वनदेवीगण, आज कौन सा पर्व है,
जिस पर इतना हर्ष और यह गर्व है?
जाना, जाना, आज राम वन आ रहे;
इसी लिए सुख-साज सजाये जा रहे।
तपस्वियों के योग्य वस्तुओं से सजा,
फहराये निज भानु-मूर्तिवाली ध्वजा,
मुख्य राजरथ देख समागत सामने,
गुरु को पुनः प्रणाम किया श्रीराम ने।
प्रभु-मस्तक से गये जहाँ गुरु-पद छुए,
चोटी तक वे हृष्टरोम गद्गद हुए।
बोल उठे,-“हम आज सु-गौरव-युत हुए,
सुत, तुम वल्कल पहन, शिष्य से सुत हुए!”
प्रभु बोले-“बस, यही राम को इष्ट है,
क्योंकि पिता के लिए प्रतीत अरिष्ट है।
त्रिकालज्ञ हैं आप, आपकी बात से,
हुए भविष्यच्चिन्ह मुझे भी ज्ञात-से।
जो हो, व्याकुल आज प्रजा-परिवार है,
उन सबका अब सभी आप पर भार है।
माँ मुझको फिर देख सकें, जैसे सही,
पितः, पुत्र की प्रथम याचना है यही।”
भाव देख उन एक महा व्रतनिष्ठ के,
भर आये युग नेत्र वरिष्ठ वसिष्ठ के।
कहा उन्होंने-“वत्स, चाहता हूँ, अभी-
किन्तु नहीं, कल्याण इसीमें हैं सभी।
देवकार्य हो और उदित आदर्श हो;
उचित नहीं फिर मुझे कि क्षोभ-स्पर्श हो।
मुनि-रक्षक-सम करो विपिन में वास तुम;
मेटो तप के विघ्न और सब त्रास तुम।
हरो भूमि का भार भाग्य से लभ्य तुम,
करो आर्य-सम वन्यचरों को सभ्य तुम।”
“जो-आज्ञा” कह रामचन्द्र आगे बढ़े,
उदयाचल पर सूर्य-तुल्य रथ पर चढ़े।
रुदित जनों को छोड़ बैठ उसमें भले,
सीता-लक्ष्मण-सहित राम वन को चले।
प्रजा वर्ग के नेत्र-नीर से पथ सिंचा,
रुकता रुकता महा भीड़ में रथ खिंचा।
सूर्योद्भासित कनक-कलश पर केतु था,
वह उत्तर को फहर रहा किस हेतु था?
कहता-सा था दिखा दिखाकर कर-कला,
यह जंगम-साकेत-देव-मन्दिर चला!
सुन कैकेयी-कर्म, जिसे लज्जा हुई,
पाकर मानों ताप गलित मज्जा हुई,
वैदेही को देख बधू-गण बच गया।
कोलाहल युग भावपूर्ण तब मच गया।
उभय ओर थीं खड़ीं नगर-नर-नारियाँ,
बरसाती थीं साश्रु सुमन सुकुमारियाँ।
करके जय जयकार राम का, धर्म का,
करती थीं अपवाद केकयी-कर्म का।
“जहाँ हमारे राम, वहीं हम जायँगे।
वन में ही नव-नगर-निवास बनायँगे।
ईंटों पर अब करें भरत शासन यहाँ!”
जन-समूह ने किया महा कलकल वहाँ।
“हर कर प्रभु का राज्य कठोरा केकयी,
प्रजा-प्रीति भी हरण करे अब यह नई।”
भाभी को यह भाव जताने के लिए,
लक्ष्मण ने निज नेत्र उधर प्रेरित किये।
वैदेही में पुलक भाव था भर रहा,
प्रियगुणानुभव रोम रोम था कर रहा।
कैकेयी का स्वार्थ, राम का त्याग था,
परम खेद था और चरम अनुराग था।
राम-भाव अभिषेक-समय जैसा रहा,
वन जाते भी सहज सौम्य वैसा रहा।
वर्षा हो या ग्रीष्म, सिन्धु रहता वही,
मर्यादा की सदा साक्षिणी है मही।
सत्य-धर्म का श्रेष्ठ भाव भरते हुए,
जन-समूह को स्वयं शान्त करते हुए,
विपिनातुर वे किसी भाँति आगे बढ़े,
पहुँचे रथ से प्रथम, मनोरथ पर चढ़े।
रखकर उनके वचन, लौटते लोग थे;
पाते तत्क्षण किन्तु विशेष वियोग थे।
जाते थे फिर वहीं टोल के टोल यों-
आते-जाते हुए जलधि-कल्लोल ज्यों।
सम्बोधन कर पौरजनों को प्रीति से,
बोले हँस कर राम यथोचित रीति से-
“रोकर ही क्या बिदा करोगे सब हमें?
