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मैला आँचल प्रथम भाग खंड13-17/फणीश्वरनाथ रेणु

तेरह

गाँव के ग्रह अच्छे नहीं !

सिर्फ जोतखी जी नहीं, गाँव के सभी मातबर लोग मन-ही-मन सोच-विचार कर देख रहे हैं-गाँव के ग्रह अच्छे नहीं !

तहसीलदार साहब को स्टेट के सर्किल मैनेजर ने बुलाकर एकान्त में कहा है, “एक साल का भी खजाना जिन लोगों के पास बकाया है, उन पर चुपचाप नालिश कर दो। बलाय-बलाय (घूस देकर) से नोटिस 58 बी. तामील करवा लो। कुर्की और इश्तहार निकास करवाकर सरज़मीन पर चपरासी को ले जाने की जरूरत नहीं। कचहरी में ही बैठकर गाँव के चमार से अँगूठा का टीप लेकर ढोल बजाने की रसीद बनवा लो।…गाँव के एक-दो गवाहों को भी ठीक करके रखो। स्टेट से उनको भत्ता मिलेगा। इन काँगरेसियों का कोई ठीक नहीं।”

सिंघ जी यादवटोला के नढ़ेलों (बदमाशों) का सीना तानकर चलना बरदाश्त नहीं कर सकते। जोतखी जी ठीक कहते थे-बार-बार लाठी-भाला दिखलाते हैं। हौसला बढ़ गया है। अब तो राह चलते परनाम-पाती भी नहीं करते हैं यादव लोग ! कलिया कभी-कभी चिढ़ाने के लिए नमस्कार करता है। देह में आग लग जाती है सुनकर। लेकिन सिंघ जी क्या करें ? राजपूतटोली के नौजवान लोग भी ग्वालों के दल में ही धीरे-धीरे मिल रहे हैं। अखाड़े में ग्वालों के साथ कुश्ती लड़ते हैं। रोज शाम को कीर्तन में भी जाने लगे हैं। हरगौरी ठीक कहता था-यदि यही हालत रही तो पाँच साल के बाद ग्वाले बेटी माँगेंगे। तब काली कुर्तीवालों के बारे में जो हरगौरी कहता था, उन लोगों को बुला लिया जाए ? कहता था, लाठी-भाला सिखानेवाला मास्टर आवेगा। संजोगकजी या सनचालसजी, क्या कहता था, सो आवेंगे। हिन्दू राज-महराना प्रताप और शिवाजी का राज होगा। हरगौरी आजकल बड़ी-बड़ी बातें करता है।

भंडारा के दिन सिंघ जी रूठे हुए खेलावनसिंह यादव को घर से जबर्दस्ती खींचकर ले गए थे, लेकिन खेलावनसिंह का मन रूठा ही हुआ था। जोतखी काका रोज आते हैं। उन्होंने कहा है, सकलदीप का अठारह साल की उम्र में माता या पिता का बिजोग लिखा हुआ है। सकलदीप का यह सत्रहवाँ जा रहा है। सकलदीप की माँ बेटे का गौना करवाने के लिए रोज तकादा करती है। बेटे को वोकील बनाने की इच्छा शायद काली माई पूरी नहीं होने देगी। गौना के बाद फिर क्या पढ़ेगा ! माता-पिता का बिजोग ? बालदेव को सारी दुनिया की भलाई तो सूझती है, मगर जिसका नमक खाता है उसके लिए एक तिनका भी तो सोचे। दिन-भर तहसीलदार के यहाँ बैठा रहता है और शाम को कीर्तन ! कमला किनारेवाले एक जमा में कलरु पासवान के दादा का नाम कायमी बटैयादार की हैसियत से दर्ज है। बालदेव से कहा कि कलरु से कह-सुनकर सुपुर्दी लिखवा दो या रजिस्ट्री करवा दो, तो कान ही नहीं दिया। हलवाहा गोनाय ततमा कल से हल जोतने नहीं आता है। कहता है, पिछले साल का बकाया साफ कर दीजिए तो हल उठावेंगे। बालदेव टुकुर-टुकुर देखता रहा, कुछ बोला भी नहीं, उलटे हमसे बहस करने लगा,…गरीब लोगों का दरमाहा नहीं रोकना चाहिए भाई साहब !

जोतखी जी की अठारह साल की नववधू कनचीरावाली के पेट में रोज खाने के बाद दर्द हो जाता है। पिछले एक साल से वह खाने के बाद पेट पकड़कर सो जाती है। इस साल तो और भी दर्द बढ़ गया है।…डागडरी दवा ? नहीं, नहीं। डागडर तो पेट टीपेगा, जीभ देखेगा, आँख की पपनियाँ उलटाकर देखेगा, पेसाब और पाखाना के बारे में पूछेगा, सायद लहू भी जाँच करे। इधर वह रोज कहती है, डागडरबाबू ने कोयरीटोला की छोटी चम्पा को एक ही जकशैन में आराम कर दिया है। इसी तरह उसके पेट में भी दर्द रहता था।…औरत को समझाना बड़ा कठिन काम है। सभी औरतें एक समान। जो जिद पकड़ेगी, पकड़े रहेगी। जोतखी जी को अपनी चार स्त्रियों का अनुभव है। पहली बेचारी को तो सिर्फ मेला-बाजार देखने का रोग था। कोई भी मेला नहीं छोड़ती थी वह। जहाँ मेला आया कि जोतखी जी के तीसों दिन परमानन झा की खुशामद करने में ही बीतते थे। परमानन की भैंसागाड़ी पर ही मेला जाएगी। परमानन बेचारा खुद गाड़ी हाँककर मेला ले जाता था, कभी भाड़ा नहीं लिया। आखिर बेचारी की मृत्यु भी मेले में ही हुई। उस साल अर्धोदय के मेले में वह जोरों का हैजा फैला था।…दूसरी को हुक्का पीने की आदत थी। ब्राह्मण का हुक्का पीना ? लेकिन जोतखी जी क्या करते-औरत की जिद्द। जब वह बीमार पड़ती थी तो बहुत बार जोतखी जी को ही हुक्का तैयार कर देना पड़ता था।…पुरानी खाँसी से खाँसते-खाँसते वह भी मर गई।…तीसरी को इस बात की जिद्द लग गई थी कि वह गाँव के लड़कों से हँसना-बोलना बन्द नहीं करेगी।…और कनचीरावाली को डागडरी दवा की जिद लग गई है। एकमात्र पुत्र रामनगरायण तो कुपुत्र निकला। बिदापत नाच करता है। ततमा पासवानों के साथ रहता है। सारी ब्राह्मण मंडली में उसकी शिकायत फैल गई है। कोई बेटी देता ही नहीं। जोतखी जी क्या करें ? हाथ की उर्ध्व-रेखा तो सीधे तर्जनी में चली गई है, लेकिन कुंडली के दसम घर में शनि है। समझाते-समझाते थक गया कि अपना नाम रामनारायण मिश्र कहा करो, लेकिन वह भी गँवार की तरह नामलरैन ही कहता है।…रामनारायण के साथ कनचीरावाली को एक दिन इसपिताल भेज दें ? घर पर बुलाने से तो डागडर फीस लेगा।

लरसिंघदास गाँव के घर-घर में जाकर पंचों से कह रहा है-“आचारज गुरु आ रहे हैं। मठ का अधिकारी महन्थ वही है; उसी को चादर-टीका मिलनी चाहिए, महन्थ की रखेलिन या दासिन को मठ के मामले में कुछ बोलने का अधिकार नहीं। रामदास तो भैंसवार है। इतने बड़े मठ को चलाना मूरख आदमी के बूते की बात नहीं। वह ‘बीए’ पास है। अंग्रेजी में ही बीजक बाँचता है। इसीलिए तो बाबड़ी-केश रखता है, धोती-कुर्ता पहनता है और आधी मूंछ कटाता है।…मठ पर एक स्कूल खोलेंगे। गाँववालों की भलाई करेंगे। आप लोग बुद्धिमान आदमी हैं, खुद विचारकर देख सकते हैं। दासिन रखेलिन मठ को बिगाड़ देती है; साधू-धरम को भ्रष्ट कर देती है। आप लोग खुद विचारकर देख सकते हैं।”

तन्त्रिमाटोले में पंचायत हुई ! बन्दिश हुई है-तन्त्रिमाटोले की कोई औरत अब बाबूटोला के किसी आँगन में काम करने नहीं जाएगी। बाबू-बबुआन लोग शाम को गाँव में आवें, कोई हर्ज नहीं; किसी की अन्दरहवेली में नहीं जा सकते। मजदूरी में जो एक-आध सेर मिले, उसी में सबों को सन्तोख रखना होगा। बलाई आमदनी में कोई बरकत नहीं। अनोखे और उचितदास छड़ीदार हुआ है। जिसे चाल से बेचाल देखेगा, 3 बाँस की छड़ी से पीठ की चमड़ी उधेड़ लेगा।

तन्त्रिमा लोगों की इस बन्दिश के बाद गहलोत छत्री, कर्म छत्री, पोलियाटोले, धनुखधारी और कुशवाहा छत्रीटोले के पंचों ने भी ऐसी ही व्यवस्था की है।…सिर्फ जनेऊ लेने से ही नहीं होता है, करम भी करना होगा। जाए तो कोई बाबू कभी संथालटोली में, शाम या रात को ! उनकी औरतों से कोई दिल्लगी भी कर सकता है।…संथालों के तीर पर जहर का पानी चढ़ाया रहता है।

कुंर्म छत्रीटोले के लौजमानों ने कल रात को शिवशक्करसिंह को बेपानी कर दिया। झुबरी मुसम्मात का घर तो टोले के एक छोर पर है न, सिपैहियाटोली की बाँसवाड़ी के ठीक बगल में ! लेकिन शिवशक्करसिंह को क्या मालूम कि बाँस की झाड़ियों में छोकरे पहले से ही छिपे हुए हैं !…झुबरी मुसम्मात को दस रुपए जरिमाना हुआ है। जहाँ से दे, देना तो होगा ही, नहीं तो हुक्का-पानी बन्द। शिवशक्करसिंह से रुपया लेकर दे। इसी तरह लालबाग मेला में पंचलैट खरीद होगा। बिना पंचलैटवाली पंचायत की क्या कीमत ? लैट के दाम में बीस रुपैया और कम है। एक दिन फिर बाँसवाड़ी में एक घंटा मच्छड़ कटवाना होगा, और क्या ?

कालीचरन का अखाड़ा आजकल खूब जमता है। शाम को कीरतन भी खूब जमता है। नया हरमुनियाँ खरीद हुआ है। गंगा जी के मेले से गंगतीरिया ढोलक लाया गया है। खूब गम्हड़ता है।

बालदेव जी को कीरतन तो पसन्द है, लेकिन अखाड़ा और कुश्ती को वे खराब समझते हैं।…शरीर में ज्यादा बल होने से हिंसाबात करने का खौफ रहता है। असल चीज़ है बुद्धि । बुद्धि के बल से ही गन्ही महतमा जी ने अंग्रेजों को हराया है। गाँधी जी की देह में तो एक चिड़िया के बराबर भी मांस नहीं। काँगरेस के और लीडर लोग भी दुबले-पतले ही हैं।

लेकिन कालीचरन का अखाड़ा बन्द नहीं हो सकता। ढोल की आवाज में कुछ ऐसी बात है कि कुश्ती लड़नेवाले नौजवानों के खून को गर्म कर देती है।

ढाक ढिन्ना, ढाक ढिन्ना ! शोभन मोची ने ढोल पर लकड़ी की पहली चोट दी कि देह कसमसाने लगता है।

ढिन्ना ढिन्ना, ढिन्ना ढिन्ना…!
अर्थात्-आ जा, आ जा, आ जा, आ जा !

