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मैला आँचल प्रथम भाग खंड6-12/फणीश्वरनाथ रेणु

छह

बालदेव जी को रात में नींद नहीं आती है।

मठ से लौटने में देर हो गई थी। लौटकर सुना, खेलावन भैया की तबियत खराब है; आँगन में सोये हैं। यदि कोई आँगन में सोया रहे तो समझ लेना चाहिए कि तबियत खराब हुई है, बुखार हुआ है या सरदी लगी है अथवा सिरदर्द कर रहा है। जिसको आँगनवाली (पत्नी) ही नहीं वह आँगन में क्यों सोएगा ? आँगन में सोने का अर्थ है आँगनवाली के हाथों की सेवा प्राप्त करना। खाने के समय भौजी से मालूम हुआ, पेट में बाय हो गया है। कड़वा तेल लगाकर पेट ससारते समय गों-गों बोलता था।

भौजी भी बहुत अनमनी थी। और दिनों की तरह बैठकर बातें नहीं की भौजी ने। भौजी बोरसी (अँगीठी) के पास बैठकर हुक्का पीती रहती थी, बालदेव जेल की गप सुनाता रहता। बालदेव जी आज पंचायत की गप भौजी को सुनाते, लेकिन आज गप जमाने का लच्छन नहीं देखकर बालदेव जी सोने चले आए।

…नींद नहीं आती है। जेल का बी.टी. कम्बल आज बड़ा गड़ रहा है। खद्दर की धोती मैली हो जाने पर बहुत ठंडी हो जाती है।…बार-बार लछमी दासिन की याद आती है। आते समय कह रही थी-आज यहीं परसाद पा लीजिए बालदेव जी !…परसाद ! लछमी के शरीर की सुगन्ध !…आज माँ की भी याद आती है। गाँव के लोग बालदेव को ‘टुरवा’ कहते थे। सुनकर माँ बहुत गुस्सा होती थी। बाप के मरने से कोई टूअर (अनाथ) नहीं होता। बाप मरे तो कुमर, माँ मरे तब टूअर ! मेरा बालदेव तो कुमर है; मेरा बालदेव टूअर नहीं। ऐसा लगता है, माँ ने अभी तुरत ही पीठ सहलाई है।

माँ के मरने के बाद, बालदेव बहुत दिन तक अजोधी भगत की भैंस चराता था। अजोधी भगत की याद आते ही बालदेव की देह सिहर उठती है। कैसा पिशाच था बुड्ढा ! बूढ़ी तो और भी खटाँस थी, खेकसियारी की तरह हरदम खेंक-खेंक करती रहती थी। दिन-भर भैंस चराकर आने के बाद बालदेव की उँगलियाँ भगत का देह टीपते-टीपते दर्द करने लगती थीं। आँखें नींद से बन्द हो जाती थीं। लेकिन जरा भी ऊँघे कि चटाक्। उस बूढ़े की उँगलियों की चोट बड़ी-बड़ी कड़ी होती थी। बालदेव ने बचपन से ही मार खाई है-थप्पड़, छड़ी और लाठी की मार। शायद सूखी चमड़ी की चोट ज्यादा लगती है।…लेकिन रूपमती का कलेजा मोम का था। वैसे बेदर्द माँ-बाप की बेटी वैसी दयालु कैसे हुई, समझ में नहीं आता है। बूढ़े-बूढ़ी को रात में नींद नहीं आती थी। आध पहर रात को ही भैंस चराने के लिए जगा देता था। आध पहर रात होते ही पीपल के पेड़ पर उल्लू अपनी मनहूस बोली में कचकचा उठता था और इधर बूढ़ा ठीक उसी तरह की आवाज में चिल्ला उठता, “रे टुरवा, भोर हो गई, भैंस खोल !”…रूपमती कभी ‘टुरवा’ नहीं कहती थी। छोटा-सा नाम ‘बल्ली’ उसी का दिया हुआ है। चार सेर सुबह और तीन सेर शाम को दूध होता था, लेकिन बुढ़िया कभी सितुआ-भर घोल भी नहीं खाने देती थी। रूपमती रोज चुराकर भात के नीचे दूध की छाली रख देती थी। बूढ़ा-बूढ़ी का जमाया हुआ पैसा आखिर डकैत ही ले गए।…इस बार रूपमती को देखा था। बहुत दिन बाद ससुराल से आई थी। तीन बच्चे हैं, बड़ी बेटी ठीक रूपमती जैसी है। ठीक वैसी ही हँसी।

….याद आती है माये जी की ! माये जी-रामकिसूनबाबू की इसतिरी ! पहले-पहल सभा हुई थी चन्ननपटी में। सभा में रामकिसूनबाबू, उनकी इसतिरी, चौधरी जी और तैवारी जी आए थे।…अलबत्त रूप था रामकिसूनबाबू का। बड़ी-बड़ी आँखें ! भाखन देते थे, जैसे बाघ गरजे ! सुनते हैं, जब वोकालत करते थे तो बहस करने के समय पुरानी कचहरी की छत से पलस्तर झड़ने लगता था। क्या मजाल कि हाकिम उनके खिलाफ राय दे दें ! लेकिन महतमा जी का उपदेश सुनकर एक ही दिन में सबकुछ छोड़-छाड़ दिया। इसतिरी के साथ गाँव-गाँव घूमने लगे। माये जी के पाँव की चमड़ी फट गई थी। लहू से पैर लथपथ हो गए थे। लाल उड़हूल ? माये जी का दुख देखकर, रामकिसूनबाबू का भाखन सुनकर और तैवारी जी का गीत सुनकर वह अपने को रोक नहीं सका था। कौन सँभाल सकता था उस टान को ! लगता था, कोई खींच रहा हो। “…गंगा रे जमुनवाँ की धार नयनवाँ से नीर बही। फूटल भारथिया के भाग भारथमाता रोई रही।”…माये जी के पाँव की चमड़ी फट गई थी, भारथमाता रो रही थी। वह उसी समय रामकिसूनबाबू के पास जाकर बोला था-“मेरा नाम सुराजी में लिख लीजिए।” उस दिन की सभा में तीन आदमियों ने नाम लिखाया था-बालदेव, बावनदास और चुन्नी गुसाईं। चौधरी जी उसे जिला आफिस में ले आए थे। माये जी बराबर आफिस आती थीं। कभी गुस्सा होते नहीं देखा माये जी को; जब बोलती थीं तो हँसकर। एक बार देहात से लौटते समय उसको बुखार हो गया था; देह जल रही थी, सिर फटा जा रहा था, कोई होश नहीं। रात में, आँख खुली तो जी बड़ा हल्का मालूम हुआ। “कैसे हो बालदेव भाई ?” कौन बावन ? गरदन उलटाकर देखा, माये जी पास ही कुरसी पर बैठी हुई हैं। “कैसे हो बोलो ? बुखार था तो देहात क्यों गया था ?…सोओ…।” माथे पर हाथ रखते हुए माये जी बोली थीं, “बुखार उतर गया है।” माये जी के हाथ रखते ही नींद आ गई थी। दूसरे दिन बावनदास ने कहा, “माये जी को जैसे ही मालूम हुआ कि तुमको बुखार है, वैसे ही मुझे लेकर आफिस आईं। जन्तर (थर्मामीटर) लगाकर बुखार देखते ही चिल्लाने लगीं-‘पानी लाओ। पंखा दो।’ उसी समय से माथे पर पानी की पट्टी देती रहीं, बारह बजे रात तक।…भगवान भी कैसे हैं, अच्छे आदमी को ही अपने पास बुला लेते हैं। दो-तीन साल के बाद ही रामकिसूनबाबू, एक ही दिन के बुखार में सरगवास हो गए। हे भगवान ! उस दिन माये जी की ओर कौन देख सकता था ! देखने की हिम्मत नहीं होती थी। माये जी का उस दिन का रूप…गंगा रे जमुनवाँ की धार नयनवाँ से नीर बही। फूटल भारथिया के भाग भारथमाता रोई रही !…सचमुच सबों के भाग फूट गए। सराध के दिन से जिला आफिस का नाम हो गया ‘रामकिसून आसरम’ । सराध के दूसरे दिन ही माये जी कासी जी चली गईं। गाड़ी पर चढ़ने के समय, पैर छूकर जब परनाम करने लगा था तो माये जी एकदम फूट-फूटकर रो पड़ी थीं-ठीक देहाती औरतों की तरह। बावनदास को माये जी ‘ठाकुर’ कहती थीं, ‘हामार ठाकुर रे।’ धरती पर लोटते हुए बावनदास को उठाते हुए माये जी बोली थीं, “महतमा जी पर भरोसा रखो। वह सब भला करेंगे। महतमा जी का रास्ता कभी मत छोड़ना।”…पता नहीं माये जी कहाँ हैं !

आँसू की गरम बूँदें बालदेव की बाँह पर ढुलककर गिरी। माँ, रूपमती, माये जी और लछमी दासिन ! माये जी जैसा ही लछमी भी भाखन देना जानती है। लछमी भाखन दे रही है।…

….विशाल सभा ! जहाँ तक नजर आती है आदमी-ही-आदमी दिखाई पड़ते हैं। बाँस के घेरे को तोड़कर लोग मंच की ओर बढ़े आ रहे हैं। मंच पर बालदेव के बगल में लछमी बैठी हुई है। लछमी के भी पैर की चमड़ी फट गई है। मंच की सुफेद चादर पर लहू की बूंदें टप-टप गिर रही हैं।…लछमी भाखन दे रही है। कौन, हरगौरी ? हरगौरी लछमी के गले में माला डालने के लिए आगे बढ़ रहा है। लछमी माला नहीं पहनती है। माला लेकर बालदेव को पहना देती है-गेंदे के फूलों की माला ! फूल से लछमी के शरीर की सुगन्धी निकलती है !…भीड़ मंच की ओर बढ़ी जाती है। हरगौरी आगे बढ़ आया है, लछमी को पकड़ रहा है।…बालदेव चिल्ला रहा है, लेकिन आवाज नहीं निकल रही है। लोग हल्ला कर रहे हैं। बहुत जोर लगाकर बालदेव चिल्लाता है-“हरगौरी बाबू !”

“गन्ही महतमा की जै!”

“जै!”

बालदेव हड़बड़ाकर उठता है; आँखें मलते हुए बाहर निकल आता है ! सबेरा हो गया है। गाँव-भर के नौजवानों को बटोरकर, जुलूस बनाकर, कालीचरन जय-जयकार करता हुआ जा रहा है। वाह रे कालीचरन ! बुद्धिमान है, बहादुर है और बुद्धिमान भी। यह पुलोगराम (प्रोग्राम) कब बनाया था ! रात में ही शायद !…जरूर मेरीगंज की चन्ननपटी की तरह नाम करेगा। और भोर का सपना ?

“खेलावन भैया, कैसी तबियत है ?”

“तुम रात में कब लौटे ? कहाँ देर हई, सिपैहियाटोली में ? कायस्थ-राजपूत की जोड़ी मिल गई, अब क्या है, सुराज हो गया ! लेकिन भाई बालदेव, हम ठहरे सीधे-सादे आदमी। कलिया पर नजर रखना। उसमें और भी बहुत गुन हैं, सो तो तुमको मालूम ही हो जाएगा। किसी किस्म का उपद्रो करेगा तो हम जिम्मेदार नहीं हैं। पीछे यादवटोली के मुखिया के ऊपर बात नहीं आवे। हाँ भाई, कायस्थ और राजपूत का क्या बिसवास ?”

खेला किसके ऊपर अपना दिल का बुखार उतारे, समझ नहीं पा रहा था। भैंस-चरवाहा भैंस दूहने के लिए बरतन ले आया था। खेलावन आज भी अपने ही हाथों भैंस दूहता है। उसका कहना है, ‘भैंस के थन में चार आदमी के हाथ लगे कि भैंस सूखी।’ चरवाहा पर बिगड़ पड़ा, “साला ! अभी भैंस थिराई भी नहीं है, दूहने के लिए हल्ला मचा रहा है। पूड़ी-जिलेबी क्या अभी ही बँट रही है ? जीभ से पानी गिर रहा है !…परनाम जोतखी काका!”

