका बहुत उपकार मान्ता हूँ” लाला मदनमोहन नें हंस कर कहा।

“वाजबी बात कहनें पर मुझको आप सै ये तो उम्‍मेद ही थी।” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया, और लाला मदनमोहन सै रुख़सत होकर अपनें मकान को रवानें हुए।

प्रकरण-८ : सबमैं हां (!)

एकै साधे सब सधै सब साधे सब जाहिं

जो गहि सींचै मूलकों फूलैं फलैं अघाहिं

कबीर।

“लाला ब्रजकिशोर बातें बनानेंमैं बड़े होशियार हैं परन्तु आपनें भी इस्‍समय तो उन्‍को ऐसा मंत्र सुनाया कि वह बंद ही होगए” मुन्शी चुन्‍नीलालनें कहा।

“मुझको तो उन्‍की लंबी चोड़ी बातोंपर लुक्‍मानकी वह कहावत याद आती है जिस्‍मैं एक पहाड़के भीतरसै बड़ी गड़-गड़ाहट हुए पीछै छोटीसी मूसी निकली थी” मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा।

“उन्‍की बातचीतमैं एक बड़ा ऐब यह था कि वह बीचमैं दूसरे को बोलनें का समय बहुत कम देते थे जिस्‍सै उन्‍की बात अपनें आप फीकी मालूम होनें लगती थी” बाबू बैजनाथनें कहा।

“क्‍या करें ? वह वकील हैं और उन्‍की जीविका इन्हीं बातों सै है” हकीम अहमदहुसेन बोले।

“उन् पर क्‍या है अपना, अपना काम बनानें मैं सब ही एकसे दिखाई देते हैं” पंडित पुरुषोत्तमदासनें कहा।

“देखिये सवेरे वह काचोंकी खरीदारी पर इतना झगड़ा करते थे परन्तु मन मैं कायल हो गए इस्‍सै इस्‍समय उन्‍का नाम भी न लिया” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें याद दिलाई।

“हां; अच्‍छी याद दिलाई, तुम तीसरे पहर मिस्‍टर ब्राइट के पास गये थे ? काचोंकी कीमत क्‍या ठैरी ?” लाला मदनमोहन नें शिंभूदयाल सै पूछा।

“आज मदरसे सै आनें मैं देर हो गई इस्सै नहीं जासका” मास्‍टर शिंभूदयाल नें जवाब दिया। परन्तु यह उस्‍की बनावट थी असल मैं मिस्‍टर ब्राइट नें लाला मदनमोहन का भेद जान्‍नें के लिये सौदा अटका रक्‍खा था।

“मिस्‍टर रसलको दस हजार रुपे भेजनें हैं उन्का बंदोबस्त हो गया।” मुन्शी चुननीलाल नें पूछा।

“हां लाला जवाहरलाल सै कह दिया है परन्तु मास्‍टर साहब भी तो बंदोबस्‍त करनें कहते थे इन्होंनें क्‍या किया ?” लाला मदनमोहन नें उलट कर पूछा।

“मैंनें एक, दो जगह चर्चा की है पर पर अब तक किसी सै पकावट नहीं हुई” मास्‍टर शिंभूदयाल नें जवाब दिया।

“खैर ! यह बातैं तो हुआ ही करैंगी मगर यह लखनऊ का तायफा शाम सै हाजिर है उस्‍के वास्‍तै क्‍या हुक्‍म होता है ?” हकीम अहमदहुसेन नें पूछा।

“अच्‍छा ! उस्‍को बुलवाओ पर उस्‍के गानें मैं समा न बँधा तो आपको वह शर्त पूरी करनी पड़ेगी” लाला मदनमोहन नें मुस्कराकर कहा।

इस्‍पर लखनऊ का तायफा मुजरे के लिये खड़ा हुआ और उस्‍नें मीठी आवाज़ सै तालसुर मिलाकर सोरठ गाना शुरू किया।

निस्सन्देह उस्‍का गाना अच्‍छा था परन्तु पंडितजी अपनी अभिज्ञता जतानें के लिये बे समझे बूझे लट्टू हुए जाते थे। समझनेंवालों का सिर मोके पर अपनें आप हिल जाता है परन्तु पंडितजी का सिर तो इस्‍समय मतवालों की तरह घूम रहा था। मास्‍टर शिंभूदयाल को दुपहर का बदला लेनें के लिये यह समय सब सै अच्‍छा मिला। उस्‍नें पंडितजी को आसामी बनानें के हेतु और लोगों सै इशारों मैं सलाह कर ली और पंडितजी का मन बढ़ानें के लिये पहलै सब मिलकर गानें की वाह, वाह करनें लगे अन्त मैं एकनें कहा “क्‍या स्‍यामकल्‍याण है” दूसरेनें कहा “नहीं, ईमन है” तीसरे नें कहा “वाह झंझौटी है” चौथा बोला “देस है” इस्‍पर सुनारी लड़ाई होनें लगी।

“पंडितजी को सब सै अधिक आनंद आरहा है इस लिये इन्‍सै पूछना चाहिये” लाला मदनमोहन नें झगड़ा मिटानें के मिस सै कहा।

“हां, हां पंडितजी नें दिन मैं अपनी विद्या के बल सै बेदेखे भाले करेला बता दिया था सो अब इस प्रत्‍यक्ष बात के बतानें मैं क्‍या संदेह है ?” मास्‍टर शिंभूदयाल नें शै दी और सब लोग पंडितजी के मुंहकी तरफ़ देखनें लगे।

“शास्‍त्र सै कोई बात बाहर नहीं है जब हम सूर्य चन्‍द्रमा का ग्रहण पहले सै बता देते हैं तो पृथ्वी पर की कोई बात बतानी हमको क्‍या कठिन है ?” पंडित पुरुषोत्तमदास नें बात उड़ानें के वास्‍तै कहा।

“तो आप रेल और तार का हाल भी अच्‍छी तरह जान्‍ते होंगे ?” बाबू बैजनाथ नें पूछा।

“मैं जान्‍ता हूँ कि इन सब का प्रचार पहले हो चुका है क्‍योंकि “रेल पेल” और “एकतार” होनें की कहावत अपनें यहां बहुत दिन सै चली आती है” पंडितजी नें जवाब दिया।

“अच्‍छा महाराज ! रेल शब्‍द का अर्थ क्‍या है ? और यह कैसे चल्‍ती है ?” मास्‍टर शिंभूदयाल नें पूछा।

“भला यह बात भी कुछ पूछनें के लायक है ! जिस तरह पानी की रेल सब चीजों को बहा ले जाती है उसी तरह यह रेल भी सब चीजों को घसीट ले जाती है इस वास्तै इस्‍को लोग रेल कहते हैं और रेल धुएँ के जोर सै चल्ती है यह बात तो छोटे, छोटे बच्‍चे भी जान्‍ते हैं” 22

(22देशभाषा मैं बाफ और बिजली की शक्ति के वृत्तान्त न प्रकाशित होनें का यह फल है कि अब तक सर्व -साधारण रेल और तार का भेद कुछ नहीं जान्ते।)

पंडित पुरुषोत्तमदास नें जवाब दिया, और इस्‍पर सब आपस मैं एक दूसरे की तरफ़ देखकर मुस्‍करानें लगे।

“और तार ?” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें रही सही कलई खोलनें के वास्‍ते पूछा।