आना होगा नहीं यहाँ क्या अब हमें?
लौटो तुम सब, यथा समय हम आयँगें;
भाव तुम्हारे साथ हमारे जायँगें!
पहुँचाते हैं दूर उसी को शोक में-
जिससे मिलना हो न सके फिर लोक में।”
बोल उठे जन-“भद्र, न ऐसा तुम कहो,
देते हैं हम तुम्हें बिदा ही कब अहो!
राजा हमने राम, तुम्हीं को है चुना;
करो न तुम यों हाय! लोकमत अनसुना।
जाओ, यदि जा सको रौंद हमको यहाँ!”
यों कह पथ में लेट गये बहु जन वहाँ।
अश्व अड़े-से खड़े उठाये पैर थे,
क्योंकि समझते प्रेम और वे वैर थे।
ऊँचा कर कुछ वक्ष कन्धरा-संग में,
शंखालोड़न यथा उदग्र तरंग में-
करता है गम्भीर अन्बुनिधि नाद ज्यों,
बोले श्रीमद्रामचन्द्र सविषाद यों-
“उठो प्रजा-जन, उठो, तजो यह मोह तुम;
करते हो किस हेतु विनत विद्रोह तुम?
तुम से प्यारा कौन मुझे? कातर न हो;
मैं अपना भी त्याग करूँ तुम पर कहो?
सोचो तुम सम्बन्ध हमारा नित्य का,
जब से भव में उदय आदि आदित्य का।
प्रजा नहीं, तुम प्रकृति हमारी बन गये;
दोनों के सुख-दुःख एक में सन गये।
मैं स्वधर्म से विमुख नहीं हूँगा कभी,
इसी लिए तुम मुझे चाहते हो सभी।
पर मेरा यह विरह विशेष विलोक कर,
करो न अनुचित कर्म धर्म-पथ रोक कर।
होते मेरे ठौर तुम्हीं हे आग्रही,
तो क्या तुम भी आज नहीं करते यही?
पालन सहज, सुयोग कठिन है धर्म का,
हुआ अचानक लाभ मुझे सत्कर्म का।
मैं वन जाता नहीं रूठ कर गेह से,
अथवा भय, दौर्बल्य तथा निस्स्नेह से।
तुम्हीं कहो, क्या तात-वचन झूठें पड़ें?
असद्वस्तु के लिये परस्पर हम लड़ें!
मानलो कि यह राज्य अभी मैं छीन लूँ,
काँटों में से सहज कुसुम-सा बीन लूँ,
पर जो निज नृप और पिता का भी न हो,
हो सकता है कभी प्रजा का वह कहो?