जोतखी जी कान पर जनेऊ टाँगे, हाथ में लोटा लटकाए इनारे की ओर जा रहे थे। खेलावन ने टोका, “आइए, यहीं पानी मँगवा देते हैं।”

“खेलावनबाबू, गाँव में तो सुराज हो गया, देखते हैं। अच्छा-अच्छा ! देखिएगा गाँवके लौंडे सब आज फुच्च-फुच्च कर रहे हैं। ‘छुद्र नदी चलि भरी उतराई, जस थोरे धन खल बौराई।’ ऐसा ही सिमरबनी में भी हुआ था। हमारे मामा का घर सिमरबनी में ही है। आज से दस-बारह साल पहले की बात कहते हैं। हम मामा के यहाँ गए थे। मामा के बड़े पुत्र का जग्योपवित था। प्रातःकाल उठके देखते हैं कि गाँव-भर के लौंडे इसी झंडा-पत्तखा लेकर ‘इनकिलास जिन्दाबाघ’ करते हुए गाँवों में घूम रहे हैं। मामा से पूछा कि ‘मामा, क्या बात हैं ?’ तो मामा बोले कि गाँव के सभी लड़कों ने भोलटियरी में नाम लिखा लिया है। ‘इनकिलास जिन्दाबाघ’ का अर्थ है कि हम जिन्दा बाघ हैं।…जिन्दा बाघ भी उसी शाम को देखा। इस्कूल से पच्छिमी कंगरेसी तैवारी नीमक कानून बनानेवाला था। बड़े-बड़े चूल्हे पर, कड़ाहियों में चिकनी मिट्टी और पानी डालकर खौला रहे हैं। खूब गीत-नाद, झंडा-पत्तखा ! पूछा कि यह क्या है भाई, तो कहा कि नीमक कानून बन रहा है। हम भी खड़ा होकर तमाशा देखने लगे। इसी समय हल्ला हुआ, दारोगा आ रहा है। इस्कूल के हाता से एक टोपावाला और चार-पाँच लाल पगड़ीवाला निकला ! बस, फिर क्या था, जिन्दा बाघ आ गया; जो जिस मुँह से खड़ा था, उधर ही भागा। एक-दूसरे के ऊपर गिर रहा है। कहाँ झंडा, कहाँ पत्तखा और कहाँ इनकिलास जिन्दाबाघ ! दारोगा साहब तैवारी को पकड़कर ले गए। इसके बाद गाँव के घर-घर में घुसकर खन्ना-तलासी ! गाँव के सभी जिन्दाबाघ माँद में घुस गए। सुनने में आया कि जब कँगरेसी राज हुआ तो फिर घर-घर में भोलटियर घरघराने लगा। फिर इनकिलास जिन्दाबाघ ! पुलिस-दारोगा को देखकर और जोर से चिल्लाते थे सब । लो भाई, चिल्लाओ, तुम्हारा राज है अभी ! पुलिस-दारोगा मन-ही-मन गुस्सा पीकर रह गए। पिछले मोमेंट में जिन्दाबाघों ने जोस में आकर अड़गड़ा जला दिया, कलाली लूट लिया। दूसरे ही दिन चार लौरी में भरके गोरा मलेटरी आया और सारे गाँव में जला-पका, लूट-पीटकर एक ही घंटा में ठंडा कर दिया। पचास आदमी को गिरिफ्फ किया। दो को तो मारते-मारते बेहोस कर दिया। एक को कीरीच भोंक दिया। अंग्रेज बहादुर से यही दुग्गी-तिग्गी लोग पार पाएँगे। बड़ा-बड़ा घोड़ा बहा जाए तो नटघोड़ी पूछे कितना पानी। अंग्रेज बहादुर ने अभी फिर ढील दे दिया। सब उछल-कूद रहे हैं। इस बार बिगड़ेगा तो खोपसहित कबूतराय…।”

“नहीं जोतखी काका, अब वैसा नहीं हो सकता,” बालदेव इससे आगे नहीं सुन सका, “पिछले मोमेंट में सरकार का छक्का छूट गया है। सिमरबनी के बारे में आप जो कह रहे हैं सो आप इधर सिमरबनी गए हैं ? नहीं। तब क्या देखिएगा ! एक बार वहाँ जाकर देखिए-इसपिताल, इस्कूल, लड़की-इस्कूल, चरखा सेंटर, रायबरेली (लायब्रेरी), क्या नहीं है वहाँ ? घर-घर में ए-बी-सी-डी पास ! सिवानन्दबाबू को जानते हैं ? उनका बेटा रमानन्द हम लोगों के साथ जेहल में था; अब हाकिम हो जाएगा। पक्की बात !”

खेलावन भी कुछ कहना चाहता था कि चरवाहे ने पुकारा, “पाँड़ा भैंस पी रहा है।”

खेलावन भैंस दुहने चला गया। बालदेव के पास बेकार बहस करने के लिए समय नहीं है। गाँव में जय-जयकार हो रहा है-‘गन्ही महतमा की जै!’

सात

प्यारू को सबों ने चारों ओर से घेर लिया। डागडर साहेब का नौकर है। डागडर साहेब कब तक आएँगे? तुम्हारा क्या नाम है ? कौन जात है ? दुसाध मत कहो, गहलोत बोलो गहलोत ! जनेऊ नहीं है ?

बालदेव जी प्यारू को भीड़ से बाहर ले आते हैं। “भाई, तुम लोगों ने आदमी नहीं देखा है कभी ? जाओ, अपना काम देखो ! हलवाई जी लोगों के पास कौन है ?”

बालदेव जी सबों के नाम के साथ ‘जी’ लगाकर बोलते हैं। रामकिसून आसरम में लीडर लोग इसी तरह सबों के नाम के साथ ‘जी’ लगाकर बोलते हैं-‘ड्राइवर जी’, ‘ठेकेदार जी’, ‘हरिजन जी’ !

पूछताछ के बाद मालूम हुआ, प्यारू डागडर साहेब के पास नौकरी करने आया है। रौतहट टीसन में जो हेमापोथी डागडर साहेब थे, प्यारू उनके यहाँ पाँच साल नौकरी कर चुका है। डागडर साहेब देश चले गए। सुना कि मेरीगंज में एक डागडरबाबू आ रहे हैं। सो प्यारू डागडरबाबू के पास नौकरी करने आया है।

चूड़ा-गूड़ का जलखै (जलपान) करके प्यारू बालदेव जी से कहता है, “डागडरबाबू का सामान कहाँ है ? टेबल-कुरसी लगाना होगा। अलमारी को झाड़ना-पोंछना होगा। पानी के ढोल के पास एक बोल (कठौत) रखना होगा, एक साबुन और एक गमछा। डागडरबाबू आते ही पहले साबुन से हाथ धोएँगे…”

सचमुच प्यारू डाक्टर का पुराना नौकर है। टेबल-कुरसी ठीक से लगा दिया है। तीन पैरवाली लोहे की सीढ़ी पर पानी का ढोल रख दिया; सीढ़ी में ही लगी हुई गोल कड़ी में ललमुनियाँ (अलमुनियम) का कठौत बिठा दिया है। ढोल में कल लगा हुआ है। कल टीपने से पानी गिरने लगता है। बक्से से गमछा निकालकर वहीं लटका दिया है। खस्सी-बकरी की अंतड़ी का भीतरी हिस्सा जैसा रोयाँदार होता है, वैसा ही गमछा है। साबुन ? साबुन नहीं है ? अरे, कपड़ा धोनेवाला साबुन नहीं, गमकौआ साबुन चाहिए। भगत की दूकान में गमकौआ साबुन कहाँ से आवेगा ? कटिहार में मिलता है। तहसीलदार साहब की बेटी कमली जब गमकौआ साबुन से नहाने लगती है तो सारा गाँव गमगम करने लगता है। तहसीलदार साहब कहते हैं, कमली दीदी से साबुन माँगकर ला दो !…सचमुच प्यारू पुराना डागडरी नौकर है। बड़े मौके से वह आ गया, नहीं तो इतना इन्तजाम कौन करता ? बेला झुक गया है, अब डागडरबाबू भी आ जाएँगे। तहसीलदार साहब कहते हैं, “भुरुकुवा उगने के पहले ही बैलगाड़ियों को रवाना कर दिया है। साथ में गया है अगमू चौकीदार।”

सारा गाँव महक रहा है। मेले में ठीक ऐसी ही महक रहती है। तहसीलदार साहब के गुहाल में हलवाई लोग सुबह से ही पूड़ी-जिलेबी बना रहे हैं। पूड़ी बनाकर ढेर लगा दिया है। गाँव के बच्चे सुबह से ही जमा हैं। राजपूत और कायस्थों के बच्चे दूसरे टोले के बच्चों को उधर नहीं जाने देते हैं- “भागो, छू जाएगा !”

सिंघ जी खुद जाकर खेलावनसिंह यादव को पकड़ लाते हैं। “तहसीलदार देखो, इसके पेट में बाय उखड़ गया है। भोज खाने के पहले ही अन्नसर्जी हो गई है। अरे भाई, औरतों की तरह रूठने से क्या फायदा ! तुम्हीं कहो तहसीलदार, हम ठीक कहते हैं या नहीं। लड़ो-झगड़ो और फिर गले-गले मिलो। यह रूठने का क्या माने ? हमको तो बालदेव से मालूम हुआ। जाकर देखो तो कागभुसुंडी इसके कान में मन्तर पढ़ रहा है।…ऐ बालदेव, सुनो, डागडर साहेब आएँ तो पहले इसी का इलाज कराओ। कहना कि आठवाँ महीना है…”

हा हा हा हा हा…हा…हा !

“रामकिरपाल भाई, लड़कों के सामने भी आप दिल्लगी करते हैं ? अच्छा हाथ छोड़िए। सब कोई तो हैं ही, सिर्फ हमारे नहीं रहने से कौन काम हरज हो रहा था ?”

सिंघ जी मजेदार आदमी हैं। सुबह से ही सबों को हँसा रहे हैं। खेलावन यादव रूठे थे, उसको भी पकड़ लाए। जोतखी जी नहीं आए। बोले, दाँत में दर्द है। सिंघ जी कहते हैं, “पता नहीं उनके पेट के दाँत में दरद है शायद । सुनते हैं आजकल डागडर लोग पत्थर का नकली दाँत लगा देते हैं। डागडर साहेब से कहकर जोतखी जी का दाँत बनवा दो भाई !” अजी, सभागाछी (विवाहार्थी मैथिलों का मेला) में लड़कीवाले दाँत को हिला-डुलाकर देखते हैं थोड़ो !”

“डागडर साहेब आ रहे हैं।”

“आ रहे हैं ? कहाँ ?

“पछियारीटोला के पास पाँचों बैलगाड़ियाँ आ रही हैं। अगर चौकीदार आगे-आगे दौड़ता हुआ आ रहा है। डागडर साहेब टोपा पहने हुए हैं।”

अगमू आ गया। “कन्धे पर क्या है, बक्सा ?”

कामकाज छोड़कर सभी जमा हो गए-डाक्टर साहब आ रहे हैं।

“हट जाइए !” अगमू कहता है, “डागडर साहब बोले हैं, इन्तजाम से रखना ठेस नहीं लगे। बेतार का खबर है।”

बालदेव जी कहते हैं, “रेडी (रेडियो) है या रेडा ! अब सुनिएगा रोज बम्बै-कलकत्ता का गाना। महतमा जी का खबर, पटुआ का भाव सब आएगा इसमें। तार में ठेस लगते ही गुस्साकर बोलेगा-बेकूफ। बिना मुँह धोए पास में बैठते ही तुरत कहेगा-क्या आपने आज मुँह नहीं धोया है ?”

“जुलुम बात !”

डाकडर साहेब !

