पच्चीस
बावनदास आजकल उदास रहा करता है।
“दासी जी, चुन्नी गुसाईं का क्या समाचार है ?” रात में बालदेव जी सोने के समय बावनदास से बातें करते हैं।
“चुन्नी गुसाईं तो सोसलिट पाटी में चला गया।”
बालदेव जी आश्चर्य से मुँह फाड़कर देखते ही रह जाते हैं।
“बालदेव जी भाई, अचरज की बात नहीं। भगवान जो करते हैं अच्छा करते हैं।”
“याद है दास जी, चन्ननपट्टी की सभा, तैवारी जी का लेक्चर और तनुकलाल का गीत ! याद करके आज भी रोवाँ कलप उठता है।…गंगा रे जमुनवाँ की धार…।”
“लेकिन भारथमाता अब भी रो रही हैं बालदेव !” बावनदास को नींद आ रही है।
बालदेव जी चमक उठते हैं। भारथमाता अब भी रो रही हैं ? ऐं ?…क्या कहता है बावनदास ?
बावनदास करवट लेते हुए कहता है, “बिलैती कपड़ा के पिकेटिंग के जमाने में चानमल-सागरमल के गोला पर पिकेटिंग के दिन क्या हुआ था, सो याद है तुमको बालदेव ? चानमल मड़बाड़ी के बेटा सागरमल ने अपने हाथों सभी भोलटियरों को पीटा था; जेहल में भोलटियरों को रखने के लिए सरकार को खर्चा दिया था। वही सागरमल आज नरपतनगर थाना कांग्रेस का सभापति है। और सुनोगे ?…दुलारचन्द कापरा को जानते हो न? वही जुआ कम्पनीवाला, एक बार नेपाली लड़कियों को भगाकर लाते समय जो जोगबनी में पकड़ा गया था। वह कटहा थाना का सिकरेटरी है।…भारथमाता और भी, जार-बेजार रो रही हैं।
बालदेव जी को आश्चर्य होता है। वह बावनदास से बहस करना चाहता है। लेकिन बावन तो खर्राटा लेने लगा।…बालदेव जी के समझ में कोई बात नहीं आ रही है।…भारथमाता जार-बेजार रो रही हैं ?…
बावनदास, चुन्नी गुसाईं और बालदेव जी ! तीनों ने एक ही दिन इस संसार के माया-मोह को त्यागकर सुराजी में नाम लिखाया था।
गृहस्थ चुन्नी गुसाईं ! चार बीघे जमीन, दो-चार आम-कटहल के पेड़, एक गाय और दो छोटे-छोटे लड़कों का एकमात्र अभिभावक। स्वभाव से धर्मभीरु। चन्दनपट्टी में सभा देखने गया। तैवारी जी ने भाखन दिया और तनुकलाल ने गीत गाया। सभी रोने लगे। चुन्नीदास के मन का मैल भी आँसुओं की धारा में बह गया। उसी दिन सुराजी में नाम लिखा गया। चर्खा-कर्घा, झंडा-तिरंगा और खद्दर को छोड़कर सभी चीजें मिथ्या हैं। सुदेशी बाना, विदेशी बैकाठ !
अरे देसवा के सब धन-धान विदेसवा में जाए रहे।
मँहगी पड़त हर साल कृसक अकुलाय रहे।
दुहाई गाँधी बाबा !…गाँधी बाबा अकेले क्या करें ! देश के हरेक आदमी का कर्तव्य है…।
का करें गाँधी जी अकेले, तिलक परलोक बसे,
कवन सरोजनी के आस अबहिं परदेस रही।
दुहाई गाँधी बाबा। चुन्नीदास को अपने शरण में ले लो प्रभु !…विदेशी कपड़ा बैकाठ…नीमक कानून…जेल। गाँजा-दारू छोड़िए प्यारे भाइयो…जेल। व्यक्तिगत सत्याग्रह…जेल। 1942…जेल।…सब मिलकर दस बार जेल-यात्रा कर चुका है चुन्नी गुसाईं !
और वह सोसलिट पाटी में चला गया ?
बावनदास !
पूर्वजन्म का फल अथवा सिरजनहार की मर्जी। प्रकृति की भूल अथवा थायराएड, , थायमस और प्युटिटिरी ग्लैंड्स के हेर-फेर ! डेढ़ हाथ की ऊँचाई ! साँवला रंग, मोटे होंठ, अचरज में डाल देनेवाली दाढ़ी और चौंका देनेवाली मोटी-भोंड़ी आवाज। ऊँचाई के हिसाब से आवाज दसगुना भारी। अजीब चाल, मानो लुढ़क रहा हो। अज्ञात कुलशील । जन्मजात साधू। जिस ओर होकर गुजरता, लोगों की निगाहें बरबस अटक जातीं। फिर ताज्जुब की हँसी-मुस्कराहट। पीछे-पीछे बच्चों का हुजूम, तमाशा; कुत्ते भुंकते, इंसान हँसते ! गर्भवती औरतें छिप जातीं अथवा छिपा दी जाती !…और जब भगवान ने उसे चलता-फिरता तमाशा ही बनाकर भेजा है, लोग उसे देखकर खुश हो लेते हैं तो क्यों न वह पारिश्रमिक माँग ले।…दे-दे मैया कुछ खाने को ! भगवान भला करेंगे। सेत्ताराम, सेत्ताराम !
चन्दनपट्टी की उस सभा में, तैवारी जी के भाखन और तनुकलाल के गीत ने इस डेढ़ हाथ के आदमी को ही झकझोर दिया था।…न जाने पूर्वजन्म के किस पाप का फल भोग रहा हूँ। क्या होगा यह सरीर रखकर ? चढ़ा दो गाँधी बाबा के चरण में, भारथमाता की खातिर !
अरे देसवा के खातिर मजहरुलहक भइलै फकिरवा से
दी भइलै राजेन्दरप्रसाद देशवासियो !
और वह तो फकीर ही है।…चुन्नी गुसाईं ने नाम लिखा लिया ? मेरा भी नाम लिख लिया जाए।-रामकिसुनबाबू की स्त्री उसे देखते ही चिल्ला उठी थी-भगवान। “बावन भगवान !”-उन्होंने पूर्णिया आने के लिए कहा था।
सेत्ताराम ! सेत्ताराम ! बन्देमहातरम् ! बन्देमहातरम् !
जिले की राजनीति के जनक रामकिसुनबाबू के बँगले पर वह जिस समय हाजिर हुआ, उस समय पुलिस की लौरी खड़ी थी। दारोगा साहब इन्तिजार कर रहे थे। रामकिसुनबाबू अपना आभारानी को जरूरी हिदायतें दे रहे थे।
बन्दे महातरम् ! बन्दे महातरम् !
“तुमि जाओ ! आमार जन्ये भेबो ना। ओई याखो, भगवान आमार काछे निजेई ऐसे गेछेन।” आभारानी की आँखें आनन्द से चमक उठी थीं।
आभारानी ने बावनदास को ‘भगवान’ छोड़कर किसी दूसरे नाम से कभी नहीं पुकारा।
कुछ दिनों बाद आभारानी भी गिरफ्तार हुईं। बावन भी पकड़ा गया। पुलिस ने एकाटा डंडा लगाकर उसे भगा देना चाहा, पर पहले ही डंडे की चोट को आभारानी ने झपटकर अपने शरीर पर ले लिया तो पुलिस के पाँव के नीचे की मिट्टी खिसक गई थी।…“आमार भगवान के मारो ना…।” खून से लथपथ खादी की सफेद साड़ी। पत्थर को भी पिघला देनेवाली, करुणा से भरी बोली, ‘आमार भगवान ! बावन के पूर्वजन्म के सारे पाप मानो अचानक ही पुण्य में बदल गए। सूखे ढूँठ में नई कोंपल लग गई। उसके मुँह से मोटी आवाज निकली थी-“माँ !”
माँ ! महात्मा गाँधी जी भी आभारानी को माँ ही कहते। 1934 में भूकम्प पीड़ित क्षेत्रों के दौरे पर जब बापू आए थे, साथ में थे रामकिसुनबाबू, आभारानी और बावनदास। बावनदास के बिना आभारानी एक डग भी कहीं नहीं जा सकतीं। गाँधी जी हँसकर बोले थे, “माँ, तुम्हारे भगवान से ईर्ष्या होती है।”…दन्तहीन, पोपले मुँह की वह पवित्र हँसी, बच्चों की हँसी जैसी !
फुलकाहा बाजार ! लाखों की भीड़। ऊँचा मंच… महात्मा गाँधी की जय !… रह-रहकर आकाश हिल उठता है। जय ! फिर आकाश हिलता है। रेलमपेल ! पुष्पवृष्टि…….चरणधूलि ! सीटी…स्वयंसेवक। कॉर्डन डालो…घेरा…घेरा !
मंच पर आगे-आगे रामकिसुनबाबू, आभारानी के कन्धे का सहारा लिए गाँधी जी।…वही गाँधी जी !…जै !…जै…आभारानी हाथ का सहारा देकर फिर किसी को मंच पर चढ़ा रही हैं ? कौन है वह ?…अरे बावनदास ! बौना !…गाँधी जी तर्जनी से सबों को शान्त रहने के लिए कह रहे हैं।…लाखों की भीड़ में बावनदास बँजड़ी बजाकर गाता है ‘एक राम-नाम धन साँचा जग में कछु न बाँचा हो!’ आवाज दूर तक नहीं पहुँचती। लेकिन बावनदास ! डेढ़ हाथ ऊँचा यह ‘झर-आदमी’ कितना बड़ा हो गया है ! महात्मा जी भीख माँगते हैं। हरिजनों के लिए दान दीजिए ! रुपए की थैली, सोने की अंगूठी, चेन, बुताम, हार, कंगन, अठन्नी, चवन्नी, दुअन्नी, अकन्नी, पत्थर का टुकड़ा। किन्तु सबकुछ देकर भी बावनदास से बड़ा होना असम्भव।
बावनदास को मानो कुबेर का भंडार मिल गया; ठूँठ के कोंपल नवपल्लव हो गए…बापू !
1937। पंडित जवाहरलाल नेहरू चुनाव के तूफानी दौरे पर आए हैं। बावनदास को देखकर ताज्जुब की मुद्रा बनाकर कुछ देर तक देखते ही रह गए। फिर ललाट पर बल और नाक पर अँगुली डालते हुए, गांगुली जी से अंग्रेजी में बोले, “आई रिमेंबर दि नेम ऑफ दैट बुक।” (मुझे उस किताब का नाम याद नहीं आ रहा है)।
“किंग ऑफ दि गोल्डन रिवर !” गांगुली जी ने छूटते ही जवाब दिया। फिर दोनों एक ही साथ हँस पड़े।
अब बावनदास भजन ही नहीं गाता, बिख्यान देना भी सीख गया है। वह बोलने को उठता है। माइक-स्टैंड काफी ऊँचा है। ऑपरेटर हैरान है। जल्दीबाजी में वह क्या करे ? कभी ऊँचा कभी नीचा करता है, फिर भी बावनदास से काफी ऊँचा है माइक-स्टैंड। नेहरू जी बड़ी फुर्ती से उठकर जाते हैं, माइक खोलकर हाथ में ले लेते हैं। झुककर बावनदास के मुँह के पास ले जाते हैं, “बोलिए !” जनता हँसती है। बावन जरा घबरा जाता है। नेहरू जी मुस्कराकर उसके गले में माला डाल देते हैं, “बोलिए।” प्रेस रिपोर्टरों के कीमती कैमरों के बटन एक ही साथ ‘क्लिक-क्लिक’ कर उठे थे। ‘नैशनल हेरल्ड’ के मुखपृष्ठ पर बड़ी-सी तस्वीर छपी थी-बावनदास के गले में माला है, नेहरू जी हाथ में माइक लेकर झुके हुए हैं, मुस्करा रहे हैं। तस्वीर के ऊपर लिखा हुआ था, ‘माइक ऑपरेटर नेहरू !’
अगस्त 1942 । कचहरी पर चढ़ाई। धाँय-धाँय। पुलिस हवाई फायर करती है। लोग भाग रहे हैं। बावनदास ललकारता है, जनता उलटकर देखती है। डेढ़ हाथ का इंसान सीना ताने खड़ा है।…’बम्बई से आई आवाज !’…जनता लौटती है। बावनदास पुलिसवालों के पाँवों के बीच से घेरे के उस पार चला जाता है और विजयी तिरंगा शान से लहरा उठता है।…महात्मा गाँधी की जय !
बावन को गाँधी जी जानते हैं, नेहरू जी जानते हैं और राजेन्द्रबाबू भी पहचानते हैं। प्रान्त-भर के लीडर और राजनीतिक कार्यकर्ता जानते हैं। कैम्प जेल में सुपरिटेंडेंट की बदनामी के खिलाफ कैदियों ने सामूहिक अनशन किया था। अन्त तक बावनदास ‘ और चुन्नी गुसाईं ही टिके रहे थे ! पच्चीस दिन का अनशन ! रदरफोर्ड और आर्चर ने इन दोनों को ‘देखने माँगा’ था। गाँधी जी की कठोर परीक्षा में, सत्य की परीक्षा में, सत्याग्रह की परीक्षा में, खरे उतरनेवाले दो कुरूप और भद्दे इंसान !
‘सुराजी’ में नाम लिखने के बाद सिर्फ दो बार बावन को माया ने अपने मोहजाल में फँसाने की कोशिश की थी। दोनों बार वह चेत गया था। मोहफाँस में फँसते-फँसते वह बच गया था।…महात्मा जी की कृपा !
एक बार रामकिसुनबाबू ने सिमरबनी से मुठिया में वसूल हुआ चावल लाने को भेजा था-“चावल बेचकर रुपया ले आना।” पाँच रुपए तीन आने। लौटती बार सिमराहा स्टेशन बाजार में जगमोहन साह की दूकान पर वह दही-चूड़ा खाने गया था। जगमोहन साह जलेबियाँ छान रहा था और सहुआइन जलेबियों को रस में डुबो रही थी। बावनदास के मन में बहुत देर तक रस में डूबी जलेबियाँ चक्कर काटती रहीं।…पथराहा के फागूबाबू ने अपने बाप के श्राद्ध में कंगाल भोजन कराया था। एक युग हो गया, बावन ने फिर जलेबी नहीं चखी। आखिर बावनदास ने दही-चूड़ा पर दो आने की जलेबियाँ ले ली।
लेकिन पेट में पहुँचने के बाद उसे अचानक ज्ञान हुआ। उसकी आँखों के आगे से माया का पर्दा उठ गया।…ये पैसे ? मुठिया ?…उसकी आँखों के सामने गाँव की औरतों की तस्वीरें नाचने लगीं।…हाँडी में चावल डालने के पहले, परम भक्ति और श्रद्धा से, एक मुट्ठी चावल गाँधी बाबा के नाम पर निकालकर रख रही हैं। कूट-पीसकर जो मजदूरी मिली है, उसमें से एक मुट्ठी ! भूखे बच्चों का पेट काटकर एक मुट्ठी ! और बावन ने उस पैसे से अपनी जीभ का स्वाद मिटाया ?…क्तभंग ! तपभ्रष्ट !…दुहाई गाँधी बाबा ! छिमा करो ! बावन फूट-फूटकर रोने लगा। उसकी आँखों से आँसू झड़ रहे थे और वह कंठ में अँगुलियाँ डालकर कै करता जाता था !…सेत्ताराम ! सेत्ताराम ! दो दिनों का उपवास ! आत्मशुद्धि, प्रायश्चित्त ! रामकिसुनबाबू ने बहुत समझाया, आभारानी परोसी हुई थाली लेकर सामने बैठी रहीं, लेकिन बावन ने उपवास नहीं तोड़ा।…”माँ, इस अपवित्तर मन को दंड देने से मत रोको। अशुद्ध आतमा मुझे बाबा की राह से डिगा देगी !”
माया का दूसरा फन्दा…
नमक कानून तोड़ने के समय श्रीमती तारावती देवी पटना से आई थीं। उनकी बोली में मानो जादू था। वह जहाँ जातीं, लोग उनके भाषण सुनने के लिए उमड़ पड़ते थे।…जवान औरत ! सिर पर पूँघट नहीं। भगवती दुर्गा की तरह तेजी से जल-जल करती है, सरकार को पानी-पानी कर देती है। “मुट्ठी-भर अंग्रेजों को हम नाच नचा देंगे। गोली, सूली और फाँसी का डर नहीं।” पुलिस-दारोगा डर से थर-थर काँपते हैं। “…अंग्रेजों के जूठे पत्तल चाटनेवाले ये हिन्दुस्तानी कुत्ते ?” जरूर उसमें भगवती का अंश है। सभा खत्म होने के बाद उनके निवास स्थान पर भी भीड़ लग जाती थी। बहुत-सी बाँझ-निपुत्तर औरतें चरण-धूलि लेने आती थीं। भगवती ! उनके खाने-पीने और आराम करने के समय भी लोग जमे रहते थे। आखिर स्वयंसेवकों के पहरे का प्रबन्ध करना पड़ा था।
एक दिन चन्दनपट्टी आश्रम में, दोपहर को तारावती जी बिछावन पर आराम कर रही थीं। सामने के दरवाजे पर पर्दा पड़ा हुआ था और पर्दे के इस पार ड्यूटी पर बावनदास। फागुन की दोपहरी। आम की मंजरियों का ताजा सुवास लेकर बहती हुई हवा पर्दे को हिला-हिलाकर अन्दर पहुँच जाती थी। तारावती जी की आँखें लग गईं। बावन ने हिलते-डुलते पर्दे के फाँक से यों ही जरा झाँककर देखा था। उसका कलेजा धक् कर उठा था, मानो किसी ने उसे जोर से पीछे की ओर धकेल दिया हो।…धीरे-धीरे पर्दे को हिलानेवाली फागुन की आवारा हवा ने बावन के दिल को भी हिलाना शुरू कर दिया। बावन ने एक बार चारों ओर झाँककर देखा, फिर पर्दे के पास खिसक गया ! झाँका। चारों ओर देखा और तब देखता ही रह गया मन्त्र-मुग्ध-सा !…पलँग पर अलसाई सोई जवान औरत ! बिखरे हुए घुघराले बाल, छाती पर से सरकी हुई साड़ी, खद्दर की खुली हुई अँगिया !…कोकटी खादी के बटन !…आश्रम की फुलवारी का अंग्रेजी फूल ‘गमफोरना’, पाँचू राउत का बकरा रोज आकर टप-टप फूलों को खा जाता है।…बावन ङ्केके पैर थरथराते हैं। यह आगे बढ़ा चाहता है।..वह जानता है ! वह इस औरत के कपड़े को फाड़कर चित्थी-चित्थी कर देना चाहता है। वह अपने तेज़ नाखूनों से उसके देह को चीर-फाड़ डालेगा। वह एक चीख सुनना चाहता है। वह अपने जबड़ों से पकड़कर उसे झकझोरेगा। वह मार डालेगा इस जवान गोरी औरत को। वह खून करेगा।…ऐं ! सामने की खिड़की से कौन झाँकता है ? गाँधी जी की तस्वीर ! दीवार पर गाँधी जी की तस्वीर ! हाथ जोड़कर हँस रहे हैं बापू !…बाबा ! धधकती हुई आग पर एक घड़ा पानी ! बाबा, छिमा ! छिमा ! दो घड़े पानी ! दुहाई बापू ! पानी पानी, पानी ! शीतल जल ! ठंडक… !