ऐसे जन को पिता राज्य देते कहीं,-
जिसको उसके योग्य मानता मैं नहीं,
तो अधिकारी नहीं, प्रजा के भाव से,
सहमत होता स्वयं न उस प्रस्ताव से।
किन्तु भरत के भाव मुझे सब ज्ञात हैं,
हम में वे जड़भरत-तुल्य विख्यात हैं।
भूलोगे तुम मुझे उन्हें पाकर, सुनो,
मुझे चुना तो जिसे कहूँ अब मैं, चुनों।
जैसा है विश्वास मुझे उनके प्रती,
प्रिय उससे भी अधिक न निकलें वे व्रती-
तो तुम मुझको दूर न पाओगे कभी,
देता हूँ मैं वचन, मार्ग दे दो अभी।
महाराज स्वर्गीय सगर ने राज्य कर,
तजा तुम्हारे लिए पुत्र भी त्याज्य कर।
भरत तुम्हारे योग्य न हों त्राता कहीं,
तो समझेगा राम उन्हें भ्राता नहीं।
तुम हो ऐसे प्रजावृन्द, भूलो न हे,
जिनके राजा देव-कार्य-साधक रहे।
गये छोड़ सुख-धाम दैत्य-संग्राम में;
धैर्य धरो तुम, वही वीर्य है राम में।
बन्धु, विदा दो उसी भाव से तुम हमें,
वन के काँटे बनें कीर्ण कुंकुम हमें।
करूँ पाप-संहार, पुण्य विस्तार मैं,
भरूँ भद्रता, हरूँ विघ्न-भय-भार मैं।
या जाने दो आर्य भगीरथ-रीति से,
करूँ शुल्क-ऋण-मुक्त पिता को प्रीति से।
सौ विध्नों के बीच व्रतोद्यापन करूँ,
गंगा-सम कुछ नव्य निधि-स्थापन करूँ।
उठो, विघ्न मत बनो धर्म के मार्ग में;
चलो स्वयं कल्याण-कर्म के मार्ग में।
दो मुझको उत्साह, बढूँ, विचरूँ, तरूँ,
पद पद पर मैं चरण-चिन्ह अंकित करूँ।”
क्षिप्त खिलौने देख हठीले बाल के,
रख दे माँ ज्यों उन्हें सँभाल सँभाल के,
विभु-वाणी से वही, पड़े थे जो अड़े,
मन्त्रमुग्ध-से हुए अलग उठकर खड़े।
झुक देखें जो किन्तु उठा कर सिर उन्हें,
पा सकते थे कहाँ पौरजन फिर उन्हें।
झोंके-सा झट स्वच्छ मार्ग से रथ उड़ा.
बढ़ मानों कुछ दूर शून्य पथ भी मुड़ा!
चले यथा रथ-चक्र अचल भावित हुए,
युग पार्श्वों के अचल दृश्य धावित हुए।
सीमा पूरी हुई जहाँ साकेत की,
पुर, प्रान्तर, उद्यान, सरित, सर, खेत की,
रुके सधे हय, हींस उठे रज चूम कर,
उतर पुरी की ओर फिरे प्रभु घूम कर।
जन्मभूमि का भाव न अब भीतर रुका,
आर्द्र भाव से कहा उन्होंने, सिर झुका-
“जन्मभूमि, ले प्रणति और प्रस्थान दे;
हमको गौरव, गर्व तथा निज मान दे।
तेरे कीर्त्ति-स्तम्भ, सौध, मन्दिर यथा-
रहें हमारे शीर्ष समुन्नत सर्वथा।
जाते हैं हम, किन्तु समय पर आयँगे;
आकर्षक तब तुझे और भी पायँगे।
उड़े पक्षिकुल दूर दूर आकाश में,
तदपि चंग-सा बँधा कुंज गृह-पाश में।
हम में तेरे व्याप्त विमल जो तत्व हैं,-
दया, प्रेम, नय, विनय, शील, शुभ सत्व हैं,
उन सबका उपयोग हमारे हाथ है,-
सूक्ष्म रूप में सभी कहीं तू साथ है।
तेरा स्वच्छ समीर हमारे श्वास में,
मानस में जल और अनल उच्छ्वास में।
अनासक्ति में सतत नभस्थिति हो रही,
अविचलता में बसी आप तू है मही।
गिर गिर, उठ उठ, खेल-कूद, हँस-बोलकर;
तेरे ही उत्संग-अजिर में डोलकर-
इस पथ में है सहज हुआ चलना हमें,
छल न सकी वह लोभ-मोह-छलना हमें।
हम सौरों की प्राचि, पुराधिष्ठात्रि तू,
मनुष्यत्व-मनुजात धर्म की धात्रि तू!