“इस्‍मैं कुछ योग विद्या की कला मालूम होती है।”23

(23गैस से भरा हुआ उड़नें का गुबारा)

 

इतनी बात कह कर पंडित पुरुषोत्तमदास चुप होते थे परन्तु लोगों को मुस्‍कराते देखकर अपनी भूल सुधारनें के लिये झट पट बोल उठे कि “कदाचित् योगविद्या न होगी तो तार भीतर सै पोला होगा जिस्‍मैं होकर आवाज जाती होगी या उस्‍के भीतर चिट्ठी पहुँचानें के लिये डोर बंध रही होगी”

“क्‍यों दयालु ! बैलून कैसा होता है ?” बाबू बैजनाथ नें पूछा।

“हम सब बातें जान्‍ते हैं परन्तु तुम हमारी परीक्षा लेनें के वास्‍तै पूछते हो इस्‍सै हम कुछ नहीं बताते” पंडितजी नें अपना पीछा छुड़ानें के लिये कहा। परन्तु शिंभूदयाल नें सब को जता कर झूंठे छिपाव सै इशारे मैं पंडितजी को उड़नें की चीज बताई इस्‍पर पंडितजी तत्‍काल बोल उठे “हम को परीक्षा देनें की क्‍या जरुरत है ? परन्तु इस समय न बतावेंगे तो लोग बहाना समझैंगे। बैलून पतंग को कहते हैं।”

“वाह, वा, वाह ! पंडितजी नें तो हद कर दी इस कलि काल मैं ऐसी विद्या किसी को कहां आ सक्‍ती है !” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“हां पंडितजी महाराज ! हुलक किस जानवर को कहते हैं ?” हकीम अहमदहुसेन नें नया नाम बना कर पूछा।

“एक चौपाया है” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें बहुत धीरी आवज सै पंडितजी को सुना कर शिंभूदयाल के कान मैं कहा।

“और बिना परों के उड़ता भी तो है” मास्‍टर शिंभूदयाल नें उसी तरह चुन्‍नीलाल को जवाब दिया।

“चलो चुप रहो देखें पंडितजी क्‍या कहते हैं” चुन्‍नीलाल नें धीरे से कहा।

“जो तुम को हमारी परीक्षा ही लेनी है तो लो, सुनो हुलक एक चतुष्‍पद जंतु विशेष है और बिना पंखों के उड़ सक्‍ता है” पंडितजी नें सब को सुनाकर कहा।

“यह तो आपनें बहुत पहुँच कर कहा परन्तु उस्‍की शक्‍ल बताइये” हकीमजी हुज्‍जत करनें लगे।

“जो शक्‍ल ही देखनी हो तो यह रही” बाबू बैजनाथ नें मेजपर सै एक छोटासा कांच उठाकर पंडितजी के सामनें कर दिया।

इस्‍पर सब लोग खिल खिलाकर हँस पड़े।

“यह सब बातें तो आपनें बता दीं परन्तु इस रागका नाम न बताया” लाला मदनमोहन नें हँसी थमे पीछै कहा।

“इस्‍समय मेरा चित्त ठिकान नहीं है मुझको क्षमा करो” पंडित पुरुषोत्तमदास नें हार मान कर कहा।

“बस महाराज ! आपको तो करेला ही करेला बताना आता है और कुछ भी नहीं आता” मास्‍टर शिंभूदयाल बोले।

“नहीं साहब ! पंडितजी अपनी विद्यामैं एक ही हैं” रेल और तारकी हाल क्‍या ठीक, ठीक बताया है !” “और बैलूनमैं तो आप ही उड़ चले !” “हुलककी सूरत भी तो आप ही नें दिखाई थी !” “और सब सै बढ़कर राग का रस भी तो इनही नें लिया है” चारों तरफ़ लोग अपनी अपनी कहनें लगे।

पंडित जी इन लोगोंकी बातैं सुन, सुनकर लज्‍जाके मारे धरतीमैं गढ़े चले जाते थे पर कुछ बोल नहीं सक्ते थे।

आखिर यह दिल्‍लगी पूरी हुई तब बाबू बैजनाथ लाला मदनमोहनको अलग ले जाकर कहनें लगे “मैंनें सुना है कि लाला ब्रजकिशोर दो, चार आदमियों को पक्‍का कर कै यहां नए सिरे सै कालिज स्‍थापना करनें के लिये कुछ उद्योग कर रहे हैं यद्यपि सब लोगोंके निरुत्‍साह सै ब्रजकिशोर के कृतकार्य होनें की कुछ आशा नहीं है यद्यपि लोगों को देशोपकारी बातौं मैं अपनी रुचि दिखानें और अग्रसर बन्‍नें के लिये आप इस्‍मैं ज़रूर शामिल हो जायं अख़बारों मैं धूम मैं मचा दूंगा। यह समय कोरी बातोंमैं नाम निकालनें का आ गया है क्‍योंकि ब्रजकिशोर नामवरी नहीं चाहते इसी लिये मैं चलकर आपकौ चेतानें के लिये इस्‍समय आप के पास आया था”

“आप‍ की बड़ी महरबानी हुई। मैं आपके उपकारोंका बदला किसी तरह नहीं दे सक्‍ता। किसीनें सच कहा है “हितहि परायो आपनो अहित अपनपोजाय ।। बनकी ओषधि प्रिय लगत तनको दुख न सुहाय”24।।

(24परोपि हितवान् बन्धुर्बन्धु रप्यहित: पर: ।

अहितो देहजो व्याधि हिमारण्यमोषधम् ।।)

ऐसा हितकारी उपदेश आपके बिना और कौन दे सक्‍ता है” लाला मदनमोहननें बड़ी प्रीति सै उन्‍का हाथ पकड़कर कहा।

और इसी तरह अनेक प्रकार की बातोंमैं बहुत रात चली गई, तब सब लोग रुख़सत होकर अपनें, अपनें घर गए।

प्रकरण-९ : सभासद

धर्मशास्‍त्र पढ़,वेद पढ़ दुर्जन सुधरे नाहिं

गो पय मीठी प्रकृति ते, प्रकृति प्रबल सब माहिं 25

हितोपदेश।

(25न धर्म्मशास्त्रं पठतीति कारणं न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मन: ।

स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः ।।)

इस्‍समय मदनमोहनके बृत्तान्‍त लिखनें सै अवकाश पाकर हम थोड़ा सा हाल लाला मदनमोहन के सभासदोंका पाठक गण को विदित करते हैं, इन्‍मैं सब सै पहले मुन्शी चुन्‍नीलाल स्‍मर्ण योग्य हैं,

