1. युग विषाद
गरज रहा उर व्यथा भार से
गीत बन रहा रोदन,
आज तुम्हारी करुणा के हित
कातर धरती का मन !
मौन प्रार्थना करता अंतर,
मर्म कामना भरती मर्मर,
युग संध्या : जीवन विषाद से
आहत प्राण समीरण !
जलता मन मेघों का सा घर
स्वप्नों की ज्वाला लिपटा कर
दूर, क्षितिज के पार दीखती
रेख क्षितिज की नूतन !
बढ़ते अगणित चरण निरंतर
दुर्दम आकांक्षा के पग धर,
खुलता बाहर तम कपाट,
भीतर प्रकाश का तोरण !
श्रांत रक्त से लथपथ जन मन,
नव प्रभात का यह स्वर्णिम क्षण,
युग युग का खंडहर जग करता
अभिनव शोमा धारण !
2. युग छाया
दारुण मेघ घटा घहराई,
युग संध्या गहराई !
आज धरा प्रांगण पर भीषण
झूल रही परछांई ।
तुम विनाश के रथ पर आओ,
गत युग का हत शव ले जाओ,
गीध टूटते श्वान भूँकते,
रोते शिवा विदाई !
मनुज रक्त से पंकिल युग पथ
पूर्ण हुए सब दैत्य मनोरथ,
स्वर्ग रुधिर से अभिषेकित अब
नव युग की अरुणाई !
नाचेगा जब शोणित चेतन,
बदलेगा तब युग निरुद्ध मन,
कट मर जाएँगे युग दानव,
सुर नर होंगे भाई !
ज्ञात मर्त्य की मुझे विवशता,
जन्म ले रही नव मानवता,
स्वप्न द्वार फिर खोल उषा ने
स्वर्ण विभा बरसाई !
3. युग संघर्ष
गीत क्रांत रे इस युग के कवि का मन,
नृत्य मत्त उसके छंदों का यौवन !
वह हँस हँस कर चीर रहा तम के घन
मुरली का मधुरव भर करता गर्जन !
नवल चेतना से उसका उर ज्योतित,
मानव के अंतर वैभव से विस्मित !
युग विग्रह में उसे दीखती बिम्बित
विगत युगों की रुद्ध चेतना सीमित !
उसका जाग्रत मन करता दिग् घोषण,
अंतर्मानव का यह युग संघर्षण !
शोषक हैं इस ओर, उधर हैं शोषित,
बाह्य चेतना के प्रतीक जो निश्चित !
धनिकों श्रमिकों का स्वरूप धर बाहर
ह्रास शक्तियाँ आत्म नाश हित तत्पर,
क्षोभ भरे युग शिखर उमड़ते दुर्धर
टकराता भू ज्वार : क्षुब्ध भव सागर !
नृत्य कर रही क्रांति रक्त लहरों पर,
घृणा द्वेष की उठीं आंधियाँ दुस्तर !
कौन रोक सकता उद्वेग प्रलयकर,
मर्त्यों की परवशता, मिटते कट मर !
महा सृजन की तड़ित् टूटती दु:सह
अंधकार भू का विदीर्ण कर दुर्वह !
युग युग की जड़ता कंप उठती थर थर
आज स्वप्न प्रज्वलित चकित रे अंतर !
नव्य चेतना का विरोध करते जन,
यह जड़त्व भू मन का अंध पुरातन,
आज मनोजग में जन के भय संशय
द्वेष प्रेम का देता पहिला परिचय !
संभव है, नभ में छाएँ करुणा घन
अंतर मन में भर जाए युग क्रंदन,
बरसाए उर भू पर आभा के कण
द्रोही मानव के प्रति विद्रोही बन ।
ध्यान मौन आराधक, साधक, गायक,
सोच मग्न रे मनोजगत के नायक,
आंदोलित मानवता के अभिभावक,
विश्व क्रांति यह : आपद् काल भयानक !
……………………………….
रक्त पूत अब धरा : शांत संघर्षण,
धनिक श्रमिक मृत : तर्क वाद निश्चेतन !
सौम्य शिष्ट मानवता अंतर्लोचन
सृजन-मौन करती धरती पर विचरण !