बावन आँखें खोलता है। रामकिसुनबाबू पानी की पट्टी दे रहे हैं। माँ पंखा झल रही हैं। गांगुली जी चुपचाप खड़े हैं और घबराई हुई तारावती कह रही हैं, “चीख सुनकर मेरी नींद खुली तो देखा यह धरती पर छटपटा रहा है।”
दूसरे दिन आभारानी एक गिलास टमाटर का रस देते हुए बोली थीं, “भगवान, आज थेके तोमाय रोज एक गिलास ऐई रस, आर रात्रे दुध खेते हबे।”
लेकिन, बावन तो सात दिनों का उपवास-व्रत ले चुका था। आत्मशुद्धि, इन्द्रियशुद्धि, प्रायश्चित्त ! आभारानी ने गांगुली के पास जाकर धीरे-धीरे सारी कहानी, सुना दी-“गांगुली जी ! आप माँ को समझा दीजिए। मैं व्रत तोड़ नहीं सकता। कल माया ने…!”
गांगुली जी ने हँसते हुए आभारानी से कहा था, “भगवानेर व्रत-भंग हउबा असम्भव। कारण गुरुतर। तबे आपनार भाग्य भालो जे बेचारा के सूरदासेर कथा मने पड़े नि, नईले एतखन आर भगवानेर चोख थाकतो ना” (भगवान का व्रत-भंग होना असम्भव है। आपका भाग्य अच्छा है कि उन्हें सूरदास की बात याद नहीं आई, वरना अब तक भगवान की आँखें नहीं रहतीं।)
आभारानी अवाक् होकर गांगुली जी की ओर देखती रह गई थीं, “की जानी बापू ?”
देवताओं और मन्दिरों के नगर, बनारस में रहकर भी आभारानी को सबसे पहले अपने ‘भगवान’ की याद आती है। कभी-कभी गांगुली जी के नाम मनीआर्डर आता है, “भगवानेर कापड़ेर जन्य।…भगवानेर दूधेर जन्य।”
…और वही बावनदास कहता है, भारथमाता जार-बेजार हो रही हैं !
बालदेव जी को लछमी दासिन की याद आती है।…वह भी रो रही थी।
…लेकिन कालीचरन ? सोसलिट पाटी !…
बालदेव निराश नहीं होगा। उसे नींद नहीं आ रही है। बहुत खटमल हैं।…हाँ, वह कल बावनदास से पूछेगा, यदि घर में खटमल ज्यादा हो जाएँ तो क्या घर में ही आग लगा देनी चाहिए?
छब्बीस
बाबू हरगौरीसिंह राज पारबंगा के नए तहसीलदार बहाल हुए। ‘बेतार का खबर’ सुमरितदास सबों को कहता है, “देखो-देखो, कायस्थ के जूठे पत्तल में राजपूत खा रहा है। तहसीलदार विश्वनाथबाबू को राज पारबंगा के कुमार साहेब ने बुलाकर बहुत समझाया-बुझाया, लेकिन तहसीलदार ने कहा, थूक फेंककर चाटना आदमी का काम नहीं।…तहसीलदारी में अब क्या मजा है ! अब तो यह सूखी हड्डी है।”
वास्तव में अब तहसीलदारी में कोई मजा नहीं रह गया है। जमाना बदल गया है। तहसीलदार साहब के बाप देवनाथ मल्लिक सिर्फ पाँच रुपए माहवारी पर बहाल हुए थे। लेकिन ऊपरी आमदनी ? तीन साल बीतते-बीतते अस्सी-नब्बे बीघे धनहर (धान की खेतीवाली) जमीन के मालिक बन गए थे। आदमी की ऊपरी आमदनी ही असल आमदनी है। और तहसीलदारी रोब का क्या पूछना ! तहसीलदार के खेत में मजदूरी करनेवालों को कभी मजदूरी नहीं मिलती थी। राज पारबंगा के राजा तो तिरहुत में रहते थे, उन्हें किसी ने कभी देखा भी नहीं। असल राजा तो बूढ़े देवनाथ मल्लिक ही थे। उस समय कटिहार शहर ठिकाने से बसा भी नहीं था। बूढ़े तहसीलदार साहब अपने सलीमशाही जूतों के तल्ले में ही काँटियाँ पुरैनियाँ से ठुकवाकर मँगाते थे और तीन महीने में ही काँटियाँ झड़ जाती थीं। सुनते हैं, वे बोलते बहुत कम थे, कान से कुछ कम सुनते थे; और जब बोलते थे तो ‘…मारो साले को दस जूता।’ कमला नदी के बगल में जो गड्ढा है, उसी में जोंक पालकर रखा था। जिसने तहरीर, तलबाना या नजराना देने में देर की, उसे गड्ढे में चार घंटे तक खड़ा करवा दिया। पाँव के अँगूठे से लेकर जाँघ तक मोटे-मोटे जोंक घुघरू की तरह लटक जाते थे।…वह जमाना तो बूढ़े तहसीलदार के साथ ही चला गया।
“जब नीलकाठी के साहबों के भी जुल्म से ऊबकर जगह-जगह किसानों ने बलवा करना शुरू किया तो जमींदारों ने अपने तहसीलदार और पटवारियों को गुप्त रूप से हिदायत दी, ज्यादा जोर-जुल्म मत करो !”
विश्वनाथबाबू ने भी अच्छी तरह ही निभाया। रैयतों पर विशेष जोर-जुल्म करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। उनके पूर्वजों ने रैयतों के दिल और दिमाग पर तहसीलदार की ऐसी धाक जमा रखी थी कि उन्हें विशेष कुछ नहीं करना पड़ता था। कहावत मशहूर थी, जमदूत थोड़ा मुहलत भी दे सकता है, पर तहसीलदार नहीं। हर बार तमादी के पहले जनरल मैनेजर डफ साहब का खीमा आता था। खीमा आने के पहले ही बगैर जोत-जमीनवाले आदमी भी गाँव छोड़कर नेपाल के जिले मोरंग भग जाते थे।…कोठी के बगीचे में पचासों छोटे-बड़े तम्बू और शामियाने तान दिए जाते थे। पचास सिपाही, चार हाथी, मोटरगाड़ी, खानसामा, बावर्ची, नाई और धोबी। पाँच गाँव की बैलगाड़ियों पर खीमे के सामान लदकर आते थे।
इलाके-भर के बदमाश और टेढ़े लोगों की फेहरिस्त तहसीलदार पहले ही बनाकर रखते थे। सुमरितदास मोटे असामियों को चुपचाप एकान्त में ले जाकर खबर सुना देता था-तुम्हारा नाम तो फेहरिस्त में सबसे ऊपर है !
..ऐं ? सबसे ऊपर ? सुननेवालों पर मानो वज्र गिर पड़ता था।…जैसे भी हो, नाम तो कटाना ही होगा!
फ़ेहरिस्त बनाने के समय तहसीलदार साहब सुमरितदास की भी राय लेते थे। सुमरितदास साल-भर की घटनाएँ याद करते हुए लिखाता था-“हाँ, अनन्त पर्व के दिन रनजीत दूध लाने के लिए गया था तो गुअरटोली के सतकौड़ी ने झूठ बोलकर बर्तन वापस कर दिया था-भैंस सूख गई। कुंजरटोली के फरजन्दमियाँ ने करैला नहीं दिया था-।” तहसीलदार साहब ऐसे लोगों के नाम याद करते जिन्होंने राज के मुकद्दमों में गवाही देने से इनकार किया; दाखिल-खारिज करवाकर तहसीलदार का नजराना हड़प गया, किन लोगों को पैसे की गर्मी हो गई है, कौन राह चलते ऐंठकर चलते हैं और पंचायत में उनके सिपाहियों के विरुद्ध किन लोगों ने गवाहियाँ दी थीं।
डफसाहब खजाना-वसूली से ज्यादा महत्त्व देते थे राज के रोब को। राज का रोब ही असल चीज है। उनका कहना था-“अमारा स्टेट में एक भी बडमाश को अम नहीं देखने माँगटा। टुम अमारा टेसीलडार को जूठा बोला। अमारा अमला जूठा ? टुम साला का बच्चा सच्चा ?”
“चेंटरू मांडल।”
“माय-बाप !” हाथ जोड़े एक अर्धनग्न आदमी थर-थर काँपता हुआ खड़ा हुआ।
“टुम मुकडमा में गुआई क्यों नई डिया ?”
“माय-बाप… !”
“फँ…माय-बाप का बच्चा ! सिपाय, चाबुक डेगा।”
शपाक् ! शपाक् ! शपाक् !…कोड़े बरसने लगते।
“सिं। टुम चेटरी आए ? राचपट आए ? टुम अमारा टेसीलडार से नेई जीट सकेगा। हम टुमको बेज्जट करेगा। बडमाश…।”
और इसके बाद साल-भर तक इलाके में अमन-चैन का राज ! तहसीलदार साहब के डर से लोग थर-थर काँपते रहते थे। लेकिन अब ? जमाना बदला ही नहीं है, साफ उलट गया है।
सिंघ जी ने बहुत कोशिश पैरवी करके हरगौरीसिंह को तहसीलदारी दिला दी है। मैनेजर साहब को पूरे चार सौ रुपए की सलामी दी गई है। सुना है, बही-बस्ता लेते समय ही छींक पड़ गई है। अब नए तहसीलदार की तहसीलदारी कैसी चलती है, देखना है।
राजपूतटोली का बच्चा-बच्चा खुश है। शिवशक्करसिंह सबों से कहते हैं, “हरगौरी एक किलास और पढ़ लेता तो मनेजरी धरी थी…”
काली कुर्तीवाले संयोजक जी बौद्धिक क्लास में समझा रहे हैं-“जिस तरह यह तहसीलदारी कायस्तों के हाथ से राजपूतों के हाथ में आई है, उसी तरह सारे आर्यावर्त के राजकाज का भार हिन्दुओं के हाथ में आएगा। और उस दिन आर्यावर्त के कोने-कोने में हिन्दू-राज की पताका लहराएगी।”
जोतखी जी सलाह देते हैं- “बिना लछमी की पूजा किए बही-बस्ता में हाथ नहीं लगाया जाए। शुक्रवार को शुभ दिन है। कार्यारम्भ, यात्रा, गृहनिर्माण आदि।”
बालदेव जी को बार-बार अपने सपने की बात याद आती है-विशाल सभा, हरगौरी माला पहना रहा है लछमी को।
कॉमरेड कालीचरन और बासुदेव अपनी पार्टी के मेम्बरों से कहते हैं, “पुराने तहसीलदार यदि नागनाथ थे तो यह नया तहसीलदार साँपनाथ है। दोनों में कोई फर्क नहीं। दोनों ही जालिम जमींदार के कठपुतले हैं। सोशलिस्ट पार्टी के सिक्रेटरी साहब ने कहा है, लोग संघर्ष के लिए तैयार रहें।”
बावनदास के लिए यह गाँव नया है, गाँव के लोग नए हैं। वह अभी चुप है। न जाने क्यों , उसका जी जाने क्यों, उसका जी नहीं लमता है। चरखा सेंटर में सिर्फ चरखा-कर्घा ही नहीं, बूढ़े लोगों को रात में पढ़ाया भी जाता है। औरतों और बच्चों को मास्टरनी जी पढ़ाती हैं और बूढ़ों को मास्टर जी। बूढ़ा विरंचीदास दस दिनों से ‘क ख ग घ, पढ़ रहा है, लेकिन ‘क’ के बदले ‘ग’ से ही ककहरा शुरू करता है…ग घ क ख’ । मास्टर जी हैरान हैं…क्या सचमुच ही बूढ़ा तोता पोस नहीं मानता ?
सत्ताईस
डाक्टर की जिन्दगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। उसने प्रेम, प्यार और स्नेह को बायोलॉजी के सिद्धान्तों से ही हमेशा मापने की कोशिश की थी। वह हँसकर कहा करता, “दिल नाम की कोई चीज आदमी के शरीर में है, हमें नहीं मालूम। पता नहीं आदमी ‘लंग्स’ को दिल कहता है या ‘हार्ट’ को। जो भी हो, ‘हार्ट’ ‘लंग्स’ या ‘लीवर’ का प्रेम से कोई सम्बन्ध नहीं है।”
अब वह यह मानने को तैयार है कि आदमी का दिल होता है, शरीर को चीर-फाड़कर जिसे हम नहीं पा सकते हैं। वह ‘हार्ट’ नहीं वह अगम अगोचर जैसी चीज है, जिसमें दर्द होता है, लेकिन जिसकी दवा ‘ऐड्रिलिन’ नहीं। उस दर्द को मिटा दो, आदमी जानवर हो जाएगा।…दिल वह मन्दिर है जिसमें आदमी के अन्दर का देवता बास : करता है।
बचपन से ही वह अपने जन्म की कहानी को कभी भूल नहीं सका। प्रत्येक इतिहास पर गौरव करनेवाले युग में पले हुए हर व्यक्ति को अपने खानदान की ऐसी कहानी चाहिए जिसके उजाले से वह दुनिया में चकाचौंध पैदा कर दे। लेकिन डाक्टर के वंश-इतिहास पर काली रोशनाई पुती हुई है-जेल की सेंसर की हुई चिट्ठियों की तरह। काली रोशनाई से किसी हिस्से को इस तरह पोत दिया जाता है कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि उस हिस्से में कभी कुछ लिखा हुआ था।…जन्म देनेवाली माँ ने भी जिसे दूर कर दिया।…अँधेरे में एक अभागिन माँ, दिल का दर्द और भयावनी छाया आकर हाथ बढ़ाती है, माँ अन्तिम बार अपने कलेजे के टुकड़े को, रक्त के पिंड को, एक पलक निहारती है, चूमती है। भयावनी छाया उसके हाथ से शिशु को छीन लेती है। माँ दाँतों से ओठ दबाए खड़ी रह जाती है !
डाक्टर ने अपनी माँ के स्नेह को, अँधेरे में खड़ी ‘सल्हुटेड’ तस्वीर-सी माँ के दुलार की कीमत को, समझने की चेष्टा की है। वह गला टीपकर मार भी तो सकती थी। खटमल को मसलने के लिए अंगुलियों पर जितना जोर डालना पड़ता है, उस पाँच घंटे की उम्र के शिशु की जीवन-लीला समाप्त करने के लिए उतने-से जोर की ही आवश्यकता थी। माँ ऐसा नहीं कर सकी।…शायद उसने चेष्टा की होगी। गले पर एक-दो बार अँगुलियाँ गई होंगी। सोया हुआ शिशु मुस्करा पड़ा होगा और वह उसे सहलाने लगी होगी।…उसने अपनी बेबस, लाचार और अभागिनी माँ के मन में उठनेवाले तूफान के झकोरे की कल्पना की है।…वह अपनी माँ के पवित्र स्नेह का; अपराजित प्यार का जीता-जागता प्रमाण है !
किसी भी अभागिन माँ की कहानी सुनते ही वह मन-ही-मन उसकी भक्ति करने लगता है। पतिता, निर्वासित और समाज की दृष्टि में सबसे नीच माँ की गोद में वह क्षण-भर के लिए अपना सिर रखने के लिए व्याकुल हो जाता है।…किसी स्त्री को प्रेमिका के रूप में कभी देखने की चेष्टा उसने नहीं की। वह मन-ही-मन बीमार हो गया था। एक जवान आदमी को शारीरिक भूख नहीं लगे तो वह निश्चय ही बीमार है, अथवा ‘ऍब्नॉर्मल’ है।
डाक्टर ने एक नए मोड़ पर मुड़कर देखा, दुनिया कितनी सुन्दर है !
वह लोक-कल्याण करना चाहता है। मनुष्य के जीवन को क्षय करनेवाले रोगों के मूल का पता लगाकर नई दवा का आविष्कार करेगा। रोग के कीड़े नष्ट हो जाएंगे, इंसान स्वस्थ हो जाएगा। दुनिया भर के मेडिकल कालेजों में उसके नाम की चर्चा होगी। ‘प्रशान्त मेथड’, ‘प्रशान्त रिऐक्शन’ । डब्ल्यू.आर. की तरह पी.आर. कहेंगे लोग। इसके बाद !…’टेस्टट्यूब बेबी’ किसे माँ कहेगा ? तब शायद माँ एक हास्यास्पद शब्द बनकर रह जाएगा।…जानते हो, पहले माँ हुआ करती थीं ?…एक अर्धनग्न से भी कुछ आगे लड़की, ‘टेली-काफ’ के द्वारा अमेरिकन पेस्ट्री का घर बैठे स्वाद लेती हुई मुड़कर ३ कहेगी-‘प्रीटेस्ट ट्यूब एज ? सि-सि !…म्वाँ ! ट्यूब म्वाँ !’