सभी अखाड़े में आए। काछी और जाँघिया चढ़ाया, एक मुट्ठी मिट्टी लेकर सिर में लगाया और ‘अज्ज्ज्जा ‘ कहकर मैदान में उतर पड़े। कालीचरन ‘आ-आ-अली’ कहकर मैदान में उतरता है। चम्पावती मेला में पंजाबी पहलवान मुश्ताक इसी तरह ‘आली’ (या अली) कहकर मैदान में उतरता था…

तब शोभन ताल बदल देता है-

चटधा गिड़धा, चटधा गिड़धा !
…आ जा भिड़ जा, आ जा भिड़ जा !

अखाड़े में पहलवान पैंतरे भर रहे हैं। कोई किसी को अपना हाथ भी छूने नहीं देता है। पहली पकड़ की ताक में हैं। वह पकड़ा…

धागिड़ागि, धागिड़ागि, धागिड़ागि !
…कसकर पकड़ो, कसकर पकड़ो !
चटाक चटधा, चटाक चटधा !
…उठा पटक दे, उठा पटक दे !
गिड़ गिड़ गिड़ धा, गिड़ धा गिड़ धा !
…..वह वा, वह वा, वाह बहादुर !

पटक तो दिया, अब चित्त करना खेल नहीं ! मिट्टी पकड़ लिया है। सभी दाव के पेंच और काट उसको मालूम हैं !

ढाक ढिन्ना, तिरकिट ढिन्ना !
…दाव काट, बाहर हो जा! वाह बहादुर ! दाव काटकर बाहर निकल आया। फिर, धा-चट गिड़ धा ! आ जा भिड़ जा ! ढोल के हर ताल से पैंतरे, दाँव-पेंच, काट और मार की बोली निकलती है।

कालीथान में पूजा के दिन इसी ढोल की ताल एकदम बदल जाती है। आवाज़ भी बदल जाती है। धागिड़ धिन्ना, धागिड़ धिन्ना !

…जै जगदम्बा ! जै जगदम्बा !
गाँव की रक्षा करो माँ जगदम्बा।

चौदह

चढ़ली जवानी मोरा अंग अंग फड़के से
कब होइहैं गवना हमार रे भउजियाऽऽऽ !

पक्की सड़क पर गाड़ीवानों का दल भउजिया का गीत गाते हुए गाड़ी हाँक रहा .’ है। “आँ आँ ! चल बढ़के। दाहिने…हाँ, हाँ, घोड़ा देखकर भी भड़कता है ! साला…!”

हथवा रंगाये सैयाँ देहरी बैठाई गइले
फिरहू न लिहले उदेश रे भउजियाऽऽऽ !

ननदिया के दिल की हूक गाड़ीवानों के गले से कूक बनकर निकल रही है। भउजिया ?…कमली की कोई भौजी नहीं, किससे दिल की बात कहे ? भउजिया की ननदिया की तो शादी हो चुकी है, कमली का तो हाथ भी पीला नहीं हुआ है।… ‘प्रेमसागर’ में मन नहीं लगता है-‘श्री सुकदेव जी बोले कि हे राजा, एक दिन कृष्ण कन्हैया वंशी बजैया कदम के बिरिछ पर बैठके बंशी बजाए रहे थे।’ चीरहरणलीला की तस्वीर को देखकर कमली का जी न जाने कैसा-कैसा करने लगता है ! वह ‘प्रेमसागर’ बन्द कर देती है।

-सुबह प्यारू आया था। कितना गौ आदमी है प्यारू !…आज क्या बना था प्यारू ? डाक्टर साहब आज ठीक समय पर खाए थे या शीशी-बोतल लेकर पड़े हुए थे ? प्यारू हँसकर हमेशा की तरह जवाब देगा, “अरे, क्या पूछती हो दैया ! इस आदमी का हमको कोई ताल-पता (ठौर-ठिकाना) नहीं लगता है। रोज कहेंगे कि प्यारू आज खाना जरा जल्दी बनाओ, और खाते फिर वही रात में ग्यारह बजे और दिन में दो बजे। आज बंधा का झोल बना था। झोल क्या खाएँगे ? मिर्च-मसाला छूते भी नहीं हैं। खाने का तो कोई सौख नहीं है, जो बना दो खा लेंगे।…और शीशी-बोतल ? क्या पूछती हो दैया ! कल से मच्छड़, खटमल और तिलचट्टे के पीछे पड़े हुए हैं। आज संथालटोली के जोगिया माँझी को कह रहे थे-चार खरगोश और एक दर्जन चूहा पकड़कर दे जाओ। पूरा इनाम मिलेगा।”

प्यारू को गाँव-भर की औरतें प्यार करती हैं। गाँव-भर में उसकी मामी, मौसी, नानी, दादी और काकी हैं। सभी जवान लड़कियों को वह ‘दैया’ कहता है।

….डाक्टर की मुस्कराहट बड़ी जानलेवा है। जब आवेगा तो मुस्कराते हुए आवेगाडर लगता है ?…हाँ-हाँ, डर लगता है तो तुमको क्या ? तुमको तो मज़ा मिलता है न ! मुस्कराए जाओ।…गले में आला लटकाए फिरते हैं बाबू साहब ! छाती और पीठ में लगाकर लोगों के दिल की बीमारी का पता लगाते हैं। झूठ ! इतने दिन हो गए, मेरे दिल की बात, मेरी बीमारी को कहाँ जान सके ! या जान-बूझकर अनजान बनते हो डाक्टर ! तुम्हारी मुस्कराहट से तो यही मालूम होता है।…अच्छा डाक्टर ! सच-सच बताना, तुम क्यों मुस्कराते हो ? तुम मुझे जलाने के लिए इस गाँव में क्यों आए ? नहीं, नहीं, तुम नहीं आते तो पागल हो जाती। रोज सपने में कमला नदी की बाढ़ में मैं बह जाती थी। बड़े-बड़े साँप ! तरह-तरह के साँप काटने दौड़ते थे। तुम आए, मैं डूबते-डूबते बच गई।…मेरी आँखों की पपनियाँ उलटकर देखो, मेरी पीठ पर आला लगाकर देखो, मेरे दिल की बात सुनो।…तुम डाँटते हो, बड़ा अच्छा लगता है ! तुम मुझे सूई से डराते हो, चिढ़ाते हो। कितना अच्छा लगता है मुझे ! फिर मीठी दवा भेज दूंगा ?…हाँ जी, भेज देना, पूछते हो क्या ! तुम्हारी बोली क्या कम मीठी है ! लेकिन तुम एक बार जरूर आया करो। नहीं आओगे तो मुझे डर लगेगा !…सिपैहियाटोली की कुसमी कहती थी, डाक्टर मुझसे भी पूछता था-मीठी दवा चाहिए क्या ?…मैं नहीं विश्वास करती, डाक्टर ऐसा नहीं है। कुसमी झूठ बोलती है। मीठी दवा और किसी को मिल ही नहीं सकती है। डाक्टर, खबरदार ! कुसमी बड़ी चालबाज लड़की है। बहुतों को बदनाम किया है उसने। हरगौरी उसका मौसेरा भाई है, लेकिन जाने…दो, क्या करोगे सुनकर ? उसकी ससुराल फारबिसगंज में है। घरवाला एक मारवाड़ी का सिपाही है। रात-भर सिपाही पहरा करता है और कुसमी ‘बैसकोप’ देखने जाती है।…

‘…श्री सुकदेव जी बोले कि हे राजा ! एक दिन यशुमती सभी ग्वालिनों को बुलाए।’

“कमली।”

“माँ !”

“पढ़ना बन्द करो। डाकडरबाबू ने मना किया है न ! दवा पी लो। मैं तुम्हारी किताब बक्से में बन्द कर ताला लगा दूँगी। हाँ, ऐसे तुम नहीं मानोगी।”

“पढ़ने से क्या होगा माँ !”

“लड़की की बात तो सुनो जरा ! पढ़ने से क्या होगा सो तो डाकडर से पूछना !”

“डाक्टरबाबू से ?…माँ, तुम्हारा डाक्टर क्या है जानती हो ? माटी का महादेव !

माँ ठठाकर हँस पड़ती है, “एक-एक बात गढ़कर निकालती है तू ! अच्छा, ठहर जा। आज आने दे डाकडरबाबू को।”

माँ-बाप के नैनों की पुतली है कमला। तहसीलदार साहब बेटी की इच्छा के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकते। माँ कमला की हर आवश्यकता को बिना मुँह खोले ही पूरा कर देती है। बाप ने खुद पढ़ाया-लिखाया है रामायण, महाभारत, नल-दमयन्ती, सावित्री-सत्यवान, पार्वती-मंगल और शिवपुराण। कमला रोज शिव पूजती है-‘ओं शिवशंकर सुखकर नाथ बरदायक महादेव !…महादेव ! मिट्टी का महादेव !

“माँ चुप रहो।” कमली माँ से लिपटकर हाथों से मुँह बन्द कर देती है। “पूछो न अपने डाक्टर से, खरगोश पालकर क्या करेंगे !”

डाक्टर कोई जवाब नहीं देता है, सिर्फ मुस्कराता है। फिर गम्भीर होते हुए कहता ___ है, “अब तो सूई देनी ही पड़ेगी; दवा से बेहोशी तो दूर हो गई, लेकिन पागलपन…!”

सभी ठठाकर हँस पड़ते हैं…तहसीलदार साहब, माँ और प्यारू । कमली का चेहरा लाल हो जाता है-“मैं आज खून का दबाव नहीं जाँच कराऊँगी। नहीं-नहीं, ठीक है। हाँ, मैं पगली हूँ !”

“दीदी !” तहसीलदार साहब बेटी को दीदी कहकर पुकारते हैं, “आओ, डाक्टरसाहब को देर हो रही है।”

ब्लड प्रेशर जाँच करते समय डाक्टर गम्भीर होकर यन्त्र की ओर देखता है। कमली तिरछी निगाहों से चोरी-चोरी डाक्टर को देखती है-हाँ जी, मुझे पगली कहते हो ! लेकिन मुझे पगली बना कौन रहा है ?

