+91-9997111311,    support@sahityaratan.com

वैष्णव की फिसलन/हरिशंकर परसाई

वैष्णव करोड़पति है। भगवान विष्णु का मंदिर। जायदाद लगी है। भगवान सूदखोरी करते हैं। ब्याज से कर्ज देते हैं। वैष्णव दो घंटे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, फिर गादी-तकिएवाली बैठक में आकर धर्म को धंधे से जोड़ते हैं। धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं। कर्ज लेने वाले आते हैं। विष्णु भगवान के वे मुनीम हो जाते हैं । कर्ज लेने वाले से दस्तावेज लिखवाते हैं –

‘दस्तावेज लिख दी रामलाल वल्द श्यामलाल ने भगवान विष्णु वल्द नामालूम को ऐसा जो कि…

वैष्णव बहुत दिनों से विष्णु के पिता के नाम की तलाश में है, पर वह मिल नहीं रहा। मिल जाय तो वल्दियत ठीक हो जाय।

वैष्णव के पास नंबर दो का बहुत पैसा हो गया है । कई एजेंसियाँ ले रखी हैं। स्टाकिस्ट हैं। जब चाहे माल दबाकर ‘ब्लैक’ करने लगते हैं। मगर दो घंटे विष्णु-पूजा में कभी नागा नहीं करते। सब प्रभु की कृपा से हो रहा है। उनके प्रभु भी शायद दो नंबरी हैं। एक नंबरी होते, तो ऐसा नहीं करने देते।

वैष्णव सोचता है – अपार नंबर दो का पैसा इकठ्ठा हो गया है। इसका क्या किया जाय? बढ़ता ही जाता है। प्रभु की लीला है। वही आदेश देंगे कि क्या किया जाय।

वैष्णव एक दिन प्रभु की पूजा के बाद हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा – प्रभु, आपके ही आशीर्वाद से मेरे पास इतना सारा दो नंबर का धन इकठ्ठा हो गया है। अब मैं इसका क्या करूँ? आप ही रास्ता बताइए। मैं इसका क्या करूँ? प्रभु, कष्ट हरो सबका!

तभी वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज उठी – अधम, माया जोड़ी है, तो माया का उपयोग भी सीख। तू एक बड़ा होटल खोल। आजकल होटल बहुत चल रहे हैं।

वैष्णव ने प्रभु का आदेश मानकर एक विशाल होटल बनवाई। बहुत अच्छे कमरे। खूबसूरत बाथरूम। नीचे लॉन्ड्री। नाई की दुकान। टैक्सियाँ। बाहर बढ़िया लान। ऊपर टेरेस गार्डेन।

और वैष्णव ने खूब विज्ञापन करवाया।

कमरे का किराया तीस रुपए रखा।

फिर वैष्णव के सामने धर्म-संकट आया। भोजन कैसा होगा? उसने सलाहकारों से कहा – मैं वैष्णव हूँ। शुद्ध शाकाहारी भोजन कराऊँगा। शुद्ध घी की सब्जी, फल, दाल, रायता, पापड़ वगैरह।

बड़े होटल का नाम सुनकर बड़े लोग आने लगे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के एक्जीक्यूटिव, बड़े अफसर और बड़े सेठ।

वैष्णव संतुष्ट हुआ।

पर फिर वैष्णव ने देखा कि होटल में ठहरने वाले कुछ असंतुष्ट हैं।

एक दिन कंपनी का एक एक्जीक्यूटिव बड़े तैश में वैष्णव के पास आया। कहने लगा – इतने महँगे होटल में हम क्या यह घास-पत्ती खाने के लिए ठहरते हैं? यहाँ ‘नानवेज’ का इंतजाम क्यों नहीं है?

वैष्णव ने जवाब दिया – मैं तो वैष्णव हूँ। मैं गोश्त का इंतजाम अपने होटल में कैसे कर सकता हूँ ?