…माँ ! माँ वसुन्धरा, धरती माता ! माँ अपने पुत्र को नहीं मार सकी, लेकिन पुत्र अपनी माँ को गला टीपकर मार देगा। शस्य श्यामला !..
भारतमाता ग्रामवासिनी !
खेतों में फैला है श्यामल,
धूल भरा मैला-सा आँचल !
मैला आँचल ! लेकिन धरती माता अभी स्वर्णांचला है ! गेहूँ की सुनहली बालियों से भरे हुए खेतों में पुरवैया हवा लहरें पैदा करती है। सारे गाँव के लोग खेतों में हैं। मानो सोने की नदी में, कमर-भर सुनहले पानी में सारे गाँव के लोग क्रीड़ा कर रहे हैं। सुनहली लहरें ! ताड़ के पेड़ों की पंक्तियाँ झरबेरी का जंगल, कोठी का बाग, कमल के पत्तों से भरे हुए कमला नदी के गड्ढे ! डाक्टर को सभी चीजें नई लगती हैं। कोयल की कूक ने डाक्टर के दिल में कभी हूक पैदा नहीं की। किन्तु खेतों में गेहूँ काटते हुए मजदूरों की ‘चैती’ में आधी रात को कूकनेवाली कोयल के गले की मिठास का अनुभव वह करने लगा है।
सब दिन बोले कोयली भोर भिनसरवा…वा…वा
बैरिन कोयलिया, आजु बोलय आधी रतिया हो रामा…आँ…आँ
सूतल पिया के जगावे हो रामा…आँ…आँ
किसी के पिया की नींद न टूट जाए ! गहरी नींद में सोए हुए पिया के सिरहाने पंखा झलती हुई धानी को डर है, पिया की नींद न खुल जाए; सपना न टूट जाए !
डाक्टर भी किसी की दुलार-भरी मीठी थपकियों के सहारे सो जाना चाहता है, गहरी नींद में खो जाना चाहता है। जिन्दगी की जिस डगर पर बेतहाशा दौड़ रहा था, उसके अगल-बगल, आस-पास, कहीं क्षणभर सुस्ताने के लिए कोई छाँव नहीं मिली। उसने किसी पेड़ की डाली की शीतल छाया की कल्पना भी नहीं की थी। जीवन की इस नई पगडंडी पर पाँव रखते ही उसे बड़े जोरों की थकावट मालूम हो रही है। वह राह की खूबसूरती पर मुग्ध होकर छाँह में पड़ा नहीं रह सकेगा। मंजिल तक पहुँचने का यह कितना जबरदस्त रास्ता है जो राही को मंजिल तक पहुँचाने की प्रेरणा देता है !…वह क्षण-भर सुस्ताने के लिए उदार छाया चाहता है। प्यार !…
सूतल पिया के जगावे हो रामा !
पिया जग गए, धानी ने पिया को बिदाई दी। पिया को जाना है। हिमालय की चोटी को उषा की प्रथम किरण ने छूकर स्वर्णिम कर दिया। आम के बागों में कोयल-कोयली, दहियल और बुलबुल ने सम्मिलित सुर में मंगल-गीत गाए ! खेतों से गीत की कड़ियाँ पुरवैया के सहारे उड़ती आती हैं और डाक्टर के दिल में हलचल मचा जाती हैं।…गेहूँ की काटनी हो रही है। झुनाई हुई रव्वी की फसल की सोंधी सुगन्ध चारों ओर फैल रही है।
“डाक्टर साहब !”
“क्या है?”
“जरा चलिए। मेरी बहन को के हो रही है।”
“पेट भी चलता है ?”
“जी!”
डाक्टर तुरत तैयार होकर चल देता है। पास के ही गाँव में जाना है।…डॉयरिया होगा। लेकिन ‘सेलाइन ऐपरेटस’ भी ले लेना अच्छा होगा।
“तीस बार पेट चला है ?”
बिछावन पर पड़ी हुई युवती पीली पड़ गई है। उसके हाथ-पाँव अकड़ रहे हैं। पेशाब बन्द है। हैजा ही है। डाक्टर ‘सेलाइन ऐपरेटस’ ठीक करता है। स्पिरिट स्टोव जलाता है, नार्मल-सेलाइन की बोतल निकालता है। बूढ़ा बाप हाथ जोड़कर कुछ कहना चाहता है, और आखिर कह ही डालता है, “डाक्टर साहब, यह जो जकसैन दे रहे हैं इसका कितना होगा ?”
छोटे जकसैन का फीस तो दो रुपया है। इतने बड़े जकसैन का तो जरूर पचास रुपया होगा।
“क्यों ? पचास रुपया,” डाक्टर मुस्कराता है।
“तो रहने दीजिए। कोई दवा ही दे दीजिए।”
“दवा से कोई फायदा नहीं होगा।”
“लेकिन मेरे पास इतने रुपए कहाँ हैं ?”
“बैल बेच डालो,” डाक्टर पहले की तरह मुस्कराते हुए सेलाइन देने की तैयारी कर रहा है।
“डाक्टरबाबू, बैल बेच दूंगा तो खेती कैसे करूँगा ? बाल-बच्चे भूखों मर जाएँगे।…लड़की की बीमारी है।”
“क्या मतलब ?”
“हुजूर, लड़की की जात बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती है !”
…लड़की की जाति बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती है ! लेकिन बेचारे बूढ़े का इसमें कोई दोष नहीं। सभ्य कहलानेवाले समाज में भी लड़कियाँ बला की पैदाइश समझी जाती हैं। जंगल-झार !
डिग-डिग, डिडिग-डिडिग !
“…कल सुबह को इसपिताल में हैजा की सुई दी जाएगी। सभी लोग-बाल-बच्चे, बूढ़े-जवान, औरत-मर्द-आकर सूई ले लें।”…डिग-डिग डिडिग ! गाँव का चौकीदार ढोलहा दे रहा है।
हैजा के पहले रोगी को बचा लिया गया, लेकिन गाँव को नहीं बचाया जा सकता। डाक्टर ने ढोल दिलवाकर लोगों को सूई लेने की खबर दी, लेकिन कोई नहीं आया। ‘कुआँ में दवा डालने के समय लोगों ने दल बाँधकर विरोध किया-“चालाकी रहने दो ! डाक्टर कूपों में दवा डालकर सारे गाँव में हैजा फैलाना चाहता है। खूब समझते हैं !”
डाक्टर ने बालदेव जी, कालीचरन और चरखा-सेंटर के लोगों को खबर देकर बुलवाया। सहायता माँगी, “यदि लोगों ने सूई नहीं लगवाई और कुओं में दवा नहीं डालने दी तो एक भी गाँव को बचाना मुश्किल होगा।”
दोपहर को बालदेव जी, कालीचरन और चरखा-सेंटर के मास्टर-मास्टरनी जी डाक्टर साहब के साथ दल बाँधकर निकले और कुओं में दवा डाल दी गई। सूई देने की समस्या जटिल थी। कालीचरन ने कहा, “एक बात ! आज कोठी का हाट है। हाट लगते ही चारों ओर घेर लिया जाए और सबों को जबर्दस्ती सुई दी जाए ! जो लोग बाकी बची रहेंगे, उन्हें घर पर पकड़कर दी जाए।”
डाक्टर को यह सुझाव अच्छा लगा, लेकिन बालदेव जी ने एतराज किया, “किसी की इच्छा के खिलाफ जोर-जबर्दस्ती करना…”
“क्या बेमतलब की बात बोलते हैं,” चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी बालदेव जी की बात काटते हुए बोली, “कालीचरन जी ठीक कहते हैं।”
बालदेव जी की कनपट्टी गर्म हो जाती है।…यह औरत बोलने का ढंग भी नहीं जानती ! नारी का सुभाव करकस नहीं होना चाहिए। कोठारिन जी कितनी मीठी बोली बोलती हैं। और यह तो मर्दाना औरत है। चरखा-सेंटर की मास्टरनी ! हूँ ! बहुत महिला कांग्रेसी को देखा है-माये जी, तारावती देवी, सरस्सती, उखादेवी, सरधादेवी। लेकिन कोई तो इतना करकस नहीं बोलती थी।…हुँ ! कालीचरन जी ठीक कहते हैं !…जबर्दस्ती करना हिंसाबाद नहीं तो और क्या है ?
कालीचरन के दलवालों ने हाट को घेर लिया है। डाक्टर साहब आम के पेड़ के नीचे टेबल पर अपना पूरा सामान रखकर तैयार हैं। कालीचरन एक-एक आदमी को पकड़कर लाता है, मास्टरनी जी स्पिरिट में भिगोई हुई रुई बाँह पर मल देती हैं और डाक्टर साहब सूई गड़ा देते हैं। तहसीलदार साहब नाम लिखते जाते हैं। हाट में भगदड़ मची हुई है। लेकिन भगकर किधर जाओगे ? चारों ओर सुस्लिंग पाटी का सिपाही खड़ा है।
“माई गे ! माई गे ! हे बेटा काली !”
“क्यों, रोती क्यों है ?”
“हे बेटा !”
“सारी देह में गोदना गोदाने के समय देह में सई नहीं गड़ी थी। चलो !”
सात सौ पचास लोगों को सूई दे दी गई है। अब जो लोग घर में रह गए हैं, उन्हें कल सुबह ही सूरज उगने के पहले ही दे देनी होगी।
डाक्टर साहब कहते हैं, “बीमारों की सेवा के लिए स्वयंसेवक चाहिए।”
कालीचरन अपने दल के साठ स्वयंसेवकों के साथ रात को अस्पताल में दाखिल हो जाएगा।
चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी बड़ी निडर हैं। वह भी सेवा करने के लिए अपना नाम लिखाती हैं।
बावनदास हँसकर कहता है, “मुझे देखकर तो रोगी लोग डर जाएँगे डाक्टर साहब, मुझे और कोई काम दीजिए !”
बालदेव जी चुप हैं। उनको हैजा का बहुत डर है।
अट्ठाईस
डाक्टर आदमी नहीं, देवता है देवता !
तन्त्रिमाटोली, पोलियाटोली, कुर्मछत्रीटोली और रैदासटोली में सब मिलाकर सिर्फ पाँच आदमी नुकसान हुए। घर-घर में एक-दो आदमी बीमार थे, लेकिन डाक्टर देवता है। दिन-रात, कभी एक पल चैन से नहीं बैठा। मास्टरनी जी भी देवी हैं। कालीचरन भी बहादुर है। कै और दस्त से भरे बिछावन पर लेटे हुए रोगी की सेवा करना, कपड़े धोना, दवा डालकर गन्दगी जलाना आदमी का काम नहीं, देवता ही कर सकते हैं। एक पैसा भी फीस नहीं लिया और मुफ्त में रात-रात-भर जगकर लोगों का इलाज करते रहे। रेसमलाल कोयरी के इकलौते बेटे को जम के मुँह से छुड़ा लिया। रेसम ने डाक्टर को खुशी-खुशी एक गाय बक्सीस दी, लेकिन डाक्टर साहब ने कहा, “अपने लड़के को इस ; गाय का दूध पिलाओ। दूध बिक्री मत करो। यही हमारी बक्सीस है।”
बावनदास भी अवतारी आदमी हैं। रात-भर नीम के पेड़ के नीचे बैठकर खंजरी बजाकर गाते रहते थे…”मालिक सीताराम सोच मन काहे करो ! सेत्ताराम ! सेत्ताराम ! बन्दे महातरम् !…मालिक सीताराम !”
भयावनी रात में, जबकि आदमी अपनी छाया से डरते थे, बावन का गीत डरे हुए लोगों को बल देता था…’मालिक सीताराम सोच मन काह करो।…निर्बल के बल राम !’
ब्राह्मणटोली में तीन आदमी मरे। और जोतखी जी की स्त्री तो दूसरी बीमारी से मरी। बच्चा अटक गया।…कायस्थटोली, संथालटोली और यादवटोली में एक भी आदमी बीमार नहीं हुआ। राजपूतटोली में पाँच-सात आदमी को रोग ने पकड़ा, लेकिन डाक्टर साहब ने सबों को बचा लिया। पन्द्रह दिनों के बाद कमली ने डाक्टर की सूरत देखी है।
कमली ने मन-ही-मन कितनी बातें गढ़ रखी थीं। वह रूठी रहेगी, बोलेगी नहीं।…पन्द्रह दिनों में एक बार भी तो आते ! रहने दीजिए, यही होता न कि रोग का छूत मुझे लग जाता। मैं मर जाती। आपका क्या बिगड़ता ? चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी जो थीं !…रात-भर खूब चाय बनाकर पिलाती थीं न ?
लेकिन डाक्टर को देखते ही वह सबकुछ भूल गई। डाक्टर का चेहरा एकदम काला हो गया है। आँखें धंस गई हैं। प्यारू ठीक ही कहता था, “डाक्टर साहब दुनिया भर को आराम कर रहे हैं, लेकिन खुद बीमार होते जा रहे हैं। खाना-पीना तो एकदम कम हो गया है।”…कमली चाहती है कि माँ थोड़ी देर के लिए डाक्टर को अकेला छोड़ दे। आज वह डाक्टर से लिपट जाएगी।
“कहिए हैजा डाक्टर साहब !” कमली हँसते हुए डाक्टर के पास जाती है।
“हैजा डाक्टर ? सुनिए लड़की की बात जरा ! मैं पूछती हूँ तुमसे कि तुम दिन-दिन क्या होती जा रही हो ?” माँ डाँटते हुए कहती है।
“वाह रे ! रामपूर के बटैयादार लोग उस दिन आकर बाबूजी से पूछ रहे थे कि हैजा डाक्टर कहाँ रहता है। सुना था नहीं। लोग इन्हें हैजा डाक्टर ही कहते हैं।” कमला खिलखिलाकर हँसती है।
माँ हँसते हुए चली जाती है। डाक्टर मुस्कराते हुए कहता है, “लोग हैजा डाक्टर कहते हैं, लेकिन तुमको तो कहना चाहिए बेहोशी डाक्टर !”
“अहा-हा ! बेहोशी डाक्टर की सूरत तो आज पन्द्रह दिनों बाद दूज के चाँद की तरह देखने को मिली है और बात बनाते हैं !” कमली मुँह फुलाती है।
“नहीं कमली, इस बीच मुझे बराबर यही डर लगा रहता था कि यदि तुमने कुछ गड़बड़ी पैदा की तो क्या होगा।”
“तो मैं जान-बूझकर बेहोश होती हूँ, क्यों ?”
“हाँ, जान-बूझकर।”
“क्यों ?”
“क्योंकि बेहोश होने से ही बेहोशी डाक्टर आता है।”
“ऊँ ! डाक्टर आवे न आवे मेरी बला से !”
“अच्छी बात है, तो मैं चला।”
“डाक्टर साहब इतने दिनों बाद आए हैं, चाय बना देगी, सो तो नहीं, बैठकर झगड़ा कर रही है।” माँ अन्दर से ही कहती है।
कमली दाँत से जीभ को दबाते हुए उठ भागती है-माँ सब सुन रही थी शायद।
डाक्टर ने इस बार आस-पास के पन्द्रह गाँवों का परिचय प्राप्त किया है; भयातुर इंसानों को देखा है, बीमार और निराश लोगों की आँखों की भाषा को समझने की चेष्टा की है। उसे मध्यवित्त किसानों की अन्दर हवेली और बेजमीन मजदूरों की झोंपड़ियों में आने का सौभाग्य या दुर्भाग्य प्राप्त हुआ है। रोगियों को देखकर उठते समय, छींके पर टॅगी हुई खाली मिट्टी की हाँड़ियों से उसका सिर टकराया है। सात महीने के बच्चे को बथुआ और पाट के साग पर पलते देखा है। उसने देखा है…गरीबी, गन्दगी और जहालत से भरी हुई दुनिया में भी सुन्दरता जन्म लेती है। किशोर-किशोरियों और युवतियों के चेहरे पर एक विशेषता देखी है उसने। कमला नदी के गड्ढों में खिले हुए कमल के फूलों की तरह जिन्दगी के भोर में वे बड़े लुभावने, बड़े मनोहर और सुन्दर दिखाई पड़ते हैं, किन्तु ज्यों ही सूरज की गर्मी तेज हुई, वे कुम्हला जाते हैं। शाम होने से पहले ही पपड़ियाँ झड़ जाती हैं !…कश्मीर के कमल और पूर्णिया के कमल में शायद यही फर्क है।…और कमली तो राजकमल !
“मैं तुम्हें राजकमल कहूँगा।”
“और मैं तुम्हें प्रशान्त महासागर कहूँगी।” कमला ने आज अनजाने ही ‘तुम’ कह दिया।
“प्रशान्त महासागर में राजकमल नहीं खिलता, मैं कमला नदी का गड्ढा ही होना पसन्द करूँगा।” डाक्टर हँसता है।
कमली की बड़ी-बड़ी आँखों की पलकें एक बार ऊपर उठकर झुक गई।
“तुमने मुझे आज तक अपना अस्पताल क्यों नहीं दिखलाया ? तुम्हारे चूहे, खरगोश, सियार और नेवले…”
“माँ और बाबूजी तुम्हें अस्पताल जाने देंगे ?”
“क्यों नहीं ?”
