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बुनी हुई रस्सी/भवानी प्रसाद मिश्र

बुनी हुई रस्सी बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा तो वह खुल जाती हैं और अलग अलग देखे जा सकते हैं उसके सारे रेशे मगर कविता को कोई खोले ऐसा उल्टा तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव इस तरह क्योंकि अनुभव तो हमें जितने इसके माध्यम से हुए हैं उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों […]

इदं न मम/भवानी प्रसाद मिश्र

इदं न मम बड़ी मुश्किल से उठ पाता है कोई मामूली-सा भी दर्द इसलिए जब यह बड़ा दर्द आया है तो मानता हूँ कुछ नहीं है इसमें मेरा !  तुम्हारी छाया में जीवन की ऊष्मा की याद भी बनी है जब तक तब तक मैं घुटने में सिर डालकर नहीं बैठूँगा सिकुड़ा–सिकुड़ा भाई मरण तुम […]

बाल कविताएं/भवानी प्रसाद मिश्र

तुकों के खेल मेल बेमेल तुकों के खेल जैसे भाषा के ऊंट की नाक में नकेल ! इससे कुछ तो बनता है भाषा के ऊंट का सिर जितना तानो उतना तनता है!  साल दर साल साल शुरू हो दूध दही से, साल खत्म हो शक्कर घी से, पिपरमेंट, बिस्किट मिसरी से रहें लबालब दोनों खीसे। […]