गाँव में सिर्फ तहसीलदार साहब चाय पीते हैं, बढ़िया चाय की पत्ती का व्यवहार करते हैं। डाक्टर यहाँ हर शाम को चाय पीने आता है। कमला की माँ का अनुरोध है-‘रोज शाम को चाय पी जाइए।’

तहसीलदार साहब कहते हैं, डाक्टर तो अपने समाँग की तरह हो गया है। डाक्टर को भी तहसीलदार साहब से घनिष्ठता हो गई है। तहसीलदार साहब से गाँव-घर और जिले की बहुत-सी नई-पुरानी बातें सुनने को मिलती हैं।…राजपारबंगा स्टेट के जनरैल मैनेजर डफ साहब कैसा आदमी है ! आजकल एकदम हिन्दुस्तानी हो गया है। धोती-कुर्ता पहनता है। कभी-कभी रोरी का टीका भी लगाता है। राज पारबंगा के कुमार जी उसकी मुट्ठी में हैं। डफ साहब की बेटी जब तक रहेगी, कुमार जी डफ साहब को नहीं हटा सकते हैं।…महारानी चम्पावती जाति की मुसहरनी थीं।…राजा भूपतसिंह को ‘मेम रानी’ से दो लड़के हैं। बड़ा ऐयाश है राजा भूपत ! पोलो का जब्बड़ (जबर्दस्त) खिलाड़ी ! दार्जिलिंग रेस में हर साल उसका घोड़ा जीतता है। आजकल भी बाईस घोड़े हैं। बड़ा ऐयाश ! पुन्याह में बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ से इतनी बाई जी आती हैं कि तीन दिन तीन रात महफिल जमी रहती है, एक मिनट भी बन्द नहीं होती।…पैरिस की शराब पीता है। असल राजा तो वही है। राज पारबंगावाला तो मक्खीचूस है।…जिला का सबसे बड़ा किसान है भोला बाबू ! तीस हजार बीघा जमीन है ! रहुआ इस्टेट के गुरुबंशीबाबू भी किसान ही हैं। उनकी बात निराली है। दाता कर्ण हैं। ‘वारफ़न’ में सबसे ज्यादे रुपैया दिया और कांग्रेस के ‘सहायताफन’ में भी सबसे ज्यादे रुपैया दिया और इसी को कहते हैं दुनिया का इन्साफ ! दिल खोलकर दान देने का सुफल क्या मिला है, जानते हैं ? लोगों ने झूठ-मूठ अफवाह फैला दिया है कि नोट बनाता है। अरे भाई, नोट तो बनाती है उसकी कोशी-गंगा किनारे की हजारों बीघा जमीन, जिसमें न हल लगता है न बैल, न मेहनत न मजदूरी ! बाढ़ का पानी हटा और कीचड़वाली धरती पर चना, खेसारी, मटर, सरसों, उरद वगैरह छींट दिया। बस, छींटने में जितनी मेहनत लगे। कोशी और गंगा के पानी से नहाई हुई धरती माता दिल खोलकर अपना धन लुटा देती है।…जिला कांग्रेस के सबसे बड़े लीडर हैं शिवनाथ चौधरी जी।…ओ, आप तो जानते ही हैं उनको ! वह भी बड़े किसान हैं।…पूर्णिया कचहरी में जो वकालत सीसीबाबू कर गए, वह अब कोई वकील क्या करेगा ! हाईकोर्ट के बालिस्टर भी उनके बनाए हुए मिसिल को नहीं काट सकते थे। लेकिन फौजदारी कचहरी में कभी पैर नहीं रखते थे। एक बार राजा भूपत दस हजार फीस देने लगा, खूनी केस था। सीसीबाबू ने अपना प्रण नहीं तोड़ा, कचहरी नहीं गए। कागज पढ़कर सिर्फ एक जगह एक लाइन काट दिया और एक जगह एक अक्षर जोड़ दिया। राजा भूपत बेदाग छूट गया।…अब तो न वह अयोध्या है और न वह राम।…

“बाबा”

“दीदी !”

“डाक्टर साहब आज यहीं खाएँगे।”

“प्यारू से झगड़ा मोल लेना चाहती है ?”

“प्यारू से कह दिया है।”

“तब डाक्टर साहब !…हमारी तो कभी हिम्मत नहीं हुई। दीदी कहती है, यदि शरधा हो तो…”

“श्रद्धा-अश्रद्धा की बात नहीं। बात यह है कि मैं…”

“मिर्च-मसाला नहीं खाते,” कमली बीच में ही बोल उठी, “उबली हुई चीजें खाएँगे। यही न ?”

डाक्टर समझ रहा है-रोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है…शीला रहती तो तुरन्त कुछ कह देती। शायद कहती, ‘भावात्मक संक्रमण’ अथवा ‘प्रत्यावर्तन’ के मोड़ पर रोग पहुँच गया है।

पंद्रह

सुमरितदास को लोग लबड़ा आदमी समझते हैं, लेकिन समय पर वह पते की बातें बता जाता है। आजकल उसका नाम पड़ा है-बेतार की खबर। संक्षेप में ‘बेतार’ । बात छोटी या बड़ी, कोई भी नई बात बेतार तुरत घर-घर में पहुँचा देता है। तहसीलदार का वह रोटिया (गवाही की रोटी खानेवाला) गवाह है। गवाही देते-देते वह बूढ़ा हो गया है; वसूल-तगादा के समय तहसीलदार के साथ रहता है। किसी को दाखिल खारिज करवानी है, किसी रैयत की जमीन में झंझट लगा है या किसी को बन्दोबस्ती लेनी है, तहसीलदार से पहले सुमरितदास से बातें करे। वह रैयतों को एकान्त में ले जाकर कहेगा-तहसीलदार तो हमारी मुट्ठी में हैं। हमको पान-सुपारी खाने के लिए कुछ दो या नहीं दो, तुम्हारी मर्जी; लेकिन तहसीलदार साहब को तो…वाजिब जो है सो… !

रैयतों से छोटी-छोटी चीजें तहसीलदार साहब खुद कैसे माँग सकते हैं ? वह सुमरितदास ही माँगता है-कदू, खीरा, बैंगन, करेला, कबूतर, हल्दी, मिर्चा, साग, मूली और सरसों का तेल ! वह सब तो सुमरितदास अपने लिए लेता है। लेकिन चीजें लेते समय सुमरितदास रैयत से एकान्त में कहता है, “अरे भाई, ये सब चीजें मैं लेकर क्या करूँगा ? न घर है न घरनी, न चूल्हा है न चौका। एक पेट के लिए मँगनी क्यों करूँ ? यह सब तो…।” कभी एक पैसे की तरकारी तहसीलदार साहब के यहाँ खरीदी नहीं जाती। सुमरितदास भला मँगनी करेगा। आज उसकी हालत खराब हो गई है तो क्या वह खानदान की इज्जत को भी लुटा देगा ! उसके परदादा के दरवाजे पर हाथी झूमता था। सब करम का फेर है।…सुमरितदास के पेट में कोई बात नहीं पचती। कालीचरन कहता है-मुँह में दाँत हैं नहीं, बात अटके भी तो कैसे ? बेतार !

बेतार को बहुत-सी बातें मिल गई हैं। पहली बात तो यह कि पच्छिम से मठ पर आचारजगुरु आ रहे हैं, लरसिंघदास को कलक्टर साहब ने भी महन्थ मान लिया है। दूसरी बात यह कि कल से खम्हार (खलिहान) खुलनेवाला है, बीच में भदवा पड़ गया है। तहसीलदार साहब ने कहा है-कल शुभ दिन है।

तहसीलदार साहब के खम्हार के साथ ही गाँव के और किसानों का खम्हार खुलता है। तहसीलदार साहब का खम्हार बड़ा खम्हार कहलाता है। ‘जरीदहाड़’ (बाढ़-सूखा) से बचकर भी दो हजार मन धान होता है।

हाँ, तीसरी बात तो कहना भूल ही गया बेतार ! वह लौटकर सुना जाता है, “कपड़ा, तेल और चीनी की पुर्जी बाँटने का काम बालदेव को मिला है। नाम तो उसमें डागडरबाबू का भी है, लेकिन डागडरबाबू कहते हैं-हमको फुर्सत नहीं। हमसे कहते थे कि हमारा काम आप ही कीजिए दास जी ! हम बोले कि हमको भी फुर्सत कहाँ है।”

आचारजगुरु के आने की खबर का कोई मोल नहीं भी हो, बाकी दो बातें, यदि सच हैं, तो वास्तव में कीमती हैं।

बात सच है। बालदेव जी भी कहते हैं, बात ठीक है।

खम्हार ! साल-भर की कमाई का लेखा-जोखा तो खम्हार में ही होता है। दो महीने की कटनी, एक महीना मड़नी, फिर साल-भर की खटनी। दबनी-मड़नी करके जमा करो, साल-भर के खाए हुए कर्ज का हिसाब करके चुकाओ। बाकी यदि रह जाए तो फिर सादा कागज पर अंगूठे की टीप लगाओ। सफाई करनी है तो बैल-गाय भरना रखो या हलवाहा-चरवाहा दो। फिर कर्ज खाओ। खम्हार का चक्र चलता रहता है। खम्हार में बैलों के झुंड से दबनी-मड़नी होती है। बैलों के मुँह में जाली का ‘जाब’ लगा दिया जाता है। गरीब और बेजमीन लोगों की हालत भी खम्हार के बैलों जैसी है।-मुँह में जाली का ‘जाब’।…लेकिन खम्हार का मोह ! यह नहीं टूट सकता। भुरुकवा उगते ही खम्हार जग जाता है। सूई की तरह गड़नेवाली, माघ के भोर की ठंडी हवा का कोई असर देह पर नहीं होता। ओस और पाले से देह शून्य हो जाता है। जब हाथ से अपनी नाक भी नहीं छूई जाती है तब घूर में फिर से सूखे पुआल डालकर नई आग पैदा की जाती है। घर में शकरकन्द पकता रहता है। घर के पास देह गर्माने की बारी जिसकी रहती है, वह प्रातकी गाता है-‘हरि बिनू के पूरिहैं मोर सुआरथ, हरि बिनू के।…’ अथवा ‘निरबल के बल राम हो सन्तो, निरबल के बल राम !’

दिन-भर धान झाड़-फटककर जमा किया। फिर धान के बोझे छींट दिए गए और शाम से फिर दबनी-मड़नी शुरू हो गई। शाम को घर के पास ‘लोरिक’ या कुमर ‘बिज्जेभान’ की गीत-कथा होती है-

अरे राम राम रे दैबा रे इसर रे महादेव,
बामे ठाढ़ी देवी दुरगा दाहिन बोले काग।
अपन मन में सोच करैये मानिक सरदार,
बात से नाहीं माने वीर कनोजिया गुआर… ।

कपड़ा, तेल और चीनी की पुर्जी कमलदाहा के कमरुद्दीबाबू बाँटते थे। मेरीगंज से कमलदाहा दस कोस है। दस कोस जाना तो कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन पुर्जी पाना बड़े भाग की बात समझी जाती है। कमरुद्दीबाबू कुँजड़ा हैं; बैंगन की बिक्री से ही जमींदार हुए हैं; मुस्लींग के लीडर हैं। कटिहार-पूर्णिया मोटर रोड के किनारे पर ही घर है। हमेशा हाकिम-हुक्काम उनके यहाँ आते रहते हैं। महीने में साठ मुर्गियों का खर्च है। लोग कहते हैं कि नए इसडिओ जब आए तो सारे इलाके में यह बात मशहूर हो गई कि बड़े कड़े हाकिम हैं; किसी के यहाँ न तो जाते हैं और न किसी का पान ही खाते हैं। लेकिन कमरुद्दीबाबू भी पीछा छोड़नेवाले आदमी नहीं। इसडिओ का डलेबर मुसलमान है। उसको कुरान की कसम देकर पान-सुपारी खाने के लिए दिया। बस, एक बार कटिहार से लौट रहे थे इसडिओ साहब, ठीक कमरुद्दीबाबू के घर के सामने आकर मोटरगाड़ी खराब हो गई। दस बजे रात को इसडिओ साहब और कहाँ जाते ?…उसके बाद से ही कमरुद्दीबाबू आँख मूंदकर बिलेक करने लगे। एक बार पुरैनिया मिटिन में कैंगरेसी खुशायबाबू ने हाकिम से कहा-“पबलिक बहुत शिकायत करती है।” कमरुद्दीबाबू ने हँसते हुए पूछा-“हिन्दू पबलिक या मुसलमान ?” हाकिम भी समझ गए-कमरुद्दीबाबू लीगी हैं, इसीलिए लोग झूठ-मूठ दोख लगाते हैं।…अब तो बालदेव जी पुर्जी देंगे। बालदेव जी को बिलैती कपड़ा से क्या जरूरत है ? खधड़ को छोड़कर दूसरे कपड़े को छूते भी नहीं।…छूते हैं ? छूने में हर्ज नहीं।…

“जै हो, गन्ही महतमा की जै हो !”…कल खम्हार खुलेगा, पिछले साल तो खम्हार खुलने के दिन जालिमसिंह का नाच हुआ था। जालिमसिंह सिपैहिया ने एक डोमिन से शादी कर ली थी।…लेकिन इस बार कीर्तन होना चाहिए। सुराजी कीर्तन ! बेतार कहता ‘है-इस बार बिदापत नाच होगा। डागडरबाबू, बिदापत नाच देखेंगे।…तहसीलदार साहब तो हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। कितना समझाया कि डागडरबाबू, वह तो बहुत पुराना नाच है। खाली बिकटै (कॉमिक) होता है। डागडरबाबू कहने लगे-‘बिदापत ही करवाइए।’ पासवानटोली के लिबडू पासवान को खबर दे दी गई है। लिबडू नाच का मूलगैन है। मूलगैन, अर्थात् म्यूजिक डायरेक्टर !