“तो आज ही चलो, अभी।”
कमली डाक्टर के साथ अस्पताल की ओर जा रही है। चैत का सूरज पच्छिम की ओर निष्प्राण-सा, पूर्णिमा के उगते हुए चाँद का-सा मालूम हो रहा है। दिन-भर धू-धूकर चलनेवाली पछिया हवा गिर गई है।
गाँव के पनघट पर स्त्रियों की भीड़ आँखें फाड़कर इन दोनों को देखती है, झगड़े बन्द हो जाते हैं, पानी भरना रुक जाता है। नजर से ओझल होने के बाद फिर सबों के मुँह से अपनी-अपनी राय निकलती है।…कमली अब आराम हो गई। डाक्टर साहब ने इसको बचा लिया।…दोनों की जोड़ी कैसी अच्छी है ! सतलरैना बैसकोप का एक किताब लाया है, उसमें ऐसी ही एक जोड़ी की छापी है, ठीक ऐसी ही !…डाक्टर भी कायस्थ है क्या ? कौन जात है? क्या जाने बाबा, इलाज करते-करते कहीं…! क्या बकती है-सिर की गर्मी शाम को मैदान की हवा में ठंडी होती है, जानती नहीं ? मौसी ने जब जुगलजोड़ी देखी तो उसके हाथ स्वयं ही आँचल के छूट पर चले गए। आँचल पसारकर मन-ही-मन बोली, “दुहाई कमला मैया !”
गणेश पास ही गुल्ली खेल रहा था। वह जोर-जोर से चिल्लाया…
पूलव से छाहेब आया
पच्छिम छे मेम
छाहेब बोले गिटिल-पिटिल
खिल-खिल हँछे मेम !
कमला और डाक्टर ने उलटकर देखा। गणेश ताली बजाकर हँस रहा था, “देखो ! नानी, छाहेब-मेम।”
दोनों ने हँसते हुए मौसी को प्रणाम किया। गणेश भागकर मामी के आँचल में छिप जाता है। कमली चिल्लाकर कहती है, “अच्छा, ठहरिए गोबर गणेश जी ! अभी लौटती हूँ तो कान पकड़कर चाँद दिखाऊँगी।”
तहसीलदार साहेब रास्ते में ही मिले। हँसते हुए बोले, “आज शायद यही पागलपन सवार हुआ था !…अच्छी बात है, सुबह-शाम की हवा में बहुत गुण हैं।”
सभी एक ही साथ हँस पड़े।
कोठी के बाग में गुलमुहर की बड़ी-बड़ी डालियाँ, लाल-लाल फूलों से जलती हुई, हवा के हल्के झोंकों में हिल-डुल रही थीं। अमलतास के पीले फूल नववधू की पीली ओढ़नी की याद दिला रहे थे। योजन-गन्धा शाम की हवा में पागलपन बिखेर रही थी। शिरीष के फूलों की पंखुड़ियाँ मंगलआशीष की तरह झड़ रही थीं।…मार्टिन ने बड़े जतन से फूल लगाए थे। बाग लगाते समय उसने ऐसी ही शामों की कल्पना की होगी-बाँहों में पड़ी हुई मेरी के लाल होंठों की ताजगी को और भी प्राणमय बनाने के लिए। पानी पटानेवाले मालियों पर वह कड़कते हुए बोला होगा-‘डेको ! एक भी गाछ सूखने पर पचास बेंट डेगा।’
चैत की गोधूली में अपनी सारी तेजी खोकर सूरज ने श्याम-सलोनी संध्या के आँचल में अपना मुँह छिपा लिया था। दूर तक फैली हुई ताड़ों की पंक्तियाँ, कुछ । मटमैली, कुछ सिन्दूरी-सी पृष्ठभूमि में गर्दन ऊँची करके सूरज को अतल गहराई में डूबते हुए देख रही थीं। गाय और बैलों के साथ घर लौटते हुए चरवाहे सावित्री-नाच का गीत गा रहे थे…
आहे सखी चलू फुलवारी देखे हे
देखिबो सुन्दर रूप
नाना रसना फूल अनूप,
चलू फुलवारी देखे हे !
गुलमुहर के लाल-लाल फूल बुझ गए और अमलतास की पीली ओढ़नी न जाने कब सरककर गिर पड़ी। किन्तु योजन-गन्धा अब भी पागल बना रही है।…डाक्टर देवता नहीं, आदमी बनना चाहता है !
एक जोड़ी निर्मल आँखों की पलकें जरा ऊपर की ओर उठीं और फिर झुक गईं।
उनतीस
कल ‘सिरवा’ पर्व है।
कल पड़मान में ‘मछमरी’ होगी-मछमरी अर्थात् मछली का शिकार। आज चैत्र संक्रान्ति है। कल पहली वैशाख, साल का पहला दिन। कल सभी गाँव के लोग सामूहिक रूप से मछली का शिकार करेंगे। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी टापी और जाल लेकर सुबह ही निकलेंगे। आज दोपहर को सत्तू खाएँगे। सतुआनी पर्व है आज। आज रात की बनी हुई चीजें कल खाएँगे। कल चूल्हा नहीं जलेगा। बारहों मास चूल्हा जलाने के लिए यह आवश्यक है कि वर्ष के प्रथम दिन में भूमिदाह नहीं किया जाए। इस वर्ष की पकी हुई चीज उस वर्ष में खाएँगे।
सारे मेरीगंज के मछली मारनेवालों का सरदार है कालीचरन । भुरुकवा उगने के । समय ही निकलना होगा। बारह कोस जमीन तय करना होगा। इस कालीचरन ने ऐलान कर दिया है, जुलूस बनाकर चलना होगा, लाल झंडे के साथ। नारा भी लगाते चलना होगा। जमींदार फैजबख्श अली ने इस बार पड़मान नदी के ‘जलकर’ को खास में रखा है ! उसके अमलों ने कहा है कि मछली नहीं मारने देंगे, मलेटरी मँगाकर तैनात रखेंगे। देखना है मलेटरी को!
नए तहसीलदार बाबू हरगौरीसिंह के यहाँ नया खाता खुलेगा। शाम को सतनारायण की पूजा होगी। डाक्टर को भी निमन्त्रण है।
तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद ने तहसीलदारी छोड़ दी है तो क्या, नया खाता भी न करेंगे ? उनके यहाँ भी सत्यनारायण व्रत की कथा होगी। डाक्टर साहब को निमन्त्रण है।
मौसी ने होली में डाक्टर को नहीं खिलाया था। इस बार डाक्टर को वही खिलाएगी।
मठ पर भी नया खाता होता है। इस बार नए महन्थ रामदास जी के हाथ से खाता खुलेगा। इसीलिए विशेष आयोजन है। बीजक पाठ, साहेब भजनावली, ध्यान और अन्त में वैष्णव-भोजन। बालदेव जी और बावनदास को विशेष निमन्त्रण है। लछमी दासिन ने भंडारी के मार्फत कहला भेजा हे, “बालदेव जी जरूरी आवें। गाँव में वैष्णव है ही और कौन !”
बेतार सुमरितदास अब नए तहसीलदार का कारपरदाज है। वह कहता फिरता है, ‘हरगौरीबाबू हीरा आदमी है। सारा कागज-पत्तर हमीं पर फेंककर निश्चिन्त ! देखिए तो, हम कितना समझाते हैं कि बाबू साहेब ! बही-बस्ता, सेयाहा और कर्चा किसी दूसरे को छूने नहीं देना चाहिए। लेकिन हरगौरीबाबू हीरा आदमी हैं। विश्वनाथपरसाद तो एक नम्मर के मखीचूस और सक्की आदमी हैं। कायस्त और राजपूत का कलेजा बराबर हो भला !..हूँ ! कँगरेसी हुए हैं ! सुमरितदास से कौन बात छिपी हुई है ? अब तो गाँव का चाल-चलन एकदम बिगड़ जाएगा। जवान बेटी को एक परदेसी जवान के साथ हँसी-मसखरी करने की, घूमने-फिरने की आजादी दे दी है विश्वनाथपरसाद ने। गाँव का चाल-चलन नहीं बिगड़े तो सुमरितदास का नाम बदल देना।”
नए तहसीलदार बाबूहरगौरीसिंह के यहाँ रात में एक भी रैयत नहीं आया। पुन्याह में जो सलामी मिलती है, वह रकम जमींदार की होती है, लेकिन खाता खुलने के दिन की सलामी तो तहसीलदार की खास आमदनी है। सुमरितदास ने आकर खबर दी-“सभी रैयत विश्वनाथपरसाद के यहाँ गए थे। डेढ़ सौ रुपए सलामी में पड़े थे। मछली मारकर लौटते समय रास्ते में रैयतों ने मिटिन किया था कि नए तहसीलदार के यहाँ नहीं जाएँगे। कुकरा का बेटा कालिया लीटरी करता है। बाप काटे घोड़ा का घास और बेटा का नाम दुरगादास ! अभी ततमाटोली का बिरंचिया कहता था कि रैयतों का पेट जो भरेगा वही असल जमींदार है। नए तहसीलदार ने कभी एक चुटकी धान भी दिया है ?…शास्तर-वचन कभी झूठ नहीं होता…राई एडं कनमोचड़, जूता मारं पवित्तरम ! समझे तहसीलदार साहब, राड़ और काँटों को काँटीवाले जूते से बस में किया जाता है।”
बालदेव जी का काम छूट गया।
कपड़े, चीनी और किरासन तेल की पुर्जी अब तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद देंगे। बालदेव जी को क्यों छुड़ा दिया ?…सायद उनका बिलेक पकड़ा गया। पाप कितने दिनों तक छिपेगा ? खेलावन ने जो परमेसरसिंघ की जमीन मोल ली है, सो किस रुपए से ? वह बालदेव जी की ही जमीन है। खेलावन के घर में जाकर देखा, आज भी गाँठ-के-गाँठ कपड़ा पड़ा हुआ है; टीन-का-टीन तेल है। खेलावन के सभी सगे-सम्बन्धियों के यहाँ कपड़े गए हैं। यह बात कितने दिनों तक छिपी रहेगी ? सुनते हैं कि कैंगरेस ने अपना खौफिया बहाल किया है। अँगरेजी का खौफिया तो ऊपर से ही किसी बात का पता लगाता था, कैंगरेस के खौफिया को हाँड़ी के चावल का भी पता रहता है।
स्त्री की मृत्यु के बाद जोतखी जी बहुत गुमसुम रहते हैं।…डाक्टर को कितना कहा कि कोई दवा देकर रामनारायण की माँ को उबारिए, लेकिन कौन सुनता है ! बस, एक ही जवाब। बच्चा को पेट काटकर निकालना होगा। शिव हो ! शिव हो ! पराई स्त्री ‘को बेपर्द करने की बात कैसे उसके मुँह से निकली ?…पारबती की माँ ने बदला ले लिया। पाँच साल पहले पंचायत में जोतखी जी ने कहा था कि पारबती की माँ को मैला घोलकर पिलाया जाए। विश्वनाथप्रसाद ने पारबती की माँ का पक्ष लिया था, नहीं तो उसी बार उसका सभी ‘गुण-मन्तर’ शेष हो जाता।…इस बार पारबती की माँ ने बदला चुका लिया।…अच्छा ! ब्राह्मण का श्राप निष्फल नहीं होगा। देखना, देखना ! इस कलियुग में भी असल ब्राह्मण रहता है, देखना !
अरे ! वह जमाना चला गया जब राजपूतटोली और बाभनटोली के लोग बात-बात में लात-जूता चलाते थे। याद नहीं है ? एक बार टहलू पासवान का गुरु घोड़ी पर चढ़कर आ रहा था। गाँव के अन्दर यदि आता तो एक बात भी थी। गाँव के बाहर ही सिंघ जी ने घोड़ी पर से नीचे गिराकर जूते से मारना शुरू कर दिया था-‘साला दुसाध, घोड़ी पर चढ़ेगा !’…अब वह जमाना नहीं है। गाँधी जी का जमाना है। नया तहसीलदार हुआ है तो क्या ? हमारा क्या बिगाड़ लेगा ? न जगह न जमीन है; इस गाँव में नहीं उस __ गाँव में रहें, बराबर है।…धमकी देते हैं कि जूते से रैट करेंगे। अच्छा ! अच्छा !
युगों से पीड़ित, दलित और अपेक्षित लोगों को कालीचरन की बातें बड़ी अच्छी लगती हैं। ऐसा लगता है, कोई घाव पर ठंडा लेप कर रहा हो। लेकिन कालीचरन कहता है-“मैं आप लोगों के दिल में आग लगाना चाहता हूँ। सोए हुए को जगाना चाहता हूँ। सोशलिस्ट पाटी आपकी पाटी है, गरीबों की, मजदूरों की पाटी है। सोशलिस्ट पाटी चाहती है कि आप अपने हकों को पहचानें। आप भी आदमी हैं, आपको आदमी का सभी हक मिलना चाहिए। मैं आप लोगों को मीठी बातों में भुलाना नहीं चाहता। वह काँगरेसी का काम है। मैं आग लगाना चाहता हूँ।”
कालीचरन आग उगलता है, लेकिन सुननेवालों का जलता हुआ कलेजा ठंडा हो जाता है।…जमीन, जोतनेवालों की ! पूँजीवाद का नाश !
बावनदास फिर एक फाहरम लाया है। मन्त्री जी ने भेज दिया है। इस बार पटना का छापा फाहरम है, पुरैनियाँ का नहीं। पटना का फाहरम कच्चा नहीं हो सकता।… इस फाहरम पर अपना नाम, अपने बाप का नाम, जमीन का खाता नम्बर, खसरा नम्बर लिखकर पुरैनियाँ कचहरी में दे दो ‘दफा 40’ के हाकिम को। जमीन नकदी हो जाएगी। सच ?…हाँ, अँगूठे का टीप देना होगा।…और जिन लोगों ने चरखा-सेंटर में दसखत करना सीख लिया है, उन्हें भी टीप देना होगा ?
बालदेव जी क्या करें ? खेलावन भैया कुछ समझते ही नहीं। रोज कहते हैं, “बालदेव, कमला किनारेवाली जमीन में कलरू पासवान के दादा का नाम कायमी बटैयादार की सूरत से दर्ज है। कलरू से कहकर सुपुर्दी दिला दो।…लेकिन बालदेव जी क्या करें ? चौधरी जी को वह सब दिन से गुरु की तरह मानता आ रहा है। कभी किसी काम में तरौटी नहीं होने दिया। इतना चौअन्नियाँ मेम्बर बनाकर दिया। गाँव में चरखा-सेंटर खुलवा दिया, लेकिन जिला कमेटी के मेम्बर तहसीलदार साहब हो गए। बालदेव को कोई खबर नहीं दी गई। कपड़े की मेम्बरी भी नहीं रही। नीमक कानून के समय से जेल जाने का यही बख्शीस मिला है। कालीचरन की पाटीवाले ठीक कहते हैं, “काँगरेस अमीरों की पाटी है।”…लेकिन वह कालीचरन की पाटी में तो नहीं जा सकता। कालीचरन की आँखें उसने ही खोलीं। रात-रात-भर जागकर कालीचरन को जेहल का कितना किस्सा, गाँधी जी का किस्सा, जमाहिरलाल का किस्सा सुनाया। कालीचरन उसका चेला है। वह आखिर चेला की पाटी में जाएगा ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता !…खेलावन भैया कुछ नहीं समझते हैं। पासवानटोली में अब उसकी पैठ नहीं। कलरू उसकी बात नहीं मानेगा। उसका लीडर कालीचरन है।…तहसीलदार साहब को तो लोग डर से लीडर मानते हैं।
नए तहसीलदार साहब भी फेहरिस्त तैयार कर रहे हैं। सुमरितदास सबों का नाम “लिखा रहा है- “सबसे पहले लिखिए बिरंचिया का नाम। सोनमा दुसाध, किराय कोयरी, ये सब देनदार कलम हैं। अब लिखिए-झोंपड़िया कलम। हाँ, जिन लोगों को अपनी झोंपड़ी के सिवा कुछ भी नहीं।…बस, यह फिरिस्त मनेजरसाहब को दे दीजिएगा और कहिएगा कि खेमा लेकर जल्दी इलाके में आवें, नहीं तो सारा सर्किल खराब हो जाएगा।”
लछमी दासिन के दिल में बालदेव जी ने घर कर लिया है। खाता-बही के दिन आए थे। एकदम सूख गए हैं बालदेव जी। लछमी कितनी समझाती है कि कामकाज छोड़कर कुछ दिन आराम कीजिए, लेकिन कौन सुनता है ? पहले जान तब जहान ! जब शरीर ही नहीं रहेगा तो परमारथ का कारज कैसे होगा ? शरीर ही तीरथ है। कितना कहने पर, सतगुरुसाहेब की कसम धराने पर यह मंजूर किया है कि एक बेला रोज मठ पर आया करें। शाम के सतसंग में बैठेंगे। भंडारी से कह दिया है घी और दूध की मलाई रोज कटोरे में चुराकर रख दिया करेगा। रामदास बालदेव का आना पसन्द नहीं करता है।…जैसे भी हो, बालदेव जी के शरीर की सेवा करेगी लछमी। अब बालदेव जी के आने में जरा भी देर होती है तो लछमी का दिल धड़कने लगता है; मन चंचल हो जाता है। सतगुरुसाहेब ने कहा है :
ई मन चंचल, ई मन चोर,
ई मन शुध ठगहार
मन मन करत सुर नर मुनि
मन के लक्ष दुआर।
लछमी का मन चंचल है, पर चोर नहीं। बालदेव जी चोरी से उसके मन में नहीं आते हैं। मन के लक्ष दुआर हैं, बालदेव जी एक ही साथ लक्ष दुआर से उसके मन में पैठ जाते हैं…एक लक्ष बालदेव जी !