तेरे जाये सदा याद आते रहे,
नव नव गौरव पुण्यपर्व पाते रहे।
तू भावों की चारु चित्रशाला बनी,
चारित्र्यों की गीत-नाट्यमाला बनी।
तू है पाठावली आर्यकुल-कर्म की,
पत्र पत्र पर छाप लगी ध्रुव धर्म की।
चलना, फिरना और विचरना हो कहीं,
किन्तु हमारा प्रेम-पालना है यहीं।
हो जाऊँ मैं लाख बड़ा नर-लोक में,
शिशु ही हूँ तुझ मातृभूमि के ओक में।
यहीं हमारे नाभि-कंज की नाल है,
विधि-विधान की सृष्टि यहीं सुविशाल है।
हम अपने तुझ दुग्ध-धाम के विष्णु हैं,
हैं अनेक भी एक, इसीसे जिष्णु हैं!
तेरा पानी शस्त्र हमारे हैं धरे,-
जिसमें अरि आकण्ठमग्न होकर तरे।
तब भी तेरा शान्ति भरा सद्भाव है,
सब क्षेत्रों में हरा हृदय का हाव है।
मेरा प्रिय हिण्डोल निकुंजागार तू,
जीवन-सागर, भाव-रत्न-भाण्डार तू।
मैं हूँ तेरा सुमन, चढ़ूँ सरसूँ कहीं,
मैं हूँ तेरा जलद, बढ़ूँ बरसूँ कहीं।
शुचिरुचि शिल्पादर्श, शरद्घन पुंज तू,
कलाकलित, अति ललित कल्पना-कुंज तू।
स्वर्गाधिक साकेत, राम का धाम तू,
रक्षित रख निज उचित अयोध्या नाम तू।
राज्य जाय, मैं आप चला जाऊँ कहीं,
आऊँ अथवा लौट यहाँ आऊँ नहीं,
रामचन्द्र भवभूमि अयोध्या का सदा,
और अयोध्या रामचन्द्र की सर्वथा।”
आया झोंका एक वायु का सामने,
पाया सिर पर सुमन समर्पित राम ने।
पृथ्वी का गुण सरस गन्ध मन भा गया,
खगकुल का कल विकल करुण रव छा गया।
क्षण भर तीनों रहे मूर्ति जैसे गढ़े,
लेकर फिर निश्वास दीर्घ रथ पर चढ़े।
बैठ चले चुपचाप सभी निस्पन्द-से,
बढ़े अश्व भी निरानन्द गति मन्द से।
पहुँचे तमसा-तीर साँझ को संयमी,
वहीं बिताई गई प्रथम पथ की तमी।
स्वजन-शोच-संकोच तनिक बाधक हुआ,
किन्तु भरत-विश्वास शयन-साधक हुआ।
सजग रहे सौमित्रि, बने प्रहरी वही;
निद्रा भी उर्मिला-सदृश घर ही रही!
प्रभु-चर्चा में मग्न सुमन्त्र समेत थे,
बीत गई कब रात, सचेताचेत थे।
पर दिन पथ में निरख स्वराज्य-समृद्धियाँ,
प्रजावर्ग की धर्म-धान्य-धन-वृद्धियाँ,
गोरसधारा-सदृश गोमती पार कर,
पहुँचे गंगा-तीर धीर धृति धार कर।
यह थी एक विशाल मोतियों की लड़ी,
स्वर्ग-कण्ठ से छूट, धरा पर गिर पड़ी!
सह न सकी भव-ताप, अचानक गल गई;
हिम होकर भी द्रवित रही कल जलमयी।
’प्रभु आये हैं’, समाचार सुनकर नया,
भेट लिये गुहराज सपरिकर आगया।
देख सखा को दिया समादर राम ने,
उठकर, बढ़कर, लिया प्रेम से सामने।
“रहिए, रहिए, उचित नहीं उत्थान यह;
देते हैं श्रीमान किसे बहु मान यह!
मैं अनुगत हूँ; भूल पड़े कहिये कहाँ?
अपना मृगयावास समझ रहिये यहाँ।
कुशलमूल इस मधुर हास पर भूल सब,
वारूँ मैं निज नीलविपिन के फूल सब।
सहसा ऐसे अतिथि मिलेंगे कब, किसे,
क्यों न कहूँ मैं अहोभाग्य अपना इसे?
