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मधुज्वाल/सुमित्रानंदन पंत

प्रिय बच्चन को जीवन की मर्मर छाया में नीड़ रच अमर, गाए तुमने स्वप्न रँगे मधु के मोहक स्वर, यौवन के कवि, काव्य काकली पट में स्वर्णिम सुख दुख के ध्वनि वर्णों की चल धूप छाँह भर! घुमड़ रहा था ऊपर गरज जगत संघर्षण, उमड़ रहा था नीचे जीवन वारिधि क्रंदन; अमृत हृदय में, गरल […]

खादी के फूल/सुमित्रानंदन पंत

1. अंतर्धान हुआ फिर देव विचर धरती पर अंतर्धान हुआ फिर देव विचर धरती पर, स्वर्ग रुधिर से मर्त्यलोक की रज को रँगकर! टूट गया तारा, अंतिम आभा का दे वर, जीर्ण जाति मन के खँडहर का अंधकार हर! अंतर्मुख हो गई चेतना दिव्य अनामय मानस लहरों पर शतदल सी हँस ज्योतिर्मय! मनुजों में मिल […]

उत्तरा/सुमित्रानंदन पंत

1. युग विषाद गरज रहा उर व्यथा भार से गीत बन रहा रोदन, आज तुम्हारी करुणा के हित कातर धरती का मन ! मौन प्रार्थना करता अंतर, मर्म कामना भरती मर्मर, युग संध्या : जीवन विषाद से आहत प्राण समीरण ! जलता मन मेघों का सा घर स्वप्नों की ज्वाला लिपटा कर दूर, क्षितिज के […]

युगपथ/सुमित्रानंदन पंत

1. भारत गीत जय जन भारत, जन मन अभिमत, जन गण तंत्र विधाता ! गौरव भाल हिमालय उज्जवल हृदय हार गंगा जल, कटि विन्धयाचल, सिन्धु चरण तल महिमा शाश्वत गाता ! हरे खेत, लहरे नद निर्झर, जीवन शोभा उर्वर, विश्व कर्म रत कोटि बाहु कर अगणित पद ध्रुव पथ पर ! प्रथम सभ्यता ज्ञाता, साम […]

अतिमा/सुमित्रानंदन पंत

1. गीतों का दर्पण यदि मरणोन्मुख वर्तमान से ऊब गया हो कटु मन, उठते हों न निराश लौह पग रुद्ध श्वास हो जीवन ! रिक्त बालुका यंत्र,…खिसक हो चुके सुनहले सब क्षण, क्यों यादों में बंदी हो सिसक रहा उर स्पन्दन ! तो मेरे गीतों में देखो नव भविष्य की झाँकी, नि:स्वर शिखरों पर उड़ता […]

स्वर्णकिरण/सुमित्रानंदन पंत

1. भू लता घने कुहासे के भीतर लतिका दी एक दिखाई, आधी थी फूलों में पुलकित, आधी वह कुम्हलाई । एक डाल पर गाती थी पिक मधुर प्रणय के गायन, मकड़ी के जाले में बंदी अपर डाल का जीवन । इधर हरे पत्ते यात्री को देते मर्मर छाया, उधर खडी कंकाल मात्र सूनी डालों की […]

युगवाणी/सुमित्रानंदन पंत

बदली का प्रभात निशि के तम में झर झर हलकी जल की फूही धरती को कर गई सजल । अंधियाली में छन कर निर्मल जल की फूही तृण तरु को कर उज्जवल ! बीती रात,… धूमिल सजल प्रभात वृष्टि शून्य, नव स्नात । अलस, उनींदा सा जग, कोमलाभ, दृग सुभग ! कहाँ मनुज को अवसर […]

कला और बूढ़ा/सुमित्रानंदन पंत

बूढ़ा चाँद बूढ़ा चांद कला की गोरी बाहों में क्षण भर सोया है । यह अमृत कला है शोभा असि, वह बूढ़ा प्रहरी प्रेम की ढाल । हाथी दांत की स्‍वप्‍नों की मीनार सुलभ नहीं,- न सही । ओ बाहरी खोखली समते, नाग दंतों विष दंतों की खेती मत उगा। राख की ढेरी से ढंका […]

स्वर्णधूलि/सुमित्रानंदन पंत

मुझे असत् से मुझे असत् से ले जाओ हे सत्य ओर मुझे तमस से उठा, दिखाओ ज्योति छोर, मुझे मृत्यु से बचा, बनाओ अमृत भोर! बार बार आकर अंतर में हे चिर परिचित, दक्षिण मुख से, रुद्र, करो मेरी रक्षा नित! स्वर्णधूलि स्वर्ण बालुका किसने बरसा दी रे जगती के मरुथल मे, सिकता पर स्वर्णांकित […]

युगांत/सुमित्रानंदन पंत

1. द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण! हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत, तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!! निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग! जग-नीड़, शब्द औ’ श्वास-हीन, च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम झर-झर अनन्त में हो विलीन! कंकाल-जाल जग में फैले फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली! प्राणों की मर्मर से मुखरित जीव की मांसल हरियाली! […]

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