तीस
अखिल भारतीय मेडिकल गजट में डाक्टर प्रशान्त, मैलेरियोलॉजिस्ट के रिसर्च की छमाही रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। गजट के सम्पादक-मंडल में भारत के पाँच डाक्टर हैं। इस रिपोर्ट पर उन लोगों ने अपना-अपना नाम नोट दिया है।…मद्रास के डाक्टर टी. रामास्वामी एम. एस-सी., डी.टी.एम. (कैल.), पी.एच-डी. (एडिन.), एफ. आर.एस.जे. (एडिन.) ने लिखा है : “हमें विश्वास हो गया है कि डाक्टर प्रशान्त मैलेरिया और कालाआजार के बारे में ऐसे तथ्यों का उद्घाटन करेंगे जिनसे हम अब तक अनभिज्ञ थे।…नई दवा तथा नए उपचार की सम्भावनाओं के लिए सारा मेडिकल-संसार उनकी ओर निगाहें लगाए बैठा है।”
प्रशान्त की विस्तृत रिपोर्ट में मैलेरिया और कालाआजार से सम्बन्धित मिट्टी, हवा-पानी तथा इसमें पलनेवाले प्राणियों पर नई रोशनी डाली गई है। अपनी रिपोर्ट में डाक्टर ने एक जगह लिखा है :
“यहाँ के लोग सुबह को बासी भात खाकर, पाट धोने के लिए गन्दे गड्ढों में घुसते हैं और करीब सात घंटे तक पानी में रहते हैं। गन्दे गड्ढों को देखने से ऐसा लगता है कि पानी के आध इंच धरातल की जाँच करने पर एक लाख से ज्यादा मच्छड़ के अंडे जरूर पाए जाएँगे। किन्तु यहाँ के मच्छड़ गन्दे गड्ढों में बहुत कम अंडे देते पाए गए हैं। इनका कोई-कोई ग्रुप तो इतना सफाई-पसन्द होता है कि निर्मल और स्वच्छ तालाबों को छोड़कर और कहीं अंडे देता ही नहीं।…बेचारे खरगोशों को क्या पता कि उनकी जीभ में जो दाने निकल आते हैं, कानों के अन्दर जो खुजलाहट होती है, कोमल-से-कोमल घास की पत्तियाँ भी खाने में अच्छी नहीं मालूम होती हैं, ये कालाआजार के लक्षण हैं।
मनुष्य के शत्रु, कीड़े-मकोड़ों के बारे में डाक्टर ने लिखा है-“मच्छड़ों को नष्ट करने के उपाय जो हमें बहुत पहले बता दिए गए हैं, हम उन्हीं को आज भी आँख मूंदकर दुहरा रहे हैं। जिन कीड़ों को हम नष्ट करना चाहते हैं, उनके बारे में हमारी जानकारी बहुत थोड़ी होती है। हमें उनकी आदत, स्वभाव और व्यवहार के ढंगों के बारे में जानना होगा।…एनोफिलीज के भी कई ग्रुप हैं, हर ग्रुप के अलग-अलग ढंग हैं। किन्तु किसी ग्रुप में भी तरह-तरह के छोटे-छोटे सब-ग्रुप होते हैं जिनकी आदतों और प्रजनन-ऋतु में विभिन्नता पाई गई है।…उनके लुकने-छिपने, पसन्दगी और नापसन्दगी में भी फर्क है।…मैंने एक ही ग्रुप के मच्छड़ों को तीन किस्म से अंडे छोड़ते पाया है और हर ग्रुप में कुछ दल-विशेष हैं जो हवा में अंडे छोड़ते हैं।…इनकी चालाकी और बुद्धिमानी का सबसे दिलचस्प उदाहरण यह है कि एक ही मौसम में एक ही ग्रुप के मच्छड़ हमले के लिए पन्द्रह तरह के तरीके व्यवहार करते हैं।…कुछ तो एकदम डाइव फ्लाइंग करके ही हमला करते हैं।”
इसके अलावा डाक्टर ने मैलेरिया और कालाआजार में रक्त-परिवर्तन पर भी कुछ नई बातें कही हैं।
ममता की चिट्ठी आई है…“पटना मेडिकल कालेज को इस बात पर गर्व है कि बिहार का एकमात्र मैलेरियोलॉजिस्ट डाक्टर प्रशान्त उसी की देन है।” ममता ने और भी बहुत-सी बातें लिखी हैं। बहुत-सी बातें; जिसे प्रशान्त करीब-करीब भूल गया है या भूल जाना चाहता है।…पटना क्लब का नाम पाटलिपुत्र क्लब हो गया है। मिस रेवा सरकार ने बैडमिंटन में रोमेश पाल को हरा दिया।…” इन बातों में प्रशान्त को अब कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन ममता जब पत्र लिखती है तो वह कुछ भी बाद नहीं देती, छोटी-से-छोटी बात का जिक्र करती है…“पटना मार्केट के सामने जो चाय की दुकान थी, उसका बूढ़ा मालिक मर गया। तुम्हें याद है ! वही जो तुमको रोज सलाम करके चाय के लिए निमन्त्रित करता था…कश्मीरी चाय ?…” प्रशान्त को हँसी आती है। । बेचारी ममता ! उसे क्या मालूम कि मछली को लेकर पालतू नेवले से झगड़ा करने में ‘जो आनन्द आता है, वह किसी खेल में नहीं। प्रशान्त कभी स्पोर्ट्समैन नहीं रहा। वह किसी भी खेल का खिलाड़ी नहीं रहा। फिर भी उसे खेलों में बड़ी दिलचस्पी रहती थी। उसने ताश के पत्तों को कभी हाथ से स्पर्श नहीं किया, लेकिन साप्ताहिक ब्रिज नोट्स को वह गम्भीरता से पढ़ जाता था। चर्चिल का भाषण पढ़ना भले ही भूल जाए, कलकत्ता के आइ.एफ.ए. के मैचों की रिपोर्ट वह सबसे पहले पढ़ लेता था।…लेकिन अब तो वह खुद खिलाड़ी है। नेवले का गुर्राना, चिल्लाना, पूँछ के रोओं को खड़ा कर हमला करना और हमला करते हुए इसका ख्याल रखना कि चोट नहीं लग जाए, नाखून नहीं गड़ जाए। स्पोर्ट्समेन्स स्पिरिट और किसको कहते हैं ?
डाक्टर ममता श्रीवास्तव ! दरभंगा के प्रसिद्ध डाक्टर कालीप्रसाद श्रीवास्तव की सुपुत्री ममता ने डाक्टरी पास करने के बाद हेल्थयूनिट की स्थापना की है। शहर के गरीब मुहल्लों में यूनिट ने अपने सेवा-कार्य का जो परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। पटना की महिला-समाज-सेविकाओं में ममता का नाम सबसे पहले लिया जाता है। गरीब की झोंपड़ी से लेकर गवर्नमेंट हाउस तक उसकी पहुँच है। जो उसके निकट सम्पर्क में रह चुके हैं, उनका कहना है कि ममता दीदी दिन-रात मिलाकर सिर्फ चार घंटे ही आराम करती हैं। दूर से देखनेवाले उसके चरित्र पर भी सन्देह करते हैं। उसकी सार्वजनीन मुस्कराहट लोगों को कभी-कभी भ्रम में डाल देती है। और जिन लोगों का काम सिर्फ बैठकर आलोचना करना है, वे कहते हैं कि तरह-तरह के जाल फैलाकर सरकार से रुपया वसूलना और उड़ाना ही ममता देवी का काम है।…विकारपूर्ण मस्तिष्कवाले किसी मिनिस्टर का नाम लेकर मुस्करा देते हैं-मिस ममता श्रीवास्तव नहीं मिसेज…कहो !
डाक्टर प्रशान्त ममता का ऋणी है। ममता से उसे प्रेरणा मिली है।
…”डाक्टर ! रोज डिस्पेंसरी खोलकर शिव जी की मूर्ति पर बेलपत्र चढ़ाने के बाद, संक्रामक और भयानक रोगों के फैलने की आशा में कुर्सी पर बैठे रहना, अथवा अपने बँगले पर सैकड़ों रोगियों की भीड़ जमा करके रोग की परीक्षा करने के पहले नोटों और रुपयों की परीक्षा करना, मेडिकल कालेज के विद्यार्थियों पर पांडित्य की वर्षा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझना और अस्पताल में कराहते हुए गरीब रोगियों के रुदन को जिन्दगी का एक संगीत समझकर उपभोग करना ही डाक्टर का कर्तव्य नहीं !”
…ममता को प्रशान्त पर सन्देह है। वह समझती है कि घोर देहात में प्रशान्त छटपटा रहा है; अपनी गलती पर पूछता रहा है ! इसलिए वह हर पत्र में, शहर की सामाजिक जिन्दगी पर कुछ लिख डालती है। एक पत्र में उसने लिखा है, “बुशशर्ट का युग है। पाँच साल पहले बाँकीपुर की सड़कों पर, पार्को और मैदानों में दानापुर कैंट के गोरे फौजियों ने जिन्दगी के जिन कुत्सित और बीभत्स पहलुओं का प्रदर्शन किया, हमारे समाज के अचेतन मन पर उसकी ऐसी गहरी छाप पड़ी कि आज हर आदमी के अन्दर का भूखा टामी अधीर हो उठा है। युद्ध के विषैले गैसों ने सारे समाज के मानस को विकृत कर दिया है। काले बाजार के अँधेरे में एक नई दुनिया की सृष्टि हो गई है, जहाँ सूरज नहीं उगता, चाँद नहीं चमकता और न सितारे ही जगमगाते हैं ….इस , दुनिया में माँ-बेटा, पिता-पुत्र, भाई-बहन और स्वामी-स्त्री जैसा कोई सम्बन्ध नहीं।…
कल एक गरीब ने विटामिन ‘सी’ की सूई आठ रुपए में खरीदी है। पाँच आने का छोटा-सा ऐम्प्यूल !..मेरे मुहल्ले के महाराज महता को तुम जरूर जानते होगे, उसकी छोटी बेटी फुलमतिया, जो मिल्क सेंटर में पिछले साल तक दूध पीने आती थी और ताली बजा-बजाकर नाचती थी उसे तुम भूले नहीं होगे, शायद ! परसों से अस्पताल में पड़ी हुई है। रामनवमी की शाम को नई रंगीन साड़ी पहनकर फुदकती हुई राममन्दिर गई थी और रात को दो बजे पुलिस ने ‘सिटी’ के एक पार्क में उसे कराहते हुए पाया। फुलमतिया का बयान है-टेढ़ीनीम गली के पास एक मोटरगाड़ी रुक गई है और दो आदमियों ने पकड़कर उसे मोटर में बिठा दिया।…बड़े-बड़े बाबू लोग थे !…
मंजरअली रोड से लेकर अशोकपथ तक विदेशी शराब की दस दुकानें खुल गई हैं ।
“…कल बिलिंगडन हॉल में टी.वी. सेनेटोरियम के लिए स्थानीय महिला कालेज की लड़कियों ने एक ‘चैरिटि शो’ का आयोजन किया था। ज्यों ही वीणा (बैरिस्टर प्राणमोहन सिन्हा की पुत्री) स्टेज पर उतरी कि ऊपर की गैलरी से दुअन्नी-इकन्नी फेंकी जाने लगीं और तरह-तरह की भद्दी आवाजें कसी जाने लगीं। पुलिस ने शान्ति कायम करने की चेष्टा की, किन्तु उन पर ईंट-पत्थरों की ऐसी वर्षा की गई कि हॉल के सभी दरवाजों और खिड़कियों के काँच टूट गए। बहुत लोग घायल हुए। घायलों में महिलाओं और बच्चों की संख्या ही ज्यादा थी।…और सबसे आश्चर्य की बात सुनोगे ? कहा जाता है कि खुराफातियों का लीडर था अमलेश सिन्हा, वीणा का चचेरा भाई। प्राणमोहन बाबू ने, कुछ दिन हए, अपने घर में अमलेश का आना-जाना बन्द कर दिया था। शराब के नशे में अमलेश ने कई बार घर की नौकरानियों के साथ अशोभनीय व्यवहार किया था। इसलिए (उनकी पुत्री और अपनी चचेरी बहन) वीणा के पीछे हाथ धोकर पड़ गया है।”
…कोठी के जंगल में संथालिनें लकड़ी काट रही हैं और गा रही हैं। कुछ दिन पहले इसी जंगल में संथालिनों ने एक चीते को कुल्हाड़ी और दाब से मार दिया था। शोरगुल सुनकर गाँव के लोग जमा हो गए थे। मरे हुए बाघ को देखकर भी लोगों के रोंगटे खड़े हो गए थे और बहुत तो भाग खड़े हुए थे, किन्तु संथालिने हमेशा की तरह मुस्करा रही थीं। मकई के दानों की तरह सफेद दन्त-पंक्तियाँ…और वही सरल मुस्कराहट ! चीते के अचानक हमले से दो-तीन युवतियाँ सामान्य घायल हो गई थीं। उनके होंठों पर भी वैसी ही मुस्कराहट खेल रही थी। उनके जख्मों को धोकर मरहम-पट्टी करते समय डाक्टर के शरीर में एक बार सिहर की हल्की लहरें दौड़ गई थीं। और संथालिने खिलखिलाकर हँस पड़ी थी…हॅ…! हँ…हँ ! जख्म पर तेज दवा लगने पर इस तरह हँसना डाक्टर ने पहली बार देखा, सुना।
आबनूस की मूर्तियाँ, जूड़े में गुंथे हुए शिरीष और गुलमुहर के फूल ! संथालिने गाती हैं :
छोटी-मोटी, पुखरी, चरकुलिया पिंड रे
पोरोइनी फूटे लाले-लाल
पासचे तेरी फूल देखी फूलय लाबेलब
पासचे तेरी आधा दिन लगित !
चारों ओर से बँधाए हुए एक छोटे-से पोखरे में पुरइन (कमल) के लाल-लाल फूल खिले हैं। उस फूल पर तुम मुग्ध हो। मुझे भी देखकर तुम मोहित होते हो। किन्तु वह मोह, आधे दिन का ही तो नहीं ?…
नहीं, नहीं ! आधे दिन के लिए नहीं। प्राणों में घुले हुए रंगों का मोह आधे दिन में ही नहीं टूट सकता।
इकतीस
मंगलादेवी, चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी बीमार हैं।
डाक्टर ने खून जाँचकर देखा, कालाआजार नहीं, टाइफायड है। चरखा-सेंटर के दोनों मास्टर तहसीलदार साहब के गुहाल में रहते हैं और मास्टरनी जी भगमान भगत की एक झोंपड़ी में। भगमान भगत ने गाड़ी-बैल रखने के लिए एक झोंपड़ी बनाई थी, लेकिन अब अगले साल टीन का मकान देने का इरादा है, इसलिए इस बार गाड़ी-बैल नहीं खरीद सका। चरखा-सेंटर खुलने पर गाँव के लोगों ने भगमान भगत से कहा-‘घर तो खाली ही है। मास्टरनी जी के रहने के लिए घर नहीं है ! चरखा-सेंटर का घर बनेगा तो आपका घर खाली कर दिया जाएगा !…कोटापरमिट के जमाने में कैंगरेसी लोगों की बात काटना ठीक नहीं। नहीं तो कटिहार में इतनी बड़ी झोंपड़ी का ही किराया पन्द्रह रुपया मिलता !
मंगलादेवी ने हैजा के समय रात-रात भर जागकर रोगियों की सेवा की और जब वह खुद बीमार पड़ी तो उसके पास बैठनेवाला भी कोई नहीं। चरखा-सेंटर के दोनों मास्टर साहब बारी-बारी से एक-एक घंटा डयटी दे जाते हैं। रात में चिचाए की माँ आकर सोती है। लेकिन, बूढ़ी इतना हुक्का पीती और खाँसती है कि मंगलादेवी के ज्वर की ज्वाला और भी तीव्र हो जाती है। बुढ़िया जब सोती है तो इतने जोरों के खरटे लेती है कि पास-पड़ोस की नींद खुल जाए। डाक्टर कहता है-यदि यही हालत रही तो सँभालना मुश्किल होगा। घर खत लिखकर किसी को बुला लेना ठीक होगा।
घर ? यदि घर से कोई आनेवाला होता अथवा खबर लेनेवाला होता तो मंगलादेवी चरखा-सेंटर में क्यों भर्ती होती ? उसे घर छोड़े हुए पाँच साल हो रहे हैं। मंगलादेवी ने दुनिया को अच्छी तरह पहचाना है। आदमी के अन्दर के पशु को उसने बहुत बार करीब से देखा है। विधवा-आश्रम, अबला-आश्रम और बड़े बाबुओं के घर आया की जिन्दगी उसने बिताई है। अबला नारी हर जगह अबला ही है। रूप और जवानी ?…नहीं, यह भी गलत। औरत होना चाहिए, रूप और उम्र की कोई कैद नहीं। एक असहाय औरत देवता के संरक्षण में भी सुख-चैन से नहीं सो सकती। मंगलादेवी के लिए जैसा घर वैसा बाहर। उसका कौन है अपना ? कोई नहीं !
“कौन…?…कालीचरन बाबू !”
“डाक्टर साहब ने कहा है कि इस झोंपड़ी में आपकी बीमारी अच्छी नहीं होगी। हम लोगों का कीर्तनवाला घर साफ-सुथरा है, हवादार है।”
मंगलादेवी यादवटोली के कीर्तन-घर में आ गई है। कीर्तन-घर में ही सोशलिस्ट पार्टी का आफिस है। कालीचरन इसे आफिस ही कहता है।…लेकिन सोशलिस्ट आफिस का नाम सुनकर मंगलादेवी शायद नहीं आती।
“दवा पी लीजिए।”
“नहीं पियूँगी।”
“पी लीजिए मास्टरजी जी ! दवा…”
“कालीबाबू, एक बात कहूँ ?”
“कहिए!”
“आप मुझे मास्टरनी जी मत कीजिए।”
“तब क्या कहूँ?”
“क्यों ? मेरा नाम नहीं है ?”
“मंगलादेवी ?”
“नहीं।”
“तो?”
“सिर्फ…मंगला।”
“दवा पी लीजिए।”
“मंगला कहिए।”
“मंगला !”