पाकर यह आनन्द-सम्मिलन-लीनता,
भूल रही है आज मुझे निज हीनता।
मैं अभाव में भाव लेखता हूँ तुम्हें,
निज गृह में गृह नहीं, देखता हूँ तुम्हें।
त्रुटियों पर पद-धूलि डालिए, आइए;
घर न देख कर, मुझे निहार निभाइए।
न हो योग्य आतिथ्य, अटल अनुरक्ति है;
चाहे मुझमें शक्ति न हो, पर भक्ति है।
अथवा मृगयाशील कभी फिर भी यहाँ,-
पड़ सकते हैं चारू चरण ये, पर कहाँ
आ सकती हैं वार वार माँ जानकी?
कुलदेवी-सी मिली मुझे हाँ, जानकी।
भद्रे, भूले नहीं मुझे आह्लाद वे,
मिथिलापुर के राजभोग हैं याद वे।
पेट भरा था, किन्तु भूख तब भी रही!
एक ग्रास में तृप्त न कर दूँ तो सही।
रूखा-सूखा खान-पान भी इष्ट है,
भाता किसको सदा मिष्ट ही मिष्ट है!
तुम सदैव सौभाग्यवती, जीती रहो;
उभय कुलों की प्रीति-सुधा पीती रहो।”
सिर गुह ने हँस उन्हें हँसा कर नत किया,
प्रभु ने तत्क्षण उसे अंक में भर लिया।
चौंका वह इस बार, देख कर राम को-
शैवलपरिवृत यथा सरोरुह श्याम को!
“एँ, ये वल्कल! दृष्टि कहाँ मेरी रही?
कौतुक, अब तक देख न पाई वह यही!
कहिए, ये किस लिए आज पहनें गये?
कहाँ राजपरिधान और गहनें गये?
क्या मुनि बनकर हरिण भुलाये जायँगे,
क्या वे चंचल, सहज समीप न आयँगे।
किसी वेष में रहे रूप ही धन्य यह,
जय आभरणावरण-मुक्त लावण्य यह।”
“वचनों से ही तृप्त हो गये हम सखे,
करो हमारे लिए न अब कुछ श्रम सखे!
वन का व्रत हम आज तोड़ सकते कहीं,
तो भाभी की भेंट छोड़ सकते नहीं।
तपस्वियों के विध्न दूर कर प्रेम से,
कुछ दिन हम वनवास करेंगे क्षेम से।
देखेंगे पुर-कार्य भरत पुण्यस्पृही,
होता है कृतकृत्य सहज बहुजन गृही।”
“ऐसा है तो साथ चलेगा दास यह,
होगा सचमुच बड़ा विनोदी वास वह।
वन में वे वे चमत्कार हैं सृष्टि के,
पलक खुले ही रहें देख कर दृष्टि के!”
“सुविधा करके स्वयं भ्रमण-विश्राम की,
सब कृतज्ञता तुम्हीं न ले लो राम की।
औरों को भी सखे, भाग दो भाव से;
कर दो केवल पार हमें कल नाव से।”
ध्रुवतारक था व्योम विलोक समाज को,
प्रभु ने गौरव-मान दिया गुहराज को।
प्रकृत वृत्त जब सुना परन्तु विषाद का,
मुरझ गया मन सुमन-समान निषाद का।
देवमूर्ति वे राजमंदिरों के पले,
कुश-शय्या पर आज पड़े थे तरु-तले।
हाय! फूलते हुए भाग्य कैसे फले,
उस भावुक के अश्रु उमड़ कर बह चले।
“घुरक रही है साँय साँय कर रात भी,
मानों लय में लीन तरंगाघात भी।
तब भी लक्ष्मण घूम रहे हैं जाग कर,
निद्रा का निज तुच्छ भाग तक त्याग कर।
यह किसका अभिशाप न जाने हे अरे,
चलती है दुर्नीति राज्य से ही अरे!
खोकर ऐसे लाल, लिया क्या केकयी?
क्या करना था तुझे, किया क्या केकयी?
इस भव पर है असित वितान तना सदा,
जिसके खम्भे दुःख, शोक, भय, आपदा।
उस अचिन्त्यगति गगन तले जब तक पड़े,
हम हैं कितने विवश सभी छोटे-बड़े!
जो प्रभु निज साकेत छोड़, वन को चला;
उसके सम्मुख श्रृंगवेरपुर क्या भला?
पर उसको दूँ और कौन उपहार मैं?
