ग्राम्या/सुमित्रानंदन पंत
1. स्वप्न पट ग्राम नहीं, वे ग्राम आज औ’ नगर न नगर जनाकर, मानव कर से निखिल प्रकृति जग संस्कृत, सार्थक, सुंदर। देश राष्ट्र वे नहीं, जीर्ण जग पतझर त्रास समापन, नील गगन है: हरित धरा: नव युग: नव मानव जीवन। आज मिट गए दैन्य दुःख, सब क्षुधा तृषा के क्रंदन भावी स्वप्नों के पट […]