सभी हाथ जोड़कर खड़े हैं। डाक्टर साहब भी हँसते हुए हाथ जोड़ते हैं। बालदेवजी ‘जाय हिन्द’ कहते हैं। देखादेखी कालिया भी आजकल ‘जाय हिन्द’ कहता है। प्यारू शामियाने में कुर्सी लाकर रखता है, डाक्टर साहब के हाथ से टोप ले लेता है। डाक्टर साहब के चेहरे का रंग एकदम लाल है। ‘लालटेस’ ! मोंछ नहीं है क्या ? नहीं मोंछ सफाचट कटाए हैं।

बालदेव जी हाथ जोड़कर पूछते हैं, रास्ते में कहीं तकलीफ तो नहीं हुई ?…सब तैयार है, भोजन कर लिया जाए। इनका नाम विश्वनाथपरसाद है, राजपारबगा के तहसीलदार हैं। इनका नाम रामकिरपालसिंघ है, सिपै…राजपूतटोली के मालिक हैं। इनका नाम खेलावनसिंह यादव है, यादव छत्रीटोले के ‘मड़र’ हैं। इनका नाम कालीचरन है, बड़ा बहादुर लौजवान है। और ये लोग ‘इसकुलिया’ हैं।…आइए बाबू साहब, आप लोग डागडर साहेब से बतियाइए। इस गाँव के महन्थ साहेब ने इसपिताल होने की खुशी में गाँववालों को आज भंडारा दिया है।

डाक्टर साहब हाथ जोड़कर सबों को फिर नमस्कार करते हैं। कहते हैं “हम अभी नहीं खाएंगे। सबको खिलाइए।”

सचमुच प्यारू पुराना नौकर है। देखो, डागडरबाबू ने सबसे पहले साबुन से हाथ धोया।

मठ से महन्थ साहेब, कोठारिन लछमी दासिन, रामदास और दो मुरती आए हैं। महन्थ साहेब की बैलगाड़ी के आगे एक साधु तुरही फूंकता हुआ आ रहा है। धु तु तु तु ऽ ऽ…धु तु तु ! और तुरही की आवाज सुनते ही गाँव के कुत्ते दल बाँधकर भोंकना शुरू कर देते हैं। छोटे-छोटे नवजात पिल्ले तो भोंकते-भोंकते परेशान हैं। नया-नया भोंकना सीखा है न !

सबसे पहले कालीथान में पूड़ी चढ़ाई जाती है। इसके बाद कोठी के जंगल की ओर दो पूड़ियाँ फेंक दी जाती हैं, जंगल के देव-देवी और भूत-पिशाच के लिए। इसके बाद साधु और बाभन भोजन ! बालदेव जी ने बहुत कहा, लेकिन डाक्टर साहब नहीं माने। प्यारू ठीक कहता था, डागडर लोग हलवाई की बनाई हुई पूड़ी-जिलेबी नहीं खाते हैं। ‘कल के चूल्हे’ पर प्यारू डागडरबाबू के लिए भात बना रहा है। जल्दी से बिजे (खाना-पीना) खत्म हो तो बेतार के खबर का गाना सुनें। क्या ? आज गाना नहीं होगा ? हाँ भाई, कल-कब्जा की बात है। इतना जल्दी कैसे होगा ! फिर कटिहार जंकशन में रेलगाड़ियों और मिलों का अभी इतना शोरगुल होता होगा कि यहाँ तक खबर आ भी नहीं सकेगी।”

“बिझै ! बिझै !”

“हर टोले के लोग अलग-अलग पंगत में बैठो। अपने-अपने बगल में एक फाजिल पत्ता लगा देना भाई ! अपने-अपने घर की जनाना लोगों के लिए कमबेस नहीं।…”

गुअरटोली के रौदी बूढ़ा को सभी मिलकर चिढ़ा रहे हैं। रौदी गोप गाँव-गाँव में घूमकर दही बेचता है। उसकी चाल-चलन, उसकी बोला-बानी सबकुछ औरतों जैसी है। सिर और छाती पर से कपड़ा जरा-सा भी सरक जाने पर, औरतों की तरह लजाकर ठीक कर लेता है। मर्दो से बातें करने के समय लजाता है, औरतें उसके सामने किसी भी किस्म का परदा नहीं करतीं। हाट जाते और लौटते समय वह औरतों के झुंड में ही रहता है।…अभी सब मिलकर रौदी बूढ़ा को चिढ़ाते रहे हैं-“तुम्हारा हिस्सा आँगन में भेज दिया जाएगा। देखो, लालचन ने तुम्हारा पत्ता लगा दिया है।”

“दुर ! मुँहझौंसे ! बूड़े-पुराने से हँसी-दिल्लगी करते लाज नहीं आती ? हम पूछते हैं तुम लोगों से, कि तुम लोग अपनी बूढ़ी दादी और नानी से भी इसी तरह हँसीमसखरी करते हो? इस गाँव के लौंडे-छौंड़े बिगड़ गए हैं। और सारा दोख इसी सिंघवा का है। जहाँ बूढ़े ही बदचाल हों तो लौंडों का क्या हाल ! हम कह देते हैं, हाँ, सुन रखो ! हाँ।…”

महन्थ साहब रात में भोजन नहीं करते हैं।

“सतगुरु हो ! डागडर साहेब, आपको कितना मुसहरा मिलता है ? दो सौ ?…हाँ, यहाँ ऊपरी आमदनी भी होगी। असल आमदनी तो ऊपरी आमदनी है।…बहुत अच्छा हुआ।…गाँधी जी तो अवतारी पुरुख हैं।-डागडर साहेब ! आज से करीब पाँच साल पहले एक बार हमारी आँखें आईं, उसके बाद दो महीने तक आँखों में लाली छाई रही। पुरनियाँ के सिविलसार्जन साहेब को पचास रुपया फीस देकर दिखलाया। बहुत दिनों तक इलाज भी करवाया। मगर बेकार। अब तो आप आ गए हैं। अपने घर के डागडर हुए !…”

लछमी दासिन टकटकी लगाकर डाक्टर साहब को देख रही है।…कितना सुन्दर पुरुष है ! बेचारे का इस देहात में मन नहीं लग रहा है। नौकरी कोई भी हो, आखिर नौकरी ही है। मन घर पर टँगा हुआ होगा। बीवी-बच्चों की याद आती होगी।…कुछ दिनों में मन लग जाएगा। फिर बाल-बच्चों को भी ले आवेंगे। अचानक वह पूछ बैठती है, “आपके घर पर और कौन-कौन हैं डाक्टरबाबू ?”

“जी,” डाक्टर ने जरा हकलाते हुए कहा, “जी, मेरा कोई नहीं। माँ-बाप बचपन में ही गुजर गए।”

लछमी समझ लेती है कि यह सवाल पूछना उचित नहीं हुआ। उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि उसने ऐसा प्रश्न किया ही क्यों !…मेरा कोई नहीं !

“लछमी ! रामदास को बुलाओ। अच्छा तो डागडरबाबू, अब आज्ञा दीजिए। आप भी भोजन करके आराम कीजिए। कभी मठ की ओर भी आइएगा। सतगुरु साहेब कहीन हैं-‘दरस-परस सतसंग ते छूटे मन का मैल’।”

लछमी हाथ जोड़कर नमस्कार करती है।

ब्राह्मणटोली के लोग बालदेव जी से पूछते हैं, “डागडरबाबू का नौकर तो दुसाध है। और डागडरबाबू कौन जात हैं ? दुसाध का बनाया हुआ खाते हैं ?”

बोलिए प्रेम से…महतमा गन्ही की जै!

भंडारा समाप्त हो गया। कोई ‘तरुटी’ नहीं हुई। सबको ‘पूर्ण’ हो गया। जो भूल-चूक से छूट गए हैं, उनका हिस्सा कल ले जाइएगा।

बालदेव जी अगमू चौकीदार और बिरंची के साथ इसपिताल में ही सोएँगे। आज पहली रात है!

आठ

लछमी का भी इस संसार में कोई नहीं !

…जी, मेरा कोई नहीं !…लछमी सोचती है, उसका दिल इतना नरम क्यों है ? क्यों वह डाक्टर को देखकर पिघल गई ? यह अच्छी बात नहीं।…सतगुरु मुझे बल दो।।

सतगुरु के सिवा कोई और भी उसका नहीं। माँ की याद नहीं आती। पसराहा मठ के पास अपनी झोंपड़ी की याद आती है। सुबह होते ही बाबूजी कन्धे पर चढ़ाकर मठ ले जाते थे। महन्थ रामगुसाईं कितना प्यार करते थे–’आ गई लच्छो ! ले, मिसरी खाएगी? चाह पीएगी ?’ भंडारी एक कटोरे में चाहचूड़ा दे जाता था। बाबूजी बैठकर महन्थ साहेब के लिए गाँजा तैयार करते थे। एक चिलम, दो चिलम, तीन चिलम ! पीते-पीते महन्थ साहेब की आँखें लाल हो जाती थीं। कभी-कभी बाबूजी भी थर-थर, काँपने लगते थे। भंडारी दही लाकर देता था-‘खा लो रामचरन भाई ! नशा टूट जाएगा।’ बाबूजी को महन्थ साहेब बहुत मानते थे। कोई काम नहीं। दिन-भर महन्थ साहेब की धूनी के पास बैठे रहो, गाँजा तैयार करो, चिलम चढ़ाओ। मठ पर ही हमारा खाना-पीना होता था।

गाँव में जब हैजा फैला तो बाबूजी को महन्थ साहेब ने कहा, “रामचरन ! तुम मठ पर ही रहो।” उन दिनों, दिन-भर में कभी चिलम ठंडी नहीं होने पाती थी। एक दिन महन्थ साहेब का बीजक जल गया। न जाने कैसे चिलम की आग बीजक पर गिर पड़ी। महन्थ साहेब ने रोते हुए कहा था, “रामचरन, साहेब करोध कीहिन है, दंड भोगना पड़ेगा। अमंगल होगा।”…दूसरे ही दिन मठ के एक साधु का पेट-मुह चलने (कै-दस्त होना) लगा। तीसरे दिन उस साधु ने देह ‘तेयाग’ दिया तो महन्थ साहेब बीमार पड़े। बाबूजी ने महन्थ साहेब की बड़ी सेवा की। शरीर त्यागने के पहले महन्थ साहेब ने कहा था, “रामचरन एक बार आखिरी चिलम पिलाओ बेटा !” बाबूजी चिलम तैयार करने के लिए धूनी से आग ले ही रहे थे कि धूनी में ही उलटी होने लगी। महन्थ साहेब ने शाम को और बाबूजी ने सुबह को काया बदल दिया। भंडारी ने दूर से ही बाबूजी का दरसन करा दिया था। भंडारी ने कहा था, “मरे हुए आदमी के पास नहीं जाना चाहिए।”

“लछमी ! ओ लछमी !”

“आई !” लछमी कुनमुनाती उठती है।…उस दिन बीजक छूकर कसम खाए थे और आज फिर पुकारने लगे। सतगुरु हो, तुम्हारी बुलाहट कब होगी ! बुला लो सतगुरु अपने पास दासी को!

“लछमी !”

“महन्थ साहेब, चित्त को शान्त कीजिए। सतगुरु का ध्यान कीजिए। माया…”

“सब माया है लछमी। लेकिन एक बार पास आओ।”

अन्धा आदमी जब पकड़ता है तो मानो उसके हाथों में मगरमच्छ का बल आ जाता है। अन्धे की पकड़। लाख जतन करो, मुट्ठी टस-से-मस नहीं होगी !…हाथ है या लोहार की ‘सँडसी’ ! दन्तहीन मुँह की दुर्गन्ध !…लार !…”महन्थ साहेब ! महन्थ साहेब, सुनिए !” रामदास धूनी के पास ही है। “महन्थ साहेब ! अरे रामदास ! रामदास ! जल्दी उठो जी ! महन्थ साहेब को क्या हो गया।”

महन्थ साहेब को सतगुरु ने अपने पास बुला लिया।

सुबह को सारे गाँव के लोग जमा होते हैं।…महन्थ साहेब सिद्ध पुरुख थे ! इच्छा-मृत्यु हुई है ! रात को बैठकर, गाँव के बूढ़े-बच्चों को खिलाकर आए और रात में ही चोला बदल लिए। दुनिया में ऐसी मरनी सबों को नसीब नहीं होती। गियानी महातमा थे।

रामदास कहता है, “भंडारा से लौटकर जब सरकार आए और आसन पर ‘धेयान’ लगाकर बैठे तो देह से ‘जोत’ निकलने लगा। हम मसहरी लगाने गए तो इसारे से मना कर दिया। हम धूनी के पास बैठकर देखते रहे। सरकार के देह का जोत और तेज हो गया और सरकार एकदम बच्चा हो गए। जोत की चमक से हमारी आँखें बन्द हो गईं। हम वहीं धूनी के पास लेट गए। कोठारिन जी जब हल्ला करने लगीं तो आँखें खुली…”

लछमी सुबह कुछ नहीं बोलती।…साधुओं को माटी देने की रीत भी नहीं मालूम ? जटा बढ़ा लिया और हाथ में कमंडल ले लिया, हो गए साधू !…”चरनदास ! पहले बीजक पाठ होगा, तब माटी ! इसके बाद सभी सन्तन के गोर (समाधि) पर माटी दी जाएगी। इतना भी नहीं जानते ?”