पन्द्रह दिनों से कालीचरन मंगलादेवी की सेवा कर रहा है। दिन में तो और लोग भी रहते हैं, लेकिन रात में कालीचरन की ड्यूटी रहती है। डाक्टर कहते हैं, अब कोई खतरा नहीं। कमजोरी है, कुछ दिनों में ठीक हो जाएगी।
मंगलादेवी के शरीर में सिर्फ हड्डियाँ बच रही हैं। बाल झड़ रहे हैं। वह खाने के लिए बच्चों की तरह रूठती है, रोती है और बर्तन फेंकती है।…बार्ली नहीं पियूँगी। छेना का पानी भी कोई भला आदमी पीता है ! कालीचरन हाथ में पथ्य का कटोरा लेकर घंटों खुशामदें करता-‘लीजिए, इसमें नींबू डाल दिया है। अब खा लीजिए। कल नहीं, परसों भात मिलेगा।”
कालीचरन का व्रत टूट गया। उसके पहलवान गुरु ने कहा था-“पढ़े ! जब तक अखाड़े की मिट्टी देह में पूरी तरह रचे नहीं, औरतों से पाँच हाथ दूर रहना।” कालीचरन का व्रत टूट गया। पाँच हाथ दूर रहने से मंगलादेवी की सेवा नहीं की जा सकती थी। बिछावन और कपड़े बदलते समय, देह पोंछ देने के समय कालीचरन को गुरु जी की बात याद आती थी, लेकिन क्या किया जाए !
“काली कहाँ गया ? काली !”
“क्या है ?”
“कहाँ की चिट्ठी है ?”
“सिकरेटरी साहब ने लिखा है, सोमवार को जिला पार्टी की रैली है। लेकिन…मैं कैसे जाऊँगा ?”
“क्यों ?…तुम जाओ। मैं तो अब अच्छी हो गई।”
रैली के बाद सेक्रेटरी साहब ने कालीचरन को रोक लिया है- ‘कामरेड, आप दो दिन और रह जाइए। सैनिक जी की स्त्री अस्पताल में भर्ती हैं। सैनिक जी पटना गए हैं। परसों आ जाएँगे। अस्पताल में दोनों बेला खाना पहुँचाना है…कोई है नहीं।”
सेक्रेटरी साहब की बात को टालना बड़ा कठिन है। कामरेड की स्त्री !…कालीचरन को रह-रहकर मंगला की याद आती है। वह राह देख रही होगी। बासुदेव जाकर कहेगा कि दो दिन बाद आएँगे। सुनते ही उसका मुँह सूख जाएगा, चेहरा फक् हो जाएगा। एकदम बच्ची की तरह है मंगला का मुँह !…कालीचरन ने बिहदाना और सन्तोला भेज दिया है। वह छुएगी भी नहीं। बासुदेव क्या समझाएगा ? हत्तेरे की ! ये शहर के लौंडे बड़े बदमाश होते हैं। टीक पीठ के पास जाकर सैकिल की घंटी बजाएगा। अ…अभी तो सब खाना गिर जाता।
“उल्लू कहीं का ! गिलास ऐसे ही धोता है ?”…उल्लू । कालीचरन के गाल पर मानो किसी ने जोर से एक तमाचा जड़ दिया। उल्लू ! उसका सारा शरीर झिनझिन कर / रहा है। सैनिक जी की स्त्री ने उसे क्या समझा है ?…नौकर ?
“बहन जी, गिलास…”
“खबरदार ! बहिन जी मत बोल !”
बगल की खाट पर जो चमगादड़-जैसी औरत लेटी हुई थी, बोली, “कौन देस का आदमी है ! आदमी है या भूत ? बात भी नहीं करना जानता है।”
“अरे जानती नहीं हैं, ग्वाला साठ बरस तक…।” सैनिक जी की स्त्री बोली।
कालीचरन पूरा सुन नहीं सका। उसका सिर चकराने लगा। सैनिक जी भी तो ग्वाला ही हैं ! कालीचरन की आँखों के आगे सरसों के फूल-जैसी चीजें उड़ने लगीं। यदि किसी मर्द ने ये बातें कही होती तो आज खून हो जाता, खून । कालीचरन की कनपट्टी गर्म हो गई है।…मंगलादेवी भी तो औरत ही है। हुँ ! कहाँ मंगला और कहाँ यह भूतनी !…गले की आवाज एकदम खिखिर (लोमड़ी) की तरह है। खेंक, खेंक। बातें करती है तो लगता है मानो दाँत काटने के लिए दौड़ रही है। शायद यह भी कोई रोग ही है।
रौतहट स्टेशन पर गाड़ी से उतरकर कालीचरन जल्दी-जल्दी घर लौट रहा है।… उसे देखते ही मंगला खुशी से खिल जाएगी। सन्तोला सूख गया होगा, बिहदाना पड़ा होगा। दोनों ओर का रेल-भाड़ा बचाकर कालीचरन ने एक पैकेट बिस्कुट खरीद लिया है। डाक्टर साहब ने मंगला को बिस्कुट खाने के लिए कहा है। कालीचरन ने कभी बिस्कुट नहीं खाया है। शायद इसमें मुर्गी का अंडा रहता है। वह रह-रहकर बिस्कुट के डब्बे को छूकर देखता है ! इसके अन्दर ‘कुड़-कुड़’ क्या बोलता है ? कहीं अंडा फूटकर…!
“सेत्ताराम ! सेत्ताराम ! जै हिन्द, काली जी!”
“ऐ ? ओ बावनदास जी, हम तो चमक गए। यहाँ क्यों पड़े हैं ?”
“आप तो इस तरह आँख मूंदकर सरेसा (दौड़नेवाले घोड़े की जाति) घोड़े की तरह चल रहे हैं कि… !”
जंगली जामुन के पेड़ की छाया में बावनदास लेटा हुआ था। छाया में जाने पर कालीचरन को मालूम हुआ कि धूप कितनी तेज है।
“हम तो रात की गाड़ी से ही उतरे। कल दफा 40 का फैसला हो गया।”
“हो गया ?…क्या हुआ ?”
“अरे होगा क्या ? सबों की दरखास खारिज हो गई।…हम पहले ही जानते थे। कल गाँव के सभी रैयत आए थे। फैसला सुनकर सभी रोने लगे। अब जमींदार जमीन भी छुड़ा लेगा।”
“जमीन छुड़ा लेगा ?…नहीं, उस दिन हम लोगों की रैली में परसताब पास हो गया। जमींदार लोग रैयतों को जमीन से बेदखल नहीं कर सकते। इसके लिए पाटी संघर्ख करेगी।”
“कालीबाबू ! परसताब-उरसताब से कुछ नहीं होता है।” बावनदास के होंठों पर भेद-भरी मुस्कान दौड़ जाती है।
“आप बैठिए दास जी, हमको जरा जल्दी है।”
“हाँ, आप जाइए।…हम आपके डेग पर जा भी नहीं सकेंगे।”
कालीचरन चलते-चलते सोच रहा है, अब ठीक हुआ है। यदि रैयत की दरखास मंजूर हो जाती तो सभी लोग कँगरेस में चले जाते। अब संघर्ष में सभी सोशलिस्ट पार्टी में ही रहेंगे।
“क्या है ? बिस्कुट !” मंगलादेवी प्यार-भरी झिड़की देती है, “किसने कहा फिजूल पैसा खर्च करने को ? वह देखो तुम्हारा, सन्तरा और बेदाना पड़ा हुआ है। मैं नहीं खाती।”
“डाक्टर साहब ने कहा था…”
“डाक्टर साहब ने कहा था !” मंगला बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहती है, “डाक्टर साहब ने कहा था कि खुद भूखे रहकर सन्तरा, बेदाना और बिस्कुट खरीदकर लाना ?”
कालीचरन को सैनिक जी की स्त्री की याद आती है। उल्लू !…साठ साल तक नाबालिग !
“खा लो मंगला !” “पहले तुम एक बिस्कुट खाओ।”
बिस्कुट मीठा, कुरकुरा और इतना सुआदवाला होता है ? इसमें दूध, चीनी और माखन रहता है, अंडा नहीं?
बत्तीस
बैशाख और जेठ महीने में शाम को ‘तड़बन्ना’ में जिन्दगी का आनन्द सिर्फ तीन आने लबनी बिकता है।
चने की घुघनी, मूड़ी और प्याज, और सुफेद झाग से भरी हुई लबनी !… खट-मिट्ठी, शकर-चिनियाँ और बैर-चिनियाँ ताड़ी के स्वाद अलग-अलग होते हैं। बसन्ती पीकर बिरले पियक्कड़ ही होश दुरुस्त रख सकते हैं। जिसको गर्मी की शिकायत है, वह पहर-रतिया पीकर देखे। कलेजा ठंडा हो जाएगा, पेशाब में जरा भी जलन नहीं रहेगी। कफ प्रकृतिवालों को संझा पीनी चाहिए; रात-भर देह गर्म रहता है।
साल-भर के झगड़ों के फैसले तड़बन्ना की बैठक में ही होते हैं और मिट्टी के चुक्कड़ों की तरह दिल भी यहीं टूटते हैं। शादी-ब्याह के लिए दूल्हे-दुलहिन की जोड़ियाँ भी यहीं बैठकर मिलाई जाती हैं और किसी की बीवी को भग ले जाने का प्रोग्राम भी यहीं बनता है।
जगदेवा पासमान, दुलारे, सनिच्चर और सुनरा ताड़ी पी रहे हैं। सोमा जट आज आनेवाला है। रौतहट के हाट में उसने कहा था, एतबार को तड़बन्ना में आएँगे। सोमा जट हाल ही में जेल से रिहा हुआ है। नामी डकैत है, लेकिन अब सोशलिस्ट पार्टी का । मेंबर बनना चाहता है। सुनरा ने कालीचरन से पूछा और कालीचरन ने जिला सिक्रेटरी साहब से पूछा। सिक्रेटरी साहब ने कहा, “साल-भर तक उनके चाल-चलन को देखकर तब पार्टी का मेंबर बनाया जाएगा। उस पर नजर रखना होगा।”
नजर क्या रखना होगा, बीच-बीच में सिकरेटरी साहब को जाकर कहना होगासोमा का चाल-चलन एकदम सुधर गया है। कालीचरन को वासुदेव समझा होगा।… सोमा यदि पाटी में आ जाए तो सारे इलाके के बड़े लोग ठीक हो जाएँ। पाटी में आ जाने से थाना-पुलिस क्या करेगा ! सिकरेटरी साहब क्या दारोगा साहब से कम हैं ? देखते हो नहीं, जब भाखन देने लगते हैं तो जमाहिरलाल को भी पानी-पानी कर देते हैं। मजाल है दारोगा-निसपिट्टर की कि पाटी के खिलाफ मुँह खोले ? खेल है ! ‘लाल पताका’ अखबार में तुरत ‘गजट छापी’ हो जाएगा…’दारोगा का जुलम !’
…चलित्तर करमकार को तो पाटी से निकाल दिया है। सीमेंट में बहुत पैसा गोलमाल कर दिया। हिसाब-पत्तर कुछ भी नहीं दिया तो उसको निकालेगा नहीं ? पाटी का बन्दूक-पेस्तौल भी नहीं दिया।…लेकिन सिकरेटरी साहब कालीचरन जी से प्रायविट में बोले हैं, किसी तरह उससे बन्दूक-पेस्तौल ऊपर करो। सरकार को जमा देना है। इसीलिए कालीचरन जी उससे हेल-मेल कर रहे हैं।…वह बात एकदम गुपुत है। खबरदार, कहीं बोलना नहीं सनिचरा ! हाँ, नहीं तो जानते हो ? किरांती पाटी की बात खोलने की क्या सजा मिलती है ?…ढाएँ ! लोग पूछे तो कहना चाहिए कि…
“क्या पाटी को अब बन्दक-पेस्तौल का काम नहीं है?”
“नहीं।” सुन्दर मुस्कराता है। अर्थात् इतनी जल्दी तुम लोग सभी बातों को जान लेना चाहते हो ? अभी कुछ दिन और मेंबरी करो। जब तुम्हारा कानफारम’ हो जाएगा तब सारी बातें जानोगे। नए मेंबरों का कान कच्चा होता है। यहाँ सुना और वहाँ उगल दिया। कानफारम (कन्फर्म) होने दो…।
“कामरेड सोमा ? आओ ! तुम्हारी ही बात हो रही थी ? आसरा में बैठे-बैठे दो लबनी ताड़ी खतम हो गई।” सुन्दर हँसता है।
सुन्दर आजकल हमेशा खद्दर का पंजाबी कुर्ता पहने रहता है। पंजाबी कुर्ते के गले में दो इंच की ऊँची पट्टी लगी हुई है। इसको ‘सोशलिट-काट’ कुर्ता कहते हैं; सोशलिट को छोड़कर और कोई नहीं पहन सकता। गाँव के मेंबरों में सिर्फ तीन मेंबर ही ऐसा कुर्ता पहनते हैं-काली, बासुदेव और सुन्दर। बाकी मेंबरों ने जीवन में कभी गंजी भी नहीं पहनी है। लेकिन बिना सोशलिट-काट कुर्ता पहने कोई कैसे जानेगा कि सोशलिट है, किरांती है ! एक कुर्ते में सात रुपए खर्च होते हैं । …बासुदेव आजकल बीड़ी नहीं पीता, मोटरमार-सिकरेट पीता है ।सिक्रेटरी साहब सैनिक जी, चिनगारी जी, मास्टर साहब, सभी बड़े-बड़े लीडर सिकरेट पीते हैं। सोशलिट पाटी के मेंबर को बीडी नहीं, सिकरेट पीना चाहिए।
आज की बैठकी का पूरा खर्चा सोमा ही देगा। इसलिए हाथ खींचकर चुक्कड़ भरने की जरूरत नहीं | ढाले चलो | एक लबनी, दो लबनी, तीन लबनी ! चरखा सेंटर वाले कह रहे हैं, अगले साल से ताड़ी का गुड़ बनेगा। कोई ताड़ी नहीं पी सकेगा। इस साल पी लो, जितना जी चाहे ।
सोमा का शरीर कालीचरन से भी ज्यादा बुलद है। पुलिस-दारोगा की मार से हड्डिाँ टूटकर गिरहा (गाँठदार हो जाना) गई हैं | गिरहवाली हड्डी बहुत मजबूत होती है । कालीचरन की देह में हाथीदाँत का कड़ापन है और सोमा के चेहरे पर लोहे की कठोरता। कालीचरन की आँखो मे पानी है और सोमा की आँखे बिल्ली की तरह चमकती हैं ।
“कौन हरगौरी ? शिवशंक्करसिंह का बेटा ? तहसीलदार हुआ है ? कालीचरन जी हुकुम दे तो एक ही रात में उसकी हड्डी-पसली एक कर दें।” सोमा मूँछ में लगी हुई ताड़ी की झाग को पोंछते हुए कहता है।
“कामरेड ! अब मूँछ कटाना होगा। पार्टी का मेंबर होने से मूँछ नही रखना होगा ।” सुंदर कहता है।
“कटा लेंगे, लेकिन कालीचरन जी हुकुम दे तो !”
“अच्छा अच्छा, कामरेड अभी ठहरो। संघर्ख होने वाला है। परसताब पास हो गया है। तब देखेंगे तुम्हारी बहादुरी !”
“बलदेवा को गाँव से भगा नही सकते हो तुम लोग ? सुनते हैं कि मठ की कोठारिन से खूब हेल मेल हो गया है। कालीचरन जी हुकुम दे तो एक ही दिन में उसको चन्ननपट्टी का रास्ता दिखला दें।”
“अरे, बालदेव जी तो मुर्दा हो गए, मुर्दा! अब उनको कौन पूछता है | उनको एक बच्चा भी अब मुँह नहीं लगाता है। केंगरेस में भी उनकी बदनामी हो गई है। वह तो हम लोगो के बल पर ही कूदते थे। कोठारिन तो सत्तर चूहा खाई हुई है। बालदेव जी को उसके फेर में पडने तो दो। हम लोग यही चाहते हैं। हाँ समझे ? चरखा-सेंटर पर भी अब अपना ही कब्जा समझो । मास्टरनी जी बिना कालीचरन के पूछे पानी भी नहीं पीती हैं। कुछ दिन में वह भी कामरेड हो जाएँगी। एक बौनदास है, सो डेढ बित्ते का आदमी कर ही क्या सकता है ?”
चार लबनी सझा ताड़ी खत्म हो रही है। सूरज डूबने के समय जो लबनी पेड़ से उतारी जाती है, उसकी लाली तुरत ही आँख में उतर आती है। नशा के माने है और भी थोड़ा पीने की ख्वाहिश ? और एक लबनी |
“अरे, बेचारे डाक्टर के पास पैसा कहाँ ? मुफ्त में तो इलाज करता है। एक पैसा भी तो नही छूता है।”
“डाक्टर के पास पैसा नहीं ? क्या कहते हो, लांचनपुर के डाक्टर ने पोख्ता मकान बना लिया है। जीवनगंज के डाक्टर ने तीन सौ बीखे की पतनी खरीदी है। सिझवा गरैया का डाक्टर डकैती करता है, सरदार है डकैती का। कैसा डाक्टर है तुम्हारे गाँव का ?”
“हसलगॉँव के हरखू तेली ने अलबत्त पैसा जमाया है। पैसा मेंहकता है।”
“महमदिया के तालुकचंद को बंदूक का लैसन मिल गया है और लोहा का बक्सा कलकत्ते से ले आया है।”
“अरे, कितने बंदूक और तिजोरीवालों को देखा है ! ‘बल्लम-बर्छा से ही तो सारे इलाके को हम मछली की तरह भूनकर खाते रहे। यदि एक नाल भी बंदूक हाथ लग जाए तो साले भूपतसिंह की कचहरी के नेपाली पहरेदारों को भी देख लें।”
जो कभी नहीं गाता है, वह भी नशा होने पर गाने लगता है और सुंदर तो कीर्तनियाँ हैं, सुराजी कीर्तन भी गाता है और किरांती-गीत भी। नशा होने पर किरांती-गीत खूब जमता है !
