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Month: अक्टूबर 2023

ग्राम्या/सुमित्रानंदन पंत

1. स्वप्न पट ग्राम नहीं, वे ग्राम आज औ’ नगर न नगर जनाकर, मानव कर से निखिल प्रकृति जग संस्कृत, सार्थक, सुंदर। देश राष्ट्र वे नहीं, जीर्ण जग पतझर त्रास समापन, नील गगन है: हरित धरा: नव युग: नव मानव जीवन। आज मिट गए दैन्य दुःख, सब क्षुधा तृषा के क्रंदन भावी स्वप्नों के पट […]

गुंजन/सुमित्रानंदन पंत

1. वन-वन, उपवन वन-वन, उपवन- छाया उन्मन-उन्मन गुंजन, नव-वय के अलियों का गुंजन! रुपहले, सुनहले आम्र-बौर, नीले, पीले औ ताम्र भौंर, रे गंध-अंध हो ठौर-ठौर उड़ पाँति-पाँति में चिर-उन्मन करते मधु के वन में गुंजन! वन के विटपों की डाल-डाल कोमल कलियों से लाल-लाल, फैली नव-मधु की रूप-ज्वाल, जल-जल प्राणों के अलि उन्मन करते स्पन्दन, […]

पल्लव/सुमित्रानंदन पंत

1. पल्लव अरे! ये पल्लव-बाल! सजा सुमनों के सौरभ-हार गूँथते वे उपहार; अभी तो हैं ये नवल-प्रवाल, नहीं छूटो तरु-डाल; विश्व पर विस्मित-चितवन डाल, हिलाते अधर-प्रवाल! न पत्रों का मर्मरु संगीत, न पुरुषों का रस, राग, पराग; एक अस्फुट, अस्पष्ट, अगीत, सुप्ति की ये स्वप्निल मुसकान; सरल शिशुओं के शुचि अनुराग, वन्य विहगों के गान […]

मेरी पहली कविता/सुमित्रानंदन पंत

अल्मोड़े में पादरियों तथा ईसाई धर्म प्रचारकों के भाषण प्रायः ही सुनने को मिलते थे, जिनसे मैं छुटपन में बहुत प्रभावित रहा हूँ। वे पवित्र जीवन व्यतीत करने की बातें करते थे और प्रभु की शरण आने का उपदेश देते थे जो मुझे बहुत अच्छा लगता था। गिरजे के घंटे की ध्वनि से प्रेरणा पाकर […]

मैं क्यों लिखता हूँ/सुमित्रानंदन पंत

मैं क्यों लिखता हूँ—यह प्रश्न मेरे जैसे व्यक्ति के लिए उतना स्वाभाविक नहीं जितना कि मैं क्यों न लिखूँ। जब लिखने को जी करता है, उसमें सुख मिलता है जो कि एक उपेक्षणीय वस्तु नहीं—तब कोई क्यों न लिखे? किन्तु जागतिक ऊहापोहों के कारण कभी मेरे मन में भी यह बात आती है कि मैं […]

कवि के स्वप्नों का महत्व/सुमित्रानंदन पंत

कवि के स्वप्नों का महत्त्व!—विषय सम्भवतः थोड़ा गम्भीर है। स्वप्न और यथार्थ मानव-जीवन-सत्य के दो पहलू हैं : स्वप्न यथार्थ बनता जाता है और यथार्थ स्वप्न। ‘एक सौ वर्ष नगर उपवन, एक सौ वर्ष विजन वन’—इस अणु-संहार के युग में इस सत्य को समझना कठिन नहीं है। वास्तव में स्वप्न और वास्तविकता के चरणों पर […]

पानवाला/सुमित्रानंदन पंत

यह पानवाला और कोई नहीं, हमारा चिर-परिचित पीताम्बर है । बचपन से उसे वैसा ही देखते आए हैं। हम छोटे लड़के थे- स्थानीय हाईस्कूल में चौथे-पाँचवें क्लास में पढ़ते थे । मकान की गली पार करने पर सड़क पर पहुँचते ही जो सब से पहली दूकान मिलती, वह पीताम्बर की । हम कई लड़के रहते, […]

मैला आँचल प्रथम भाग खंड1-5/फणीश्वरनाथ रेणु

‘मैला आँचल’ हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ट रुप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है। ‘मैला आँचल’ का कथानक एक युवा […]

मैला आँचल प्रथम भाग खंड6-12/फणीश्वरनाथ रेणु

छह बालदेव जी को रात में नींद नहीं आती है। मठ से लौटने में देर हो गई थी। लौटकर सुना, खेलावन भैया की तबियत खराब है; आँगन में सोये हैं। यदि कोई आँगन में सोया रहे तो समझ लेना चाहिए कि तबियत खराब हुई है, बुखार हुआ है या सरदी लगी है अथवा सिरदर्द कर […]

मैला आँचल प्रथम भाग खंड13-17/फणीश्वरनाथ रेणु

तेरह गाँव के ग्रह अच्छे नहीं ! सिर्फ जोतखी जी नहीं, गाँव के सभी मातबर लोग मन-ही-मन सोच-विचार कर देख रहे हैं-गाँव के ग्रह अच्छे नहीं ! तहसीलदार साहब को स्टेट के सर्किल मैनेजर ने बुलाकर एकान्त में कहा है, “एक साल का भी खजाना जिन लोगों के पास बकाया है, उन पर चुपचाप नालिश […]

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