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कवि और जिन्दगी/धर्मवीर भारती

“गाओ कवि !” अनुरोध भरे स्वर में राजा बोला – “ गाओ, तुम्हारा पहला ही स्वर जैसे हर लेता है जीवन की सीमाएँ, पहुँचा देता है चाँदनी के लोक में, जहाँ कल्पना फूलों से शृंगार कर अतिथियों का स्वागत करती है। मैं भूल जाना चाहता हूँ यह संघर्ष, क्षण भर को मुझे खो जाने दो मधु के उफान में, अधरों की कोमलता में, नयनों की बंकिमता में – गाओ…”

कवि मूक था।

राजा पात्र से एक घूँट पीकर फिर बोला, उसका स्वर भारी हो चला था – ” क्या नहीं गाओगे कवि ? बोलो, यह विस्मरण की वेला है मित्र ! मैं भूल जाना चाहता हूँ अपनापन; मैं डूब जाना चाहता हूँ मदिरा की इन हलकी लहरियों में और तुम्हारी कविता का स्वर मदिरा से अधिक नशीला है, अंगूरों से अधिक रसीला है। अपने स्वरों की नौका पर मुझे ले चलो उस तट पर मेरे माझी ! गाओ ! कवि फिर भी मूक था ।

“तुम क्यों मूक हो ?” राजा का स्वर कर्कश हो चला था और उसमें अधिकार की चेतना गरज उठी थी । “बोलो ! बोलो !” राजा ने अधीर होकर मधुपात्र फर्श पर पटक दिया। सामने बैठी अस्तव्यस्त कामिनी चौंक उठी, सजग हो उठी ।

“नहीं गाओगे ? राजसभा के टुकड़ों पर पलनेवाले क्षुद्रकवि ! राजा की छोटी-छोटी इच्छाओं का अपमान ?”

कवि तिलमिला उठा- “बस महाराज ?” उसकी आँखों से तारे टूट रहे थे, उसके स्वरों में तूफान गरज रहा था – ” कविता वासना की क्रीत दासी नहीं है महाराज और न कवि किसी की इच्छा का गुलाम ! रागरंग के वातावरण में गान घुट जाते हैं राजन् ! मदिरा के सौरभ में कविता कुम्हला जाती है । वासना की शिलाओं से टकरा कर स्वर टूट जाते हैं। चाँदी के टुकड़ों पर मैं कविता की हत्या नहीं कर सकता ?”

कवि चला गया…

मंत्री ने एक अर्थपूर्ण दृष्टि डाली कवि पर और बोला- “कवि, तुम्हारे गीत महान हैं और उनकी योजना के लिए महान पृष्ठभूमि की आवश्यकता है कलाकार ! तुम्हारे गीतों की प्रतिध्वनि राजमहलों की विशाल प्राचीरों में ही शोभा देती है । झोपड़ियों के अँधेरे में उलझकर तुम्हारे हृदय का सन्देश घुट जायेगा कवि ?”

“गलत, झोपड़ी-झोपड़ी, गाँव-गाँव नगर-नगर के करोड़ों निर्धनों के मन में राजा के प्रति जाग उठनेवाला यह असन्तोष, यह विद्रोह कितनी बड़ी और कितनी सशक्त पृष्ठभूमि है मेरे सन्देश की, यह तुम नहीं जानते। यह मैं समझ रहा हूँ और उसी दिन से लगता है जैसे उनकी पसलियों में हहरानेवाला वह तूफान मेरे स्वरों में भर गया है ?

“लेकिन ध्यान रखो कवि ! तूफान कहीं तुम्हारे गीतों का सौन्दर्य न उड़ा ले जाय । जानते हो कवि-सौन्दर्य नियमों में बँधा होता है, ध्वंसात्मक विद्रोह काव्य के सौन्दर्य को चूर-चूर कर देता है। मैं कहता हूँ आओ, अपने स्वरों के जादू से राजा को जीत कर तुम कुछ भी कर सकते हो । राजशक्ति के साथ रहने में ही तुम्हारा कल्याण है ?

“मंत्रिवर !” कवि हँस दिया, “कवि और राजनीतिज्ञ में अन्तर होता है । कवि की आँखों में साँप की आँखों का छल नहीं होता और न वह हर क्षण रूप ही बदल सकता है । कविता वंचना का षड्यन्त्र नहीं, आत्मा की ईमानदार आवाज होती है। मंत्रि ?’

“यह राजशक्ति की उपेक्षा है ?”

“कविता का आत्मसम्मान राजशक्ति को कुचलकर चलता है।”

“सावधान ! तुम अपने भविष्य पर अंधकार का आवरण डाल रहे हो ?”

