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Month: अक्टूबर 2023

मैला आँचल प्रथम भाग खंड18-24/फणीश्वरनाथ रेणु

अठारह “क्या नाम ?” “सनिच्चर महतो।” “कितने दिनों से खाँसी होती है? कोई दवा खाते थे या नहीं ?…क्या, थूक से खून आता है ? कब से ?…कभी-कभी ? हूँ !…एक साफ डिब्बा में रात-भर का थूक जमा करके ले आना।…इधर आओ।…ज़ोर से साँस लो।…एक-दो-तीन बोलो।…ज़ोर से। हाँ, ठीक है।” “क्या नाम ?” “दासू गोप।” […]

मैला आँचल प्रथम भाग खंड25-35/फणीश्वरनाथ रेणु

पच्चीस बावनदास आजकल उदास रहा करता है। “दासी जी, चुन्नी गुसाईं का क्या समाचार है ?” रात में बालदेव जी सोने के समय बावनदास से बातें करते हैं। “चुन्नी गुसाईं तो सोसलिट पाटी में चला गया।” बालदेव जी आश्चर्य से मुँह फाड़कर देखते ही रह जाते हैं। “बालदेव जी भाई, अचरज की बात नहीं। भगवान […]

मैला आँचल प्रथम भाग खंड36-44/फणीश्वरनाथ रेणु

छत्तीस डाक्टर पर यहाँ की मिट्टी का मोह सवार हो गया। उसे लगता है, मानो वह युग-युग से इस धरती को पहचानता है। यह अपनी मिट्टी है। नदी तालाब, पेड़-पौधे, जंगल-मैदान, जीवन-जानवर, कीड़े-मकोड़े, सभी में वह एक विशेषता देखता है। बनारस और पटना में भी गुलमुहर की डालियाँ लाल फूलों से लद जाती थीं। नेपाल […]

मैला आँचल द्वितीय भाग खंड1-10/फणीश्वरनाथ रेणु

एक सुराज मिल गया ? “अभी मिला नहीं है, पन्द्रह तारीख को मिलेगा। ज्यादा दिनों की देर नहीं, अगले हफ्ता में ही मिल जाएगा। दिल्ली में बातचीत हो गई।…हिन्दू लोग हिन्दुस्थान में, मुसलमान लोग पाखिस्थान में चले जाएँगे। बावनदास जी फिर एक खबर ले आए हैं। ताजा खबर ! …..दफा 40 की लोटस की तरह […]

मैला आँचल द्वितीय भाग खंड11-23/फणीश्वरनाथ रेणु

11 “कमली के बाबू ! कमली के बाबू !…” नींद में तहसीलदार साहब की नाक बहुत बोलती है-खुर्र खुर-र…कमला की माँ पलँग के पास खड़ी है। उसके चेहरे पर भय की काली रेखा छाई हुई है-“कमली के बाबू ?” “ऊँ यें….क्या है?” माँ धीरे-से पलँग पर बैठ जाती है।…तहसीलदार साहब और भी अचकचा जाते हैं, […]

परती परिकथा/फणीश्वरनाथ रेणु

धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर। पतिता भूमि, परती जमीन, वन्ध्या धरती…। धरती नहीं, धरती की लाश, जिस पर कफ की तरह फैली हुई हैं बलूचरों की पंक्तियाँ। उत्तर नेपाल से शुरू होकर, दक्षिण गंगातट तक, पूर्णिमा जिले के नक्शे को दो असम भागों में विभक्त करता हुआ_फैला-फैला यह विशाल भू-भाग। लाखों एकड़-भूमि, जिस पर सिर्फ बरसात […]

बटबाबा/फणीश्वरनाथ रेणु

गाँव से सटे, सड़क के किनारे का वह पुराना वट-वृक्ष। इस बार पतझ्ड़ में उसके पत्ते जो झड़े तो लाल-लाल कोमल पत्तियों को कौन कहे, कोंपल भी नहीं लगे। धीरे-धीरे वह सूखतां गया और एकदम सूख गया-खड़ा ही खड़ा । शाम को निरधन साहु की दुकान पर इसी पेड़ की चर्चा छिड़ी हुई थी। जब […]

एक रंगबाज गाँव की भूमिका/फणीश्वरनाथ रेणु

सड़क खुलने और बस ‘सर्विस’ चालू होने के बाद से सात नदी (और दो जंगल) पार का पिछलपाँक इलाके के हलवाहे-चरवाहे भी “चालू” हो गए हैं…! ‘ए रोक-के ! कहकर “बस’ को कहीं पर रोका जा सकता है और “ठे-क्हेय कहकर “बस’ की देह पर दो थाप लगा देते ही गाड़ी चल पड़ती है – […]

रसप्रिया/फणीश्वरनाथ रेणु

धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई – अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा अपरूप-रूप! ….खेतों, मैंदानों, बाग-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुन्दरता! मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आँखें सजल हो गई। मोहना ने मुस्कराकर पूछा-तुम्हारी उँगली […]

एक आदिम रात्रि की महक/फणीश्वरनाथ रेणु

न …करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने ‘इस्टिसन’ सब हजार पुराने हों, वहाँ नींद तो आती है।…ले, नाक के अंदर फिर सुड़सुड़ी जगी ससुरी…! करमा छींकने […]

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