“माया जाल बिखंडने सुर गुरु दुख परहरता
सरबे लोक जनाच जेन सततं,
हिया लोकिता…” …
नमोस्तु सतगुरु साहेब को
चरणकमल धरी शीश !

सबसे पहले रामदास माटी देता है ! उसके बाद लछमी दासिन मुट्ठी-भर माटी महन्थ साहेब की सफेद चादर पर डाल देती है। फिर फूलों की माला। साधु लोग कुदाली से गोर में मिट्टी भरने लगते हैं। चरनदास कहता है, “महन्थ साहेब को लगाकर दस महन्थों को माटी दिया है। माटी देना भी नहीं जानेंगे ?”

गाँव के ‘कीरतनियाँ लोग’ समदाउन शुरू करते हैं-

“हाँ रे, बड़ा रे जतन से सुगा एक हे पोसल,
माखन दुधवा पिलाए।
हाँ रे, से हो रे सुगना बिरिछी चढ़ि बैठल
पिंजड़ा रे धरती लोटाए…?”

गौर के बाद रामदास बँजड़ी बजा-बजाकर ‘निरगन’ गाता है-

“कँहवाँ से हंसा आओल, कँहवाँ समाओल हो राम,
कि आहो रामा हो, कोन गढ़ कयल मोकाम, कवन लपटाओल हो राम !”
डिम डिमिक डिमिक…
“सुरपुर से हंसा आओल, नरपुर समाओल हो राम,
कि आहो रामा हो, कायागढ़ कयला मोकाम, मायहि लपटाओल हो राम !”
“जै हो, सतगुरु की जै हो ! महन्थ साहेब की जै हो ! सब सन्तन की जै हो !”

मठ सूना लगता है। जीवन में आज पहली बार लछमी समझ रही है महन्थ साहेब की कीमत को।…नेत्रहीन हो गए थे, कुछ देख नहीं सकते थे, बिना रामदास के सहारा के एक पग चल भी नहीं सकते थे, किन्तु ऐसा लगता था कि मठ भरा हुआ है। बिना महन्थ के मठ और बिना प्राण के काया !

काँचहि बाँस के पिंजड़ा,
जामें दियरो न बाती हो,
अरे हंसा उड़ल आकाश,
कोई संगो न साथी हो!

…जो भी हो, संसार में सबसे बढ़कर लछमी को ही प्यार करते थे महन्थ साहेब। चढ़ती जवानी में, सतगुरु साहेब की दया से माया को जीतकर ब्रह्मचारी रहे। बुढ़ौती में तो आदमी की इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, माया के प्रबल घात को नहीं सँभाल सकती हैं। इसीलिए तो साधु-ब्रह्मचारी लोग बुढ़ापे में ही माया के बस में हो जाते हैं। यह तो महन्थ साहेब का दोख नहीं। उसका भाग ही खराब है। यदि वह नहीं होती तो महन्थ साहेब सतगुरु के रास्ते से नहीं डिगते। यह ध्रुव सत्त है। दोख तो लछमी का है। एक ब्रह्मचारी का धरम भ्रष्ट करने का पाप उसके माथे है। अब उसका अपना कौन है ? कोई नहीं !…

“महन्थ साहेब ! महन्थ साहेब ! हमको छोड़कर आप कहाँ चले गए ? दासी के अपराध को छिमा करना गुरु। जीवन में तुम्हारी कोई सेवा सुखी मन से नहीं कर सकी। मरने के समय भी तुमको सुख नहीं दे सकी प्रभू !…छिमा करो!”

जिन्दगी-भर के जमे हुए आँसू आज निकल जाना चाहते हैं, रोके रुकते नहीं।

“जायहिन्द कोठारिन जी !”

“दया सतगुरु के ! बालदेव जी, बैठिए !”

बालदेव जी सब भूल गए। लछमी को सांत्वना देने के लिए रास्ते में जितनी बातें सोची थीं, दोहा, कवित्त, सब भूल गए। उसे माये जी की याद आ जाती है। माये जी का वह रूप… गंगा रे जमुनवाँ की धार नयनवाँ से नीर बही।’

बालदेव जी की गढ़ी हुई ढाढ़स की बाँध इस तेज धारा में नहीं टिक सकेगी। बालदेव जी की भी आँखें छलछला जाती हैं। फल्गू में भी बाढ़ आती है। वह दिल को मजबूत करके कहते हैं, “कोठारिन जी, सब परमेसर की माया है। हानि-लाभ जीवन-मरन जस-अपजस बिधि हाथ।…हम तो सूरज उगने के पहले ही डागडर साहेब के साथ बाहर निकल गए थे। डागडर साहेब को गाँव की चौहद्दी दिखलानी थी। दखिन संथालटोली से सुरु करके, दुसाधटोली तक गली-कूची, अगवारा-पिछवारा देखते-देखते दस बज गए। वहीं मालूम हुआ कि महन्थ साहेब इन्तकाल कर गए हैं। डागडर साहेब का भी मन उदास हो गया। वे इसपिताल लौट गए। बाकी टोलों को कल देखेंगे।… आज रौतहट हाट में ढोल भी दिला देना है-इसपिताल खुल गया है। शोभन मोची को भेजकर हम यहाँ आए हैं।”

लक्ष्मी के आँसू थम चुके थे। बालदेव जी ठीक समय पर आ गए। महन्थ साहेब बालदेव जी को बहुत प्यार करने लगे थे। पाँच-सात दिनों की जान-पहचान में ही महन्थ साहेब ने बालदेव जी को अच्छी तरह पहचान लिया था। रुपैया को बजाकर देखा जाता है और आदमी को एक ही बोली से पहचाना जाता है। महन्थ साहेब कहते थे, “सुद्ध विचार का आदमी है। संसकार बहुत अच्छा है।” इसके पहले महन्थ साहेब ने किसी पर इतना विश्वास नहीं किया था। मठ में रोज तरह-तरह के साधु-संन्यासी आते थे। महन्थ साहेब रोज यह कहना नहीं भूलते थे-“लछमी इन लोगों का कोई विश्वास नहीं। रमता लोग हैं। इन लोगों से ज्यादे मिलना-जुलना अच्छा नहीं !” नई उमर के साधुओं को पैर की आहट से ही वे पहचान लेते थे। उनके अन्तर की दृष्टि बड़ी तेज थी। पिछले साल एक दिन सत्संग में एक नौजवान साधु आकर बैठ गया। रात में आया था, बराहछत्तर (बराहछेत्र, एक तीर्थस्थान) जा रहा था। उसके नैन बड़े चंचल ! सत्संग में बैठकर लछमी की ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। महन्थ साहेब, ‘साहेब वचन’ सुना रहे थे। आखर (पंक्ति) कहते-कहते अचानक रुक गए। बोले-“हों नौगछिया के नौजवान उदासी जी ! अरे साहेब, बचन पर धेयान दीजै जी ! लछमी के सरीर पर क्या नैन गड़ाए हैं ! माटी का सरीर तो मिथ्या है, साहेब बचन सत्त !”…बेचारा बिना ‘बालभोग’ किए ही आसन छोड़कर चला गया था। लेकिन, बालदेव जी पर उनका बड़ा विश्वास था।…”असल तेयागी यही लोग हैं लछमी !”

बालदेव जी को देखते ही लछमी का दुख आधा हो गया। बालदेव जी कहते हैं, “बड़े भाग से ऐसे लोगों का दरसन मिलता है। हमको तो दरसन मिला, लेकिन सेवा का औसर नहीं मिला। हमारा अभाग…है।”

“बालदेव जी, आप तो दास हैं ?”

“जी ! मेरी माँ भी दास थी। माँस-मछली छूती भी नहीं थी।”

“तब तो आप ‘गरभदास’ हैं। फिर कंठी क्यों नहीं ले लेते ?”

बालदेव जी ज़रा होंठों पर हँसी लाकर कहते हैं, “कोठारिन जी, असल चीज है मन। कंठी तो बाहरी चीज है।”

दूसरा साधू होता तो कंठी को बाहरी चीज कहते सुनकर गुस्सा हो जाता। रामदेव गुसाईं होते तो तुरन्त चिमटा लेकर खड़े हो जाते, गाली-गलौज करने लगते। लेकिन लछमी शान्त होकर कहती है, “कंठी बाहरी चीज नहीं है बालदेव जी ! भेख है यह। आप विचार कर देखिए। जैसे आपका यह खधड़ कपड़ा है। मलमल और मारकीन कपड़ा पहननेवाले मन से भले ही महतमा जी के पन्थ को मानें, लेकिन आप उन्हें सुराजी तो नहीं कहिएगा ?”

लछमी की बातों का जवाब देना सहज नहीं। जब-जब लछमी से बातें होती हैं, बालदेव जी को नई बातों की जानकारी होती है।

“आप कहती हैं तो ले लेंगे कंठी।”

“किससे लीजिएगा ?”

“आप ही दे दीजिए।”

लछमी हँस पड़ती है। शोकाकुल वातावरण में लछमी की मुस्कराहट जान डाल देती है।…कितने सूधे हैं बालदेव जी ! मुझे गुरु बनाना चाहते हैं !

“नहीं बालदेव जी, मैं आपको आचारज जी से कंठी दिलाऊँगी। आचारज जी काशी जी में रहते हैं। मैं आपको अपना बीजक देती हूँ। इसका रोज पाठ कीजिए। बीजक पाठ से मन निरमल होता है, अन्तर की ज्योति खुलती है।”

…बीजक ! एक छोटी-सी पोथी ! ‘गयान’ का भंडार ! बालदेव जी का दिल धक-धक कर रहा है। लछमी कहती है, “सब हाथ का लिखा हुआ है। उस बार काशी जी से एक विद्यार्थी जी आए थे। बड़े जतन से लिख दिया था। मोती जैसे अच्छर हैं।”

बीजक से भी लछमी की देह की सुगन्धी निकलती है। इस सुगन्ध में एक नशा है। इस पोथी के हरेक पन्ने को लछमी की उँगलियों ने परस किया है…’पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़ा सो पंडित होय।’

लछमी को देखने से ही मन पवित्र हो जाता है।

नौ

डाक्टर प्रशान्तकुमार !

जात ?…

नाम पूछने के बाद ही लोग यहाँ पूछते हैं-जात ? जीवन में बहुत कम लोगों ने प्रशान्त से उसकी जाति के बारे में पूछा है। लेकिन यहाँ तो हर आदमी जाति पूछता है। प्रशान्त हँसकर कभी कहता है-“जाति ? डाक्टर !”

“डाक्टर ! जाति डाक्टर ! बंगाली है या बिहारी ?”