हूँगा कल कृत्कृत्य आपको वार मैं।”
बद्धमुष्टि रह गया वीर, ज्यों भ्रान्त हो,
बोले तब सौमित्रि-“बन्धु, तुम शान्त हो।
तुमको जिनके लिए दुःख या रोष है,
स्वयं उन्हें निज हेतु सौख्य-सन्तोष है।
श्रृंगवेरपुर-राज्य करो तुम नीति से,
आर्य तृप्त हैं मात्र तुम्हारी प्रीति से।
मिला धर्म का आज उन्हें वह धन नया,
जिस पर कोसलराज्य स्वयं वारा गया।
समय जा रहा और काल है आ रहा,
सचमुच उलटा भाव भुवन में छा रहा।
कीट-पूर्ण हैं कुसुम, कण्टकित है मही,
जो सब से बच निकल चले, विजयी वही।
कर्म-हेतु ही कर्म कहीं हम कर सकें,
तो उनके फल हमें कहाँ से धर सकें।
कर्त्ता मानों जिसे तात, भोक्ता वही;
बन्ध-मुक्ति की एक युक्ति जानों यही।
मेरे लिए विषाद व्यर्थ है, धन्य मैं;
सुप्त नहीं हूँ, सतत सजग, चैतन्य मैं।
मैं तो निज भवसिन्धु कभी का तर चुका,
राम-चरण में आत्मसमर्पण कर चुका।
जीव और प्रभु-मध्य अड़ी माया खड़ी,
वह दुरत्यया और शक्तिशीला बड़ी।
साधो उसको और मनाओ युक्ति से,
सखे, समन्वय करो भुक्ति का मुक्ति से।”
निकल गई चुपचाप निशा अभिसारिका,
पढ़ी द्विजों ने बोधमयी कल-कारिका।
सबने मज्जन किया, निरख प्रातश्छटा;
स्वर्णघटित थी रजत जाह्नवी की घटा।
लेकर वट का दूध जटा प्रभु ने रची,
अब सुमन्त्र के लिए न कुछ आशा बची।
“स्वयं क्षात्र ले लिया आज वैराग्य क्या?
शान्त सर्वथा हुआ हमारा भाग्य क्या?”
प्रभु ने उन्हें प्रबोध दिया तब प्रीति से-
“व्रत ले तो फिर उसे निभादे रीति से।
जटा-जूट पर छत्र करे छाया भले,
किन्तु मुकुट की हँसी मात्र है तरु-तले।
सौम्य, यहाँ क्या काम भला विधि वाम का?
यह तो है सौभाग्य तुम्हारे राम का।
जाकर मेरा कुशल कहो तुम तात से,
दो सबको सन्तोष, मिले जिस बात से।
मूल-तुल्य तुम रहो, फूल-से हम खिलें;
कब बीते यह अवधि और आकर मिलें।
फिर भी ये दिन अधिक नहीं हैं, अल्प हैं;
काल-सिन्धु में बिन्दु-तुल्य युग-कल्प हैं।”
समयोचित सन्देश उन्हें प्रभु ने दिये;
सबके प्रति निज भाव प्रकट सबने किये।
कह न सके कुछ सचिव विनीत विरोध में,
उमड़ी करुणा और प्रबोध-निरोध में।
देख सुमन्त्र-विषाद हुए सब अनमनें;
आये सुरसरि-तीर त्वरित तीनों जनें।
बैठीं नाव-निहार लक्षणा व्यंजना,
’गंगा में गृह’ वाक्य सहज वाचक बना।
बढ़ी पदों की ओर तरंगित सुरसरी,
मोद-भरी मदमत्त झूमती थी तरी।
धो ली गुह ने धूलि अहल्या तारिणी,
कवि की मानस-कोष-विभूति-विहारिणी।
प्रभु-पद धोकर भक्त आप भी धो गया,
कर चरणामृत-पान अमर-सा हो गया!
हींस रहे थे उधर अश्व उदग्रीव हो,
मानों उनका उड़ा जा रहा जीव हो।
प्रभु ने दिया प्रबोध हाथ से, हेर कर;
पोंछा गुह ने नेत्र-नीर, मुँह फेर कर।
कोमल है बस प्रेम, कठिन कर्तव्य है;
कौन दिव्य है, कौन न जानें भव्य है?