उज्जवल मस्तक पर मुक्ता-से श्रम क्या,
शांत धीर मन से करती वह चिन्तन,
भू जीवन निर्माण निरत, नव चेतन
साधारण रे वास वसन, मित भोजन !
4. गीत विहग
मैं नव मानवता का संदेश सुनाता,
स्वाधीन लोक की गौरव गाथा गाता,
मैं मन:क्षितिज के पार मौन शाश्वत की
प्रज्वलित भूमि का ज्योतिवाह बन आता !
युग के खंडहर पर डाल सुनहली छाया,
मैं नव प्रभात के नभ में उठ मुसकाता,
जीवन पतझर में जन मन की डालों पर
मैं नव मधु के ज्वाला पल्लव सुलगाता !
आदेशों से उद्वेलित जन सागर में
नव स्वप्नों के शिखरों का ज्वार उठाता,
जब शिशिर क्रांत, वन-रोदन करना भू मन,
युग पिक वन प्राणों का पावक बरसाता !
मिटती के पैरों से भन-क्लाँत जनों को
स्वप्नों के चरणों पर चलना सिखलाता,
तापों की छाया से कलुषित अंतर को
उन्मुक्त प्रकृति का शोभा वक्ष दिखाता !
जीवन मन के भेदों में सोई मति को
मैं आत्म एकता में अनिमेष जगाता,
तम पंगु बहिर्मुख जग में बिखरे मन को
मैं अंतर सोपानों पर ऊर्ध्व चढ़ाता ।
आदर्शों के मरु जल से दग्ध मृगों को
मैं स्वर्गंगा स्मित अंतरिक्ष बतलाता,
जन जन को नव मानवता में जाग्रत् कर
मैं मुक्त कंठ जीवन रण शंख बजाता !
मैं गीत विहग, निज मर्त्य नीड़ से उड़ कर
चेतना गगन में मन के पर फैलाता,
मैं अपने अंतर का प्रकाश बरसा कर
जीवन के तम को स्वर्णिम कर नहलाता !
मैं स्वर्दूतों को बाँध मनोभावों में
जन जीवन का नित उनको अंग बनाता,
मैं मानव प्रेमी, नव भू स्वर्ग बना कर
जन धरणी पर देवों का विभव लुटाता !
मैं जन्म मरण के द्वारों से बाहर कर
मानव को उसका अमरासन दे जाता,
मैं दिव्य चेतना का संदेश सुनाता,
स्वाधीन भूमि का नव्य जागरण गाता !
5. जगत घन
जब जब घिरे जगत घन मुझ पर
करूँ तुम्हारा चिन्तन,
ढंक जाए जय अंतर्नभ मैं
करूँ प्रतीक्षा गोपन !
जब तम की छाया गहराए,
मानस में संशय लहराए,
युग विषाद का भार वहन कर
तुम्हें पुकारूँ प्रतिक्षण !
तुम तम का आवरण उठाओ,
करुणा कोमल मुख दिखलाओ,
मेरे भू मन की छाया को
निज उर में कर धारण !
तुम्हें करूँ जन मन दुख अर्पण,
आत्मदान दे भरूँ धरा व्रण,
भू विपाद गर्जन से, उर में
बरसें नव चेतन कण !
जो बाहर जीवन संघर्षण,
जो भीतर कटु पीड़ा का क्षण,
वह तुममें संतुलन ग्रहण कर
बने उन्नयन नृतन !
6. अंतर्व्यथा
ज्योति द्रवित हो, हे घन !
छाया संशय का तम,
तृष्णा भरती गर्जन,
ममता विद्युत् नर्तन
करती उर में प्रतिक्षण !
करुणा धारा में झर
स्नेह अश्रु बरसा कर,
व्यथा भार उर का हर
शति करो आकुल मन !
तुम अंतर के क्रंदन
अकथनीय चिर गोपन,
मंद्र स्वनित भर चेतन
करो अनिष्ट निवारण !
घट घट वासी जलधर,
तुमको ज्ञात निरंतर
अंतर का दुख नि:स्वर,
करता जो नव सर्जन !
मन से ऊपर उठ कर,
विचर ऊर्ध्व शिखरों पर
स्वर्गिक आभा से भर
उनरो बन नव जीवन ।
खोलो उर वातायन
थाएँ स्वर्ग किरण छन,
भू स्वप्नों का नूतन
रचें इंद्रधनु मोहन !