मुन्शी चुन्नीलाल प्रथम ब्र‍जकिशोर के यहां दस रुपे महीनें का नौकर था। उन्‍होंनें इस्को कुछ, कुछ लिखना पढ़ना सिखाया था, उन्‍हींकी संगति मैं रहनें सै इसे कुछ सभाचातुरी आ गई थी, उन्‍हींके कारण मदनमोहन से इस्की जान पहचान हुई थी। परन्तु इस्‍के स्‍वभाव मैं चालाकी ठेठ सै थी इस्‍का मन लिखनें पढ़नें मैं कम लगता था पर इस्‍नें बड़ी, बड़ी पुस्‍तकों मैं सै कुछ, कुछ बातें ऐसी याद कर रक्‍खी थी कि नये आदमी के सामनें झड़ बांध देता था। स्‍वार्थ परता के सिवाय परोपकार की रुचि नाम को न थी पर जबानी जमा खर्च करनें और कागज के घोड़े दौड़ानें मैं यह बड़ा धुरंधर था। इस्‍की प्रीति अपना प्रयोजन निकालनें के लिये, और धर्म्म लोगों को ठगनें के लिये था। यह औरों सै बिवाद करनें मैं बड़ा चतुर था परन्तु इस्‍को अपना चाल चलन सुधारनें की इच्‍छा न थी। यह मनुष्‍यों का स्‍वभाव भली भांत पहचान्‍ता था, परन्तु दूर दृष्टि सै हरेक बात का परिणाम समझ लेनें की इस्‍को सामर्थ्‍य न थी। जोड़ तोड़ की बातों मैं यह इयागो (शेक्‍सपियर कृत ऑथेलो नाम का नाटक का खलनायक) का अवतार था। कणिक की नीति पर इस्‍का पूरा विश्‍वास था। किसी बड़े काम का प्रबंध करनें की इस्को शक्ति न थी परन्तु बातों मैं धरती और आकाश को एक कर देता था। इस्‍के काम निकालनें के ढंग दुनियासै निराले थे। यह अपनें मतलब की बात बहुधा ऐसे समय करता था जब दूसरा किसी और काम मैं लग रहा हो जिस्‍सै इसकी बात का अच्छी तरह बिचार न कर सके अथवा यह काम की बात करती बार कुछ, कुछ साधारण बातों की ऐसी चर्चा छेड़ देता था जिस्सै दूसरे का मन बटा रहै अथवा कोई बात रुचि के बिपरीत अंगीकार करानी होती थी तो यह अपनी बातों मैं हर तरह का बोझ इस ढबसै डाल देता था कि दूसरा इन्कार न कर सके क़भी, क़भी यह अपनी बातों को इस युक्ति सै पुष्‍ट कर जाता कि सुन्‍नें वाले तत्‍काल इस्‍का कहना मान लेते, जो काम यह अपनें स्‍वार्थ के लिये करता उस्‍का प्रयोजन सब लोगों के आगे और ही बताता था और अपनी स्‍वार्थ परता छिपानें के लिये बड़ी आना कानी सै वह बात मंजूर करता था यह अपनें बैरी की ब्याजस्‍तुति इस ढब सै करता था कि लोग इस्‍का कहना इसकी दयालुता और शुभचिन्‍तकता सै समझनें लगते थे। जिस्‍बात के सहसा प्रगट करनें मैं कुछ खटका समझता उस्‍का प्रथम इशारा कर देता था और सुन्‍नें वाले के आग्रह पर रुक, रुक कर वह बात कहता था। जोखों की बात लोगों पर ढाल कर कहता था वह अथवा शिंभूदयाल वगेरे के मुख सै कहवा दिया करता था और आप साधनें को तैयार रहता था। तुच्‍छ बातों को बढ़ा कर, बड़ी बातों को घटा कर, अपनी तरफ़ सै नोन मिर्च लगाकर, क़भी प्रसन्‍न, क़भी उदास, क़भी क्रोधित, क़भी शांत होकर यह इस रीति सै बात कहता था कि जो कहता था उस्‍की मूर्ति बन जाता था, इस्‍के मन मैं संग्रह करनें की बृत्ति सब सै प्रबल थी।

मुन्शी चुन्‍नीलाल ब्रजकिशोर के यहां नोकर था। जब अपनी चालाकी सै बहुधा मुकद्दमें वालों को उलट-पुलट समझा कर अपना हक़ ठैरा लिया करता था। स्‍टांप, तल्‍बानें वगैरे के हिसाब मैं उन लोगों को धोका दे दिया करता था बल्कि क़भी, क़भी प्रतिपक्षी सै मिल्‍कर किसी मुकद्दमेंवाले का सबूत वगैरे भी गुप चुप उस्‍को दिया करता था। ब्रजकिशोर नें ये भेद जान्‍ते ही पहले उसै समझाया फ़िर धमकाया जब इस्‍पर भी राह मैं न आया तो घर का मार्ग दिखाया। इस्‍नें पहले ही सै ब्रजकिशोर का मन देख कर लाला मदनमोहन के पास अपनी मिसल लगा ली थी। हरकिशोर को अपना सहायक बना लिया था। लाला ब्रजकिशोर के पास सै अलग होते ही लाला मदनमोहन के पास रहनें लगा।

मुन्शी चुन्‍नीलाल नें लाला मदनमोहन के स्‍वभाव को अच्‍छी तरह पहचान लिया था। लाला मदनमोहन को हाकमों की प्रसन्‍नता, लोगों की वाह, वाह, अपनें शरीर का सुख, और थोड़े ख़र्च मैं बहुत पैदा करनें के लालच के सिवाय किसी और काम मैं रुपया ख़र्च करना अच्छा नही लगता था पर रुपया पैदा करनें अथवा अपनें पास की दौलत को बचा रखनें के ठीक रस्‍ते नहीं मालूम थे इसलिये मुन्शी चुन्‍नीलाल उन्‍को उन्‍की इच्‍छानुसार बातें बनाकर खूब लूटता था।

मास्‍टर शिंभूदयाल प्रथम लाला मदनमोहन को अंग्रेजी पढ़ानें के लिए नोकर रक्खा गया था पर मदनमोहन का मन बचपन सै पढ़नें लिखनें की अपेक्षा खेल कूद मैं अधिक लगता था। शिंभूदयाल नें लिखनें पढ़नें की ताकीद की तो मदनमोहन का मन बिगड़नें लगा। मास्‍टर शिंभूदयाल खानें, पहन्‍नें, देखनें, सुन्‍नें का रसिक था और लाला मदनमोहन के पिता अंग्रेजी नहीं पढ़े थे इसलिये मदनमोहन सै मेल करनें मैं इस्‍नें हर भांत अपना लाभ समझा। पढ़ानें लिखानें के बदले मदनमोहन बालक रहा जितनें अलिफ़लैलामैं सै सोते जागते का किस्‍सा, शेक्सपियर के नाटकों मैं सै कोमडी आफ़ एर्रज़, ट्वेलफ्थनाइट, मचएडू एबाउट नथिंग, बेनजान्‍सन का एव्‍रीमैन इनहिज ह्यूमर; स्विफ्टके ड्रपीअर्सलेटर्स, गुलिबर्सट्रैवल्‍स, टेल आफ़ ए टब आदि सुनाकर हँसाया करता और इस युक्ति सै उस्‍को टोपी, रूमाल, घड़ी, छड़ी आदि का बहुधा फायदा हो जाता था। जब मदनमोहन तरुण हुआ तो अलिफ़लैला मैं सै अबुल हसन, और शम्सुल्निहार का किस्सा, शेक्सपियर के नाटकों मैं सै रोमियों ऐन्‍ड जुलियट आदि सुनाकर आदि रस का रसिक बनानें लगा और आप भी उस्‍के साथ फूलके कीड़े की तरह चैन करनें लगा, परन्तु यह सब बातें मदनमोहन के पिता के भय सै गुप्‍त होती थीं इसी सै शिंभूदयाल आदि का बहुत फायदा था वह पहाड़ी आदमियों की तरह टेढ़ी राह मैं अच्छी तरह चल सक्ता था परन्तु समभूमि पर चलनेंकी उस्‍को आदत न थी जब चुन्‍नीलाल मदनमोहन के पास आया कुछ दिन इन दोनों की बड़ी खटपट रही परन्तु अन्त मैं दोनों अपना हानि लाभ समझ कर गरम लोहे की तरह आपस मैं मिल गए। शिंभूदयाल को मदनमोहन नें सिफ़ारस करके मदरसे मैं नोकर रख दिया था इस्‍कारण वह मदनमोहन की अहसानमंदी के बहानें सै हर वक्‍त वहां रहता था।