उस आदमी ने कहा – वैष्णव हो, तो ढाबा खोलो। आधुनिक होटल क्यों खोलते हो? तुम्हारे यहाँ आगे कोई नहीं ठहरेगा|

वैष्णव ने कहा – यह धर्म-संकट की बात है। मैं प्रभु से पूछूँगा।

उस आदमी ने कहा – हम भी बिजनेस में हैं। हम कोई धर्मात्मा नहीं हैं – न आप, न मैं।

वैष्णव ने कहा – पर मुझे तो यह सब प्रभु विष्णु ने दिया है। मैं वैष्णव धर्म के प्रतिकूल कैसे जा सकता हूँ? मैं प्रभु के सामने नतमस्तक होकर उनका आदेश लूँगा।

दूसरे दिन वैष्णव साष्टांग विष्णु के सामने लेट गया। कहने लगा – प्रभु, यह होटल बैठ जाएगा। ठहरनेवाले कहते हैं कि हमें वहाँ बहुत तकलीफ होती है। मैंने तो प्रभु, वैष्णव भोजन का प्रबंध किया है। पर वे मांस माँगते हैं। अब मैं क्या करूँ?

वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई – मूर्ख, गांधीजी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ है? गाँधी का भजन है – ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे।’ तू इन होटलों में रहनेवालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। इनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर।

वैष्णव समझ गया।

उसने जल्दी ही गोश्त, मुर्गा, मछली का इंतजाम करवा दिया।

होटल के ग्राहक बढ़ने लगे।

मगर एक दिन फिर वही एक्जीक्यूटिव आया।

कहने लगा – हाँ, अब ठीक है। मांसाहार अच्छा मिलने लगा। पर एक बात है।

वैष्णव ने पूछा – क्या?

उसने जवाब दिया – गोश्त के पचने की दवाई भी तो चाहिए ।

वैष्णव ने कहा – लवण भास्कर चूर्ण का इंतजाम करवा दूँ?

एक्जीक्यूटिव ने माथा ठोंका।

कहने लगा – आप कुछ नहीं समझते। मेरा मतलब है – शराब। यहाँ बार खोलिए।

वैष्णव सन्न रह गया। शराब यहाँ कैसे पी जाएगी? मैं प्रभु के चरणामृत का प्रबंध तो कर सकता हूँ। पर मदिरा! हे राम!

दूसरे दिन वैष्णव ने फिर प्रभु से कहा – प्रभु, वे लोग मदिरा माँगते हैं| मैं आपका भक्त, मदिरा कैसे पिला सकता हूँ?

वैष्णव की पवित्र आत्मा से आवाज आई – मूर्ख, तू क्या होटल बैठाना चाहता है? देवता सोमरस पीते थे। वही सोमरस यह मदिरा है। इसमें तेरा वैष्णव-धर्म कहाँ भंग होता है। सामवेद में तिरसठ श्लोक सोमरस अर्थात मदिरा की स्तुति में हैं। तुझे धर्म की समझ है या नहीं?

वैष्णव समझ गया।

उसने होटल में ‘बार’ खोल दिया।

अब होटल ठाठ से चलने लगा। वैष्णव खुश था।

फिर एक दिन एक आदमी आया। कहने लगा – अब होटल ठीक है। शराब भी है। गोश्त भी है। मगर मारा हुआ गोश्त है। हमें जिंदा गोश्त भी चाहिए।

वैष्णव ने पूछा – यह जिंदा गोश्त कैसा होता है?

उसने कहा – कैबरे, जिसमें औरतें नंगी होकर नाचती हैं।

वैष्णव ने कहा – अरे बाप रे!

उस आदमी ने कहा – इसमें ‘अरे बाप रे’ की कोई बात नहीं। सब बड़े होटलों में चलता है। यह शुरू कर दो तो कमरों का किराया बढ़ा सकते हो।

वैष्णव ने कहा – मैं कट्टर वैष्णव हूँ। मैं प्रभु से पूछूँगा।

दूसरे दिन फिर वैष्णव प्रभु के चरणों में था। कहने लगा – प्रभु, वे लोग कहते हैं कि होटल में नाच भी होना चाहिए। आधा नंगा या पूरा नंगा।

वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई – मूर्ख, कृष्णावतार में मैंने गोपियों को नचाया था। चीर-हरण तक किया था। तुझे क्या संकोच है?