अरे जिंदगी है किरांती से, किरांती मे बिताए जा ।
दुनिया के पूँजीवाद को दुनियां से मिटाए जा ।
सनिचरा लबनी को औंधा कर तबला बजाता है, और मुँह से बोल बोलता है :
चके के चकधुम मके के लावा”‘
दुनियों के गरीबों का पैसा जिसने चूस लिया,
अरे हाँ, पैसा जितने चूस लिया,
हाँ जी, पैसा जिसने चूस लिया,
उसकी हड्डी-हड्डी से पैसा फिर चुकाए जा
हँस के गोली दागे जा
हँस के गोली खाए जा !
“वाह-वाह ! क्या बात है ! इन्किलाब है, जिंदाबाद है। जरा खड़ा होकर बतौना बताके (दिखलाकर) कमर लचका के सुंदर भाई !”
सुंदर खड़ा होकर नाचने लगता है-“जिंदगी है किरांती से, किरांती मे ।”
चके के चकधुम मके के लावा”
कालीचरन ने आज शाम को बैठक बुलाई थी। ऊपर से सबसे बड़े लीडर आ रहे हैं पुरैनियाँ। थैली के लिए चंदा वसूलना है। सिक्रेटटी साहब कह रहे थे सबसे बड़े लीडर जी पुरैनियाँ आने के लिए एकदम तैयार नहीं हो रहे थे। बहुत कहने-सुनने पर, सारे जिले से दस हजार रुपए की थैली पर राजी हुए है। कालीचरन को तीन सौ रुपए वसूलकर देना है। “इस बार की रसीद-बही पर सबसे बड़े लीडर की छापी है।
“लेकिन तुम लोग कहाँ गए थे ? ओ ! आसमान-बाग । बड़ी देर हो गई।
ऐसा करने से पार्टी का काम कैसे चलेगा ? बोलो, कौन कितना रुपैया वसूल करेगा ? तीस सौ रुपैया दस दिन में ही वसूल कर देना है।”
“बस तीन सौ ? कोई बात नहीं, हो जाएगा ।”
“दस दिन क्या, पाँच ही दिन में हो जाएगा।”
“तीन सौ रुपए की क्या बात है ?”
“इनकिलाब, जिंदाबाद है ।”
तैंतीस
अमंगल !
“गाँव के मंगल का अब कोई उमेद नहीं।”
हरगौरी तहसीलदार दुर्गा के वाहन की तरह गुर्राता है-“साले सब ! चुपचाप दफा 40 का दर्खास देकर समझते थे कि जमीन नकदी हो गई। अब समझो। बौना और बलदेवा से जमीन लो। सब सालों से जमीन छुड़ा लेने के लिए कहा है मैनेजर साहब ने। लो जमीन ! राम नाम का लूट है !…अरे, काँगरेसी राज है तो क्या जमींदारों को घोलकर पी जाएगा ?”
सुमरितदास बेतार की जीभ थकती नहीं। सुबह से ही बक-बक करता जा रहा है ! ततमाटोली में, पासवानटोली में और कोयरीटोले में घूम-घूमकर वह लोगों को सुना रहा है-“मैनेजरसाहब ने परवाना में क्या लिखा है मालूम ? नया तहसीलदार तो एकदम घबड़ा गया था। मैंने कितना समझाया-तहसीलदार, आप एकदम चुपचाप रहिए। जिन लोगों को दरखास देना है, देने दीजिए। जिस दिन मुकदमे की तारीख होगी, उससे एक दिन पहले हम आपको एक नोक्स बता देंगे। वही हुआ। जमींदार वकील तो सुनकर उछलने लगा। चाहे जो भी कहो, तहसीलदार बिस्नाथपरसाद ने कभी कोई नोक्स हमसे छिपाकर नहीं रखा।…मैनेजर साहब ने क्या लिखा है, मालूम है ? सुमरितदास को एक बार सरकिल कचहरी में भेज दो। सुस्लिंग-मुस्लिग क्या करेगा ?”
“सुमरितदास ! बुढ़ापे में यदि इज्जत बचानी है तो जरा होस-हवास दुरुस रखकर बोला करो। समझे ?” कालीचरन की आँखें लाल-लाल हैं। सुबह से ही वह सुमरितदास को खोज रहा है। सोसलिस्ट पाटी के खिलाफ बूढ़ा कल से ही अटर-पटर (अलूल-जलूल) परोपगण्डा कर रहा है।
“समझे ? हाँ।…पीछे यह मत कहना कि सोसलिस्ट पाटी के लौंडों को बड़े-छोटे का विचार नहीं।”
“हम क्या बोले हैं ? पूछो, लोगों से पूछो ! बोलो जी गुलचरन ! सुस्लिंग पाटी…”
“सुस्लिंग मत कहिए, सोसलिस्ट कहिए।…बात तो सही मुँह से निकलती ही नहीं है और मुन्सियाती बघारते हैं।…जमींदार के तहसीलदार से और अपने मैनेजर से भी जाकर कह दो, रैयतों से जमीन छुड़ाना हँसी-ठट्ठा नहीं। पाटी के एजकूटी में परसताब पास हो गया है संघर्ख होगा संघर्ख ! समझे ?”
कालीचरन गर्दन ऐंठता हुआ चला गया। करैत साँप को गुस्से में ऐंठते देखा है न, ठीक उसी तरह ! सुमरितदास को कँपकँपी लग जाती है। आस-पास बैठे हुए लोगों की भी धुकधुकी तेज हो जाती है। अभी तो ऐसा लगता था कि जुलुम हो जाएगा।…अलबत्त देह बनाया है कलिया…कालीचरन ने। देखकर डर लगता है। सुस्लि…सुस्लि…सोसलिस्ट पाटी में जाकर तो और भी तेजी से जल-जल कर रहा है। संघर्ख क्या होगा ?…
डा डिग्गा, डा डिग्गा !
सन्थालटोली में दो दिनों से दिन-रात मादल बजता रहता है। डा डिग्गा, डा डिग्गा ! औरतें गाती हैं। नाचती हैं-झुमुर-झुमुर !…दरखास्त नामंजूर हो गई ! जमींदार जमीन छीन लेगा। कोठी के जंगल में, जामुन और गूलर में बहुत फल लगे हैं इस बार । जंगली सूअर के बच्चे भी किलबिल कर रहे हैं। हल के फाल को तोड़कर तीर बनाओ। लोहा महँगा है। रे ! हाय रे हाय ! डा डिग्गा, डा डिग्गा… !
कालीचरन ने कहा है-संघर्ख करेंगे। संघर्ख क्या ? परसताब क्या ?
रिंग-रिंग-ता-धिन-ता!
डा डिग्गा, डा डिग्गा !
….खेत में पाट के लाल पौधों को देखकर जी ललच रहा है। धान की हरी-हरी सूई खेत में निकल आई है। माटी का मोह नहीं टूटता। बधना पर्व (संथालों का एक प्रसिद्ध पर्व) की रात में तूने जो जूड़े में फूल लगाया था, उसे नहीं भूला हूँ। धरती का मोह भी नहीं टूट रहा। प्यारी, हमारे दादा, परदादा पुरैनियाँ के जेल में मर-खप गए। मकई के बाल की तरह उनके बाल भूरे हो गए होंगे। हमारे बच्चों के दाँत दूधिया मकई के दानों की तरह चमकेंगे। उनसे कहना, धरती माता के प्यार की जंजीर में हम बँध गए। रे ! हाय रे हाय ! रिंग-रिंग-ता-धिन-ता ! डा डिग्गा, डा डिग्गा !…
“यदि जमीन पर कोई आवे तो गर्दन काट लो !”
तहसीलदार हरगौरीसिंह ने रैयतों के साथ जमीन बन्दोबस्ती का ऐलान कर दिया है।…बस, एक सौ रुपए बीघा सलामी देकर कोई भी रैयत जमीन की बन्दोबस्ती के लिए दर्खास्त दे सकता है।…अरे, तुम लोग बेकूफ़ हो। ये जमीन एक साल पहले ही नीलाम होकर खास हो गई हैं। पुराने तहसीलदार ने ही सारी कार्रवाई की थी। नीलाम होकर खास हुई जमीन पर दफा 40 की दर्खास्त करने से नकदी कैसे होगी ?…हाँ, नए बन्दोस्त लेनेवालों को जमा बाँध देंगे। यह तो हमारे हाथ की बात है। इसके लिए कचहरी को दौड़-धूप करने की क्या जरूरत ?…अरे सूखानूदास, मुकदमा में कितना खर्च हुआ तुम लोगों का, जरा इन लोगों को बता दो।…हाँ, कँगरेसी और सोसलिस्ट पाटीवालों की खुराकी भी जोड़ना।…सुना ? हरेक तारीख में चन्दा वसूलकर पैरवीकार नेताजी लोगों को देना पड़ता था-दस रुपए नकद; सिकरेट और पान की बात तो छोड़ ही दीजिए। यही पेशा है भाई, इन लोगों का।…हाँ, जिसकी जमीन नीलाम हो गई है, वह यदि जमीन पर आवे तो उसकी गर्दन उड़ा दो। राज से मदद मिलेगी।
राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट !
गाय-बैल, बाछा-बाछी और भैंस के पाड़ा की बिक्री धड़ाधड़ हो रही है। दूने सूद पर भी रुपया कर्ज लेकर जमीन मिल जाए तो फ़ायदा ही है। पाट का भाव पन्द्रह रुपया है; ऊपर पचास भी जा सकता है। सौ भी हो सकता है। धान सोने के भाव बिक रहा है। जमीन ! जिसके पास जमीन नहीं, वह आदमी नहीं, जानवर है। जानवर घास खाता है, लेकिन आदमी तो घास खाकर नहीं रह सकता ! अरे ! छोड़ो जी कँगरेसी और सुशलिट पाटी की बात को।…दरखास नामंजूर हो गई। जमीन बन्दोबस्ती…
गाँव के मंगल की अब कोई उम्मीद नहीं।
हर टोले के लोग आपस में ही लड़ेंगे क्या ? कोयरीटोले के भजू महतो की जमीन उसी का भगिना सरूप महतो बन्दोबस्ती ले रहा है। सोबरन की जमीन पर उसका चचा रामेसर नजर लगाए बैठा है। सोबरन की जमीन सोना उगलती है। यादवटोली के सभी रैयतों की नीलाम हुई जमीन खेलावनसिंह यादव ले रहे हैं। संथालों की जमीन राजपूत टोल के लोग ले रहे हैं। “सुमरितदास कहते हैं, यह बात गुपुत है। किसी से कहना मत कि संथालों की जमीन खुद तहसीलदार साहब ले रहे हैं। लेकिन, अपने नाम से तो नहीं ले सकते। इसलिए दूसरों के नाम से लिया है।
गाँव के मंगल की अब कोई उम्मीद नहीं। तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद जी बालदेव और बावनदास को पंचायत बुलाने को कहते हैं। -“पंचायत तुम्हीं लोग बुलाओ | मेरे बुलाने से ठीक नहीं होगा ।”
कालीचरन की पाटी के सबसे बड़े लीडर पुरैनियाँ आ रहे हैं। कामरेडों ने पाँच ही दिनों में तीन सौ रुपए वसूल किए हैं। अकेले सोमा ने दो सौ पचास रुपए दिए हैं। सबसे बड़े लीडर से कहना होगा। गाँव में इस तरह फूट रहने से तो संघर्ख नहीं होगा। फिर एक बार सैनिक जी और चिनगारी जी को लाना होगा। बहुत दिनों से सभा नहीं हुई है। खेत में कोड़-कमान नहीं करने से जिस तरह जंगल-झाड़ हो जाता है, उसी तरह इलाके में सभा मीटिंग नहीं करने से इलाका भी खराब हो जाता है। सिक्रेटरी साहब को भी इस बार लाना होगा। इस बार लौडपीसर भी लाना होगा।
चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी और मास्टर जी लोगों में झगड़ा हो गया है।
करघा-मास्टर टुनटुन जी को मंगलादेवी का सोशलिस्ट आफिस में रहना बड़ा बुरा लगता है। जब तक बीमार थीं, वहाँ थीं, तो थीं। अब अच्छी हो गईं तो वहाँ रहने की क्या आवश्यकता ! और मंगलादेवी को पटना से ही जानते हैं टुनटुनजी । गाँव तरक्की सेंटर में जब ट्रेनिंग लेती थीं तभी से उड़ती थीं। व्यवस्थापिका जी इनके मिलने वालों से परेशान रहती थीं | रोज नए-नए लोग ! बहुत बार मंगलादेवी को चेतावनी भी दी गई-लेकिन इनके मिलनेवालों, में कालेज के विद्यार्थी, एम. एल. ए., साहित्य-गोष्ठी के मंत्री जी, चरखा-संघ के कार्यकर्ता तथा कई हिंदी दैनिकों के सहायक संपादक भी थे। व्यवस्थापिका जी हार मानकर चुप हो गईं। मंगलादेवी की स्वतंत्रता पर आघात करके यह एक दर्जन से ज्यादा व्यक्तियों का कोप-भाजन नहीं बनना चाहती थी। इसीलिए व्यवस्थापिकाजी ने मंगलादेवी को इस पिछड़े हुए गाँव में भेजा था। लेकिन यहाँ भी ?
मंगलादेवी बात करने में मर्दों के भी कान काटती हैं; पाजामा और कुर्ता पहनती हैं, बाहर निकलते समय खद्दर का दुपट्टा भी डाल लेती हैं। कद नाटा, रंग साँवला और शरीर गठा हुआ है। आँखें बड़ी अच्छी, खास तिरहुत की आँखें ! करघा-मास्टर को वह ताँत-मास्टर कहती हैं और चरखा-मास्ट्र को धुनिया मास्टर | जोलाहा-धुनिया मंगलादेवी से क्या बात करेंगे ? – जब बीमार पड़ीं तो झाँकी मारकर भी देखने के लिए नहीं आते थे और आज नैतिकता पर प्रवचन दे रहे हैं ! मंगलादेवी इन लोगों को खूब पहचानती हैं | व्यवस्थापिका जी को लिखेंगे तो लिखें। क्या करेंगी व्यवस्थापिका जी ? ऐसी धमकियों से मंगलादेवी नही डरतीं। टुनटुन जी जो चाहते हैं, सो वह जानती हैं। पटना से आते समय समस्तीपुर में उसे लेकर उतर गए | बोले, गाड़ी बदलनी होगी। बाद में मालूम हुआ कि वही गाड़ी सीघे कटिहार जाती है। दूसरी गाड़ी फिर सुबह आठ बजे। रात को बारह बजे धर्मशाला में ले गए।
टुन॒टुन जी का परिचय और कहना नहीं होगा !
बालदेव जी को खेलावनसिंह यादव ने साफ जवाब दे दिया है। सकलदीप का गौना होनेवाला है। नई दुलहिन ससुराल में बसने के लिए आ रही है। बाहरी आदमी का परिवार में रहना अच्छा नहीं। चंपापुर के आसिनबाबू की बेटी है। जरा भी इधर-उधर होने से बाप को चिट्ठी लिख देगी। बड़े आदमी की बेटी है!
बालदेव जी ने झोली-झंडा खेलावन के यहाँ से हटा लिया है। बालदेव की मौसी गाँव में घूम-घूमकर शिकायत कर रही है। लेकिन बालदेव जी साधु आदमी हैं; मान-अपमान से परे हैं। वे चुप हैं।
लछमी उन्हें कंठी लेने के लिए जिद कर रही है। पुपड़ी मठ के महंत रामसरूप गुंसाई आए हुए हैं। बालदेव जी कण्ठी ले लें तो मठ पर रहने में कोई असुविधा नहीं हो।
बावनदास का मन बड़ा अविश्वासी हो गया है। किसी पर विश्वास करने को जी नहीं करता है। गाँधी जी को छोड़कर अब किसी पर विश्वास नहीं होता । वह गाँधी जी को एक खत लिखवाना चाहता है। गंगुली जी जरूर लिख देंगे। बराबर लिख देते हैं ! उसके मन में बहुत-सी शंकाएँ उठ रही हैं।
चौंतीस
फुलिया पुरैनियाँ टीसन से आई है।
एकदम बदल गई है फुलिया | साड़ी पहनने का ढंग, बोलने-बतियाने का ढंग, सबकुछ बदल गया है। तहसीलदार साहब की बेटी कमली अँगिया के नीचे जैसी छोटी चोली पहनती है, वैसी वह भी पहनती है। कान में पीतर के फूल हैं। फूल नहीं, फुलिया कहती है-कनपासा | आँचल में चाबी का गुच्छा बाँधती है, पैर में शीशी का रंग लगाती है। “हाँ, खलासी जी बहुत पैसा कमाते हैं शायद। “ अरे ! खलासी के मुँह पर झाड़ू मारो ! वह क्या खाक इतना सौख-मौज करावेगा ? क्या पहनावेगा ? फुलिया ने खलासी को छोड़ दिया है। खलासी को खोक्सीबाग की एक पतुरिया से मुहब्बत था, रोज ताड़ी पीकर वहीं पड़ा रहता धा। तलब मिलने के दिन वह पतुरिया खलासी का पीछा नहीं छोड़ती थी। तलब का एक पैसा इधर-उधर हुआ कि पैर की चट्टी खोलकरहाथ में ले लेती थी। आखिर फुलिया कितना बर्दास करती। टीसन के पैटमान जी नहीं रहते तो फुलिया की इज्जत भी नहीं बचती। फुलिया अब पैटमान जी के यहाँ रहती है। खलासी एक दिन पैटमान से लड़ाई करने आया। टीसनमास्टरबाबू ने कहा कि यदि खलासी टीसन के हाता में आवे तो पकड़कर पीटो। उसी दिन खलासी जो दुम दबाकर भागा तो फिर खाँसी भी नहीं करने आया कभी। पैटमान जी जात के छत्री हैं-तन्त्रिमा छत्री नहीं, असल बुंदेला छत्री : पान-जर्दा खाते-खाते दाँत टूट गए हैं; पत्थर का नकली दाँत लगाते हैं। कहने को नकली दाँत हैं, मगर असली दाँत से भी बढ़कर हैं। चना, भुट्टा और अमरूद सबकुछ चबाकर खाते हैं पैटमान जी। पचीस साल पहले हासाम (आसाम) मुलुक में चाह पीते और पान-जर्दा खाते-खाते दाँट टूट गए हैं, उमेर तो अभी कुछ भी नहीं है। दस बरस से ‘बेवा’ थे, मन के लायक स्त्री मिली ही नहीं। पैटमान जी ने मँहगूदास के लिए एक पुरानी नीली कमीज भेज दी है। कमीज पहनने पर मँहगू को पहचानने में गलती हो जाती है। ठीक रेलवे का आदमी !…बुढ़िया के लिए नई साड़ी भेज दी है। एक बित्ता काली किनारी है।…इस बार के कोटा में असली ‘संतीपुरी साड़ी’ मिलेगी तो फुलिया को भेज देगा। फुलिया कहती है, इस बार माँ को भी साथ ले जाएगी।
फुलिया का भाग ! रमपियरिया की माँ कहती है-“रमिया भी अब बिहाने के जोग हो गई। बिना बाप की बेटी है ! जब से तुम ससुराल हो गई हो, रोज एक बार तुम्हारा जिकर करती है रमिया-‘फुलिया दीदी कब आवेगी ? इस बार फुलिया दीदी आवेगी तो साथ में मैं भी जाऊँगी। यदि उधर कोई बर नजर में आए तो रमिया को भी अपने साथ ले जाओ फूलो बेटी। कोयरीटोले के छोकड़े दिन-दिन बिगड़ते जा रहे हैं।…”
सहदेव मिसर पर तन्त्रिमाटोली का कुत्ता भी भूँकता है ! बहुत दिनों के बाद वह तन्त्रिमाटोली में आया है-फुलिया के बुलाने पर।…दस दिन रहेगी, फिर चली जाएगी। फुलिया अब जात-समाज से नहीं डरती। वह तन्त्रिमा छत्री नहीं, वह असल बुन्देला छत्री की स्त्री है। आँगन में अपने से पकाकर खाती है।…माँ का छुआ भी नहीं खाती !