“भविष्य ! क्या गुलाम देश में भी कविता का कोई भविष्य होता है ! पींजरे की तीलियों में कल्पना की उड़ान बँध जाती है। गुलामी में कविता के प्राण सिसककर रह जाते हैं। बची अधर नियन्त्रित गति, सीमित विचार कविता के स्वच्छन्द विकास के लिए अभिशाप होते हैं। इस नाते कवि की वाणी का प्रथम स्वर होता है विद्रोह ?”

“कवि ?” राजमन्त्री कड़ककर बोले और फिर जलती हुई आँखों से कवि की ओर देखा – “जाओ ! अभी जाओ यहाँ से !”

कवि उद्विग्न था। उसकी स्वतन्त्र आत्मा बन्धनों को नहीं सह सकती थी। गुलामी पाप है, वह छोड़ देगा गुलामी के देश को !

सन्ध्या के डूबते हुए सूरज ने देखा -पास के पर्वत की ऊँची-नीची पगडंडियों पर अन्यमनस्क कवि अपनी वीणा लेकर चला जा रहा था नगर से दूर दूर, गुलामी से दूर ! सुदूर बन प्रान्तर ने बाँहें खोलकर कवि का स्वागत किया। कवि ने एक पर्णकुटी बनायी और वहीं रहने लगा ।

अपने देश निर्वासन की स्मृति में कवि ने बोया था एक वट पादप । वह बढ़ कर तरुण हुआ, शाखाएँ फैलीं, उनमें जवानी के लाल डोरे झूलने लगे, और, और एक दिन उन्होंने झुककर पृथ्वी चूम ली।

पृथ्वी चूम ली ! कवि के मन में सहसा एक विचार बिजली की तरह चमक गया। क्या अब भी आजादी ने उसके देश को न चूमा होगा। नहीं, उसका देश अब स्वतन्त्र गया होगा । वहाँ के उन्मुक्त आकाश में एक नवीन शक्तिशाली जीवन का सृजन हो रहा होगा। वहाँ के फूल आजादी से फूलते होंगे और उनका सौरभ आजादी के वातावरण में गमक उठता होगा। वहाँ के निवासी गौरव से शीश ऊँचा करके चलते होंगे – वहाँ की बालिकाएँ आजादी के गीत गाती होंगी। वह व्याकुल हो उठा अपने देश जाने को… ।

पर उसका देश बदल चुका था । बसन्त का अन्त हो रहा था। चारों ओर सुनहले खेत पके खड़े थे। उसने दृष्टि दौड़ायी पर कोई मनुष्य न दीख पड़ा। हाँ, कुछ यन्त्र आये और उन्होंने खेत रौंदकर क्षण भर में पृथ्वी साफ कर दी।

कवि वहाँ से चला आया। नगर में उसने देखा पहले का उन्मुक्त वातावरण समाप्त चुका था। मनुष्य काम में पिस रहा था। सन्ध्या आयी विश्राम का सन्देश देनेवाली रंगीन सन्ध्या । नगर बिजली से चमचमा उठा। दिन भर काम से थके हुए लोग शराब के प्यालों में, रूप के बाजारों में अपनी थकावट उतारने लगे।

कवि का मन भर आया। क्षण भर के लिए उसकी आँखों में नाच उठी वनप्रान्तर की सन्ध्या, जब पश्चिम की फूल पत्तियों में भर जाती है एक सिहरन, नीड़ों में हँस उठता है जीवन का स्पन्दन और डालों में गूँज उठते हैं विहगों के गान ! और यहाँ, यहाँ सन्ध्या है पशुत्व के विकास का समय। उसके देश वासियों ने राजा से स्वतन्त्रता पायी, पर उसकी संस्कृति के गुलाम बन गये। यह आजादी है या आजादी के शव पर गुलामी का कफन । इस श्मशान में गीतों की साधना असम्भव है।

कवि लौट आया अपनी कुटी में । कवि का हृदय टूट चुका था। राजशक्ति की उपेक्षा उसका विद्रोह जगा सकती थी पर जनता की उपेक्षा ने उसके हृदय पर जो आघात पहुँचाया उसके कारण उसकी कविता घुट कर रह गयी। कभी उसके देश की याद उसकी पलकों को भिगो जाती थी, कभी आजादी की चाह उसकी सिसकियों में हँस पड़ती थी, पर वह अब गीत न लिख पाता था। उसकी वीणा एक ओर पड़ी थी। हर साल बसन्त आता था और बसन्ती बयार उसके मन को रुला जाती थी। पूरब से आनेवाले विहगों से वह पूछता था अपने देश की दशा और उत्तर में वे करुण गीतों से गुँजा देते थे डालों के झुरमुट को ।