कालीचरन का कीरतन नहीं होगा ? अच्छा कोई बात नहीं, डाक्टर साहब को एक दिन कीरतन सुना देंगे।

बालदेव जी को डागडरबाबू की बुद्धि पर अचरज होता है-बिदापत नाच क्या देखेंगे ? बड़ा खराब नाच है। कोई भला आदमी नहीं देखता। खराब-खराब गीत गाता है। नाच ही देखने का मन था तो तहसीलदार साहब से कहकर सिमरबनी गाँव की ठेठर कम्पनी को बुला लेते। आने-जाने और पचास आदमी के खाने का खर्चा क्या तहसीलदार साहब नहीं दे सकते ?…गाँववाले देखते तो आँखें खुलतीं। सिमरबनी का ठेठर कम्पनी मशहूर है, महाबीर जब दुर्जोधन का पाठ लेकर हाथ में तरवार लेकर गरजते हुए निकलता है तो एक कोस तक उसकी बोली साफ सुनाई पड़ती है-“बस बन्द करा दो यह मृदंग बाजा, हमको अच्छा नहीं लगता।”

धिन्ना धिन्ना धिन्ना निन्ना निन्ना !
धिन तक धिन्ना, धिन तक धिन्ना !
बिदापत नाच का मृदंग ‘जमीनका’ दे रहा है-चलो ! चलो ! चलो !
धिनक धिनक धा तिरकिट धिन्ना !
धिनक धिनक धा तिरकिट धिन्ना !

गाँव-भर के लोग तहसीलदार साहब के खम्हार में जमा हुए हैं। शामियाना तान दिया गया है। शामियाना खचमखच है। डाक्टरबाबू, सिंघ जी और खेलावनसिंह यादव कुर्सी पर बैठे हैं ! कालीचरन अपने दल के साथ है। जोतखी जी नहीं आए हैं। सिंघ जी ने कहा-“आज भी उनके दाँत में दरद है भाई !” सभी ठठाकर हँस पड़ते हैं। सभी जोतखी जी के नहीं आने का कारण जानते हैं-उनका बेटा नामलरैन भी बिदापत नाच का समाजी है।-बाभन नाचे तेली तमाशा देखे ! कुपुत्र निकला रामनारायण ! शिव हो !…बालदेव जी नहीं आए हैं। कोई भला आदमी नहीं देखता बिदापत नाच ! अब मृदंग पर ‘चलंती’ बज रहा है-

तिरकिट धिन्ना, तिरकिट धिन्ना !
धिन तक धिन्ना, धिन तक धिन्ना !
धिनक धिनक धा,
ध्रिक् ध्रिक् तिन्ना।
“ओ… ! होय ! नायक जी!”

बिकटा (विदूषक) आया। भीड़ में हँसी की पहली लहर खेल जाती है-सैकड़ों मुक्त हृदयों की हँसी !…पायल की झनकार !

मुँह पर कालिख-चूना पोतकर, फटा-पुराना पाजामा पहनकर लौकायदास बिकटा बन गया है। वह जन्मजात बिकटा है। भगवान ने उसे बिकटा ही बनाके भेजा है। ऊपर का ओंठ त्रिभुजाकार कटा है। सामने के दाँत हमेशा निकले रहते हैं और शीतला माई ने एक आँख ले ली है। बात गढ़ने में उस्ताद है।

“ओ ! होय ! हो नायक जी !”

“क्या है ?”

“अरे, यह फतंग-फतंग क्या बज रहे हैं ?”

“अरे, मृदंग बज रहा है। यह करताल है, यह झाल है।”

“सो तो समझा। यह धडिंग धडिंगा, गनपतगंगा क्या बजाते हैं ?”

“नाच होगा नाच, विद्यापति नाच !”

“ओ, हम समझे कि ‘लीलामी’ का ढोल बोल रहा है।”

…धिन ताक धिन्ना, धिन ताक धिन्ना !

आहे ! उत्तरहि राज से आयेल हे नटुकवा कि आहे मैया
कि आहे मैया सरोसती हे परथमे बन्नोनि हे तोहार !
…हमहूँ मूरख गँवार कि आहे मैया,
सरोसती, भूलल आखर जोड़िके आहे मैया,
कंठे लीहै है बास !

“ओ…ओ, होय नायक जी !” बिकटा जोर से चिल्ला उठता है। ताल भी कट चुका है। ठीक तान काटने के समय बिकटा को चिल्लाना चाहिए, इसलिए मृदंग के ताल का ज्ञान बिकटा को होना ही चाहिए।

“तुम कैसा बेकूफ हो जी!”

“अरे हो नायक जी ! यह आप लोग किसका बन्दना कर रहे हैं ?”

“हा-हा ! हा ! हा-हा-हा !…हँसी की दूसरी, लेकिन हल्की लहर।

“बेकूफ ! सुनते नहीं हो, सरोसती माता का बन्दना है !”

“यह सुरस्सु सुरती…सुर…सुरसस्सती माता को तुम देखा है ?…हमको तुम बेकुफ कहते हो ? बेकुफ तो तुम खुद हो। अरे, सरस्सती का बन्दना तो पढ़ल पन्नित लोग करता है।”

…हा ! हा ! हा-हा !…भीड़ में खिलखिलाहट।

“तो हम लोग किसको बंदेंगे ?”

“ऊँह, तुम खाँटी चलानी घी हो, जिस चलानी घी की पूड़ी भंडारा में हुई थी जिसको खाकर हमारा पेट दस दिन खराब रहा था।…बिना किसी मिलावट के तुम भी खाँटी बेकूफ मालूम होते हो। इतना भी नहीं जानते ? सुनो ! जरा बजाने कहो-धिनक धिन्ना, तिरकिट धिन्ना !”

“अरे दाल बन्दो, भात बन्दो, साग बन्दो बथुआ !

“यह तो हुआ कच्ची, सरकार !” अब जरा पक्की सुनिए”

अरे चूड़ा बन्दो, भूजा बन्दो, रोटी बन्दो मड़ुआ !”

…हा ! हा ! हा !…हा ! हा !…

“अब फल मेवा, सरकार !

“अरे गुलर बन्दो, डुमर बन्दो और बन्दो अल्हुआ !”

हा ! हा ! हा !…सैकड़ों खिलखिलाहट !

“हल बन्दो, बैल बन्दो और बन्दो गइआ ! ”

…अब सबसे बड़ा भगवान !”

बिकटा मुँह बनाता है।

“चटाक पटपट दड़त सिर पर भागत बाप के भूतवा।

सबसे बढ़ि के तोहरे बन्दो मालिक बाबूक जूतवा !”

बिकटा खेलावन के पैर के सलमसाही जूते को प्रणाम करता है।

डाक्टर साहेब तो अचरज से गुम हो गए हैं; एकदम खो गए हैं नाच में।…इस बार नाच जमेगा। आखिर यह सब पुरानी चीज है, क्यों भाई !…सब बात तो ठीक ही कहता है।

…..धिन्ना धिन्ना, धिन्ना तिन्ना। समाजी लोगों ने शुरू किया :

आहे लेल परवेश परम सुकुमारी हे,
हँस गमन बिरखामान दुलारी हे।

मृदंग के ताल पर दबे पाँवों नटवा आता है। ताल पर ही चलकर सबसे पहले मृदंग को प्रणाम करता है, फिर झाल-करताल की ओर, अन्त में मूलगैन लिबडू पासवान का पैर छूकर प्रणाम करता है। पोलियाटोली के छीतनदास का बेटा चलित्तरा लड़कियों की तरह लम्बा बाल रखता है। नाक में बुलाक भी हमेशा पहने रहता है। वह नटवा है। अभी साज-पोशाक पहनकर एकदम बाभिन की तरह लग रहा है छौंड़ा।…कान में कनफूल किसका है ? कमली दीदी का ?…वाह रे छौंडा, आज यदि यह कान का कनफूल बकसीस में जीत ले तो समझें कि असल बिदपतिया का चेला है।…मृदंग बजाता है उचितदास ! क्या कहा-असल बिदपतिया ?…हम सहरसा के गैनू मिरदंगिया का चेला है।-जानते नहीं, गैनू मिरदंगिया एक बार अपने समाजी के साथ कहीं से नाचकर आ रहा था। चोर लोग जानते थे कि गैनू मिरदंगिया का समाज एक-एक सौ रुपैया नकद, धोती, कुर्ता, गमछा वगैरह लेकर घर लौटता है। बस, ठुट्ठी पाखर के पेड़ के पास चोरों ने घेर लिया गैनू मिरदंगिया को। वह पीछे पड़ गया था-दिसामैदान के लिए सायद। गैनू मिरदंगिया ने क्या किया ? बोलो तो! नहीं जानते ? हा-हा ! मिरदंग पर थाप दिया। दाहिने पूरे पर अंगुलियाँ फिरकी की तरह नाचने लगीं-धूकिट धिन्ना ना निन्ना ना निन्ना ना ना। तो मृदंग के पूरे की सूखी चमड़ी मानो जी उठी; साफ आदमी की तरह बोली निकली-‘ठुट्ठी पाखैर तर चोर घेरलक हो, चोर घेरलक !”…लिबडूदास का समाजी है, खेल नहीं ! नाच बेटा !…

धिरिनागि धिरिनागि धिरिनागि धिनता !
आहे तन मन बदन मदन सहजोर हे,
आहे दामिनी ऊपर…

“है रे ! है रे ! है रे !” बिकटा कलेजा पकड़कर मुँह बनाता है।

…धिनक धिनक ता, धिनक धिनक ता…
आहे, दामिनी ऊपर उगलय चान हे।

बिकटा मूर्छित होकर गिर पड़ता है-“अरे बाप !”

“अरे क्या हुआ ?”

“अरे बाप!”

“अरे ! बोलो भी तो ? क्या हुआ ?”

“अच्छा नायक जी, एक बात बताइए। जल्दी बताइए। आस्मान का चान यदि धरती पर उतर आया है तो धरती के चान को ऊपर जाना पड़ेगा ?”

“अरे धरती पर भी कहीं चान होता है ?”

“सुनिए जरा इसकी बोली ! इसीलिए न कहा था कि खाँटी चलानी घी हो। अजी हमारी एक ही बिजली बत्ती खराब है, तुम्हारी क्या दोनों खराब हैं ?…आजकल रेलगाड़ी में सुनते हैं कि बत्ती नहीं जलती। पहले बिलेकोट तब तो बिलेक मारकेट ।”…हा ! हा ! हा ! हा !…साला कटिहार नानी के यहाँ बराबर जाता है। रेलगाड़ी की भी गलती निकालता है। अंग-भंग आदमी सारी दुनिया को अंग-भंग देखता है। सुनो क्या कहता है, धरती का चान किसको बनाता है ?

“अरे भकुआ नायक जी, धरती का चान अपनी छतीसों कल्ला के साथ तुम्हारे सामने खड़ा है, चौंधिया गए हो क्या ? जरा छट्ठम लैट जलाकर देखो।”

…हा ! हा ! हा ! हा !…साला अलबत्त बात बनाता है !