पंडित पुरूषोत्तमदास भी बचपन सै लाला मदनमोहन के पास आते जाते थे। इन्कों लाला मदनमोहन के यहां सै इन्के स्‍वरूपानुरूप अच्‍छा लाभ हो जाता था परन्तु इन्कें मन मैं औरों की डाह बड़ी प्रबल थी। लोगों को धनवान, प्रतापवान, विद्वान, बुद्धिमान, सुन्‍दर, तरुण, सुखी और कृतिकार्य देखकर इन्‍हैं बड़ा खेद होता था। वह यशवान मनुष्‍यों सै सदा शत्रुता रखते थे औरों को अपनें सुख लाभ का उद्योग करते देखकर कुढ़ जाते थे अपनें दुखिया चित्त को धैर्य देनें के लिये अच्‍छे, अच्छे मनुष्यों के छोटे, छोटे दोष ढूंढा करते थे किसी के यश मैं किसी तरह का कलंक लग जानें सै यह बड़े प्रसन्‍न होते थे। पापी दुर्योधन की तरह संसार के बिनाश होनें मैं इन्‍की प्रसन्‍नता थी और अपनी सर्वज्ञता बतानें के लिये जानें बिना जानें हर काम मैं पांव अड़ाते थे। मदनमोहन को प्रसन्‍न करनें के लिये अपनी चिड़ करेले की कर रक्‍खी थी। चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आदि की कटती कहनें मैं कसर न रखते थे परन्तु अकल मोटी थी इस लिये उन्‍होंनें इन्‍हें खिलोना बना रक्‍खा था। और परकैच कबूतर की तरह वह इन्‍हें अपना बसबर्ती रखते थे।

हकीम अहमदहुसेन बड़ा कम हिम्‍मत मनुष्य था। इस्‍को चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल सै कुछ प्रीति न थी परन्तु उन्‍को कर्ता समझ कर अपनें नुक्‍सान के डर सै यह सदा उन्‍की खुशामद किया करता था उन्‍हीं को अपना सहायक बना रक्‍खा था उन्‍के पीछै बहुधा मदनमोहन के पास नहीं जाता आताथा और मदनमोहन की बड़ाई तथा चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल की बातों को पुष्‍ट करनें के सिवाय और कोई बात मदनमोहन के आगे मुखसै नहीं निकालता था। मदनमोहन के लिये ओषधि तक मदनमोहन के इच्‍छानुसार बताई जाती थी। मदनमोहन का कहना उचित हो, अथवा अनुचित हो यह उस्‍की हांमैं हां मिलानें को तैयार था मदनमोहन की राय के साथ इस्‍को अपनी राय बदलनें मैं भी कुछ उज्र न था ! “यह लालाजी का नोकर था कुछ बैंगनों का नोकर नहीं था” परन्तु इन लोगों की प्रसन्‍न्नता मैं कुछ अन्तर न आता हो तो यह ब्रजकिशोर की कहन मैं भी सम्‍मति करनें को तैयार रहता था। इस्को बड़े, बड़े कामों के करनें की हिम्‍मत तो कहांसै आती छोटे, छोटे कामों सै इस्का जी दहल जाता था, अजीर्ण के डर सै भोजन न करनें और नुक्‍सान के डर सै व्‍यापार न करनें; की कहावत यहां प्रत्‍यक्ष दिखाई देती थी। इसको सब कामों मैं पुरानी चाल पसंद थी।

बाबू बैजनाथ ईस्‍ट इन्डियन रेलवे कम्‍पनी मैं नौकर था अंग्रेजी अच्‍छी पढ़ा था। यूरुप के सुधरे हुए विचारों को जान्‍ता था परन्तु स्वार्थपरतानें इस्‍के सब गुण ढक रक्खे थे। विद्या थी पर उसके अनुसार व्‍यवहार न था “हाथी के दांत खानें के और दिखानें के और थे” इस्के निर्वाह लायक इस्समय बहुत अच्छा प्रबंध हो रहा था परन्तु एक संतोष बिना इस्के जीको जरा भी सुख न था। लाभ सै लोभ बढ़ता जाता था और समुद्र की तरह इस्‍की तृष्‍णा अपार थी। लोभसै धर्म्म का कुछ बिचार न रहता था। बचपन मैं इस्को इल्‍ममुसल्लिम, तहरीरउक्‍लेकदस और जब्रमुकाबले वगैरे के सीखनें मैं परीक्षा के भयसै बहुत परिश्रम करना पड़ा था परन्तु इस्‍के मनमैं धर्म्म प्रवृत्तिके उत्तेजित करनें के लिये धर्म्‍म नीति आदि के असरकारक उपदेश अथवा देशोन्‍नति के हेतु बाफ, (भाप) और बिजली आदि की शक्ति, नई, नई कलोंका भेद, और पृथ्वी की पैदावार बढ़ानें के हेतु खेती बाड़ी की बिद्या, अथवा स्‍वछंदतासै अपना निर्वाह करनें के लिये देश-दशा के अनुसार जीविका करनें की रीति और अर्थ बिद्या, तंदुरुस्‍ती के लिये देह रक्षाके तत्‍व, द्रव्‍यादिकी रक्षा और राजाज्ञा भंग के अपराधसै बचनें को राजाज्ञा का तात्‍पर्य, अथवा बड़े और बराबर वालोंसै यथायोग्‍य व्‍यवहार करनें के लिये शिष्‍टाचार का उपदेश बहुत ही कम मिला था, बल्कि नहीं मिलनें के बराबर था। इसके कई वर्ष, तो केवल, अंग्रेजी भाषा सीखनें मैं बिद्या के द्वार पर खड़े, खड़े बीत गये जो अंग्रेजों की तरह ये शिक्षा अपनी देश भाषा मैं होती अथवा काम, कामकी पुस्तकों का अपनी भाषा मैं अनुवाद हो गया होता तो कितना समय व्‍यर्थ नष्‍ट होनेंसै बचता ? और कितनें अधिक लोग उस्‍सै लाभ उठाते ? परन्तु प्रचलित रीति के अनुसार इस्‍को सच्‍ची हितकारी शिक्षा नहीं हुई थी जिस्‍पर अभिमान इतना बढ़ गया था कि बड़े बूढ़े मूर्ख मालूम होनें लगे और उन्‍के कामसै ग्‍लानि हो गई। पर इस बिद्वत्ता मैं भी सिवाय नोकरी के और कहीं ठिकाना न था। भाग्‍यबल सै मदरसा छोड़ते ही रेलवे की नोकरी मिल गई पर बाबूसाहब को इतनें पर संतोष न हुआ वह और किसी बुर्दकी ताक झाँक मैं लगरहे थे, इतनें मैं लाला मदनमोहन सै मुलाकात हो गई। एक बार लाला मदनमोहन आगरे लखनऊकी सैर को गए। उस्समय इसनें उन्‍की स्‍टेशन पर बड़ी खातिर की थी। उसी समयसै इन्‍की जानपहचान हुई यह दूसरे तीसरे दिन लाला मदनमोहन के यहां जाता था और समा बाँध कर तरह, तरह की बातें सुनाया करता था। इस्‍की बातोंसै मदनमोहन के चित्त पर ऐसा असर हुआ कि वह इस्को सबसै अधिक चतुर और विश्‍वासी समझनें लगा, इस्‍नें अपनी युक्ति सै चुन्‍नीलाल वगैरे को भी अपना बना रक्‍खा था पर अपनें मतलब सै निश्चिन्‍त न था। यह सब बातें जानबूझ कर भी धृतराष्‍ट्रकी तरह लोभसै अपनें मन को नहीं रोक सक्ता था।