आषाढ़ आते ही पुरवैया बहती थी और कवि प्रफुल्ल हो उठता था। यह पवन आ रहा है उसके देश से, उसके देश की बालिकाओं के केशपाश को अस्तव्यस्त करता हुआ । यह पवन उसके लिए एक नवीन सन्देश लाता था। और उसके मन में कसक उठती थी अपने देश की याद ।

वर्षों के बाद एक बार जेठ – बैसाख के झुलसे पेड़ खड़े थे, आषाढ़ की प्रतीक्षा में ! आषाढ़ आया पर पूरब के आकाश में रसीली घटाएँ न लहरायीं। सावन आया पर रिमझिम बूँदें पल्लवों से अठखेलियाँ करने न आयीं ! फूलों ने प्यासे नयनों से देखा गगन की ओर, पर वहाँ छाया हुआ था भयंकर अन्धड़ !

कवि का मन एक अमंगलकारी आशंका से भर गया। क्या उसके देश का सागर इतना नीरस हो गया कि वहाँ से बादल भी नहीं उठते ? क्या वहाँ का वातावरण इतना जड़ हो गया कि वहाँ से पुरवैया भी नहीं लहराती ?

कवि वृद्ध हो चुका था। पर उसने सोची एक बार फिर उपने देश की ओर चलने की। काँपते हुए हाथों से उसने अपनी वीणा उठायी और डगमग कदमों से वह चल पड़ा अपने देश की ओर !

पूर्व में ऊषा दोनों करों से गुलाबी आभा बिखेर रही थी, पर नगर-द्वार पर नियमित रूप से बजनेवाली शहनाई मूक थी । तरु की डालों पर चहकनेवाले विहग अदृश्य थे। चारों ओर के खेतों में धूल उड़ रही थी ।

दूर-दूर तक फैली हुई नीरवता और सुनसान में कहीं विशालकाय लौहयन्त्र खड़े भयंकर अट्टहास कर रहे थे । पर इस देश के निवासी क्या हुए ?

कवि ने देखा – पास था एक वृक्ष, पर उसकी पत्तियों पर विचित्र पीलापन छाया था। उसने अपनी अँगुलियों से छुआ उन्हें और वे टूटकर गिर पड़ीं।

इन पत्तियों की कोमलता कहाँ गयी ?

यन्त्रों के पास कवि ने देखी कुछ मूर्तियाँ। क्या यह उस देश की निर्जीव कला है ? किन्तु इतनी मूर्तियाँ मार्गों पर खेतों में- क्या ये उस देश के निवासी ही तो नहीं हैं ?

पर कहाँ गयी इनमें से जीवन की गति ?

बिजली की तरह कवि के मन में एक विचार चमक गया। विज्ञान ! प्रकृति की उपासना । हाँ, मानव ने हार मान ली थी बुद्धि के सामने और बुद्धि ने छीन लिया था उसके मन का उन्मुक्त उल्लास। विज्ञान ने बना दिया था मनुष्य को पत्थर-सा कठोर । विज्ञान के सहारे मनुष्य ने पा ली थी अमरता, पर ऐसी अमरता जिसे देखकर एक बार मौत भी काँप उठी होगी।

कवि की आँखों में आँसू छलक आये ! काँपते हुए हाथों से उसने उठायी अपनी वीणा और रुँधे गले से गाना प्रारम्भ किया एक करुण गीत । वर्षों बाद कविता उमड़ पड़ी ।

नगर के निःशब्द प्राचीरों में उसके गीतों की प्रतिध्वनि गूँजने लगी। सूखी हुई डालों में उसके स्वर लहराने लगे। कवि की तानों के साथ-साथ पूरब से बहने लगे पुरवैया के झोंके । कवि के लहराते स्वरों के साथ-साथ आकाश में लहराने लगीं काली घटाएँ । कवि के आँसुओं के साथ-साथ पेड़ों पर, पत्तियों पर फूलों पर बरस पड़ी पावस की रिमझिम बूँदें ।

गीत का स्वर चढ़ते ही झूलती हुई डालों से कूक उठी उल्लास में भरकर एक काली कोयलिया। चारों ओर के नीरव वातावरण में जैसे एक नयी हरियाली छा गयी । स्वर गूँजता रहा ।