“छट्ठम लैट नहीं जानते ? देखो पंचम लैट तो यही है जो अभी पंच परमेसर के बीच में जल रहा है।…छट्ठम लैट तुम्हारे घर में आजकल जलता है ! तेल मिलता ही नहीं-एक पटुआ के संठी में आग लगाकर हाथ में लेकर खड़ा रहो, भकभक गैशबत्ती की-सी रोसनी होने लगेगी। हम आजकल यही करते हैं।…अच्छा, आप ही लोग देखिए पंच परमेसर, हमसे ज्यादे सुन्नर यहाँ कोई हैं ?”

“नहीं नहीं, आप तो कामदेव के औतार हैं।” सिंघ जी कहते हैं।

हा ! हा ! हा ! हा ! हा ! हा ! नाचो रे चलितरा ! आज मोहड़ा (मोर्चा) पड़ा है ! जी खोल के नाच बेटा !…

ध्रिनागि धिन्ना, तिरनागि तिन्ना
धिनक धिनता तिटकत ग-द-धा !…
आहे चलहु सखि सुखधाम, चलहु !
आहे कन्हैया जहाँ सखि हे,
रास रचाओल हे ! चलहु हे चलहु !
…धिन्ना तिन्ना ना धि धिन्ना !
आहे सिर बिरनाबन कुंज गलिन में
कान्हु चरावत धेनु,
आहे मुड़ली जे टेड़े बिरीछी के ओटे,
आहे अबे ग्रिहे…
…धिरिनागि धिरिनागि धिरिनागि…
आहे ! अबे ग्रिहे रहलो नि जाए, चलहु हे चलहु !

ततमाटोली की औरतों के गिरोह में बैठी फुलिया का जी ऐंठता है…अबे ग्रिहे रहलो नि जाए !

तहसीलदार साहब की हबेली की सामनेवाली खिड़की खुली हुई है। कमली दीदी भी देख रही है। नहीं देखेगी तो बक्सीस कैसे देगी ?

“देखा बेटा ! फिरकी की तरह नाच ! पुरइन के फूल की तरह घाँघरी खिल जाए !”

“अरे हो नायक जी ! एक बात तो बताइए। वह हमको छोड़कर कहाँ जा रही है ? चलहु-चलहु-कहीं मेला-तमासा है या भोज है? या कपड़ा की पूर्जी बँटती है ?”

“अजी वह तुम्हारे ही पास जा रही है। तुम्ही किसुनकन्हैया हो न ! तुम्हारे रूप पर मोहित हो गई है।”

“आ !…वही तो हम भी कहते थे कि हमको छोड़कर कहाँ जा रही है ! हम कन्हैया हैं, लेकिन कन्हैया के बाप का नाम तो नन्द था और हमारे बाप का नाम उजाड़ूदास।”

…हा-हा ! हा-हा ! हा-हा !

“अरे उल्लू ! तुम्हारे बाप का नाम उजागिरदास था। तुम इसको खराब करके काहे बोलते हो?”

“उजागिरदास तो माय-बाप ने रख दिया था। लेकिन जिस मालिक के यहाँ भैंस-गाय चराने के लिए भरती होते थे, वही उनको कुछ दिन बाद मार-पीटकर निकाल देता था। मेरे बाबूजी गाय-भैंस लेकर जाते थे और मालिक के ही हरे-भरे खेत में छोड़कर सो जाते थे-मिहनत किया है लछमी ने, बैल ने ! मालिक लोग दूध-घी खा-खाकर जिस भैंस के दूध से मोटे हो गए हैं, इस उपजा में तो इनका भी हिस्सा है। खाओ लछमी !…इसलिए लोगों ने उनका नाम उजाड़ूदास रख दिया।”

नटवा अब गाँजा में दम मार आया है। अब देखना, नाच जमाएगा छौंडा आज। धिरनागि धिन्ना…

आहे कुंज भवन से निकलल हो,
आहे सखि रोकल गिरधारी !

“हाँ, चोरी-चोरी घर से निकलकर कोठी के बागान में जाओगी, रसलील्ला करने, तो रोकेगा नहीं ? अच्छा किया है।” बिकटा अपने-आप बड़बड़ाता है।

नटुआ दोनों हाथ जोड़कर, फन काढ़े गेहुअन साँप की तरह हिलते-डुलते, कमर के सहारे बैठ रहा है। धरती पर घाँघरी पुरैन के पत्ते की तरह बिछी हुई है।…मिनती करती है। है रे… ! है रे !…वाह रे छौंड़ा ! नाम रखा लिया गाँव का !

आहे, एकहि न-ग-र बसू माधव हो,
आहे जनि करू बटवा-वा-री !
आहे छोड़ छोड़ जदूपति आँचर हो,
हो भाँगत न-ब सारी।

“हाँ भैया ! कोटा-कनटरोल का जमाना है। कपड़ा नहीं मिलता है। जरा होसियारी से…!”

अरे अपजस होइत जगत भरि हो!

“ओह बड़ी कुलमन्ती बनी है ! लछलछ किरिया खाए कुलमन्त, मोर मन नहिं पतिआए।” बिकटा बीच-बीच में टोकता रहता है।

आजु परेम रख लय लीह हो,
आहे पंथ छाड़ झटकारी !

“सब दही जुटैलक रे किसना। आहि रे बाप !” बिकटा चिल्लाता है।

आहे संग के सखि अगुआइल हो।
आहो कान्हा, ह-म-हू एकसरि नारी !
“है रे ! है रे ! एकसरि नारि रे !”
भनहिं विद्यापति गाओल हो, सनू कूलमन्ती नारी
हरि के संग किछु डर नाहिं हे…।

“हाँ, हरि के संग काहे दोख होगा ! जितना दोख, हम सब लोगों के साथ। अपने खेले रसलील्ला, हमरे बेला में पंचायत का झाड़ और जूत्ता।”

क्या है ? क्या हुआ..डागडर साहब का नंगड़ा नौकर आकर क्या बोलता है ?… कमली दीदी ने कनफूल दे दिया ?…रे ?…वाह रे छौंड़ा ! नाम किया !…जीओ रे चलित्तरा ! जीओ!

बिकटा भी क्यों पीछे रहे ? वह भी आज ‘थै-थै’ कर देगा। नाच जमा है आज ! “अरे होय नायक जी ! हमारे दुख को देखनेवाला, सुननेवाला कोई नहीं।”

“क्या हुआ ?”

“लेकिन कहें कैसे ?” बिकटा तहसीलदार की ओर उँगली उठाकर डरने की मुद्रा बनाता है।

“अरे ! हम समझ गए। तो कहो न भाई,” तहसीलदार समझ जाते हैं, “दुनिया में सिर्फ हम ही एक तहसीलदार-पटवारी हैं ? बात तो तुम ठीक ही कहोगे। सुनते हैं २ डाक्टर साहब, अब यह तहसीलदार का बिकट करेगा !”

“नायक जी ! हमको धीरज बँधानेवाला कोई नहीं। सुनते हैं कि बराहछत्तर में सरकारबहादुर कोसी मैया को बाँध रहा है, लेकिन हमारे दिल को बाँधनेवाला कोई नहीं!”

“अरे कहो भी तो!”

“अच्छा तो सुनो ! पचास साल पहले से सुरू करते हैं, सर्वे सितलमंटी (सर्व सेटलमेंट) साल से।”

…सुनो ! सुनो ! जरूर कोई नई बात जोड़ा है। यह भी बकसीस वसूल करेगा। “बजाने कहो-ताकधिन-ताकधिन !”

अरे केना के बाँधबै रे धीरजा, केना के बाँधबै रे,
अरे मुद्दई भेल पटवारी रे धीरजा केना के बाँधबै रे!
“सर्वे जब होने लगा !”
दस हाथ के लग्गा बनैलके
पाँचे हाथ नपाई!
…पाँच हाथ पार ? हा…हा…हा !…

गल्ली-कुची सेहो नपलकै,
ढीप-ढाप सेहो नपलकै,
घाट-बाट सेहो नपलकै,
डगर-पोखर सेहो नपलकै।

“तब ?”

हाथी जस भलवेसन बैठलकै,
जम्मा भेलै भारी रे धीरजा के केना बाँधबै रे !

“इधर जमींदार सिपाही छप्पर पर का कद्, लत्तर का खीरा, बकरी का पाठा और चार जोड़ा कबूतर सिरिफ तलबाना में ही साफ कर गया।”

“तब ?”

थारी बेंच पटवारी के देलियै,
लोटा बेंच चौकीदारी।
बाकी थोड़ेक लिखाई जे रहलै,
कलक देलक धुराई रे धिरजा।

“आखिर…”

कहे कबीर सुनो भाई साधो
सब दिन करी बेगारी
खँजड़ी बजाके गीत गवैछी
फटकनाथ गिरधारी रे धिरजा।

ओ-हो-हा-हा, खी-खी-खी…हा-हा !…शामियाना फट जाएगा। कमाल कर दिया साले ने। अलबत्ता जोड़ा। वाह !…वाह रे लौकायदास !

डाक्टर तहसीलदार से पूछता है, “गीत तो विद्यापति का गाता है। बिकटै की रचना किसने की है ?”

“आप भी डाक्टरबाबू क्या पूछते हैं,” तहसीलदार साहब हँसते हैं, “इनकी रचना के लिए भी कोई तुलसीदास और बाल्मीकि की जरूरत है ? खेतों में काम करते हुए तुक पर तुक मिलाकर गढ़ लेता है।”

…डाक्टर साहब ने बिकटा को क्या दिया ?…पँचटकिया लोट ?…बाजी मार लिया बिकटा ने भी।

आहे परथम समागम पहुसंग हे…
धिरनागि धिरनागि !

भुरुकवा उगने के बाद नाच खत्म हुआ। खूब जमा। अब खुलेगा खम्हार।

बिछावन पर लेटकर डाक्टर सोचता है-कोमल गीतों की पंक्तियाँ ! अपभ्रंश शब्द भी कितने मधुर लगते हैं !…’पिया भइले डुमरी के फूल रे पियवा भइले।…चाँद बयरि भेल बादल, मछली बयरि महाजाल, तिरिया बयरि दुहु लोचन-हिरदए के भेद बताए।भोंमरा-भोंमरी-रोई-रोई कजरा दहायल, घामे तिलक बहि गेल।…चान के उगयत देखल सजनि गे…लट धोए गइली हम बाबा की पोखरिया-पोखरि मैं चान केलि करे।’

डाक्टर सोचता है-विद्यापति की चर्चा होते ही कविवर ‘दिनकर’ का एक प्रश्न बरबस सामने आकर खड़ा हो जाता था-“विद्यापति कवि के गान कहाँ ?” बहुत दिनों बाद मन में उलझे हुए उस प्रश्न का जवाब दिया-ज़िन्दगी-भर बेगारी खटनेवाले, अपढ़ गँवार और अर्धनग्नों में, कवि ! तुम्हारे विद्यापति के गान हमारी टूटी झोंपड़ियों में ज़िन्दगी के मधुरस बरसा रहे हैं। ओ कवि ! तुम्हारी कविता ने मचलकर एक दिन कहा था-चलो कवि, बनफूलों की ओर !

…बनफूलों की कलियाँ तुम्हारी राह देखती हैं।

सोलह

मुसम्मात सुनरी !