खेद है कि लाला ब्रजकिशोर और हरकिशोर आदि के वृत्तान्त लिखनें का अवकाश इस्‍समय नहीं रहा। अच्‍छा फ़िर किसी समय बिदित किया जाएगा। पाठकगण धैर्य रक्‍खें।

प्रकरण-१० : प्रबन्ध (इन्तज़ाम)

कारजको अनुबंध लख अरु,उत्‍तरफल चाहि

पुन अपनी सामर्थ्‍य लख करै कि न करे ताहि26

बिदुरप्रजागरे।

(26अनुबंध छ संप्रेक्ष्य विपाकं चैंवकर्म्मणाम् ।।

उत्थान मात्मन श्चैव धीर: कुर्वीत वा नवा ।।)

सवेरे ही लाला मदनमोहन हवा खोरी के लिये कपड़े पहन रहे थे। मुन्शी चुन्‍नीलाल और मास्‍टर शिंभूदयाल आ चुके थे।

“आजकल मैं हमको एक बार हाकिमों के पास जाना है” लाला मदनमोहन नें कहा।

“ठीक है, आपको म्‍यूनिसिपेलीटी के मेम्‍बर बनानें की रिपोर्ट हुई थी। उस्‍की मंजूरी भी आ गई होगी” मुन्शी चुन्‍नीलाल बोले।

“मंजूरी मैं क्‍या संदेह है ? ऐसे लायक आदमी सरकार को कहां मिलेंगे ?” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“अभी तो (खुशामदमैं) बहुत कसर है ! साइराक्‍यूस के सभासद डायोनिस्‍यसका थूक चाट जाते थे और अमृतसै अधिक मीठा बताते थे” लाला ब्रजकिशोर नें कमरे मैं आते, आते कहा।

“यों हर काम मैं दोष निकालनें की तो जुदी बात है पर आप ही बताइए इस्‍मैं मैंनें झूठ क्‍या कहा ?” मास्‍टर शिंभूदयाल पूछनें लगे।

“लाला साहब नें म्‍यूनिसिपेलीटी का सालानः आमद खर्च अच्‍छी तरह समझ लिया होगा ? आमदनी बढ़ानें के रस्‍ते अच्‍छी तरह बिचार लिये होंगे ? शहर की सफाई के लिये अच्‍छे, अच्‍छे उपाय सोच लिये होंगे ?” लाला ब्रजकिशोर नें पूछा।

“नहीं, इन बातों मैं सै अभी तो किसी बात पर दृष्टि नहीं पहुँचाई गई परन्तु इन बातों का क्‍या है ? ये सब बातें तो काम करते, करते अपनें आप मालूम हो जायेंगी” लाला मदनमोहन नें जवाब दिया।

“अच्‍छा आप अपनें घर का काम तो इतनें दिनसै करते हो उस्‍के नफे नुक्‍सान और राह बाट सै तो आप अच्‍छी तरह वाकिफ हो गए होंगे ?” लाला ब्रजकिशोर नें पूछा।

इस्‍समय लाला मदनमोहन नावाकिफ नहीं बनाना चाहते थे। परन्तु वाकिफकार भी नहीं बन सकते थे इसलिये कुछ जवाब न देसके।

“अब आप घर की तरह वहां भी औरों के भरोसे रहे तो काम कैसे चलेगा ? और अब बातौं सै वाकिफ होनें का बिचार किया तो वाकिफ होंगे जितनें आपके बदले काम कौन करैगा ?” लाला ब्रजकिशोर नें पूछा।

“अच्‍छा मंजूरी आवैगी जितनें मैं इन् बातों सै कुछ, कुछ वाकिफ हो लूंगा।” लाला मदनमोहन नें कहा।

“क्‍या इन बातों सै पहले आपको अपनें घर के कामों सै वाकिफ़ होनें की ज़रूरत नहीं है ? जब आप अपनें घर का प्रबन्ध उचित रीति सै कर लेंगे तो प्रबन्‍ध करनें की रीति आ जायेगी और हरेक काम का प्रबन्‍ध अच्‍छी तरह कर सकेंगे, परन्तु जब तक प्रबन्‍ध करनें की रीति न आवेगी कोई काम अच्‍छी तरह न हो सकेगा ?” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। “हाकमों की प्रसन्‍नता पर आधार रख; अपनें मुख सै अधिकार मांगनें मैं क्‍या शोभा है ? और अधिकार लिये पीछै वह काम अच्‍छी तरह पूरा न हो सकै तो कैसी हँसी की बात है ? और अनुभव हुए बिना कोई काम किस तरह भली भांति हो सक्ता है ? महाभारत मैं कौरवों के गौ घेरनें पर बिराट का राजकुमार उत्‍तर बड़े अभिमान सै उन्‍को जीतनें की बातैं बनाता था, परन्तु कौरवों की सेना देखते ही रथ छोड़कर उघाड़े पांव भाग

निकला ! इसी तरह सादी अपनें अनुभव सै लिखते हैं कि “एकबार मैं बलख सै शामवालों के साथ सफ़र को चला मार्ग भयंकर था। इसलिये एक बलवान पुरुष को साथ ले लिया, वह शस्‍त्रों सै सजा रहता था और उस्‍की प्रत्‍यंचा को दस आदमी भी नहीं चढ़ा सकते थे वह बड़े, बड़े बृक्षों को हाथ सै उखाड़डाल्‍ता परन्तु उस्‍नें क़भी शत्रु सै युद्ध नहीं किया था एक दिन मैं और वो आपस मैं बातैं करते चले जाते थे। उस्‍समय दो साधारण मनुष्‍य एक टीले के पीछै सै निकल आए और हम को लूटनें लगे उस्मैं एक के पास लाठी थी और दूसरे के हाथ मैं एक पत्‍थर था। परन्तु उन्‍को देखते ही उस बलवान पुरुष के हाथ पांव फूल गए ! तीर कमान छूट पड़ी ! अन्त मैं हमको अपनें सब बस्‍त्र शस्‍त्र देकर उन्‍सै पीछा छुड़ाना पड़ा, बहुधा अब भी देखनें मैं आता है कि अच्छे प्रबन्‍ध बिना घर मैं माल होनें पर किसी, साहूकार का दिवाला निकल जाता है रुपे का माल दो, दो आनें को बिकता फ़िरता है”

“परन्तु काम किये बिना अनुभव कैसे हो सक्ता है ?” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें पूछा।