प्रभु की आज्ञा से वैष्णव ने ‘कैबरे’ भी चालू कर दिया।

अब कमरे भरे रहते थे – शराब, गोश्त और कैबरे।

वैष्णव बहुत खुश था। प्रभु की कृपा से होटल भरा रहता था।

कुछ दिनों बाद एक ग्राहक ने बेयरे से कहा – इधर कुछ और भी मिलता है?

बेयरे ने पूछा – और क्या साब?

ग्राहक ने कहा – अरे यही मन बहलाने को कुछ? कोई ऊँचे किस्म का माल मिले तो लाओ।

बेयरा ने कहा – नहीं साब, इस होटल में यह नहीं चलता।

ग्राहक वैष्णव के पास गया। बोला – इस होटल में कौन ठहरेगा? इधर रात को मन बहलाने का कोई इंतजाम नहीं है।

वैष्णव ने कहा – कैबरे तो है, साहब।

ग्राहक ने कहा – कैबरे तो दूर का होता है। बिलकुल पास का चाहिए, गर्म माल, कमरे में।

वैष्णव फिर धर्म-संकट में पड़ गया।

दूसरे दिन वैष्णव फिर प्रभु की सेवा में गया। प्रार्थना की – कृपानिधान! ग्राहक लोग नारी माँगते हैं – पाप की खान। मैं तो इस पाप की खान से जहाँ तक बनता है, दूर रहता हूँ। अब मैं क्या करूँ?

वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई – मूर्ख, यह तो प्रकृति और पुरुष का संयोग है। इसमें क्या पाप और क्या पुण्य? चलने दे।

वैष्णव ने बेयरों से कहा – चुपचाप इंतजाम कर दिया करो। जरा पुलिस से बचकर, पच्चीस फीसदी भगवान की भेंट ले लिया करो।