टक्का कटपीस-एक गज।
छींट-डेढ़ गज।
मलेछिया साटिन-एक गज।
साड़ी-एक नग।

बालदेव जी कपड़े की पुर्जी बाँट रहे हैं। रौतहट टीशन के हंसराज बच्छराज मरवाड़ी के यहाँ कपड़ा मिलेगा।

खेलावन यादव के दरवाजे पर खड़े होने को भी जगह नहीं। सुबह से पुर्जी बाँट रहे हैं, दोपहर हो गई।…साड़ी नहीं है !…नहीं ?…बालदेव जी ! हमको एक साड़ी…रौफा की माए एकदम नगन हो गई है बालदेव जी !

बालदेव जी कहते हैं, “देखिए ! मौजे-भर में सिरफ सात साड़ियाँ दी गई थीं। चार फर्दी हैं, वह तो मालिक लोगों के घर में पहनने की चीज है…चौदह रुपए जोड़ी। बाकी तीन साड़ियों को हमने इस तरह बाँट किया है, ऐसे लोगों को दिया है जो एकदम बेपरदे…”

“बेपरदे तो सारा गाँव है बालदेव जी !”

खेलावन यादव कहते हैं, “इतने दिनों से जब कमरुद्दीबाबू पूर्जी बाँटते थे, उस समय गाँव की औरतें बेपरदे और नगन नहीं थीं क्या ? भाई, जितना है उसी में इनसाफ से बाँट-बखरा कर लो।”

कालीचरन जिद्द कर रहा है, पुर्जी पर दो गज छींट और लिख दीजिए: हरमुनियाँ का खोल बनावाएँगे। बालदेव जी नहीं मानते।…आदमी के पहनने के लिए कपड़ा नहीं, हरमुनियाँ-ढोलक को चपकन सिलाकर पहनावेगा ?…देखो तो भला !

बालदेव जी का राह चलना मुश्किल हो गया है। कपड़ा की मेंबरी मिली है कि बलाए है ! दिसा-मैदान जाते समय भी लोग पीछा नहीं छोड़ते हैं।…जायहिन्द बालदेव जी ! आए थे तो आपके ही पास । दुलारी का गौना है।…अच्छा-अच्छा चलिए, हम दिसा से आते हैं।…कपड़ा अब कहाँ है ? रिचरब (रिजर्व) में भी नहीं है। सिरिफ कफन और सराध का कपड़ा है।…उसी में से? कैसे देंगे? कफन और सराध का कपड़ा गौना में ?

बालदेव जी को क्या मालूम कि दुलारी का गौना पाँच साल पहले हो गया है और उसके तीन बच्चे भी हैं।

लछमी दासिन ने रामदास को भेजा था, “आचारज जी आ रहे हैं। आपको तो आजकल छुट्टी ही नहीं रहती है। उधर जाते भी नहीं। कंठी लेने की बात हुई थी?…सो, आपकी क्या राय है ? आचारज जी आ रहे हैं। चादर-टीका के लिए चादर के अलावे पूजा-विदाई के लिए भी एक जोड़ी धोती चाहिए-बिना कोर की, महीन . मारकीन की या ननकिलाठ की धोती।…और कोठारिन जी को भी कपड़ा नहीं है।”

बड़ी मुश्किल है ! रिचरब में थोड़ा कपड़ा है सो सादी-बिहा और सराध के लिए। कैसे दिया जाए ! ओ ! आचारज जी महन्थसाहेब के सराध में ही आए हैं। तब ठीक है।…सिरिमती…नहीं, सिरिमती नहीं। दासिन लछमी कोठारिन-ननकिलाठ, दस गज ! फैन मारकीन, दस गज। चद्दर, एक !

रामदास याद दिला देता है, “लँगोटा-कोपीन के लिए भी एक गज।”

बड़ी मुश्किल है ! बालदेव जी को अब रोज दस-पन्द्रह बार से ज्यादे झूठ बोलना पड़ता है। क्या किया जाए ? बड़ा संकट का काम है।…इधर जिला कांग्रेस की मिटिन भी है। मेनिस्टर साहब आ रहे हैं। गाँव से झंडा-पत्तखा और जत्था भी ले जाना होगा। जिला सिकरेटरी गंगुली जी ने चिट्ठी दी है। परचा भी आया है…।

चलो ! चलो ! पुरैनियाँ चलो ! मेनिस्टर साहब आ रहे हैं। औरत-मर्द, बाल-बच्चा, झंडा-पत्तखा और इनकिलास-जिन्दाबाघ करते हुए पुरैनियाँ चलो !…रेलगाड़ी का टिकस ?…कैसा बेकूफ है ! मेनिस्टर साहब आ रहे हैं और गाड़ी में टिकस लगेगा ? बालदेव जी बोले हैं, मेनिस्टर साहब से कहना होगा, कोटा में बहुत कम कपड़ा मिलता है।…चलो-चलो, पुरैनियाँ चलो। भुरुकवा उगते ही कालीथान के पास जमा होकर जुलूस बनाकर चलो !

“बोलिए एक बार-काली माय की जाये !”

“जाये ! जाये !”

“बोलिए एक बार परेम से-गन्ही महतमा की जै!”

“जाये ! जाये !”

फरर………..र, पेड़ पर घोसलों में सोए हुए पंछी पंख फड़फड़ाकर उड़े। कालीचरन कहता है, यदि गुलेटा रहता तो अँधेरे में भी अभी एक-दो हरियल को मारकर गिरा देते। बासुदेव कहता है-चुप रहो। बालदेव जी ने नहीं सुना, नहीं तो अभी फिर अनसन…।

गिनती करो। कितनी औरत, कितने मरद ? अभी बच्चों को मत लो, झंझट होगा। कालीचरन और गूदर सबों की देह छू-छूकर गिनते हैं। कालीचरन कहता है-पाँच कोरी चार औरत। गूदर हिसाब करता है-चार कोरी दस मरद ।…मातबर लोग काहे जाएगा ? मातबर लोग तो हमेशा गदारी करते हैं।…बालदेव जी ने आज फिर एक नई बात कही-गदारी ! गदारी !…गदारी ?

जुलूस में गाने के लिए बालदेव जी को दो ही गीत याद हैं। एक नीमक कानून के के समय का सीखा हुआ-‘आओ बीरो मरद बनो अब जेहल तुम्हें भरना होगा। दूसरा, बियालिस, मोमेंट के समय जेहल में सुना था-‘जिन्दगी है किरान्ती की किरान्ती में लुटाए जा। लेकिन यह तो सोशलिस्ट पाटीवाला गाता है।…पुराना ही ठीक है…आओ बीरो मरद बनो…! आज बालदेव जी खुद गाते हैं : सुनरा भी गीत का आखर धरता है :

तन्त्रिमाटोली के मंगलू ततमा को कँपकँपी लग जाती है। जेहल ! अरे बाप !…ये लोग जेहल ले जा रहे हैं। पन्द्रह साल पहले उसको चोरी के केस में सजा हुई थी। जेल के जमादार की पेटी की मार वह आज भी नहीं भूला है। चार हौद (होज) पानी रोज भरना पड़ता था। नहीं !…वह पेशाब करने के बहाने पीछे रह जाता है और नजर बचाकर घर की ओर भागता है। सब पगला गया है !

सहर पुरैनियाँ !…यही है सहर पुरैनियाँ-पक्की सड़क, हवागाड़ी, घोड़ागाड़ी और पक्का मकान !…’एक रत्ती चिनगी चिनगल जाए, सहर पुरैनियाँ लूटल जाए ?…क्या है, बोलो तो?’ ‘आग !’…गाँव के बच्चे आज भी बुझौवल बुझाते समय शहर पुरैनियाँ का नाम लेते हैं। मेरीगंज के इस जुलूस में चार आदमी ऐसे भी हैं जो शहर पुरैनियाँ पहले भी आए हैं। बहुत तो आज ही पहली बार रेलगाड़ी पर चढ़े हैं। कलेजा धकधक करता है। जिसके हाथ में गन्ही महतमा का झंडा रहता है, उससे गाटबाबू, चिकिहरबाबू, टिकस नहीं माँगता है।…सचमुच में रेलगाड़ी ‘जै जै काली छै छै पैसा’ कहते हुए दौड़ती है ! जै जै काली ?…यही है कालीपुल। बालदेव जी दिखलाते हैं-यही कालीपुल है। पुल बाँधने के समय पाँच आदमी की बलि दी गई थी।…बाप रे ! पाँच ?…जै काली ! नीमक कानून के समय इसी पुल के नीचे पुलिस के सिपाहियों ने जाड़े की रात में भोलटियरों को लाकर, पानी में भिंगो-भिंगोकर पीटा था। पानी में डुबो देता था, सिर को हाथ से गोते रहता है। दम फूलने लगता था, नाक में पानी चला जाता था।…वह है इसपिताल। अपने गाँव का इसपिताल तो इसके सामने बुतरू (बच्चा) है…जेहल ? यही जेहल ? जेहल नहीं ससुराल यार हम बिहा करन को जाएँगे…आओ बीरो जेहल भरो।…फुलिया पुरैनियाँ टीसन से ही कुछ ढूँढ़ रही है…खलासी जी तो काला कुरता पहनते हैं।…यह है कचहरी। यहीं कर-कचहरी में लोग मर-मुकदमा करने के लिए आते हैं ! इसी तरह उपसर्ग लगाकर सब बोलते हैं-कर-कचहरी, खर-खजाना, गर-गरामित, घर-घरहट, चर-चुमौना, जर-जमीन, पर-पंचायत, फर-फौजदारी, बर-बारात, मर-मुकदमा या मर-महाजन !

शहर के लोग भी अचरज से इस जुलूस को देख रहे हैं। इनकिलास…जिन्दाबाघ ! …कचहरी के मोड़ पर, फल की दुकान पर बैठे हुए मौलवी साहब हँसते हैं- “सब कपड़ा लेने आए हैं ! जाओ-जाओ, मिलेगा कपड़ा इन्कलाब बोलता है। मतलब भी समझता – है या…”

झंडा ? बड़ा झंडा आसमान में लहरा रहा है, वही है रामकिसून आसरम। ऐ ! यहाँ सब कोई खड़े हो जाओ। कपड़ा ठिकाने से पहन लो। उस कल के पास जाकर मुँह धो लो। डरते हो काहे ? बालदेव जी हैं। यहाँ से सत्तरबन्दी होकर चलना होगा। बालदेव जी सबसे आगे रहेंगे। सबसे पहले कालीचरन नारा लगाएगा-इनकिलाब; तब तुम लोग एक साथ कहना-जिन्दाबाघ । वैसे गड़बड़ा जाता है। कालीचरन कहेगा-अंग्रेजी राज; तुम लोग कहना-नास हो। लगाओ लारा कालीचरन ! कालीचरन छाती का जोर लगाकर चिल्लाता है-“इनकिलाब !”

“नाश हो, ज़िन्दा…नाश !”

“ऐ ! ठहरो, नहीं हुआ।”

शिवनाथ चौधरी जी, गंगुली जी, शशांक जी, नाथबाबू, सभी आश्चर्य से देखते हैं। चौधरी जी बालदेव पर बड़े खुश हैं। नाथबाबू कहते हैं, “ऐसे ही सभी वरकर अपने फील्ड में वर्क करें तब तो ? दो महीने में इतने गाँव को अकेले ही आरगेनाइज कर लिया है। चवन्निया मेम्बर कितना बनाया है ? पाँच सौ ? तब तो तुम…आप जिला कमिटी के मेम्बर हो गये।” गांगुली जी तो बालदेव को पहले से ही आप कहते हैं, आज नाथबाबू भी आप कहते हैं।

चौधरी जी कहते हैं, “अरे बालदेव, चरखा-सेंटर खुलवाओ। रचनात्मक काम कुछ होता है या नहीं ?”

खादी भंडारवाले छत्तीसबाबू कहते हैं, “खादी भंडार में खाँटी गाय का घी भेजो देहात से बालदेव !”