“सावधान मनुष्‍य काम करनें सै पहले औरों की दशा देखकर हरेक बात का अनुभव अच्‍छी तरह कर सक्ता है और अनायास कोई नया काम भी उस्‍को करना पड़े तो साधारण भाव सै प्रबन्‍ध करनें की रीति जानकर और और बातों के अनुभव का लाभ लेनें सै काम करते, करते वह मनुष्‍य उस बिषय मैं अपना अनुभव अच्‍छी तरह बढ़ा सक्ता है। सो मैं प्रथम कह चुका हूँ कि लाला साहब प्रबन्‍ध की रीति जान जायंगे तो हरेक काम का प्रबन्‍ध अच्‍छी तरह कर सकैंगे” लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया।

“आप के निकट प्रबन्ध करनें की रीति क्या है ?” लाला मदनमोहन नें पूछा।

“हरेक काम के प्रबन्‍ध करनें की रीति जुदी, जुदी हैं परन्तु मैं साधारण रीति सै सब का तत्‍व आप को सुनाता हूँ” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। “सावधानी की सहायता लेकर हरेक बात का परिणाम पहले सै सोच लेना, और उन सब पर एक बार दृष्टि कर के जितना अवकाश हो उतनें ही मैं सब बातों का ब्योंत बना लेना निरर्थक चीजों को काम मैं लानें की युक्ति सोचते रहना और जो, जो बातें आगै होनें वाली मालूम हों उन्‍का प्रबन्‍ध पहलै ही सै दूर दृष्टि पहुँचा कर धीरे, धीरे इस भांत करते जाना कि समय पर सब काम तैयार मिलें, किसी बात का समय न चूकनें पावै, कोई काम उलट पुलट न होनें पावै, अपनें आस पास बालों की उन्नति से आप पीछे न रहें, किसी नोकर का अधिकार स्‍वतन्त्रता की हद सै आगे न बढ़नें पावै, किसी पर जुल्‍म न होनें पावै, किसी हक़ मैं अन्तर न आनें पावैं, सब बातों की सम्‍हाल उचित समय पर होती रहे, परन्तु ये सब काम इन्‍की बारीकियों पर दृष्टि रखनै सै कोई नहीं कर सक्ता बल्कि इस रीति सै बहुत महनत करनें पर भी छोटे, छोटे कामौं मैं इतना समय जाता रहता है कि उस्‍के बदले बहुत सै जरूरी काम अधूरे रह जाते हैं और तत्‍काल प्रबन्‍ध बिगड़ जाता है इसलिये बुद्धिमान मनुष्‍य को चाहिये कि काम बांट कर उन्‍पर योग्‍य आदमी मुकर्रर कर दे और उन्‍की काररवाईपर आप दृष्टि रक्‍खे पहले अन्‍दाज सै पिछला परिणाम मिलाकर भूल सुधारता जाय एक साथ बहुत काम न छेड़े, काम करनें के समय बटे रहैं, आमद सै थोड़ा ख़र्च हो और कुपात्र को कुछ न दिया जाय। महाराज रामचन्‍द्रजी भरत सै पूछते हैं “आमद पूरी होत है ? खर्च अल्पदरसाय ।। देत न-कबहुँ कुपात्रकों कहहुँ भरत समुजाय27।।”

(27आयस्ते विपुल: कच्चित्कच्चिदल्पतरो व्यय: ।।

अपात्नेपुनते कच्चित्कोषो गच्छतिराघव ।।)

इसी तरह इन्‍तज़ाम के कामौं मैं क-रिआयत सै बिगाड़ होता है, हज़रत सादी कहते हैं “जिस्सै तैनें दोस्‍ती की उस्‍सै नोंकरीकी आशा न रख”28 ।

(28चूं इकरारे दोस्ती कर दी तबक्के खिदमत मदार ।)

“लाला ब्रजकिशोर साहब आजकल की उन्‍नति के साथी हैं तथापि पुरानी चालके अनुसार रोचक और भयानक बातोंको अपनी कहन मैं इस तरह मिला देते हैं कि किसीको बिल्‍‍कुल खबर नहीं होनें पाती” मास्‍टर शिंभूदयाल नें कहा।

“नहीं मैं जो कुछ कहता हूँ अपनी तुच्‍छ बुद्धि के अनुसार यथार्थ कहता हूँ” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “चीनके शहनशाह होएन नें एकबार अपनें मंत्री टिचीसै पूछा कि “राज्‍य के वास्‍ते सब सै अधिक भयंकर पदार्थ क्‍या है ?” मंत्रीनें कहा “मूर्तिके भीतरका मूसा” शहनशाहनें कहा “समझाकर कह” मंत्री बोला “अपनें यहां काठकी पोली मूर्ति बनाई जाती है और ऊपर सै रंग दी जाती है अब दैवयोग सै कोई मूसा उस्‍के भीतर चला गया तो मूर्ति खंडित होनें के भयसै उस्‍का कुछ नहीं कर सक्ते। इसी तरह हरेक राज्‍य मैं बहुधा ऐसे मनुष्‍य होते हैं जो किसी तरह की योग्‍यता और गुण बिना केवल राजा की कृपा के सहारे सै सब कामों मैं दखल देकर सत्‍यानास किया करते हैं परन्तु राजा के डर सै लोग उन्‍का कुछ नहीं कर सक्ते” हां जो राजा आप प्रबन्‍ध करनेंकी रीति जान्‍ते हैं वह उनलोगों के चक्‍कर सै खूबसूरती के साथ बचे रहते हैं जैसे ईरान का बादशाह आरटाजरकसीस सै एक बार उस्‍के किसी कृपापात्रनें किसी अनुचित काम करनें के लिये सवाल किया। बादशाह नें पूछा कि “तुमको इस्‍सै क्‍या लाभ होगा ?” कृपा पात्रनें बता दिया तब बादशाहनें उतनी रकम उस्‍को अपनें ख़जानें सै दिवा दी और कहा कि “ये रुपे ले इनके देनें सै मेरा कुछ नहीं घटता परन्तु तैनें जो अनुचित सवाल किया था उस्‍के पूरा करनें सै मैं निस्सन्देह बहुत कुछ खो बैठता” उचित प्रबन्‍ध मैं जरासा अन्तर आनेंसै कैसा भयंकर परिणाम होता है इस्‍पर बिचार करिये कि इसी दिल्‍ली तख्‍त बाबत दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच युद्ध हुआ। उस्‍समय औरंगजेब की पराजय मैं कुछ संदेह न था परन्तु दाराशिकोह हाथीसै उतरतेही मानों तख्‍त सै उतर गया मालिक का हाथी खाली देखते सब सेना तत्‍काल भाग निकली।”

“महाराज ! बग्‍गी तैयार है।” नोकरनें आकर रिपोर्ट की।

“अच्‍छा चलिये रस्‍ते मैं बतलाते चलेंगे” लाला ब्रजकिशोर नें कहा। निदान सब लोग बग्‍गी मैं बैठकर रवानें हुए।