“हिन्दुस्तानी,” डाक्टर जवाब देता है।

जाति बहुत बड़ी चीज़ है। जात-पात नहीं माननेवालों की भी जाति होती है। सिर्फ हिन्दू कहने से ही पिंड नहीं छूट सकता। ब्राह्मण हैं ?…कौन ब्राह्मण ! गोत्र क्या है ? मूल कौन है ?…शहर में कोई किसी से जात नहीं पूछता। शहर के लोगों की जाति का क्या ठिकाना ! लेकिन गाँव में तो बिना जाति के आपका पानी नहीं चल सकता।

प्रशान्त अपनी जाति छिपाता है। सच्ची बात यह है कि वह अपनी जाति के बारे में खुद नहीं जानता। यदि उसे अपनी जाति का पता होता तो शायद उसे बताने में झिझक नहीं होती। तब शायद जाति-पाति के भेद-भाव पर से उसका भी पूर्ण विश्वास नहीं हटता। तब शायद ब्राह्मण कहने में वह गर्व महसूस करता।

हिन्दू विश्वविद्यालय में नाम लिखाने के दिन भी प्रशान्त को कुछ ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा था। रात-भर वह जगा रह गया था।…प्रशान्तकुमार, पिता का नाम अनिलकुमार बनर्जी, हिन्दू, ब्राह्मण। सब झूठ ! बेचारा डा. अनिलकुमार बनर्जी, नेपाल की तराई के किसी गाँव में अपने परिवार के साथ सुख की नींद सो रहा होगा। प्रशान्तकुमार नामक उसका कोई पुत्र हिन्दू विश्वविद्यालय में नाम लिखा रहा है, ऐसा वह सपना भी नहीं देख सकता।…लेकिन प्रशान्त अपने तथाकथित पिता डा. अनिलकुमार को जानता है। मैट्रिक परीक्षा के लिए फार्म भरने के दिन डा. अनिल उसके पिता के रिक्तकोष्ठ में आकर बैठ गए थे।

बचपन से ही वह अपने जन्म की कहानी सुन रहा है। घर की नौकरानी, बाग का माली और पड़ोस का हलवाई भी उसके जन्म की कहानी जानता था। लोग बरबस उसकी ओर उँगली उठाकर कहने लगते थे-‘उस लड़के को देखते हो न ? उसे उपाध्याय जी ने कोशी नदी में पाया था। बंगालिन डाक्टरनी ने पाल-पोसकर बड़ा किया है। फिर लोगों के चेहरों पर जो आश्चर्य की रेखा खिंच जाती थी और आँखों में जो करुणा की हल्की छाया उतर आती थी, उसे प्रशान्त ने सैकड़ों बार देखा है।…एक लावारिस लाश को भी लोग वैसी ही दृष्टि से देखते हैं।

प्रशान्त अज्ञात कुलशील है। उसकी माँ ने एक मिट्टी की हाँड़ी में डालकर बाढ़ से उमड़ती हुई कोशी मैया की गोद में उसे सौंप दिया था। नेपाल के प्रसिद्ध उपाध्याय-परिवार ने, नेपाल सरकार द्वारा निष्कासित होकर, उन दिनों सहरसा अंचल में ‘आदर्श आश्रम’ की स्थापना की थी। एक दिन उपाध्याय जी बाढ़-पीड़ितों की सहायता के लिए रिलीफ की नाव लेकर निकले, झाऊ की झाड़ी के पास एक मिट्टी की हाँड़ी देखी-नई हाँड़ी। उनकी स्त्री को कौतूहल हुआ, ‘जरा देखो न, उस हाँड़ी में क्या है ?’ नाव झाड़ी के पास पहुँची, पानी के हिलोर से हाँड़ी हिली और उससे एक ढोढ़ा साँप गर्दन निकालकर ‘फों-फों’ करने लगा। साँप धीरे-धीरे पानी में उतर गया और हाँड़ी से नवजात शिशु के रोने की आवाज आई, मानो माँ ने थपकी देना बन्द कर दिया।…बस, यही उसके जन्म की कथा है, जिसे हर आदमी अपने-अपने ढंग से सुनाता है।

आदर्श आश्रम’ में एक दुखिया युवती थी-स्नेहमयी। स्नेहमयी को उसके पति डा. अनिलकुमार बनर्जी ने त्यागकर एक नेपालिन से शादी कर ली थी। उपाध्याय जी के आदर्श आश्रम में रहकर वह हिरण, खरगोश, मयूर और बन्दर के बच्चों पर अपना / स्नेह बरसाती रहती थी। तरह-तरह के पिंजड़ों को लेकर वह दिन काट लेती थी। जब उस दिन उपाध्याय-दम्पति ने उसकी गोद में सोया हुआ शिशु दिया, तो वह आनन्दविभोर होकर चीख उठी थी-‘प्रशान्त !…आमार प्रशान्त !’ उस दिन से प्रशान्त स्नेहमयी का एकलौता बेटा हो गया। कुछ दिनों के बाद नेपाल सरकार ने निष्कासन की आज्ञा रद्द करके उपाध्याय-परिवार को नेपाल बुला लिया-आदर्श आश्रम के पशु-पक्षियों के साथ। स्नेहमयी और प्रशान्त भी उपाध्याय-परिवार के ही सदस्य थे। उपाध्याय जी ने नेपाल की तराई के विराटनगर में आदर्श-विद्यालय की स्थापना की। स्नेहमयी उसी स्कूल में सिलाई-कटाई की मास्टरनी नियुक्त हुई।

स्नेहमयी के स्नेहांचल में पलते हुए किशोर प्रशान्त पर कर्मठ उपाध्याय-परिवार की रोशनी नहीं पड़ती तो वह सितार के झलार और रवीन्द्र-संगीत के बसन्त-बहार के दायरे से बाहर नहीं जा सकता था। उपाध्याय जी का ज्येष्ठ पुत्र बिहार विद्यापीठ का स्नातक था और मँझला देहरादून के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी स्कूल का विद्यार्थी । पुत्री शान्तिनिकेतन में शिक्षा पा रही थी। छुट्टियों में जब वे एक जगह इकट्ठे होते तो शान्तिनिकेतन में शिक्षा पानेवाली बहन चर्खा चलाना सीखती, विद्यापीठ के स्नातक आश्रम-भजनावली की पंक्तियों पर राविन्द्रिक सुर चढ़ाते और अंग्रेजी स्कूल का स्टूडेंट सेवादल के कवायदों के हिन्दी कमांड के वैज्ञानिक पहलू पर बहस करता-‘एटेंशन’ में जो फोर्स है वह ‘सावधान’ में नहीं ! एटेंशन सुनते ही लगता है कि दर्जनों जोड़े बूट चटख उठे।

ऐसे ही वातावरण में प्रशान्त के व्यक्तित्व का विकास हुआ।

हिन्दू विश्वविद्यालय से आई.एस-सी. पास करने के बाद वह पटना मेडिकल कालेज में दाखिल हुआ। माँ की इच्छा थी कि वह डाक्टर बने। लेकिन अपने प्रशान्त को वह डाक्टर के रूप में नहीं देख पाई। काशीवास करते-करते, काशी की किसी गली में वह हमेशा के लिए खो गई !…एक बार लाहौर से प्रशान्त के नाम पर एक मनिआर्डर आया था-विजया का आशीर्वाद लेकर। भेजनेवाली श्री-श्रीमती स्नेहमयी चोपड़ा।…एक माँ ने जन्म लेते ही कोशी मैया की गोद में सौंप दिया और दूसरी ने जनसमुद्र की लहर को समर्पित कर दिया।

डाक्टरी पास करने के बाद जब वह हाउस सर्जन का काम कर रहा था, 1942 का देशव्यापी आन्दोलन छिड़ा। नेपाल में उपाध्याय-परिवार का बच्चा-बच्चा गिरफ्तार किया जा चुका था। अंग्रेजी सरकार को पूरा पता था कि उपाध्याय-परिवार हिन्दुस्तान के फ़रार नेताओं की सिर्फ मदद ही नहीं करता है, गुप्त आन्दोलन को सक्रिय रूप से चला भी रहा है। मँझला पुत्र बिहार की सोशलिस्ट पार्टी का कार्यकर्ता था, वह पहले ही नजरबन्द हो गया था। प्रशान्त भी तो उपाध्याय-परिवार का था, वह कैसे बच सकता था, उसे भी नजरबन्द कर लिया गया। जेल में विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के निकट सम्पर्क में रहने का मौका मिला…सभी दल के लोग उसे प्यार करते थे।

1946 में जब कांग्रेसी मन्त्रिमंडल का गठन हुआ तो एक दिन वह हेल्थ मिनिस्टर के बँगले पर हाजिर हुआ। वह पूर्णिया के किसी गाँव में रहकर मलेरिया और काला आजार के सम्बन्ध में रिसर्च करना चाहता है। उसे सरकारी सहायता दी जाए। मिनिस्टर साहब ने कहा था-“लेकिन सरकार तुमको विदेश भेज रही है। स्कालरशिप…”

“जी, मैं विदेश नहीं जाऊँगा,” पूर्णिया और सहरसा के नक्शे को फैलाते हुए उसने कहा था, “मैं इसी नक्शे के किसी हिस्से में रहना चाहता हूँ। यह देखिए, यह है सहरसा का वह हिस्सा, जहाँ हर साल कोशी का तांडव नृत्य होता है। और यह पूर्णिया का पूर्वी अंचल जहाँ मलेरिया और काला-आजार हर साल मृत्यु की बाढ़ ले आते हैं।”

मिनिस्टर साहब प्रशान्त को अच्छी तरह जानते थे। इस विषय पर प्रशान्त से तर्क में जीतना मुश्किल है। “लेकिन सवाल यह है कि…”

“सवाल-जवाब कुछ नहीं। मुझे किसी मलेरिया सेंटर में ही भेज दीजिए !”

“मलेरिया सेंटर में ? लेकिन तुम एम.बी.बी.एस. हो और मलेरिया काला-आजार सेंटरों में एल.एम.पी. डाक्टर लिए जाते हैं।’

“जब तक मैं यह रिसर्च पूरा नहीं कर लेता, मैं कुछ भी नहीं हूँ। मेरी डिग्री किस काम की ?”

बहुत मेहनत से नई और पुरानी फाइलों को उलटकर और पूर्णिया डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन से लिखा-पढ़ी करके मिनिस्टर साहब ने मि. मार्टिन की दी हुई जमीन के बारे में पता लगाया। बीस-बाईस वर्ष पहले मिनिस्टर साहब पूर्णिया में ही वकालत करते थे। पगले मार्टिन को उन्होंने देखा था।

अन्त में केन्द्रीय सरकार से सलाह-परामर्श के बाद एक दिन प्रेस-नोट में यह खबर प्रकाशित हुई कि पूर्णिया जिले के मेरीगंज नामक गाँव में मलेरिया स्टेशन खोला गया है (…दि स्टेशन विल अंडरटेक मलेरिया ऐंड काला-आजार इन्वेस्टिगेशन इन ऑल ऐस्पेक्ट्स-प्रिवेन्विट, क्यूरेटिव ऐंड इकोनामिक)।

प्रशान्त के इस फैसले को सुनकर मेडिकल कालेज के अधिकारियों, अध्यापकों और विद्यार्थियों पर तरह-तरह की प्रतिक्रिया हुई। मशहूर सर्जन डा. पटवर्धन ने कहा, “बेवकूफ है!

ई.एन.टी. के प्रधान डाक्टर नायक बोले, “पीछे आँखें खुलेंगी।”

मेडिसन के डाक्टर तरफदार की राय थी, “भावुकता का दौरा भी एक खतरनाक रोग है। मालूम ?”

लेकिन प्रिंसिपल साहब खुश थे, “तुमसे यही उम्मीद थी। मैं तुम्हारी सफलता की कामना करता हूँ ! जब कभी तुम्हें किसी सहायता की आवश्यकता हो, हमें लिखना।”

प्रशान्त का गला भर आया था।

मद्रास के मेडिकल गजट ने सम्पादकीय लिखकर डा. प्रशान्त का अभिनन्दन किया।

…और जिस दिन वह पूर्णिया आ रहा था, स्टीमर खुलने में सिर्फ पाँच मिनट की – देरी थी, उसने देखा, एक युवती सीढ़ी से जल्दी-जल्दी उतर रही है। कौन है ? ममता ! “हाँ, ममता ही थी। आते ही बोली, “आखिर तुम्हारा भी माथा खराब हो गया। तुमने तो कभी बताया नहीं। बलिहारी है तुम्हारा !…ओह, प्रशान्त, तुम कितने बड़े हो, कितने महान् !…मैं तो अभी आ रही हूँ बनारस से। आते ही चुन्नी ने तुम्हारी चिट्ठी दी।”

रूमाल से फूल और बेलपत्र निकालकर प्रशान्त के सिर से छुलाते हुए ममता ने कहा था, “बाबा विश्वनाथ जी का प्रसाद है। बाबा विश्वनाथ तुम्हारा मंगल करें। पहुँचते ही पत्र देना।”

दस

डाक्टर पत्र लिख रहा है-

“ममता,

“तुमने कहा था, पहुँचते ही पत्र देना। पहुँचने के एक सप्ताह बाद पत्र दे रहा हूँ। तुम्हारे बाबा विश्वनाथ ने मेरे आने से पहले ही अपने एक दूत को भेज दिया है। प्यारू सचमुच देवदूत है। इसलिए तुमको चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। सात ही दिनों में वह दो बार रूठ चुका है-‘कहने को तो डाक्टर हैं, मगर समय पर नहीं खाने-पीने से देह पर कितना खराब असर होता है नहीं जानते ?’ इसी से प्यारू का पूरा परिचय तुम्हें मिल गया होगा।

“यह एक नई दुनिया है। इसे वज्र देहात कह सकती हो। गाँव का चौकीदार सप्ताह 27 में एक बार हाजिरी देने थाने पर जाता है; वह मेरी डाक लाएगा और ले जाएगा। “काम शुरू कर दिया है। सुबह सात बजे से ही रोगियों की भीड़ लग जाती है। अभी जनरल सर्वे कर रहा हूँ खून लेकर परीक्षा कर रहा हूँ। प्यारू कहता है, यहाँ कौआ को भी मलेरिया होता है।

“…यहाँ गड्ढों और तालाबों में कमल के पत्ते भरे रहते हैं। कहते हैं, फूलों के मौसम में छोटी-छोटी गड़हियाँ भी किस्म-किस्म के कमल और कमिलनी से भर जाती हैं।…लेकिन यहाँ के लोगों को तुम लोटस ईटर्स नहीं कह सकती हो ! गड्ढों की परीक्षा कर रहा हूँ।…यहाँ की धरती बारहों महीने भीगी रहती है शायद !

