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प्रिय प्रवास भूमिका/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

विचार-सूत्र सहृदय वाचकवृन्द! मैं बहुत दिनों से हिन्दी भाषा में एक काव्य-ग्रन्थ लिखने के लिए लालायित था। आप कहेंगे कि जिस भाषा में ‘रामचरित-मानस’, ‘सूरसागर’, ‘रामचन्द्रिका’, ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘पद्मावत’ इत्यादि जैसे बड़े अनूठे काव्य प्रस्तुत हैं, उसमें तुम्हारे जैसे अल्पज्ञ का काव्य लिखने के लिए समुत्सुक होना वातुलता नहीं तो क्या है? यह सत्य है, […]

प्रिय प्रवास सर्ग1-10/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

1. प्रथम सर्ग दिवस का अवसान समीप था। गगन था कुछ लोहित हो चला। तरु-शिखा पर थी अब राजती। कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा॥1॥ विपिन बीच विहंगम वृंद का। कलनिनाद विवर्द्धित था हुआ। ध्वनिमयी-विविधा विहगावली। उड़ रही नभ-मंडल मध्य थी॥2॥ अधिक और हुई नभ-लालिमा। दश-दिशा अनुरंजित हो गई। सकल-पादप-पुंज हरीतिमा। अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई॥3॥ झलकने पुलिनों पर […]

प्रिय प्रवास सर्ग11-17/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

11. एकादश सर्ग मालिनी छन्द यक दिन छवि-शाली अर्कजा-कूल-वाली। नव-तरु-चय-शोभी-कुंज के मध्य बैठे। कतिपय ब्रज-भू के भावुकों को विलोक। बहु-पुलकित ऊधो भी वहीं जा बिराजे॥1॥ प्रथम सकल-गोपों ने उन्हें भक्ति-द्वारा। स-विधि शिर नवाया प्रेम के साथ पूजा। भर-भर निज-ऑंखों में कई बार ऑंसू। फिर कह मृदु-बातें श्याम-सन्देश पूछा॥2॥ परम-सरसता से स्नेह से स्निग्धता से। तब […]

वक्तव्य वैदेही वनवास/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

वक्तव्य वैदेही वनवास : अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ महर्षिकल्प, महामना, परमपूज्य कुलपति श्रीमान् पंडित मदनमोहन मालवीय के पवित्र करकमलों में सादर समर्पित वक्तव्य करुणरस करुणरस द्रवीभूत हृदय का वह सरस-प्रवाह है, जिससे सहृदयता क्यारी सिंचित, मानवता फुलवारी विकसित और लोकहित का हरा-भरा उद्यान सुसज्जित होता है। उसमें दयालुता प्रतिफलित दृष्टिगत होती है, और भावुकता-विभूति-भरित। इसीलिए भावुक-प्रवर-भवभूति […]

वैदेही वनवास सर्ग1-10/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

प्रथम सर्ग उपवन छन्द: रोला लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी। नभ-तल था अनुराग-रँगा आभा-निर्गत थी॥ धीरे-धीरे तिरोभूत तामस होता था। ज्योति-बीज प्राची-प्रदेश में दिव बोता था॥1॥ किरणों का आगमन देख ऊषा मुसकाई। मिले साटिका-लैस-टँकी लसिता बन पाई॥ अरुण-अंक से छटा छलक क्षिति-तल पर छाई। भृंग गान कर उठे विटप पर बजी बधाई॥2॥ दिन मणि निकले, किरण […]

वैदेही वनवास सर्ग11-18/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

एकादश सर्ग रिपुसूदनागमन छन्द : सखी बादल थे नभ में छाये। बदला था रंग समय का॥ थी प्रकृति भरी करुणा में। कर उपचय मेघ-निचय का॥1॥ वे विविध-रूप धारण कर। नभ-तल में घूम रहे थे॥ गिरि के ऊँचे शिखरों को। गौरव से चूम रहे थे॥2॥ वे कभी स्वयं नग-सम बन। थे अद्भुत-दृश्य दिखाते॥ कर कभी दुंदुभी-वादन। […]

पारिजात सर्ग1-6/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

प्रथम सर्ग (1) गेय गान शार्दूल-विक्रीडित आराधे भव-साधना सरल हो साधें सुधासिक्त हों। सारी भाव-विभूति भूतपति की हो सिध्दियों से भरी। पाता की अनुकूलता कलित हो धाता विधाता बने। पाके मादकता-विहीन मधुता हो मोदिता मेदिनी॥1॥ सारे मानस-भाव इन्द्रधानु-से हो मुग्धता से भ। देखे श्यामलता प्रमोद-मदिरा मेधा-मयूरी पिये। न्यारी मानवता सुधा बरस के दे मोहिनी मंजुता। […]

पारिजात सर्ग7-10/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सप्तम सर्ग अन्तर्जगत् मन (1) मंजुल मलयानिल-समान है किसका मोहक झोंका। विकसे कमलों के जैसा है विकसित किसे विलोका। है नवनीत मृदुलतम किसलय कोमल है कहलाता। कौन मुलायम ऊन के सदृश ऋजुतम माना जाता॥1॥ मंद-मंद हँसनेवाला छवि-पुंज छलकता प्यारेला। कौन कलानिधि के समान है रस बरसानेवाला। मधु-सा मधुमय कुसुमित विलसित पुलकित कौन दिखाया। नव रसाल […]

पारिजात सर्ग 11-15/अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

एकादश सर्ग कर्म-विपाक (1) कर्म-अकर्म अवसर पर ऑंखें बदले। बनता है सगा पराया। काँटा छिंट गया वहाँ पर। था फूल जहाँ बिछ पाया॥1॥ जो रहा प्यारे का पुतला। वह है ऑंखों में गड़ता। अपने पोसे-पाले को। है कभी पीसना पड़ता॥2॥ जिसकी नहँ उँगली दुखते। ऑंखों में ऑंसू आता। जी खटके पीछे पड़कर। है वही पछाड़ा […]

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