सचमुच बालदेव जी गियानी आदमी हैं, बड़े आदमी हैं। जिस सीढ़ीवाली चौकी पर बाबू-बबुआन लोग टोपी पहनकर बैठे हैं उसी पर बालदेव जी बैठे हैं।…अरे, वह कौन है ? बौना ? डेढ़ हाथ का आदमी ! देखने में चार साल के लड़के जैसा लगता है। दाढ़ी-मूंछ देखो ! बोली कितनी भारी है ! धुधुक्का (लाउड-स्पीकर का भोंपा) में तो सबों की बोली भारी मालूम होती है। किसी की बोली समझ में नहीं आती है। न जाने कौन देश की बोली बोलता है-हिन्दुस्तान, आजादी और गाँधी जी को छोड़कर और कोई बात नहीं बूझी जाती है…ताली काहे बजाया ? बस, सभा खतम ? मेनिस्टर साहब कहाँ हैं ? कौन ? वही दुबला-पतला, बड़ी-बड़ी मोंचवाला आदमी ? बोलता था एकदम परेम से…आस्ते-आस्ते। माथा की टोपी भी लब्बड़-झब्बड़। उस बार गाँव में दारोगा साहेब आये थे, देखा था ? सारे देह में चमोटी लपेटा हुआ था। मेनिस्टर साहब ऐसे ही हैं ? यह कैसा हाकिम !

कालीचरन कहता है, “मेनिस्टर साहब नहीं, यह रजिन्नरबाबू थे। सुराजी कीर्तन में रोज सुनते हो नहीं…देसवा के खातिर मजरूलहक भइले फकिरवा हो, दीन भेलै रजिन्नरपरसाद देसवासियो।…देस के खातिर अपना सब हक-हिस्सा, जगह-जमीन, मालमवेशी गँवाकर फकीर हो गए।…आहा-हा !…हूँ ! आजकल मेनिस्टर से भी जादे पावरवाला आदमी हैं। ठीक है, होगा नहीं ? देश के खातिर अपना मजरूलहक माने बिलकुल हक खतम कर दिया।…”

चौधरी जी ने बालदेव जी को दस रुपैया का नोट दिया है-“सबों को जलपान करा देना।”

जै, जै ! चलो ! चलो !

कालीचरन कहाँ है ? बासुदेव भी नहीं है। नहीं, नहीं, लौटते समय लारा लगाने की जरूरत नहीं। लेकिन कालीचरन और बासुदेव कहाँ रह गए ? भीड़ में से किसी ने कहा-वे दोनों एक पैजामावाला सुराजीबाबू के साथ न जाने कहाँ जा रहे थे। बोला, कल जाएँगे।…पैजामावाला सुराजीबाबू ? लेकिन बिना पूछे क्यों गया ? सहरवाली बात है। बालदेव जी कालीचरन पर आजकल खुश नहीं, कालीचरन भी आजकल बालदेव जी से अलग-थलग रहता है।

“कालीचरन नहीं, कामरेड कालीचरन। कामरेड माने साथी। हम सभी साथी, आप भी साथी। यहाँ कोई लीडर नहीं। सभी लीडर, सभी साथी हैं।…अच्छा कामरेड, आपके गाँव में सबसे ज्यादे किस जाति के लोग हैं ?…यादव ! ठीक है। भूमिहार ?…एक घर भी नहीं ? गुड ! जुलूस में कितने आदमी थे, सब क्या बालदेव जी से प्रभावित हैं ? माने ब्लाइंड फौलोअर,…यानी आँख मूंदकर विश्वास करनेवाले तो नहीं ? अन्ध-भक्त तो नहीं ?”

“जी, अन्धा भक्त तो महन्थ सेवादास था, सो मर गया। उसकी कोठारिन तो…”

“…ठीक है। अच्छी बात है। आपने सारी बातें समझ लीं न ? मेम्बरी की जिल्द ले जाइए। कुछ लिटरेचर दे दीजिए इनको राजबल्ली जी ! जरा कामरेड सैनिक जी को इधर भेज दीजिएगा।…ये हैं कामरेड गंगाप्रसाद सिंह यादव सैनिक जी, और आप लोग हैं, कामरेड कालीचरन और…क्या नाम ? हाँ, बासुदेव जी। आज मेरीगंज से रामकृष्ण आश्रम में जो जुलूस आया था, इन्हीं लोगों की सर्दारत में। पार्टी प्लेज पर साइन कर दिया है। मेरीगंज में सबसे ज्यादे यादवों की आबादी है। वहाँ आपका जाना ही ठीक होगा। वहाँ आर्गेनाइज करने में कोई दिक्कत नहीं होगी।..वही, बस बालदेव है एक।…अच्छा कामरेड कालीचरन ! आपको और भी कुछ पूछना है ?” सोशलिस्ट पार्टी के जिला-मन्त्री जी पूछते हैं।

“जी, यदि हम कोई काम करने लगें, दस पबलिक की भलाई का काम, और उसको कोई ‘हिंसाबात’ कहकर रोके तो हम क्या करेंगे ?” कालीचरन को बस यही पूछना है।

जिला-मन्त्री जी कुछ सोचने लगते हैं। लेकिन कामरेड राजबल्ली जी को कुछ सोचने में समय नहीं लगता; बस, तुतलाने में कुछ देरी लगे तो लगे-“अ-अ-अरे ! काम-काम-रेड, उससे साफ ल-प-लप-लफ्जों में कह दीजिए कि फो-फो-फो-फो ट्टी-टी-टू के मुभमेंट में अहिंसा के भरोसे रहते तो आ-आ-आ-ज ग-ग-द्दी नसीब नहीं होती। उससे साफ लप-लप-लफ्जों में कह दीजिए कि तुम रि-रि-रि-ऐक्शनरी हो ! डि-डि-डि-डिमडिमोर-लाइज्ड हो। यह ले जाइए, ‘डा-डा-डा डायले डायलेक्टि…द…द…द…द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’, ‘स-स-समाजवाद ही क्यों’, दो किताबें। इसमें सबकुछ लिखा हुआ है। ‘लाल प-प-पताका’ की एक कापी ले जाइए ! इसका ग्राह-ग्राह-आ-ह-ग्राहक बनाइए। लाल झंडा ले लिया है न ?”

लाल झंडा!

उठ मेहनतकश अब होश में आ
हाथ में झंडा लाल उठा,
जुल्म का नामोनिशान मिटा
उठ होश में आ बेदार हो जा!

कॉमरेड कालीचरन और कॉमरेड बासुदेव !…सुशलिंग पाटी!…रास्ते में कालीचरन बासुदेव को समझाता है, “यही पाटी असल पाटी है। गरम पाटी है। ‘किरांतीदल’ का नाम नहीं सुना था ?…’बम फोड़ दिया फटाक से मस्ताना भगतसिंह,’ यह गाना नहीं सुने हो ? वही पाटी है। इसमें कोई लीडर नहीं। सभी साथी हैं, सभी लीडर हैं। सुना नहीं। हिंसाबात तो बुरजुआ लोग बोलता है। बालदेव जी तो बुरजुआ है, पूँजीबाद है।…इस किताब में सबकुछ लिखा हुआ है। बुरजुआ, बेटी दुरजुआ, पूँजीबाद, पूँजीपति, जालिम जमींदार, कमानेवाला खाएगा, इसके चलते जो कुछ हो।…अब बालदेव जी की लीटरी नहीं चलेगी। हर समय हिंसाबात, कुछ करो तो बस अनसन।…कपड़ा की मेम्बरी किसी तरह मिल जाए, तब देखना !”

स्टेशन पर बासुदेव जी ने एक किताब खरीदी, सिर्फ एक आने में। ‘लाल-किताब’ ! एक आदमी झोली में लेकर बेच रहा था-ईशू सन्देश !

दो किताबें हुईं अब-‘ईशू सन्देश’ और ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ !

सत्रह

आचारजगुरु कासी जी से आए हैं।

सभी मठ के जमींदार हैं, आचारजगुरु। साथ में तीस मुरती आए हैं-भंडारी, अधिकारी, सेवक, खास, चिलमची, अमीन, मुंशी और गवैया। साधुओं के दल में एक नागा साधू भी है। यद्यपि वह दूसरे मत को माननेवाला मुरती है, फिर भी आचारज जी उसको साथ में रखते हैं। बड़ा करोधी मुरती है। हाथ में छोटा-सा कुल्हाड़ा रखता है। लम्बी दाढ़ी, जटा, सारे देह में भभूत और कमर में सिर्फ चाँदी की सिकड़ी ! नंगा रहता है। महन्थ साहेब के साथ वह जिस मठ पर जाता है, वहाँ के महन्थ और अधिकारी को छट्टी का दूध याद करा देता है। क्या मजाल कि सेवा में किसी किस्म की तरोटी (त्रुटि) हो ! इसीलिए आचारजगुरु उसको साथ में रखते हैं।

नागा बाबा जब गुस्सा होते हैं तो मुँह से अश्लील-से-अश्लील गालियों की झड़ी लग जाती है।…आते ही लछमी दासिन पर बरस पड़े-“तैरी जात को मच्छड़ काटे ! हरामजादी ! रंडी ! तैं समझती क्या है री ! ऐं, दुनियाँ को तैं अन्धा समझती है ? बोल !…लाल मिर्च की बुकनी डाल दूँ। छिनाल ! तैं आचारजगुरु को गाली देती है ? तेरे मुँह में कुल्हाड़े का डंडा डाल दूँ, बोल ! साली, कुत्ती ! साधू का रगत बहाती है और बाबू लोग से मुँह चटवाती है ! हूँ अभी तेरे गाल पर चाँटा; हट जा यहाँ से, कातिक की कुतिया !”

लछमी हाथ जोड़कर बैठी रहती है। नागा साधू की गालियों पर लोग ध्यान नहीं देते, बुरा नहीं मानते। वह तो आशीर्वाद है। वह नागा बाबा का पाँव पकड़कर कहती है, “छिमा कीजिए परभू दासिन का अपराध !”

रामदास की तो खड़ाऊँ से पीटते-पीटते देह की चमड़ी उधेड़ दी है नागा बाबा ने-“सूअर के बच्चे, कुत्ते के पिल्ले ! तैं महन्थ बनेगा रे ! आ इधर ! तुझको खड़ाऊँ से टीका दे दूँ महन्थी का ! तेरी बहान को ! (खटाक्) तेरी माँ को। (खटाक्) घसियारे का बच्चा ! जा लक्कड़ लाकर धूनी में डाल !”

लरसिंघदास खुश है। इसीलिए तो वह अगवानी करने स्टेशन तक गया था। सारी बातें सुनकर आचारज जी भी क्रोध से लाल हो गए थे।…दासिन को मठ से निकालना होगा। नागा बाबा को पाँच-‘भर’ गाँजा दिया है लरसिंघदास ने। अधिकारी जी को एक सौ रुपया कबूला है।…महन्थी तो धरी हुई है। सतगुरु की दया है।

आचारजगुरु ने लछमी से स्पष्ट कह दिया है-“रामदास को महन्थी का टीका नहीं मिल सकता। क्या सबूत है कि वह महन्थ सेवादास का चेला है ? है कहीं लिखा हुआ ? कोई वील है ? पन्थ के नियम के मुताबिक चेलाहीन मठ का महन्थ आचारज ही बहाल कर सकता है। तू मठ पर नहीं रह सकती। सेवादास ने तुझे रखेलिन बनाया था। सेवादास नहीं है, अब तू अपना रास्ता देख।”

“साहेब की जो मरजी !”

साहब की मरजी !…नागा बाबा की जो मरजी !