“गाँव के लोग बड़े सीधे दीखते हैं; सीधे का अर्थ यदि अपढ़, अज्ञानी और अन्धविश्वासी हो तो वास्तव में सीधे हैं वे। जहाँ तक सांसारिक बुद्धि का सवाल है, वे हमारे और तुम्हारे जैसे लोगों को दिन में पाँच बार ठग लेंगे। और तारीफ यह है कि तुम ठगी जाकर भी उनकी सरलता पर मुग्ध होने के लिए मजबूर हो जाओगी। यह मेरा सिर्फ सात दिन का अनुभव है। सम्भव है, पीछे चलकर मेरी धारणा गलत साबित हो। मिथिला और बंगाल के बीच का यह हिस्सा वास्तव में मनोहर है। औरतें साधारणतः सुन्दर होती हैं, उनके स्वास्थ्य भी बुरे नहीं…!”

“डाक्टर साहब!”

“कौन ?”

“विश्वनाथप्रसाद।”

“आइए। कहिए क्या है ?”

“डाक्टर साहब, जरा एक बार मेरे यहाँ चलिए। मेरी लड़की बेहोश हो गई है।”

“बेहोश ! क्या उम्र है ? इससे पहले भी कभी बेहोश हुई थी ?”

“जी ! दो-तीन बार और ऐसा ही हुआ था। उम्र ? यही सोलह-सत्रह साल धर लीजिए। जरा जल्दी…”

“चलिए।”

बन्द कमरे में एक चारपाई पर, नीली रजाई में लिपटी हुई युवती का गोरा मुखड़ा बाहर है। बाल खुले और बिखरे हुए हैं। आँखें बन्द हैं। कोठरी में लालटेन की मद्धिम रोशनी हो रही है-रोशनी कम और धुआँ ज्यादा।

डाक्टर खिड़कियाँ खोलने के लिए कहता है और जेब से टार्च निकालकर युवती के चेहरे पर रोशनी देता है।…चेहरा ठीक है। साँस ? ठीक है। नाड़ी भी दुरुस्त है।

डाक्टर आँखों की पलकों को उलटता है, मानो कमल की पंखुड़ियाँ होंब्राइट !…पेट ? कब्ज तो नहीं ?

कोई जवाब नहीं देता है। चूँघट काढ़े खड़ी औरतों के घूघट आपस में मिलते हैं। एक अधेड़ स्त्री आगे बढ़ जाती है। युवती की माँ है। “जी, कब्जियत नहीं है।”

घर की नौकरानी पर्दा नहीं करती है। कहती है, “डागडरबाबू, लर लगाकर देखिए न !”

लर, अर्थात् स्टेथस्कोप। यहाँ के लोगों का विश्वास है कि इससे डाक्टर रोगी के अन्दर की सारी बातों को जान लेता है-क्या खाया है, पेट में पचा है या नहीं, सब।

“सूई दीजिएगा ?”

डाक्टर सिरिंज ठीक करता है। युवती आँखें खोल देती है-

सूई ?…नहीं, सूई नहीं। माँ ! अरे बाप…!”

“अच्छा सूई नहीं देंगे। कैसी तबियत है ? अच्छी बात है। हूँ ! क्यों बेहोश हो गईं। हाँ, बेहोशी कैसे हुई ? डर लगा था। हूँ ! काहे का डर लगा था ?…तब ? इसके बाद ? देह घूमने लगी। ठीक है। अब कैसी हैं ? डर तो नहीं लगता ? दवा भेज दूंगा, अब डर नहीं लगे।…”

“दवा ?…दवा नहीं। माँ, मैं दवा नहीं पियूँगी।”

“वाह, सूई भी नहीं और दवा भी नहीं ?…मीठी दवा ?”

सभी हँस पड़ते हैं। युवती के मरझाए हए लाल होंठों पर मस्कराहट दौड जाती है। आँखों की पलकें ज़रा उठकर मानो डाक्टर को डाँट देती हैं-“हट ! दवा भी कहीं मीठी होती है !”

बाहर आकर डाक्टर तहसीलदार से कहता है, “घबराने की बात नहीं, दवा भेज देता हूँ। इसके पहले कितनी देर तक बेहोश रहती थीं ?”

“करीब एक घंटा। जोतखी जी से एक बार जन्तर बनवाके दिया। झाड़-फूंक भी करवाकर देखा। डाक्टर साहब, बस यही मेरा बेटा, यही मेरी बेटी…सबकुछ यही है।”

“ठीक हो जाएँगी।”

सेंटर में आकर डाक्टर सोचता है, क्या दिया जाए ! मीठी दवा ! कार्मिनेटिव मिक्श्चर या ब्रोमाइड !…”अजी, तुम्हारा क्या नाम है ?”

“मेरा नाम ? जी, नाम रनजीत।”

“तहसीलदार साहब के यहाँ कितने दिनों से नौकरी करते हो ?”

“बहुत दिन से। लड़कयाँ से।…एक ठो बीड़ी है तो दीजिए दागदरबाबू।”

“प्यारू, रनजीत को बीड़ी पिलाओ।”

प्यारू बीड़ी दियासलाई दे जाता है। बीड़ी सुलगाकर रनजीत अपने आप कहता है, “दागदरबाबू ! तहसीलदार को दिन-दुनियाँ में बस यही एक बेटी है। कितना मानत-मनौती के बाद कमला मैया ने निहारा भी तो बेटी ही हुई। मगर…!”

रनजीत बीड़ी की राख झाड़कर चुप हो जाता है। डाक्टर ने लक्ष्य किया है, रनजीत ने ‘मगर’ पर आकर पूर्ण विराम दे दिया है।

“मगर क्या ?”

“यही देखिए न ! तीन जगह बातचीत चली, मगर…पहली जगह से तो पान देने – की बात भी पक्की हो गई थी। ठीक तिलक-पान के दिन लड़के की माँ मर गई। दूसरी जगह बातचीत ठीक हुई तो उसके घर में आग लग गई। तीसरे लड़के को ‘मैया’ हो गया, इन्तकाल हो गया। अब कोई लड़कावाला तैयार ही नहीं होता है। हजार, दो हजार, पाँच हजार रुपैया भी कबूलते हैं, मगर…। आखिर में एक ‘पछवरिया कैथ’ को घर-जमैया रखने के लिए लाए, बस उसी दिन से कमली को मिरगी आने लगी। लोग तो कहते हैं कि कमला मैया नहीं चाहती हैं कि कमली की सादी हो। कमला मैया भी कुमारी ही थीं न ! अब आप लगे हैं। किसी तरह कमली दैया को आराम कर दीजिए दागदरबाबू ! जो बक्सीस माँगिएगा, तहसीलदार दे देंगे।”

“देखो रनजीत, तीन खुराक दवा है। मीठी दवा है। तुम्हारी कमली दैया आराम हो जाएँगी। कल सुबह फिर एक बार खबर देना। समझे !”

“तीन खोराक ! खाएगी क्या ?”

“अभी ? अभी रोटी-दूध।”

“रनजीत !” एक आदमी दौड़ा हुआ आता है।

“कौन रामदेल, क्या है ?”

“कमली दैया फिर बेहोश हो गईं। तहसीलदार साहेब कठिन हैं कि दागदरबाबू फिर एक बार जरा तकलीफ करें।”

डाक्टर घड़ी देखता है।…नौ बजकर दस मिनट। कुछ ही देर में समाचार होंगे। डाक्टर कुछ सोचकर कहता है, “रनजीत ! वह बक्सा उठाओ !…ले चलो।”

“बेतार का खबर ?”

“हाँ, तुम्हारी कमली दैया का इलाज बेतार से ही होगा।”

कमला फिर पहले की तरह बेहोश पड़ी हुई है। उसकी आँखें बन्द हैं ! बाल बिखरे हुए हैं। डाक्टर को रोग का निदान मिल गया है। वह अपने बैग से शीशी, सिरिंज वगैरह निकालता है।

“सूई ? सूई नहीं।” कमला फिर होश में आती है।

“बगैर सूई के आपका रोग आराम नहीं होगा।” डाक्टर सिरिंज ठीक करता है। “दवा दीजिए डाक्टर साहब ! मैं सूई नहीं लूंगी।”

“फिर डर लगा था ?”

“हाँ।”

“रनजीत, दवा की शीशी कहाँ है ? लाओ, बक्सा यहाँ लाकर रखो।…हाँ, पी लीजिए।…ठीक है। कैसी है दवा ? मीठी है न ?”

डाक्टर पोर्टेबल रेडियो को खोलकर मीटर ठीक करता है-“यह ऑल इंडिया रेडियो है। रात के सवा नौ बजे हैं। अब आप हिन्दी में समाचार सुनिए…”

“डर लगता है। माँ…!”

“देखिए, डर की कोई बात नहीं। सुनिए…”

“मुझे उठा दो माँ !”

“उठिए मत। लेटी रहिए।”

“…अब आप सवितादेवी से एक मैथिली लोकगीत सुनिए !”

माइगे, हम ना बियाहेब अपन गौरा के
जौं बुढ़वा होइत जमाय गे माई !

“ओ माँ !” कमला खिलखिलाकर हँस पड़ती है, “शादी का गीत हो रहा है।”

हम ना बियाहेब अपन गौरा के…

कोठरी और आँगन में घूघट काढ़े औरतों की भीड़ लग जाती है। कमला पर ब्रोमाइड का असर हो रहा है, उसकी आँखों में नींद झाँक रही है।

डाक्टर लौटकर खत को पूरा करने बैठ जाता है। सुबह सात बजे से रोगियों की भीड़ लग जाती है। अगमू चौकीदार कल हाज़िरी देने जाएगा। पाँच बजे भोर को ही आकर वह पुकारेगा। डाक्टर लिखता है-

“पत्र अधूरा छोड़कर एक केस देखने गया था। केस अजीब है। केस-हिस्ट्री और भी दिलचस्प है। तुम्हारी शीला रहती तो आज खुशी से नाचने लगती; हिस्टीरिया, फ़ोबिया, काम-विकृति और हठ-प्रवृत्ति जैसे शब्दों की झड़ी लगा देती। शीला से भेंट हो तो कहना-मैंने अपने पोर्टेबल रेडियो से उसके दिमाग को झकझोरकर दूसरी ओर करने की चेष्टा की।…”

ग्यारह

नहीं तोरा आहे प्यारी तेग तरबरिया से
नहीं तोरा पास में तीर जी !…

एक सखी ने पूछा कि हे सखी, तुम्हारे पास में न तीर है न तलवार।

…नहीं तोरा आहे प्यारी तेग तरबरिया से
कौनहि चीजवा से मारलू बटोहिया के
धरती लोटाबेला बेपीर जी ईईई।…

यह सुनकर जो औरत सदाब्रिज पर मोहित थी, बोली-

…सासू मोरा मरे हो, मरे मोरा बहिनी से,
मरे ननद जेठ मोर जी!
मरे हमर सबकुछ पलिबरवा से,
फसी गइली परेम के डोर जी !..