प्रकरण-११ : सज्जनता

सज्‍जनता न मिलै किये जतन करो किन कोय

ज्‍यों कर फार निहारियेलोचन बड़ो न होय

बृन्‍द

“आप भी कहां की बात कहां मिलानें लगे ! म्‍यूनिसिपेलीटी के मेम्‍बर होनें सै और इंतज़ाम की इन बातों सै क्‍या सम्बन्ध है ? म्‍यूनिसिपेलीटी के कार्य निर्बाह का बोझ एक आदमी के सिर न‍हीं है उसमैं बहुत सै मेम्‍बर होते हैं और उन्‍मैं कोई नया आदमी शामिल हो जाय तो कुछ दिन के अभ्‍यास सै अच्‍छी तरह वाकिफ़ हो सक्ता है, चार बराबरवालों सै बातचीत करनें मैं अपनें बिचार स्‍वत: सुधर जाते हैं और आज कल के सुधरे बिचार जान्‍नें का सीधी रास्‍ता तो इस्‍सै बढ़कर और कोई नहीं हैं” मुन्शी चुन्‍नीलाल नें कहा।

“जिस तरह समुद्र मैं नोका चलानेंवाले केवल समुद्र की गहराई नहीं जान सक्‍ते इसी तरह संसार मैं साधारण रीति सै मिलनें भेटनेंवाले इधर-उधर की निरर्थक बातों सै कुछ फायदा नहीं उठा सक्‍ते बाहर की सज धज और जाहिर की बनावट सै सच्‍ची सज्‍जनताका कुछ सम्बन्ध नहीं है वह तो दरिद्री-धनवान ओर मूर्ख-विद्वान का भेद भाव छोड़ कर सदा मन की निर्मलता के साथ रहती है और जिस जगह रहती है उस्‍को सदा प्र‍काशित रखती है” लाला ब्रजकिशोर नें कहा।

“तो क्‍या लोगों के साथ आदर सत्‍कार सै मिलना जुलना और उन्‍का यथोचित शिष्‍टाचार करना सज्‍जनता नहीं है ?” लाला मदनमोहन नें पूछा।

“सच्‍ची सज्‍जनता मन के संग है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे। कुछ दिन हुए जब अपनें गवर्नर जरनल मारक्विस आफ रिपन साहब नें अजमेर के मेयो कालिज मैं बहुत सै राजकुमारों के आगे कहा था कि “**हम चाहे जितना प्रयत्‍न करैं परन्तु तुम्‍हारी भविष्‍यत अवस्‍था तुम्‍हारे हाथ है। अपनी योग्‍यता बढ़ानी, योग्‍यता की कदर करनी, सत्‍कर्मों मैं प्रवृत्त रहना, असत्‍कर्मों सै ग्‍लानि करना तुम यहां सीख जाओगे तो निस्सन्देह सरकार मैं प्रतिष्‍ठा, और प्रजा की प्रीति लाभ कर सकोगे। तुम मैं सै बहुत सै राजकुमारोंको बड़ी जोखोंके काम उठानें पड़ेंगे और तुम्‍हारी कर्तव्यता पर हजारों लाखों मनुष्‍योंके सुख दु:ख का बल्कि जीनें मरनें का आधार रहैगा। तुम बड़े कुलीन हो और बड़े विभववान हो। फ्रेंच भाषा मैं एक कहावत है कि जो अपनें सत्‍कुल का अभिमान रखता हो उस्‍को उचित है कि अपनें सत्‍कर्मों सै अपना बचन प्रमाणिक कर दे। तुम जान्‍ते हो कि अंग्रेज लोग बड़े, बड़े खिताबों के बदले सज्‍जन (Gentleman) जैसे साधारण शब्‍दोंको अधिक प्रिय समझते हैं इस शब्‍द का साधारण अर्थ ये है कि मर्यादाशील, नम्र और सुधरे बिचार का मनुष्‍य हो, निस्सन्देह ये गुण यहांके बहुत सै अमीरों मैं हैं परन्तु इस्‍के अर्थपर अच्‍छी तरह दृष्टि की जाय तो इस्‍का आशय बहुत गंभीर मालूम देता है। जिस मनुष्‍य की मर्यादा, नम्र और सुधरे बिचार केवल लोगों को दिखानें के लिये न हों बल्कि मन सै हो-अथवा जो सच्‍चा प्रतिष्ठित, सच्‍चा बीर और पक्षपात रहित न्‍याय-परायण हो, जो अपनें शरीर को सुख देनें के लिये नहीं बल्कि धर्म सै औरों के हक़ मैं अपना कर्तव्य सम्पादन करनें के लिये जीता हो; अथवा जिसका आशय अच्‍छा हो, जो दुष्‍कर्मों सै सदैव बचता हो वह सच्‍चा सज्‍जन है **”

“निस्सन्देह सज्‍जनता का यह कल्पित चित्र अति बिचित्र है परन्तु ऐसा मनुष्‍य पृथ्‍वी पर तो क़भी कोई काहेको उत्‍पन्‍न हुआ होगा” मास्‍टर शिंभूदयालनें कहा।

हम लोग जहां खड़े हों वहां सै चारों तरफ़ को थोड़ी-थोड़ी दूर पर पृथ्‍वी और आकाश मिले दिखाई देते हैं परन्तु हकीकत मैं वह नहीं मिले इसी तरह संसार के सब लोग अपनी, अपनी प्रकृतिके अनुसार और मनुष्‍यों के स्‍वभाव का अनुमान करते हैं परन्तु दर असल उन्मैं बड़ा अन्तर है” लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे “देखो:-

“एथेन्‍स का निवासी आरिस्‍टाईडीज एक बार दो मनुष्‍यों का इन्साफ़ करनें बैठा तब उन्‍मैं सै एकनें कहा, “प्रतिपक्षीनें आप को भी प्रथम बहुत दु:ख दिया है,” आरिस्‍टाईडीज नें जवाब दिया कि “मित्र ! इस्‍नें तुमको दुख दिया हो वह बताओ क्योंकि इस्‍समय मैं अपना नहीं; तुम्‍हारा इन्साफ़ करता हूँ”

“प्रीवरनमके लोगोंनें रूमके बिपरीत बलवा उठाया उस्‍समय रूमकी सेना नें वहांके मुखिया लोगोंको पकड़कर राज सभामैं हाजिर किया उस्‍समय प्‍लाटीनियस नामी सभासदनें एक बंधुए सै पूछा कि “तुम्‍हारे लिये कौन्सी सजा मुनासिब है ?” बंधुएनें जवाब दिया कि “जो अपनी स्‍वतन्त्रता चाहनें वालोंके वास्‍ते मुनासिब हो” इस उत्‍तरसै और सभासद अप्रसन्‍न हुए पर प्‍लाटीनियस प्रसन्‍न हुआ और बोला “अच्‍छा ! राजसभा तुम्‍हारा अपराध क्षमा कर दे तो तुम कैसा बरताव रक्‍खो ?” “जैसा हमारे साथ राजसभा ररक्खे” बंधुआ कहनें लगा “जो राजसभा हमसे मानपूर्वक मेल करेगी तो हम सदा ताबेदार बनें रहैंगे परन्तु हमारे साथ अन्‍याय और अपमान सै बरताव होगा तो हमारी वफादारी पर सर्वथा विश्‍वास न रखना” इस जवाब सै और सभासद अधिक चिड़ गए और कहनें लगे कि “इस्‍मैं राजसभा को धमकी दी गई है” प्‍लाटीनियसनें समझाया कि “इस्‍मैं धमकी कुछ नहीं दी गई। यह एक स्‍वतन्त्र मनुष्‍य का सच्‍चा जवाब है” निदान प्‍लाटीनियस के समझानें सै राजसभा का मन फ़िर गया और उस्‍नें उन्‍हें कैदसै छोड़ दिया।