नागा बाबा रात में उठकर एक बार चारों ओर देखते हैं, फिर लछमी की कोठरी की ओर जाते हैं खाली पैर। खड़ाऊँ तो खट-खट करेगी !

…हरामजादी किवाड़ बन्द करके सोती है। यहाँ कौन सोया है ? वही पिल्ला, रामदसवा !…”अरे उठ, तेरी जात को मच्छड़ काटे। दासिन को जगा। बाबा का गाँजा मारकर सेज पर सोई हुई है। कहाँ है मेरा गाँजा ? जानता नहीं, तीन-‘भर’ रोज की खुराकी है ? कहाँ है ?”

“सरकार ! आधी रात में गाँजा…”

“चुप हरामजादे ! दासिन को जगा।”

“आज्ञा प्रभु !” लछमी किवाड़ खोलकर निकलती है।

“गाँजा कहाँ है ?”

“हाजिर है सरकार !” लछमी एक बड़ी-सी पुड़िया नागा के हाथ में देती है।

…अरे ! हरामजादी के पास इतना गाँजा कहाँ से आया ? पूरा तीन-‘भर’ मालूम होता है।…यह साला रमदसवा, कोढ़ी का बच्चा यहाँ खड़ा होकर क्या करता है ?”

“अबे सूअर के बच्चे, तैं यहाँ खड़ा होकर क्या करता है ?”…खट-खटाक् ! लछमी जल्दी से किवाड़ बन्द कर लेती है।

“अच्छा, कल देखना, तुझे बाल पकड़ मठ से घसीटकर नहीं निकाला तो कसम गुरु मचेन्दरनाथ की!”

लरसिंघदास एकान्त में एक बार लछमी से कहना चाहता है, ‘तुम घबड़ाओ मत लछमी ! महन्थ तो मैं ही बनूँगा। तुम मठ में ही रहोगी। तुमको मठ से कोई निकाल नहीं सकता। तुम निराश मत होओ! लेकिन मौका ही नहीं मिलता है। शायद सुबह ही लछमी कहीं चली न जाए।

आचारजगुरु के जवान अधिकारी को भी रात-भर नींद नहीं आई, “पुरैनियाँ जिला में कम्बल के नीचे भी घुसकर ससुरे मच्छर काटे हैं हो !”

सुबह को लछमी बालदेव जी के पास जाती है। बालदेव जी पुरजी बाँट रहे थे। सारी बातें सुनकर बोले, “कोठारिन जी, आचारजगुरु तो सभी मठ के नेता हैं। वे जो करेंगे, वही होगा। इसमें हम लोग क्या कर सकते हैं ? बड़ा धरम-संकट है ! किसी के धरम में नाक घुसाना अच्छा नहीं है।…तीसरे पहर टीका होगा ? हम आवेंगे।”

लछमी दासिन को बालदेव जी पर पूरा भरोसा था। तहसीलदार साहब घर में नहीं हैं। डाक्टर साहब पर-पंचायत में नहीं जाते हैं। सिंघ जी सुनकर गुम हो गए। खेलावन जी ने तो बालदेव जी पर ही बात फेंक दी-जाने बालदेव !…सतगुरु हो ! कोई उपाय नहीं।

“साहेब बन्दगी कोठारिन जी!”

“कौन ! कालीचरन बबुआ ! दया सतगुरु के !”

“हाँ, टीका कब होगा ? कीरतन नहीं करवाइएगा ?”

लछमी दासिन कालीचरन को रो-रोकर सुनाती है; “काली बाबू ! ऐसी खराबखराब गाली ! उफ़ ! सतगुरु हो !…मैं अब कहाँ जाऊँगी ? कौन सहारा है मेरा ?”

“अच्छी बात ! आप कोई चिन्ता मत कीजिए।…बालदेव जी क्या करेंगे, वह तो बुरजुआ हैं। रोइए मत।”

लछमी देखती है कालीचरन को…उस बार परयाग जी के जादूघर में एक आबलूस की मूर्ति देखी थी, ठीक ऐसी ही।

मठ पर सभी साधू-सती, बाबू-बबुआन, दास-सेवकान शमियाने में बैठे हैं। लरसिंघदास ने सिर का जुल्फा छिलवा लिया है। अधकट्टी मूंछ को भी मुड़वा लिया है। साधुओं की भाषा में कहते हैं-मोंछभदरा। सुफेद मलमल की नई लँगोटी और कोपीन, देह पर चादर नहीं है।…चादर तो आचारजगुरु देंगे। आचारजगुरु का मुंशी एकरारनामा और सूरतहाल लिख रहा है। लछमी एक किनारे चुपचाप बैठी है जमीन पर। रामदास की सारी देह में हल्दी-चूना लगा है। बालदेव जी को लछमी पर बड़ी दया आ रही है। लेकिन क्या किया जाए !

“सभी साधू-सती, सेवक-सेवकान, सुन लीजिए !” आचारज जी का मुंशी दलील पढ़ता है, “लिखित लरसिंघदास चेले गोबरधनदास मोतफा जात बैरागी फिरके…। अब आप लोग इस पर दस्तखत कर दीजिए।”…लछमी फूट-फूटकर रो पड़ती है। सतगुरु हो !

“तैं चुप रह हरामजादी ! चुप रहती है या लगाऊँ डंडा !” नागा बाबा चिल्लाते हैं, “तैं चुप !”

जो दस्तखत करना जानते हैं दस्तखत कर रहे हैं। बालदेव जी ने भी दस्तखत कर दिया। उनका हाथ जरा भी नहीं काँपा।…कालीचरन दलील हाथ में लेकर उठता है-“आचारज जी! आप कहते हैं, महन्थ सेवादास बिना चेला के मरा है। आप क्या गाँव के सभी लोगों को उल्लू ही समझते हैं ?”

“कालीचरन !” बालदेव मना करते हैं, “बैठ जाओ।”

“कालीचरन !” खेलावन यादव डाँटते हैं।

लेकिन कालीचरन आज नहीं रुकेगा। कोई हिंसाबाद कहे या अनसन करे ! वह भी भाखन दे सकता है।

“…हम जानते हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि रामदास इस मठ का चेला है, महन्थ सेवादास का चेला है। उसको महन्थी का टीका न देकर, आप एक नम्बरी बदमास को महन्थ बना रहे हैं।…मठ में हम लोगों के बाप-दादा ने जमीन दान दी है, यह किसी की बपौती सम्पत्ति नहीं…।”

“तेरी जात को मच्छड़ काटे, चुप साले ! कुत्ते के बच्चे ! अभी कुल्हाड़े से तेरा…! तेरी माँ को…।”

“चुप रह बदमास !” कामरेड वासुदेव उछलकर खड़ा होता है।

“पकड़ो सैतान को !” कामरेड सुन्दर चिल्लाता है।

“भागने न पावे !”

“मारो!”

…ले-ले ! पकड़-पकड़ ! मार-मार, हो-हो !…रुको, ऐ बासुदेब ! ऐ सुन्दर !…ऐ !

नागा बाबा दाढ़ी छुड़ाते हैं, जटा छुड़ाते हैं, थप्पड़ों की मार से आँखों के आगे जुगनू उड़ते नज़र आ रहे हैं। गाँजे का नशा उतर गया है।…आखिर दाढ़ी और जटा नोंचवाकर, कुल्हाड़ा छोड़कर ही भागते हैं।…पकड़ो, पकड़ो ! छोड़ दो, छोड़ दो ! अब मत मारो ! नागा बाबा भागे जा रहे हैं। भभूत लगाया हुआ नंग-धडंग शरीर, बिखरी हुई जटा ! दौड़ते समय उनकी सूरत और भी भयावनी मालूम होती है। गाँव के कुत्ते पागल हो जाते हैं। भौं ! भौं !…नागा बाबा के पीछे दर्जनों गँवार कुत्ते दौड़ रहे हैं। अधिकारी महन्थ लरसिंघदास तो चार चाँटे में ही चे बोल जाते हैं-“नहीं लेंगे महन्थी, छोड़ दीजिए हमको !”

“छोड़ दो ! छोड़ दो!” कालीचरन हुक्म देता है। लरसिंघदास भी भागते हैं।

पंचों को लकवा मार गया है; साधुओं की हालत खराब है। पंचों के मुँह पर हवाइयाँ उड़ रही हैं। और सबों के बीच, कालीचरन हाथ में दलील लेकर सिकन्नरशाह बादशा की तरह खड़ा है। पलक मारते ही क्या-से-क्या हो गया !…जैसे रामलीला का धनुसजग हो गया।…

“अब आचारज जी, आपसे हम अरज करते हैं कि सुरतहाल पर रामदास जी का नाम चढ़ाकर महन्थी का टीका दे दीजिए।”

आचारजगुरु काँपते हुए कहते हैं, “ब-बुआ ! हम तो सतगुरु की दया से…हमको तो लोगों ने कहा कि सेवादास का कोई चेला ही नहीं था। जब रामदास उसका चेला है तो वही महन्थ होगा।…मुंशीजी, लिखिए सूरत-हाल ! ले आओ, चादर, दही का बरतन !”

रामदास नहा-धोकर, देह के हल्दी-चूने के दाग को छुड़ा आया है। दही का टीका कपाल पर पड़ते ही सारे देह की जलन मिट गई।…सतगुरु हो ! सतगुरु हो !

पूजा-विदाई लिए बिना ही आचारज जी आसन तोड़ रहे हैं। पंचायत के लोग भी चुपचाप अपने-अपने घर की ओर वापस होते हैं। लछमी हाथ में पूजा-विदाई की थाली लेकर खड़ी है-“कबूल हो प्रभू ! दासिन का अपराध छिमा करो प्रभू !”

“काली बाबू !”

बालदेव जी उलटकर देखते हैं। लछमी कालीचरन को बुलाकर अन्दर ले जा रही है।…कालीचरन ने अन्याय किया है, घोर अन्याय किया है, हिंसाबाद किया है। इस बार दो दिन का अनसन करना पड़ेगा।

खेलावन जी जाति-बिरादरी की पंचायत बुलाकर सब बदमाशों को ठीक करेंगे। हे भगवान ! साधुओं के शरीर पर हाथ उठाना !

कालीचरन कुश्ती लड़ता है। उस्ताद ने कहा है, कुश्ती लड़नेवालों को औरतों से पाँच हाथ दूर रहना चाहिए।…वह पाँच हाथ से ज्यादे दूरी पर खड़ा है।

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  • हिंदी-साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले (अब अररिया) के औराही हिंगना में हुआ था। इन्होंने 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर भाग लिया और सन 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने के लिए भरपूर योगदान दिया। इनकी साहित्य-साधना व राष्ट्रीय भावना को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री से अलंकृत किया। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका देहावसान हो गया। रचनाएँ-हिंदी कथा-साहित्य में रेणु का प्रमुख स्थान है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- उपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे । कहानी-संग्रह-ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप। संस्मरण-ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व। रिपोतज-नेपाली क्रांति कथा। इनकी तमाम रचनाएँ पाँच खंडों में ‘रेणु रचनावली’ के नाम से प्रकाशित हैं। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय भागीदारी की। इनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही। 1954 ई० में इनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने हिंदी उपन्यास विधा को नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श ‘मैला आँचल’ से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक-जीवन को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल-भरा और मैला भी। आजादी मिलने के बाद भारत में जब सारा विकास शहरों में केंद्रित होता जा रहा था तो ऐसे में रेणु ने अंचल की समस्याओं को अपने साहित्य में स्थान दिया। इनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। भाषा-शैली-रेणु की भाषा भी अंचल-विशेष से प्रभावित है।

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मैला आँचल प्रथम भाग खंड13-17/फणीश्वरनाथ रेणु

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