इतना कहकर वह सदाब्रिज के पास आई और पानी पिलाकर प्रेम की बातें करने लगी।…

…आजु की रतिया हो प्यारे, यहीं बिताओ जी! ।

तन्त्रिमाटोली में सुरंगा-सदाब्रिज की कथा हो रही है। मँहगूदास के घर के पास लोग जमा हैं। पुरैनिया टीसन से एक मेहमान आया है, रेलवे में काज करता है। तन्त्रिमाटोली के लोग कहते हैं-खलासी जी ! खलासी जी सरकारी आदमी हैं। खलासी जी यदि लाल पत्तखा दिखला दें तो डाक-गाड़ी भी रुक जाए। रुकेगी नहीं ? लाल पत्तखा देखते ही रेलगाड़ी रुक जाती है। लाल ओढ़ना ओढ़कर गाड़ी पर चढ़ने जाओ तो !…गाड़ी रुक जाएगी और ओढ़ना जप्पत हो जाएगा। खलासी जी बहुत गुनी आदमी हैं। पक्का ओझा हैं। चक्कर पूजते हैं, भूत-प्रेत को पेड़ में काँटी ठोंककर बस में करते हैं। बाँझ-निपुत्तर को तुकताक (टोटका) कर देते हैं। कुमर विज्जैभान, लोरिका और सुरंगा-सदाब्रिज का गीत जानते हैं। गला कितना तेज है !…उस बार सुराजी हूलमाल (आन्दोलन) में खलासी जी ने लिख दिया था-‘बैगनबाड़ी के जमींदार के लड़के ने रेल का लैन उखाड़ा है।’ बस, फाँसी हो गई ! हैकोठ और नन्दन (लन्दन) तक फाँसी बहाल रही। लेकिन मँहगूदास को कौन समझाए ? बेचारे खलासी जी एक साल से दौड़ रहे हैं मँहगूदास की बेवा बेटी फुलिया से पच्छिम की बातचीत पक्की करने के लिए। हर बार खलासी जी झोरी में मोरंगिया (नेपाली) गाँजा लाते हैं, तन्त्रिमाटोली के पंचों को पिलाते हैं, सुरंगा-सदाब्रिज गाते हैं, गाँव के बीमार लोगों को झाड़-फूंक देते हैं। उस बार उचितदास की डेरावाली को तुकताक कर दिया, परने के चार दिन पहले बूढ़ा उचितदास सन्तान का मुँह देख गया।…लेकिन मँहगूदास को कौन समझावे ? फिर खलासी जी लेन-देन की बात भी करते हैं। एक कौड़ी नगद न देंगे, जाति-बिरादरी को एक साम भोज कबूलते हैं। और क्या चाहिए ? सरकारी आदमी जमाई होगा। कभी तीरथ करने के लिए जाएँगे तो रेल में टिकस भी नहीं लगेगा।

रमजूदास की स्त्री तन्त्रिमाटोली की औरतों की सरदारिन है। हाट-बाजार जाने के समय, मालिकों के खेतों में धान रोपने और काटने के समय और गाँव में शादी-ब्याह के समय टोले-भर की औरतें उसकी सरदारी में रहती हैं। राजपूत, बाभन और मालिकटोले सभी बाबू-बबुआन से मुँहामुंही बात करती है, दिल्लगी का जवाब हँसकर देती है। और समय पड़ने पर हाथ चमका-चमकाकर झगड़ा भी करती है। एक बार तो सिंघ जी की भी सीसी सटका दिया था-‘ऊँह बूढ़ा हो गया है, चाट लगी हुई है। सिर के बाल सादा हो गए हैं, मन का रंग नहीं उतरा है।…हमारा मुँह मत खुलवाइए सिंघ जी !…उससे सभी डरते हैं। न जाने कब किसका भेद खोल दे ! सभी उसकी खुशामद करते हैं; टोले-भर की जवान लड़कियाँ उसकी मुट्ठी में रहती हैं। उससे कोई बाहर नहीं। खलासी जी इस बार लालबाग मेला से उसके लिए असली गिलट का कंगना ले आए हैं। चाँदी की तरह चमक है। “…मौसी, किसी तरह फुलिया से चुमौना (सगाई) ठीक कर दो।”

अरे सूते ले देबौ हो प्यारे लाली पलँगिया से…
खाए ले गुआ खिल्ली पान जी!…

खलासी जी आज दिल खोलकर गा रहे हैं। उन्हें आज ऐसा लग रहा है कि वे खुद सदाब्रिज हैं ! लेकिन न तो उसकी फुलिया उसे रहने के लिए बिनती करती है और न मँहगूदास चुमौना की बात मंजूर करता है !…”अरे सूते ले देबौ हो प्यारे लाली पलँगिया से…!”

फुलिया क्या करे ? माँ-बाप के रहते वह क्या बोल सकती है ! अन्दर-ही-अन्दर मन जलकर खाक हो रहा है, लेकिन मुँह नहीं खोल सकती। लोग क्या कहेंगे !…रमजूदास की स्त्री फुलिया के जलते हुए दिल की बात जानती है। उस दिन फुलिया कह रही थी-“मामी, काली किरिया, किसी से कहना मत। खलासी जी इतने दिनों से दौड़ रहे हैं। बाबा कोई बात साफ-साफ नहीं कहते हैं। आखिर वह बेचारा कब तक दौड़ेगा ? यहाँ नहीं तो कहीं और ढूँढ़ेगा। दुनिया में कहीं और तन्त्रिमा की बेटी नहीं है क्या ?…जब एक दिन कुछ हो जाएगा तो सहदेब मिसर देह पर माछी भी नहीं बैठने देगा। तब करो खुशामद नककट्टी चमाइन की और चिचाय की माँ की ! मुसब्बर चबाओ और ऐंडी से पेट को आँटा की तरह गुँथवाओ। उस बार जोतखी जी का बेटा नामलरैन ने क्या दिया ? अन्त में नककट्टी को गाभिन बकरी देकर पीछा छुड़ाया…”

याद जो आवे है प्यारी तोहरी सुरतिया से
शाले करेजवा में तीर जी…!

खलासी जी का तीर खाया हुआ दिल तड़प रहा है। फुलिया क्या करे ? लेकिन रमजूदास की स्त्री का मुँह कौन बन्द कर सकता है ?…”अरे फुलिया की माये ! तुम लोगों को न तो लाज है और न धरम। कब तक बेटी की कमाई पर लाल किनारीवाली साड़ी चमकाओगी ? आखिर एक हद होती है किसी बात की ! मानती हूँ कि जवान बेवा बेटी दुधार गाय के बराबर है। मगर इतना मत दूहो कि देह का खून भी सूख जाए।”

“अरे हाँ-हाँ, बेटा-बेटी केकरो, घीढारी करे मंगरो। चालनी कहे सूई से कि तेरी पेंदी में छेद ! हाथ में कंगना तो चमका रही हो, खलासी को एक पुड़िया सिन्दूर नहीं जुटता है ?” फुलिया की माँ ने जब से रमजूदास की स्त्री के हाथ कंगना देखा है, उसका कलेजा जल रहा है। मँहगूदास पर गुस्सा करने से कोई फायदा नहीं। खलासी की बुद्धि ही मारी गई है। रमजू की स्त्री को कुटनी बहाल किया है, कंगना दिया है। रमजू की स्त्री काली माई है जो लोग उसकी बात को मान लेंगे।

“मुँह सँभालकर बात कर लेंगड़ी ! बात बिगड़ जाएगी। खलासी हमारा बहन-बेटा है। बहन-बेटा लगाकर गाली देती है ? गाली हमारे देह में नहीं लगेगी। तेरे देह में तो लगी हुई है। अपने खास भतीजा तेतरा के साथ भागी तू और गाली देती है हमको ? सरम नहीं आती है तुझको ! बेसरमी, बेलज्जी ! भरी पंचायत में जो पीठ पर झाड़ की मार लगी थी सो भूल गई ? गुअरटोली के कलरू के साथ रात-भर भैंस पर रसलील्ला करती थी सो कौन नहीं जानता है। तूं बात करेगी हमसे ?”

“रे, सिंघवा की रखेली ! सिंघवा के बगान का बम्बै आम का स्वाद भूल गई। तरबन्ना में रात-रात-भर लुकाचोरी मैं ही खेलती थी रे ? कुरअँखा बच्चा जब हुआ था तो कुरअँखा सिंघवा से मुँह-देखौनी में बाछी मिली थी, सो कौन नहीं जानता ?”

“…एतना बात सुनते ही सदाब्रिज फिर मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ा।…”

मँहगूदास के घर के पास होनेवाली सुरंगा-सदाब्रिज की कथा में औरतों के झगड़े से कोई बाधा नहीं पहुँचती है। औरतों के झगड़े पर यदि मर्द लोग आँख-कान देने लगें तो हुआ ! औरतों के झगड़े का क्या ? अभी झगड़ा किया, एक-दूसरे को गालियाँ सुनाईं, हाथ चमका-चमकाकर, गला फाड़-फाड़कर एक-दूसरे के गड़े हुए मुर्दे उखाड़े गए, जीभ की धार से बेटा-बेटी की गर्दन काटी गई, काली माई को काला पाठा कबूला गया, हाथ और मुँह को कोढ़-कुष्ठ से गलाने की प्रार्थना की गई और एक-दो घंटे के बाद ही सफाई। मेल-मिलाप हो गया। एक-दूसरे के हाथ से हुक्का लेकर गुड़गुड़ाने लगीं। साग ‘माँगकर ले गईं और बदले में शकरकन्द भेज दिया-“कल साम को मालिक के खेत से अँधेरे में उखाड़ लाया है लड़के ने। मालिक देखते तो पीठ की चमड़ी खींच लेते।”

पहले झगड़ा का सिरगनेस दो ही औरतों से होता है। झगड़े के सिलसिले में एक-एक कर पास-पड़ोस की औरतों के प्रसंग आते-जाते हैं और झगड़नेवालियों की संख्या बढ़ती जाती है। झगड़े से उनके कामकाज में भी कोई बाधा नहीं पहुँचती है। काम के साथ-साथ झगड़ा भी चल रहा है। जब सारे गाँव की औरतें झगड़ने लगती हैं, तब कोई किसी की बात नहीं सुनतीं; सब अपना-अपना चरखा ओंटने लगती हैं…लेकिन फुलिया आज झगड़े में हिस्सा नहीं ले रही है। वह टट्टी की आड़ में खड़ी होकर सुरंगा-सदाब्रिज की कथा सुन रही है।…खलासी जी के गले में जादू है। ओझा गुनी आदमी है। कथा और गीत में फुलिया यह ही भूल जाती है कि सहदेब मिसर शाम से ही कोठी के बगीचे में उसके इन्तजार में मच्छड़ कटवा रहा है।…खलासी के गले में जादू है।

“मामी”

“क्या है रे ? बोल ना ! सहदेब मिसरवा के पास जाएगी क्या ?”

“नहीं मामी, एक बात कहने आई हूँ। काली किरिया, किसी से कहना मत।… खलासी जी तो तुम्हारे गुहाल में सोते हैं न ? काली किरिया !”

सुरंगा-सदाब्रिज की कथा समाप्त हो गई है। झगड़ा लंकाकांड तक पहुँचकर शेष हो गया। सहदेब मिसर मच्छड़ों से कब तक देह का खून चुसवाते ?…साला खलसिया ! साली हरामजादी !…अच्छा, कल देखूँगा।

गाँव में सन्नाटा छाया हुआ है और रमजू की स्त्री के गुहाल में सुरंगा कह रही है सदाब्रिज से, “अभी नहीं, जब बाबा चुमौना के लिए राजी नहीं होंगे तब मैं तुम्हारे के साथ भाग चलूंगी।”

“उनको राजी कैसे किया जाए ? कौन एक मिसर है, सुना है…।” सदाब्रिज बेचारा कहता है।

“सब झूठी बात है। तुम बालदेव जी से कहो।”

“कौन बालदेव ! पुरैनियाँ आसरमवाला ?”

“हाँ। सभी उनकी बात मानते हैं ! बाबू-बबुआन भी उनसे बाहर नहीं। तुम बन्दगी मत करना, जै हिन्न कहना।”

“लेकिन वह तो हम पर बड़ा नाराज है। देश दुरोहित’ के फिरिस में नाम दे दिया है।

“…माँ के लिए नाक की बुलाकी ले आना, असली पीतल की बुलाकी।”

बारह

मठ पर आचारजगुरु आनेवाले हैं, नए महन्थ को चादर-टीका देने के लिए ! मुजफ्फरपुर जिला का एक मुरती आया है-लरसिंघदास। आचारजगुरु मुजफ्फरपुर जिले के पुपड़ी मठ पर भंडारा में आए हैं। लरसिंघदास खबर लेकर आया है-आचारजगुरु आ रहे हैं। मठ के सभी सेवक-सती, आस-पास के बाबू-बबुआन लोगों को पहले ही खबर दे दी जाए !