वह तो मेहमान होकर आई है। उसके जी में जो आवे, वह करेगी। कोई कुछ नहीं बोल सकता।…वह सहदेव मिसर को बैठने के लिए चटाई देती है। एक काँच की छोटी-सी थरिया में सुपारी, सौंफ और दालचीनी के टुकड़े बढ़ा देती है।…तो फुलिया भूली नहीं है उसे ? वाह ! सहर का पानी चढ़ने पर बाहर तो एकदम बदल गया है, पर भीतर जैसा-का-तैसा। काजलवाली आँखें और भी बड़ी मालूम होती हैं। अँगिया और नक्सा कोर की सफेद साड़ी। सहदेव मिसर डरते-डरते कहता है-
“फुलिया !”
“क्या ?” फुलिया मुस्कराती है। सहदेव मिसर का चेहरा एकदम लाल हो रहा है। कान लाल हो गए हैं। नाक के पासवाला सिरा धकधक कर रहा है-“फुलिया, जब से तुम गईं मैंने कभी इस टोले में पैर नहीं दिया।”
“रहने दो ! गहलोतटोले में नहीं जाते थे ?…पनबतिया के यहाँ कौन जाता था ? झूठ मत बोलो।” फुलिया हँसती है।
“नहीं फूलो!”
ढिबरी की रोशनी में सहदेव मिसर फुलिया की आँखों की नई भाषा को पढ़ता है।…हवा के झोंके से ढिबरी बुझ जाती है। फुलिया बालों में महकौआ (सुगन्धित) तेल लगाती है। अँगिया के नीचेवाली छोटी चोली में रब्बड़ (रबर) लगा रहता है शायद ।…फुलिया की देह से अब घास की गन्ध नहीं निकलती है। सौंफ, दालचीनी खाने से मुँह गमकता है।…शहर की बात निराली है। शहर की हवा लगते ही आदमी बदल जाता है। तहसीलदार की बेटी तो कभी शहर गई भी नहीं।…जाति की बन्दिश और पंचायत के फैसले को तो सबसे पहले पंच लोगों ने ही तोड़ा है।…तन्त्रिमाटोली का छड़ीदार है नोखे और उचितदास; जिसे चाल से बेचाल देखेगा, छड़ी से पीठ की चमड़ी खींच लेगा। नोखे की स्त्री रामलगनसिंह के बेटे से फँसी हुई है और उचितदास की बेटी कोयरीटोले के सरन महतो से। पंचायत का फैसला ज्यादा-से-ज्यादा दस दिनों तक लागू रह सकता है। पुश्त-पुश्तैनी से जो रीति-रेवाज गाँव में चला आ रहा है, उसको एक बार ही बदल देना आसान नहीं। जिनके पास जगह-जमीन है, पास में पैसा है, वह भी तो अपने यहाँ का चाल-चलन नहीं सुधार सकते।…बाबूटोली के किस घर की बात छिपी हुई है।…पंच लोग पंचायत में बैठकर फैसला कर सकते हैं, उसमें कुछ लगता तो नहीं। लेकिन पंचायत के फैसले से चूल्हा तो नहीं सुलग सकता ? पंचों को क्या मालूम कि एक मन धान में कितना चावल होता है ! सास्तर में कहा है, ‘जोरू जमीन जोर का, नहीं तो किसी और का।’ और देह के जोर से आजकल सब कुछ नहीं होता। जिसके पास पैसा है वही बोतल मिसर (मिथिला का एक प्रसिद्ध पहलवान) पहलवान है। वही सबसे बड़ा जोरावर है।
…तहसीलदार साहब की बेटी शाम से ही, आधे पहर रात तक, डागडरबाबू के घर में बैठी रहती है; चाँदनी रात में कोठी के बगीचे में डागडर के हाथ-में-हाथ डालकर घूमती है। तहसीलदार साहब को कोई कहने की हिम्मत कर सकता है कि उनकी बेटी का चाल-चलन बिगड़ गया है ?…तहसीलदार हरगौरीसिंह अपनी खास मौसेरी बहन से फँसा हुआ है। बालदेव जी कोठारिन से लटपटा गए हैं। कालीचरन ने चरखा स्कूल की मास्टरनी जी को अपने घर में रख लिया है। उन लोगों को कोई कुछ कहे तो ?…जितना कानून और पंचायत है सब गरीबों के लिए ही ? हुँ !
जमीन के लिए गाँव में नई दलबन्दी हुई। जिन लोगों की जमीन नीलाम हुई है, दर्खास्ते खारिज हुई हैं, वे एक तरफ हैं। जिन्होंने नई बन्दोबस्ती ली है अथवा जमींदार से माफी माँग ली है, सुपुर्दी लिखकर दे दी है या जो जमीन बन्दोबस्त लेना चाहते हैं, वे सभी दूसरी तरफ हैं। गरीबों और मजदूरों के टोलों पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। खेलावन के हलवाहों को कालीचरन ने हल जोतने से मना कर दिया है। तहसीलदार हरगौरीसिंह का नाई, धोबी और मोची बन्द करने के लिए कालीचरन घर-घर घूमकर भाखन देता है। गाँव से सारे पुराने बाँध टूट गए हैं, मानो बाढ़ का नया पानी आया हो।…
गरीबों और मजदूरों की आँखें कालीचरन ने खोल दी हैं। सैकड़ों बीघे जमीनवाले किसानों के पास पैसे हैं, पैसे से गरीबों को खरीदकर गरीबों के गले पर गरीबों के जरिए ही छुरी चलाते हैं।…होशियार ! जिन लोगों ने नई बन्दोबस्ती ली है, वे गरीबों की रोटी मारनेवाले हैं…!
कालीचरन ने चमारटोली में भात खा लिया ?
जात क्या है ! जात दो ही हैं, एक गरीब और दूसरी अमीर।…खेलावन को देखा, यादवों की ही जमीन हड़प रहा है।…देख लो आँख खोलकर, गाँव में सिरिफ दो जात हैं।
अमीर-गरीब !
तहसीलदार हरगौरीसिंह काली टोपीवाले नौजवानों से कहते हैं, “इस बार मोर्चे पर जाना पड़ेगा। हिन्दू राज कायम करने के लिए पहले गाँव में ही लोहा लेना पड़ेगा…।”
संयोजक जी आजकल महीने में दो बार घर मेनिआर्डर भेजते हैं। संयोजक जो कहेंगे उसे काली टोपीवाले नौजवान प्राण रहते नहीं काट सकते हैं। आग और पानी में कूद सकते हैं; इसी को कहते हैं अनुशासन !
बावनदास जिला कांग्रेस के नेताओं को खबर देने गया है-“गाँव में जुलुम हो रहा है।”
पैंतीस
तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के सामने विकट समस्या उपस्थिति है । नई बंदोबस्तीवाले किसान रोज उनके यहाँ जाते हैं। मामला-मुकदमा उठने पर विश्वनाथ प्रसाद की गवाही की जरूरत होगी। बेजमीन लोग अपनी पार्टीबंदी कर रहे है; जमीनवालों को भी भंदभाव, लड़ाई-झगड़ों को भूलकर एक हो जाना चाहिए ।” तहसीलदार हरगौरीसिंह दिन-रात विश्वनाथबाबू के घर पर ही रहते हैं !
“काका ! इस बार इज्जत बचा लीजिए ! क्या आप यही चाहते हैं कि नाई, धोबी और चमार के सामने हम हाथ जोड़कर गिड़गिड़ावें ?” कल से ही रामकिरपाल काका की गुहाल में गाय मरी पड़ी है। चमार लोगों ने उठाने से इनकार कर दिया है। जीवेसरा चमार को लीडर आपने ही बनाया है” राजपूतटोले के लोगों को देखिए, दाढ़ी कितनी बड़ी-बड़ी हो गई है। नाइयों ने काम करना बंद कर दिया है। आपके हाथ में सबोंकी चुटिया है। आप एक बार कह दें तो सबों की नानी मर जाए…”
कालीचरन आकर कहता है, “बिसनाथ मामा, आप काँगरेस के लीडर हैं। इसी बार देखना है कि काँगरेस गरीबों की पाटी है या अमीरों की।…आज तक मैंने आपको देवता की तरह माना है। लेकिन गरीबों के खिलाफ कदम बढ़ाइएगा तो हम भी मजबूर होकर…।”
तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद क्या करें, क्या नहीं करें, कुछ समझ नहीं पा रहे हैं।
बावनदास पुरैनियाँ से लौट रहा है।
वह गया था, ‘जुलुम हो रहा है’ सुनाने। उसने पुरैनियाँ में देखा, जुलुम हो रहा है।
वह गया था, ‘जुलुम हो रहा है’ सुनाए। उसने पुरैनियाँ में देखा, जुलुम हो रहा है।
कचहरी में जिले-भर के किसान पेट बाँधकर पड़े हुए हैं। दफा 40 की दर्खास्तें नामंजूर हो गई हैं, ‘लोअर कोट’ से। अपील करनी है।…अपीलो ? खोलो पैसा, देखो तमाशा। क्या कहते हो ? पैसा नहीं है ! तो हो चुकी अपील। पास में नगदनारायण हो तो नगदी कराने आओ।…
कानून और कचहरी कम्पौंड में पलनेवाले कीट-पतंगे भी पैसा माँगते हैं।
जिला काँग्रेस आफिस में जुलुम हो रहा है। जिला काँग्रेस के सभापति का चुनाव होनेवाला है। चार उम्मीदवार हैं, दो असल और दो कमअसल (डम्मी कैंडिडेट)। राजपूत भूमिहार में मुकाबिला है। जिले-भर के सेठों और जमींदारों की मोटरलारियाँ दौड़ रही हैं। एक-दूसरे के गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं। कटिहार कॉटन मिलवाले सेठजी भूमिहार पार्टी में हैं और फारबिसगंज जूट मिलवाले राजपूतों की ओर।…पैसे का तमाशा कोई यहाँ आकर देखे !
बावनदास सोचता है, अब लोगों को चाहिए कि अपनी-अपनी टोपी पर लिखवा लें-भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, यादव, हरिजन !..कौन काजकर्ता किस पार्टी का है, समझ में नहीं आता।
“जुलुम हो रहा है ?”
“जी हाँ, जुलुम हो रहा है।”
“देखिए बावनदास जी, बात यह है कि 95 सैकड़े लोगों ने तो गलत और झूठा दावा किया होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। सही और वाजिब हकवाले बाकी रैयत भी इन्हीं झूठे दावे करनेवालों के कारण बेमौत मर गए। इसमें कानून का क्या दोष है ? लोगों का नैतिक पतन हो गया है। देखिए, इस बार जिला कमिटी में, इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पास होनेवाला है।”
“बेदखल किसानों से क्या कहेंगे?”
“क्या कहिएगा ? कहिए कि जमींदारी प्रथा खत्म हो रही है। आज बिहार मन्त्रिमंडल ने ऐलान कर दिया है-जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए बिहार सरकार कटिबद्ध है।”
बावनदास किसानों से क्या कहेगा ?
जमींदारी प्रथा खत्म हो जाएगी ? तब ये काँग्रेसी जमींदार लोग क्या करेंगे ? सब मिल खोलेंगे शायद। इसीलिए प्रायः हरेक छोटे-बड़े लीडर के साथ एक मारवाड़ी घूमता है। बावनदास को याद आती है पाँच महीने पहले की बात ! पुरैनियाँ टीसन में तीलझाड़ी के शंकरबाबू ने अपने साथ के दस काजकर्ताओं को पूरी-मिठाई का जलपान कराया, और पैसा दिया तीलझाड़ी हाट के मारवाड़ी चोखमल जुहारचन्द के बेटे ने।…’हाँ जी, खाओ जी ! तुम्हीं लोग तो देश के असल सेवक हो। जेहल में खिचड़ी खाते-खाते जिन्दगी बिता दी। सारे इलाके के काजकर्ता को खिलाया और एक-एक सेर मिठाई भी खरीद दी।…चोखमल जुहारचन्द का बेटा आजकल अररिया सबडिविजन कांग्रेस का खजांची है। साठ रुपए जोड़ी खादी की धोती पहनता है। चरखासंघ के बाबू कितना खातिर करते हैं!
“जुलुम हो गया।”
“क्या हुआ ?”
“जमींदारी परथा खत्तम।”
“जुलुम बात !”
यहाँ के लोग सुख-संवाद सुनकर भी कहते हैं-जुलुम बात ! जुलुम हँसी, जुलुम खुशी ! बँगला के ‘भीषण सुन्दर’ की तरह।
“जुलुम बात !”
“क्या है?”
“बावनदास ने जमींदारी परथा खत्तम कर दिया।” कामरेड बासुदेव दौड़ता हुआ आकर कालीचरन को खबर देता है।
“बावनदास ने ?”
“नहीं। बावनदास खबर लेकर आया है। काँग्रेस के मन्त्री जी ने जमींदारी का नास कर दिया है।”
“जब तक ‘लाल पताका’ अखबार में यह खबर छापी नहीं हो, इस पर बिसवास मत करो कामरेड ! यह सब काँगरेसी झाईं है। खैर, मैं कल ही सिकरेटरी साहेब से पूछ खबर दे दो। इस बार आखिरी तारीख है, इसके बाद ‘लाल पताका’ में नाम निकल जाएगा।”
“सनिचरा ने तो मेंबरी के पैसे से सोसलिस्ट-काट कुर्ता बना लिया है। कहता है, सन-पटुआ होने पर पैसा जमा कर देंगे।”
“जुलुम बात है। मेंबरी के पैसे से कुर्ता ? नहीं, उससे कहो, पैसा जमा करना होगा।”
तहसीलदार हरगौरी और तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद अब एक पान को दो टुक करके खाते हैं। सच ? सच नहीं तो क्या ? बेतार सुमरितदास सबों से कहता फिरता है…” कलम और कानून की बात जहाँ आएगी, वहाँ लाठी-भाला चलानेवाले क्या करेंगे ? तहसीलदार बिस्नाथपरसाद पुराने तहसीलदार हैं। राज पारबंगा के नीमक-पानी से ही सबकुछ हुआ है। कायस्थ नमकहरामी नहीं कर सकता कभी।…कँगरेसी हुए हैं तो क्या अपने पैसे को भूल जाएँगे ?”
संथालटोली में मादल बज रहा है-
सोनो रो रूप, रूपे रो रूप
गातेज दिसाय रे सोना मुन्दोम
गातेञ उईहय जीवोदो लोकतिय।
डा डिग्गा, डा डिग्गा ! रि-रि-ता-धिन-ता !
सोने और चाँदी के बीच मेरे प्रियतम का रूप सोने की तरह है। सोने की अंगूठी को देखकर अपने प्रियतम की याद आती है।
संथाल परगना के आदिवासी संथालों को सोने की झलक लगी है या नहीं, कौन जाने ! लेकिन यहाँ के संथाल, सोने और चाँदी में क्या फर्क है, जानते हैं।
…जमींदारी प्रथा खतम हो गई। अब जमींदार जमीन से बेदखल नहीं कर सकता। हमने उन्हें जमीन से बेदखल कर दिया। जो जोतेगा, जमीन उसकी है। जो जितना जोत सको, जिसकी जमीन मिले जोतो, बोओ, काटो। अब बाँटने का भी झंझट नहीं।…धरती माता का प्यार झूठा नहीं। फिर खेतों में जिन्दगी झूमेगी। आसाढ़ के बादल बजा रहे हैं मादल, बिजली नाच रही है। तुम भी नाचो।…नाचो रे ! मादल बजाओ जोर-जोर से। पँचाय (संथालों के घर में बनी हुई शराब) का नशा आज नहीं उतरेगा; जब तक पूर्णिमा का चाँद नहीं डूब जाए, घने बादलों में नाचना बन्द नहीं होगा। चाँदनी की तरह प्रियतमा की मुस्कराहट, बाँसुरी-सी मीठी बोली तीर की तरह दिल पर घाव करती है।…मेरे कलेजे पर फूलों से भरा हुआ सिर रख दो।
डा डिग्गा, रिं-रिं ता धिन !…