7. आगमन
मौन गुंजरण जगना मन में,
मर्मर धूपछाँह के वन में !
आज भर गया प्राण समीरण
स्वर्ग मधुरिमा से रे नूतन,
दिखलाता जीवन प्रभात मुख
खोल क्षितिज उर का वातायन
लोक जागरण के इस क्षण में !
मन के भीतर का मन गाता,
स्वर्ग धरा में नहीं समाता,
स्वप्नों का आवेश ज्वार उठ
विश्व सत्य के पुलिन डुबाता,
लहरा शाश्वत के जीवन में !
आज आ रहा लहर लहर पर
डूब रहे युग युग के अंतर,
यह अंतर्मन का आँदोलन,
असुर जूझते, जीतते अमर,–
धरा चेतना के प्रांगण में !
कहाँ बढ़ाते भीत जन चरण ?
हुआ समापन बाहर का रण ।
स्वर्ग चेतना के शोणित से
लथपथ आज मर्त्य भू का मन,-
मरते जड़, जग नव चेतन में ।
8. मौन सृजन
मौन आज क्यों वीणा के स्वर ?
इम नीरवता में तुम गोपन
कौन रच रहे नूतन गायन ?
स्तब्ध हृदय कंपन में जगते
आशा भय, संशय जय थर थर !
स्वप्नों से मुँद जाते लोचन,
आकुल रहस प्रभावों से मन,
प्राणों में कैसा आकर्षण
बहता जाने सुख से मंथर !
तुम शाश्वत शोभा के मधुवन,
शिशिर निदान जहाँ रहते क्षण,
आज हदय के चिर यौवन बन
भरते प्रिय, अंतर्मुख मर्मर ।
रंगों में गाता कुसुमाकर,
सौरभ में मलयानिल नि:स्वर,
नील मौन में गाता अंबर;
ध्यान लीन सुख स्पर्श पा अमर !
शोभा में गाते लोचन लय,
प्राण प्रीति के मधु में तन्मय,
रस के बस, उल्लास में अभय
गाता उर भीतर ही भीतर !
मौन आज क्यों वीणा के स्वर?
9. युग विराग
भू की ममता मिटती जाती
मेघों की छाया सी चंचल,
सुख सपने सौरभ-से उड़ते
झरते उर के रंगों के दल !
पुंछतीं स्मृति पट की रेखाएँ
धुलते जाते सुख दुख के क्षण,
चेतना समीरण सी बहती
बिखरा ओसों के संचित कण !
वह रही राग में नहीं जलन
कुछ बदल गया उर के भीतर,
को गया कामना का घनत्व
रीते घट सा अब जग बाहर!
यह रे विराग की विजय भूमि
मन प्राणों के साधन के स्तर,
तुम खोल स्वप्न का रहस द्वार,-
जो आते भीतर आज उतर,-
हँस उठता उर का अंधकार
नव जीवन शोभा में दीपित,
भू पुलिन डुबाता स्वर्ग ज्वार,
रहता कुछ भी न अचिर, सीमित !
फिर प्रीति विचरती धरती पर
झरती पग पग पर सुंदरता,
बंधन बन जाते प्रेम मुक्ति
देव प्रिय होती नश्वरता !
10. मेघों के पर्वत
यह मेघों की चल भूमि घोर
बह रहे जहाँ उनचास पवन,
तुम बसा सकोगे यहाँ कभी
क्या मानव का गृह, मनोभवन ?
जन जन का मन करता गर्जन
बरसातीं चितवन विद्युत् कण,
टकराते दुर्दम फेन शिखर
सागर सा उफनाता भू मन !
यह विश्व शक्तियों की क्रीड़ा
गत छायाएँ बनतीं चेतन,
जन मन विमूढ़ जिनका वाहक
बढ़ता जाता युग संघर्षण !
पर्वत पर पर्वत खड़े भीम,
अड़ते तृष्णा, अज्ञान, अहं,
उन्मथित धरा-चेतना सिन्धु
आंदोलित अवचेतन का तम !
मन स्वर्ग – शिखर पर मँडराता
उर में गहराता नव जीवन,
वह अंतर आभा से स्वर्णिम
झरता भू पर, स्वप्नों का घन !
11. मनोमय
तुम हँसते हँसते घृणा बन गए मन में,
जन मंगल हित हे !