“मेसीडोनके बादशाह पीरसनें कैदियोंको छोड़ा उस्‍समय फ्रेबीशियस नामी एक रूमी सरदारको एकांतमैं लेजा कर कहा “मैं जान्‍ता हूँ कि तुम जैसा बीर, गुणवान स्‍वतन्त्र, और सच्‍चा मनुष्‍य रूमके राजभरमैं दूसरा नहीं है जिस्‍पर तुम ऐसे दरीद्री बनरहे हो यह बड़े खेदकी बात है ! सच्‍ची येग्‍यताकी कदर करना राजाऔं का प्रथम कर्तव्‍य है इस लिये मैं तुमको तुम्‍हारी पदवी के लायक धनवान बनाया चाहता हूँ परन्तु मैं इस्मैं तुम्‍हारे ऊपर कुछ उपकार नहीं करता अथवा इसके बदले तुमसै कोई अनुचित काम नहीं लिया चाहता। मेरी केवल इतनी प्रार्थना है कि उचित रीति सै अपना कर्तव्‍य सम्पादन किये पीछे न्‍यायपूर्वक मेरी सहायता होसके सो करना।” फ्रेबीशियसनें उत्‍तर दिया कि “निस्सन्देहमैं धनवान नहीं हूँ। मैं एक छोटे से मकान मैं रहता हूँ और जमीन का एक छोटासा किता मेरे पास है परन्तु ये मेरी ज़रूरत के लिये बहुत है और ज़रूरत सै ज्‍यादा लेकर मुझको क्‍या करना है ? मेरे सुखमैं किसी तरह का अन्तर नहीं आता मेरी इज्‍जत और धनवानों सै बढ़कर है, मेरी नेकी मेरा धन है मैं चाहता तो अबतक बहुतसी दौलत इकट्ठी करलेता परन्तु दौलतकी अपेक्षा मुझको अपनी इज्‍जत प्‍यारी है इस लिये तुम अपनी दौलत अपनें पास रक्‍खो और मेरी इज्‍जत मेरे पास रहनें दो।”

“नोशेरवां अपनी सेना का सेनापति आप था। एकबार उस्‍की मंजूरी सै खजान्चीनें तन्‍ख्‍वाह बांटनें के वास्‍तै सब सेना को हथियार बंद होकर हाजिर होनें का हुक्‍म दिया पर नोशेरवां इस हुक्‍मसै हाजिर न हुआ इस लिये खजान्चीनें क्रोध करके सब सेनाको उलटा फेर दिया और दूसरी बार भी ऐसा ही हुआ तब तीसरी बार खजान्चीनें डोंड़ी पिटवाकर नोशेरवांको हाजिर होनें का हुक्म दिया। नोशेरवां उस हुक्म के अनुसार हाजिर हुआ परन्तु उस्की हथियार बंदी ठीक न थी। खजान्चीनें पूछा “तुम्‍हारे धनुषकी फाल्‍तू प्रत्‍यंचा कहां है ?” नोशेरवांनें कहा “महलोंमैं भूल आया” खजान्चीनें कहा “अच्‍छा ! अभी जा कर ले आओ” इस्‍पर नोशेरवां महलोंमैं जाकर प्रत्‍यंचा ले आया तब सब की तनख्‍वाह बटी परन्तु नोशेरवां खजान्चीके इस अपक्षपात काम सै ऐसा प्रसन्‍न हुआ कि उसे निहाल कर दिया। इस प्रकार सच्‍ची सज्‍जनता के इतिहासमैं सैकड़ों दृष्‍टांत मिल्ते हैं परन्तु समुद्रमैं गोता लगाए बिना मोती नहीं मिलता”

“आप बार, बार सच्‍ची सज्‍जनता कहते हैं सो क्‍या सज्‍जनता सज्‍जनतामैं भी कुछ भेदभाव है ?” लाला मदनमोहननें पूछा।

‘हां सज्‍जनता के दो भेद हैं एक स्‍वाभाविक होती है जिस का वर्णन मैं अब तक करता चला आया हूँ। दूसरी ऊपरसै दिखानें की होती है जो बहुधा बड़े आदमियों मैं उन्‍के पास रहनें वालों मैं पाई जाती है बड़े आदमियों के लिये वह सज्‍जनता सुंदर वस्‍त्रों के समान समझनी चाहिए जिस्‍को वह बाहर जाती बार पहन जाते हैं और घर मैं आते ही उतार देते हैं। स्‍वाभाविक सज्‍जनता स्‍वच्‍छ स्‍वर्ण के अनुसार है जिस्‍को चाहे जैसे तपाओ, गलाओ परन्तु उस्‍मैं कोई अन्तर नहीं आता। ऊपर सै दिखानें वालों की सज्‍जनता गिल्‍टी के समान है जो रगड़ लगते ही उतर जाती है ऊपर के दिखानें वाले लोग अपना निज स्‍वभाव छिपाकर सज्‍जन बन्‍नें के लिये सच्‍चे सज्‍जनों के स्‍वभाव की नकल करते हैं परन्तु परीक्षा के समय उन्‍की कलई तत्‍काल खुल जाती है, उन्‍के मन मैं बिकास के बदले संकुचित भाव, सादगी के बदले बनावट, धर्म्‍म प्रबृत्ति के बदले स्‍वार्थपरता और धैर्य के बदले घबराहट इत्‍यादि प्रगट दिखनें लगते हैं। उन्का सब सदभाव अपनें किसी गूढ़ प्रयोजन के लिये हुआ करता है परन्तु उन्‍के मन को सच्‍चा सुख इस्‍सै सर्वथा नहीं मिल सक्‍ता।

लेखक

  • लाला श्रीनिवास दास (1850-1907) हिंदी के प्रथम उपन्यास के लेखक हैं। उनके द्वारा लिखे गए उपन्यास का नाम परीक्षा गुरू (हिन्दी का प्रथम उपन्यास) है जो 25 नवम्बर 1882 को प्रकाशित हुआ। लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु युग के प्रसिद्ध नाटककार भी थे। नाटक लेखन में लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु के समकक्ष माने जाते हैं। वे उत्तरप्रदेश राज्य के मथुरा जिले के निवासी थे और हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फारसी एवं अंग्रेजी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। उनके द्वारा रचित नाटकों में प्रह्लाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर और प्रेम मोहिनी और संयोगिता स्वयंवर प्रमुख नाटक हैं। उपन्यास परीक्षा गुरु उपन्यास सभ्रांत परिवारों के युवाओं को बुरी संगत के खतरनाक प्रभाव और परिणामस्वरूप गिरती नैतिकता के प्रति आगाह करता है। उस दौरान उभरते हुए मध्य वर्ग के आंतरिक और बाहरी दुनिया को दर्शाता है। इस उपन्यास में अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने के लिए औपनिवेशिक समाज को अपनाने में होने वाली कठिनाइयों को बख़ूबी दर्शाया गया है। हालांकि परीक्षा गुरु लाला श्रीनिवास द्वारा स्पष्ट रूप से ‘पढ़ने की खुशी’ के लिए विशुद्ध रूप से लिखा गया था।

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परीक्षा गुरु (प्रकरण1-11)/ लाला श्रीनिवास दास

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