साकेत द्वितीय सर्ग/मैथिलीशरण गुप्त
लेखनी, अब किस लिए विलम्ब? बोल,-जय भारति, जय जगदम्ब। प्रकट जिसका यों हुआ प्रभात, देख अब तू उस दिन की रात। धरा पर धर्मादर्श-निकेत, धन्य है स्वर्ग-सदृश साकेत। बढ़े क्यों आज न हर्षोद्रेक? राम का कल होगा अभिषेक। दशों दिक्पालों के गुणकेन्द्र, धन्य हैं दशरथ मही-महेन्द्र। त्रिवेणी-तुल्य रानियाँ तीन, बहाती सुखप्रवाह नवीन। मोद का आज […]