रामदास को महन्थी की टीका मिलेगी ! महन्थ सेवादास का एकमात्र चेला वही है।…रामदास सोचता है, यदि खंजड़ी बजाना नहीं जानते तो आज तक बेलाही के ज़मींदार की भैंस की पूँछ हाथ से नहीं छूटती। महन्थ साहब उसकी खंजड़ी सुनकर मोहित हो गए और वह रात को ही महन्थ साहब के साथ भागकर मेरीगंज मठ पर आ गया…पन्द्रह साल पहले की बात ! पन्द्रह साल बाद रामदास का भाग फिरा है। ‘जै हो सतगुरु साहेब की !

नियमानुसार सभी पंचों की उपस्थिति में नया महन्थ एक एकरारनामा लिख देगा-हमेशा ‘लँगोटाबन्द’ रहकर सतगुरु के स्थल की रक्षा करेंगे। किसी तरह का मादक द्रव्य नहीं सेवन करेंगे। दासी-रखेलिन नहीं रखेंगे, आदि-आदि। इसके बाद आचारजगुरु एक सुरतहाल (महन्ती का दस्तावेज) पर दस्तखत करके नए महन्थ को देंगे। फिर चादर-टीका की विधि !…दही की टीका और सिर पर दूब-धान ! बस, नए महन्थ साहेब उस दिन से नौ सौ बीघे की पतनी (छोटी जमींदारी) के एकमात्र मालिक हो जाएँगे।

लरसिंघदास तो आचारज जी का सन्देशा लेकर आया था, किन्तु मेरीगंज मठ पर एक ही रात रहने के बाद उस पर महन्थी का मोह सवार हो गया। नौ सौ बीघे की काश्तकारी। कलमी आम का बाग। दस बीघे में सिर्फ केला ही लगा हुआ है। एक-एक घौर में हज़ार केले फले हैं। हज़रिया केला ! दो कोड़ी गाय, चार गुजराती भैंस और सबसे कीमती सम्पत्ति-अमूल्य धन-लछमी दासिन। लछमी दासिन कहती है, “महन्थ साहेब को बस यही एक चेला है-रामदास ! तो कानूनन रामदास ही होनेवाला अधिकारी महन्थ है।” रामदास ! काठ का उल्लू रामदास ! सतगुरु हो ! यह अंधेर है। रामदास महन्थ नहीं हो सकता। छुछुदर की तरह तो सूरत है, वह महन्थ होगा ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। और यह लछमी…? श्रापभ्रष्ट अप्सरा !

लछमी ने लरसिंघदास की आँखों में न जाने क्या देखा है कि उसकी छाया से भी वह बचकर चलती है। रात में किवाड़ मजबूती से बन्द करके सोती है। किवाड़ की छिटकिली लगाने के बाद एक ओखल किवाड़ में सटा देती है।…लरसिंघदास को शायद बहुमूत्र की बीमारी है; रात-भर में दस-ग्यारह बार पेशाब करने के लिए उठता है। हर बार धूनी के पास सोया हुआ रामदास उसे टोकता है-“कौन ?” लरसिंघदास किसी बार जवाब नहीं देता। कल रात एक बार गुस्से में जवाब दिया-“महन्थ होने के पहले ही अन्धे हो गए क्या ? देखते नहीं हो ?…जैसा गुरु वैसा चेला !” रामदास कुनमुनाकर रह गया था। सुबह को सत्संग के समय ही लछमी बरस पड़ी थी-“क्यों आप वैसी भाखा बोले थे ? महन्थ होने के पहले ही अन्धे हो गए ? जैसा गुरु…। गुरु-निन्दा सुनहिं जो काना… । मैं गुरु-निन्दा नहीं सुन सकती, नहीं सह सकती। रामदास को आप क्या समझते हैं ? वह इस मठ का अधिकारी महन्थ है। आपके जैसे एक कोड़ी बिलटा (आवारा) साधुओं को वह रोज़ परसाद देगा।…बात करना भी नहीं जानते ? आने दीजिए आचारज जी को।”

रामदास भी सुना देता है-“रात में हम छोड़ दिया, लेकिन अब बोलोगे तो सीधे पच्छिम का रास्ता दिखा देंगे। हाँ, समझ रखो!”

भंडारी तो नम्बरी शैतान है। कल से ही उसने बदमाशी शुरू की है। दाल की कटोरी में सिर्फ पानी रहता है। आलू की भुजिया दुबारा नहीं देता। घी माँगने पर कहता है-“दाल घी से बघारल है।” केला बिक्री होने के लिए हाट भेज दिया जाता है। दूध में पानी मिलाकर देता है। बालभोग में पहले दही-चूड़ा देता था, कल से सिर्फ चूड़ा लाकर रख देता है।

बिलटा साधू ?…रंडी की यह हिम्मत ! उसे बिलटा साधू कहती है ? अच्छा ! अच्छा !

….लछमी पहले से ही तो उसे नहीं जानती। कैसे जान सकती है ? वह कभी पहले यहाँ आया नहीं। पुपड़ी मठ से भी तो कभी कोई मुरती यहाँ नहीं आया। सोनमतिया कहारिन भी तो नहीं आई है यहाँ। सम्भव है उस बार अपनी बेटी रधिया को खोजने के लिए यहाँ भी पहुँची हो। ठीक है…। रधिया। रधिया को पहली बार जब देखा था तो उसके मन की ऐसी ही हालत हुई थी। कनपट्टी के पास हमेशा गर्म रहता था। लेकिन रधिया अल्हड़ थी। एक ही चक्कर में जाल में आ गई थी। लछमी तो पुरानी है, खेली-खिलाई है। सत्तर चूहे खाई हुई है।…यदि वह रधिया को लेकर नौटंकी कम्पनी में नहीं शामिल होता तो रधिया हाथ से नहीं निकलती। नौटंकी कम्पनी के मालिक की ही बात रहती तो वह सह ले सकता था, हारमोनियम और नगाड़ावाले भी रधिया को कभी फुर्सत नहीं देते थे। कभी ताल का रिहलसल करना है तो कभी नाच सिखाना है।…रधिया साली भी कुत्ती ही थी। वह भी तो बदल गई थी।

लरसिंघदास अपने सिर के दाग पर हाथ फेरकर मफलर से ढक लेता है-साले नगाड़ची ने ठीक सामने कपाल पर ही डंडा चलाया था।

…मठ लौटने पर महन्थ साहेब ने खड़ाऊँ से मरम्मत की थी। लेकिन सात दिन से उपवास किए हुए शरीर में इतना दम कहाँ था जो भागते ! सिर का घाव ताज़ा ही था। महन्थ साहेब की खड़ाऊँ गुरु की खड़ाऊँ थी। महन्थ साहेब के पैर पर वह लेटा रहा था। वे बहुत दयालु पुरुष थे। लरसिंघदास उनका एकलौता चेला था। गुरु ने छिमा कर दिया। महन्थ साहेब के शरीर त्यागने के बाद पुपड़ी-मठ की महन्थी उसे ही मिलती, लेकिन रामबरन कोयरी ने उसकी मती फेर दी थी।…लरसिंघदास, नेपाली गाँजा में बड़ा नफा होता है। दस रुपए का लाओ और चार सौ बनाओ। नेपाल में चार आने सेर गाँजा मिलता है। बराहछत्तर मेला के समय चलो !”

महन्थ साहेब ने जब शरीर त्याग किया तो वह जेल में था। महन्थ साहेब ने मरने के समय जीऊतदास को चेला कबूलकर ‘वील’ लिख दिया।…नहीं तो वह भी एक मठ का महन्थ होता। तब लछमी उसे बिलटा साधू नहीं कह सकती। तब तो पैर पखारकर, पैर के दसों नाखूनों को धोकर, वह परेम से चरनोदक पीती।…लेकिन वह लछमी को चरनोदक पिलाकर छोड़ेगा।

“रामदास।”

“क्या है ? रामदास मत बोलिए, अधिकारी जी कहिए।”

“कोठारिन से कहो कि लरसिंघदास आज जा रहे हैं।”

“जा रहे हैं तो जाइए।”

“तुम कोठारिन से कहो”

“तुम-ताम मत करो | कोठारिन जी से क्या कहेंगे, राह-खर्च कल ही कोठारिन जी ने दे दिया है!”

रामदास झोली से एक पाँच रुपए का नोट निकालकर लरसिंघदास के आगे फेंक देता है।

“हम पूछना चाहते हैं कि कोठारिन ने हमारा अपमान काहे किया ? हमको बिलटा काहे बोली ? हमारे आचारजगुरु को काहे गाली दिया ?”

“आचारजगुरु को कब गाली दिया है ?”

“दिया है। बोली नहीं थी, पूजा-बिदाई लेने के समय आचारजगुरु हैं. बेर-बखत पड़ने पर सीधा जवाब मिलता है। आज आचारजगुरु हुए हैं, कल तक तो गुरुभाई थे। यह गाली नहीं तो और क्‍या है ?”

“संसार में सत्त का भी लेस जरा रहने दीजिए साधू महाराज,” लछमी अंदर से निकलकर कहती है, “साधू का काम झूठ बोलना नहीं है। छि:-छि: !”

“छि:-छि: क्‍या ? हमको बिलटा नहीं कहा है आ… आ… आप- तुमने ?”

“रामदास !” लछमी गरज उठती है, “गरदनियाँ देकर निकाल दो इसको । यह साधू नहीं, राक्षस है। उसके सिर पर माया सवार है। इससे पूछो, आज सवेरे जब मैं स्नान कर रही थी तो बाँस की पट्टी में छेद करके यह क्या देखता था ? सैतान !”

लछमी फुफकारती हुई अंदर चली जाती है।

रामदास उठकर लरसिंघदास के गले में हाथ लगाकर धक्का देता है । लरसिंघदास सीढ़ी पर गिर पड़ता है। नाक से खून निकल रहा है।

“जाय हिंद रामदास जी ! क्‍या है ? क्‍या हुआ ?” बालदेव जी लहू देखकर घबरा जाते हैं।

“कुछ नहीं, पछवरिया साधू है। काया में कहीं साधू-सुभाव नहीं। कोठारिन जी से बतकुट्टी (वाद-विवाद) करता था ।”

“तो मारपीट क्‍यों हुई ? सांती से सब काम करना चाहिए । हिंसा-बात नहीं करना चाहिए। ”

“रामदास ! बालदेव जी को अंदर भेज दो !”

लरसिंघदास नाक का खून पोंछते हुए देखता है-बालदेव नाम का यह खध्धड़धारी आदमी अंदर जा रहा है-सीधे लछमी की कोठरी में !… जायहिंद बालदेव जी !

…शायद यह खध्धड़धारी और लछमी एक ही आसनी पर बैठे हैं। एकदम आसपास-देह-से-देह सटाकर !… अच्छा !

लेखक

  • हिंदी-साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले (अब अररिया) के औराही हिंगना में हुआ था। इन्होंने 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर भाग लिया और सन 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने के लिए भरपूर योगदान दिया। इनकी साहित्य-साधना व राष्ट्रीय भावना को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री से अलंकृत किया। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका देहावसान हो गया। रचनाएँ-हिंदी कथा-साहित्य में रेणु का प्रमुख स्थान है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- उपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे । कहानी-संग्रह-ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप। संस्मरण-ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व। रिपोतज-नेपाली क्रांति कथा। इनकी तमाम रचनाएँ पाँच खंडों में ‘रेणु रचनावली’ के नाम से प्रकाशित हैं। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय भागीदारी की। इनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही। 1954 ई० में इनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने हिंदी उपन्यास विधा को नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श ‘मैला आँचल’ से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक-जीवन को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल-भरा और मैला भी। आजादी मिलने के बाद भारत में जब सारा विकास शहरों में केंद्रित होता जा रहा था तो ऐसे में रेणु ने अंचल की समस्याओं को अपने साहित्य में स्थान दिया। इनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। भाषा-शैली-रेणु की भाषा भी अंचल-विशेष से प्रभावित है।

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मैला आँचल प्रथम भाग खंड6-12/फणीश्वरनाथ रेणु

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