पर कवि का अभ्यास छूट चुका था। उसका स्वर उखड़ने लगा। उसने कलेजा लगाकर फिर प्रयत्न किया । सहसा पत्थर की मूर्तियों में स्पन्दन हुआ और स्वरों के साथ-साथ उनमें संचार हुआ नवीन चेतना का । वर्षों की बेहोशी तोड़कर वे उठ बैठीं – एक अलसाई अँगड़ाई लेकर ।

सहसा कवि का स्वर उखड़ गया। उसकी वीणा हाथ से छूट पड़ी और वह अचेत होकर गिर पड़ा। चीखकर पत्थर की मूर्तियाँ घिर आयीं उसके पास ( सम्भवतः उनमें चेतना – मानवता फिर जाग गयी थी। अपराधी की तरह सर झुकाकर उन्होंने कहा, “आह ! कवि का अन्त हो गया।”

पर डाल पर कोयलिया कूक उठी- “कवि अमर है ! हममें सुनो कवि की प्रतिध्वनि !” आकाश में लहराते हुए बादल रो पड़े- “कवि मरा नहीं है। हममें अब भी छलक रहे हैं कवि के आँसू ।” पूरब से बहती हुई नशीली पुरवैया क्रन्दन कर उठी- “कवि की मृत्यु भ्रम है। हममें अब भी लहरा रहे हैं कवि के गीत !”

पर अपराधी की तरह मानव ने सर झुकाकर कहा, “ कवि का अन्त हो गया ?”

आकाश में, जमीन पर, मानव में, प्रकृति में, स्वर्ग में, पृथ्वी में कवि की वाणी लहरा उठी थी जिन्दगी बनकर पर जिन्दगी ने डाल दिया था कवि पर मौत का काला आवरण | पर मौत के उस अँधेरे को चीरकर भी कवि के अधरों पर खेल रही थी ईश्वरीय मुसकान की चमचमाती हुई जोत-

कोयल कूकती रही, बादल लहराते रहे, पुरवैया बहती रही !

लेखक

  • धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Aroh in Class 12. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication. Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे लेखक परिचय जीवन परिचय-धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। तत्पश्चात इन्होंने डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में ‘सिद्ध-साहित्य’ पर शोधकार्य किया। इन्होंने ‘अभ्युदय’ व ‘संगम’ पत्र में कार्य किया। बाद में ये प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्य करने लगे। 1960 ई० में नौकरी छोड़कर ‘धर्मयुग’ पत्रिका का संपादन किया। ‘दूसरा सप्तक’ में इनका स्थान विशिष्ट था। इन्होंने कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, पत्रकार तथा आलोचक के रूप में हिंदी जगत को अमूल्य रचनाएँ दीं। इन्हें पद्मश्री, व्यास सम्मान व अन्य अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। इन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि देशों की यात्राएँ कीं। 1997 ई० में इनका देहांत हो गया। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं – कविता-संग्रह – कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, ठडा लोहा। कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान, मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग। उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता गीतिनाट्य – अंधा युग। निबंध-संग्रह – पश्यंती, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय। आलोचना – प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव-मूल्य और साहित्य। एकांकी-संग्रह – नदी प्यासी थी। साहित्यिक विशेषताएँ – धर्मवीर भारती के लेखन की खासियत यह है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के बीच इनकी अलग-अलग रचनाएँ लोकप्रिय हैं। ये मूल रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संबंध एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिकता व उत्तरदायित्वों के बावजूद इनकी रचनाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है। इनकी रचनाओं में रुमानियत संगीत में लय की तरह मौजूद है। इनकी कविताएँ कहानियाँ उपन्यास, निबंध, गीतिनाट्य व रिपोर्ताज हिंदी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। इनका लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ एक सरस और भावप्रवण प्रेम-कथा है। दूसरे लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर हिंदी फिल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में प्रेम को केंद्र में रखकर निम्न मध्यवर्ग की हताशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया गया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गिरते हुए जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्व-युद्धों से उपजा हुआ डर और अमानवीयता की अभिव्यक्ति ‘अंधा युग’ में हुई है। ‘अंधा युग’ गीति-साहित्य के श्रेष्ठ गीतिनाट्यों में है। मानव-मूल्य और साहित्य पुस्तक समाज-सापेक्षिता को साहित्य के अनिवार्य मूल्य के रूप में विवेचित करती है। भाषा-शैली – भारती जी ने निबंध और रिपोर्ताज भी लिखे। इनके गद्य लेखन में सहजता व आत्मीयता है। बड़ी-से-बड़ी बात को बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। इन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग, के संपादक रहते हुए हिंदी पत्रकारिता को सजा-सँवारकर गंभीर पत्रकारिता का एक मानक बनाया। वस्तुत: धर्मवीर भारती का स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है।

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