अब वैष्णव का होटल खूब चलने लगा।

शराब, गोश्त, कैबरे और औरत।

वैष्णव धर्म बराबर निभ रहा है।

इधर यह भी चल रहा है।

वैष्णव ने धर्म को धंधे से खूब जोड़ा है।

लेखक

  • हरिशंकर परसाईजी का जन्म 22 अगस्त, सन् 1924 ईस्वी को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिला के इटारसी के निकट जमावी नामक ग्राम में हुआ था। परसाई जी की प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर स्नातक स्तर तक की शिक्षा मध्य प्रदेश में ही हुई और नागपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने हिन्दी में एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। 18 वर्ष की उम्र में इन्होंने जंगल विभाग में नौकरी की। खण्डवा में 6 माह तक अध्यापन कार्य किया तथा सन् 1941 से 1943 ई० तक 2 वर्ष जबलपुर में स्पेंस ट्रेनिंग कालेज में शिक्षण कार्य किया। सन् 1943 ई० में वहीं मॉडल हाईस्कूल में अध्यापक हो गये। सन् 1952 ई० में इन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। वर्ष 1953 से 1957 ई० तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। सन् 1957 ई० में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरुआत की। कलकत्ता के ललित कला महाविद्यालय से सन् 1960 ई० में डिप्लोमा किया। अध्यापन-कार्य में ये कुशल थे, किन्तु आस्था के विपरीत अनेक बातों का अध्यापन इनको यदा-कदा खटक जाता था। 10 अगस्त, सन् 1995 ईस्वी को इनका निधन हो गया। हरिशंकर परसाई का साहित्यिक परिचय साहित्य में इनकी रुचि प्रारम्भ से ही थी। अध्यापन कार्य के साथ-साथ ये साहित्य सृजन की ओर मुड़े और जब यह देखा कि इनकी नौकरी इनके साहित्यिक कार्य में बाधा पहुँचा रही है तो इन्होंने नौकरी को तिलांजलि दे दी और स्वतंत्र लेखन को ही अपने जीवन का उद्देश्य निश्चित करके साहित्य-साधना में जुट गये। इन्होंने जबलपुर से ‘वसुधा’ नामक एक साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकाली जिसके प्रकाशक व संपादक ये स्वयं थे। वर्षों तक विषम आर्थिक परिस्थिति में भी पत्रिका का प्रकाशन होता रहा और बाद में बहुत घाटा हो जाने पर इसे बन्द कर देना पड़ा। सामयिक साहित्य के पाठक इनके लेखों को वर्तमान समय की प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं। परसाई जी नियमित रूप से ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ तथा अन्य पत्रिकाओं के लिए अपनी रचनाएँ लिखते रहे। परसाई जी हिन्दी व्यंग्य के आधार स्तम्भ थे। इन्होंने हिन्दी व्यंग्य को नयी दिशा प्रदान की। ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए इन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। फ्रांसीसी सरकार की छात्रवृत्ति पर इन्होंने पेरिस-प्रवास किया। ये उपन्यास एवं निबन्ध लेखन के बाद भी मुख्यतया व्यंग्यकार के रूप में विख्यात रहे। हरिशंकर परसाई की प्रमुख रचनाएं परसाई जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं— कहानी संग्रह — 1. हँसते हैं, रोते हैं, 2. जैसे उनके दिन फिरे आदि। उपन्यास — 1. रानी नागफनी की कहानी, 2. तट की खोज आदि। निबंध-व्यंग्य — 1. तब की बात और थी, 2. भूत के पाँव पीछे, 3. बेईमान की परत, 4. पगडंडियों का जमाना, 5. सदाचार की तावीज, 6 शिकायत मुझे भी है, 7. और अन्त में आदि। परसाई जी द्वारा रचित कहानी, उपन्यास तथा निबंध व्यक्ति और समाज की कमजोरियों पर चोट करते हैं। समाज और व्यक्ति में कुछ ऐसी विसंगतियाँ होती हैं जो जीवन को आडम्बरपूर्ण और दूभर बना देती हैं। इन्हीं विसंगतियों का पर्दाफाश परसाई जी ने किया है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातें भी हमारे व्यक्तित्त्व को विघटित कर देती हैं। परसाई जी के लेख पढ़ने के बाद हमारा ध्यान इन विसंगतियों और कमजोरियों की ओर बरबस चला जाता है। हरिशंकर परसाई की भाषा शैली परसाई जी एक सफल व्यंग्यकार हैं और व्यंग्य के अनुरूप ही भाषा लिखने में कुशल हैं। इनकी रचनाओं में भाषा के बोलचाल के शब्दों एवं तत्सम तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का चयन भी उच्चकोटि का है। अर्थवत्ता की दृष्टि से इनका शब्द चयन अति सार्थक है। लक्षणा एवं व्यंजना का कुशल उपयोग इनके व्यंग्य को पाठक के मन तक पहुँचाने में समर्थ रहा है। इनकी भाषा में यत्र-तत्र मुहावरों एवं कहावतों का प्रयोग हुआ है, जिससे इनकी भाषा में प्रवाह आ गया है। हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं में शैली के विभिन्न रूपों के दर्शन होते हैं— व्यंग्यात्मक शैली — परसाई जी की शैली व्यंग्य प्रधान है। इन्होंने जीवन के विविध क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए व्यंग्य का आश्रय लिया है। सामाजिक तथा राजनीतिक फरेबों पर भी इन्होंने अपने व्यंग्य से करारी चोट की है। इस शैली की भाषा मिश्रित है। सटीक शब्द चयन द्वारा लक्ष्य पर करारे व्यंग्य किए गए हैं। विवरणात्मक शैली — प्रसंगवश, कहीं-कहीं, इनकी रचनाओं में शैली के इस रूप के दर्शन होते हैं। इस शैली की भाषा मिश्रित है। उद्धरण शैली — अपने कथन की पुष्टि के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं में शैली के इस रूप का उन्मुक्त भाव से प्रयोग किया है। इन्होंने रचनाओं में गद्य तथा पद्य दोनों ही उद्धरण दिये हैं। इस शैली के प्रयोग से इनकी रचनाओं में प्रवाह उत्पन्न हो गया है। सूक्ति कथन शैली — सूक्तिपरक कथनों के द्वारा परसाई जी ने विषय को बड़ा रोचक बना दिया है। कहीं इनकी सूक्ति तीक्ष्ण व्यंग्य से परिपूर्ण होती है तो, कहीं विचार और संदेश लिए हुए होती है।

    View all posts
वैष्णव की फिसलन/हरिशंकर परसाई

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

×