अब काटों जग का अंधकार
भू के पापों का विषम भार,
मेटो मानव का अहंकार
चिर संचित तुम्हें समर्पित हे,
युग परिवर्तन में !
तुम तपते तपते द्वेष वन गए मन में,
जन मंगल हित हे ।
अब करो जीर्ण से संघर्षण,
फिर हरो धरा मन के बंधन,
युग की जड़ता हो नव चेतन
गति दो नूतन को इच्छित हे,
जगजीवन रण में !
तुम सहते सहते रोष बन गए मन में,
जन मंगल हित हे !
फिर मृत्यु भीत जन हों निर्भय,
मन प्राण ले सकें नव निर्णय,
उर करे नहीं तुम पर संशय
तुम घट घट वासी परिचित हे,
चिर जन्म मरण में !
फिर प्रेम, बनो तुम न्याय, क्षमा मन मन में,
जन मंगल हित हे !
मानव अंतर हो भू विस्तृत
नव मानवता में भव विकसित,
जन मन हो नव चेतना ग्रथित
जीवन शोभा हो कुसुमित हे
फिर दिशि क्षण में ।
तुम देव, बनो चिर दया, प्रेम जन जन में,
जग मंगल हित हे !
12. जीवन उत्सव
अरुणोदय नव, लोकोदय नव !
मंगल ध्वनि हर्षित जन मंदिर
गूँज रहा अंबर में मधुरव !
स्वणोंदय नव, सर्वोदय नव !
रजत झांझ-से बजते तरुदल
स्वर्णिम निर्झर झरते कल कल,
मुखर तुम्हारे पग पायल
यह भू जीवन शोभा का उत्सव !
स्वप्न ज्वाल धरणी का अंचल,
अंधकार उर रहा आज जल,
स्वर्ण द्रवित हो रही चेतना
विजय दीप्त अब विश्व पराभव !
हरित पीत छायाएँ सुंदर
लोट रहीं धरती की रज पर,
स्वर्णारुण आभाएँ झर झर
लुटा रहीं अंबर का वैभव !
ईंगुर रंग के खिलते पल्लव
उर में भर स्वप्नों का मार्दव,
रक्तोज्जवल यौवन प्ररोह में
फूट रहा वसुधा का शैशव !
यह जीवन मंगल का गायन,
यह संघर्षण निरत पुरातन
जन युग के कटु हाहारव में
मानव युग का होता उद्भव !
13. काव्य चेतना
तुम रजत वाष्प के अंबर से
बरसातीं शुभ्र सुनहली झर,
शोभा की लपटों में लिपटा
मेघों का माया कल्पित घर ।
सुर प्रेरित ज्वालाएँ कंपतीं
फहरा आभाएँ आभा पर,
शत रोहितप्रभ छायाओं से
भर जाना तड़ित् चकित अंतर !
सुषमा की पंखुडियाँ खुलतीं
फैला रहस्य स्पर्शों के दल,
भावों के मोहित पुलिनों पर
छाया प्रकाश बहता प्रतिपल !
सतरंगे शिखरों पर उठ गिर
उड़ता शशि सूरज सा उज्जवल,
चेतना ज्वाल सी चंद्र विभा
चू पड़ती प्राणों में शीतल !
14. विजय
मैं चिर श्रद्धा लेकर आई
वह साध बनी प्रिय परिचय में,
मैं भक्ति हृदय में भर लाई,
वह प्रीति बनी उर परिणय में।
जिज्ञासा से था आकुल मन
वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं,
विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण
आधार पा गई निश्चय मैं !
प्राणों की तृष्णा हुई लीन
स्वप्नों के गोपन संचय में
संशय भय मोह विषाद हीन
लज्जा करुणा में निर्भय मैं !
लज्जा जाने कब बनी मान,
अधिकार मिला कब अनुनय में
पूजन आराधन बने गान
कैसे, कब? करती विस्मय मैं !
उर करुणा के हित था कातर
सम्मान पा गई अक्षय मैं,
पापों अभिशापों की थी घर
वरदान बनी मंगलमय मैं !
बाधा-विरोध अनुकूल बने
अंतर्चेतन अरुणोदय में,
पथ भूल विहँस मृदु फूल बने
मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में।