“जय गंगे, आनंद-तरंगे, कलरवे,
अमल अंचले, पुण्यजले, दिवसम्भवे!
सरस रहे यह भरत-भूमि तुमसे सदा;
हम सबकी तुम एक चलाचल सम्पदा।
दरस-परस की सुकृत-सिद्धि ही जब मिली,
माँगे तुमसे आज और क्या मैथिली?
बस, यह वन की अवधि यथाविधि तर सकूँ,
समुचित पूजा-भेट लौट कर कर सकूँ।”
उद्भासित थी जह्नुनन्दिनी मोद में,
किरण-मूर्तियाँ खेल रही थीं गोद में।
वैदेही थीं झलक झलक पर झूमती,
त्रिविधपवनगति अलक-पलक थी चूमती।
बोले तब प्रभु, परम पुण्य पथ के पथी-
“निज कुल की हो कीर्ति प्रिये, भागीरथी।”
“तुम्हीं पार कर रहे आज किसको अहो!”-
सीता ने हँस कहा-“क्यों न देवर, कहो?”
“है अनुगामीमात्र देवि, यह दास तो!”
गुह बोला-“परिहास बना वन-वास तो!”
वहाँ हर्ष के साथ कूतुहल छा गया,
नाव चली या स्वयं पार ही आ गया!
“मिलन-स्मृति-सी रहे यहाँ यह क्षुद्रिका,”
सीता देने लगीं स्वर्णमणि-मुद्रिका।
गुह बोला कर जोड़ कि-“यह कैसी कृपा?
न हो दास पर देवि, कभी ऐसी कृपा।
क्षमा करो, इस भाँति न तुम तज दो मुझे;
स्वर्ण नहीं, हे राम, चरण-रज दो मुझे।
जड़ भी चेतन मूर्ति हुई पाकर जिसे,
उसे छोड़ पाषाण भला भावे किसे?”
उसे हृदय से लगा लिया श्रीराम ने,
ज्यों-त्यों करके बिदा किया धी-धाम ने।
पथ में सब के प्रीति-हर्ष-विस्मय बनें,
तीर्थराज की ओर चले तीनों जनें।
कहीं खड़े थे खेत, कहीं प्रान्तर पड़े;
शून्य सिन्धु के द्वीप गाँव छोटे-बड़े।
पथ के प्रहरी वृक्ष झूमते थे कहीं,
खग-मृग चरते हुए घूमते थे कहीं।
छोटी-मोटी कहीं कहीं थी झाड़ियाँ,
बनी शशादिक हेतु प्राकृतिक बाड़ियाँ।
पगडंडी थी गई मार्ग से ठीक यों-
शास्त्र छोड़ बन जाय लोक की लीक ज्यों।
टीले दीखे कहीं और भरके कहीं,
दृश्य बावड़ी, कूप और सर के कहीं।
पथ-पार्श्वों में मिले पथिक-चत्वर उन्हें,
कौतूहल ने हरा किया सत्वर उन्हें।
चरणों पर कर और मुखों पर बिन्दु थे,
रजःपूर्ण थे पद्म, अमृतयुत इन्दु थे।
देख घटा-सी पड़ी एक छाया घनी,
ठहर गये कुछ काल वहाँ कोसलधनी।
“तुम दोनों क्या नहीं थके? मैं ही थकी?”
सीता कुछ भी और न आगे कह सकी।
हँसते हँसते सती अचानक रो पड़ी,
तप्त हेम की मूर्ति द्रवित-सी हो पड़ी।
“मुझको अपने लिए नहीं कुछ सोच है।
तुम्हें असुविधा न हो, यही संकोच है।”
“प्रिये, हमारे लिये न तुम चिन्ता करो,
अभी नया अभ्यास, तनिक धीरज धरो।”
जुड़ आई थीं वहाँ नारियाँ ग्राम की,
वे साधक ही सिद्ध हुईं विश्राम की।
सीता सब से प्रेम-भावपूर्वक मिलीं,
लतिकाओं में कुसुमकली-सी वे खिलीं।
“शुभे, तुम्हारे कौन उभय ये श्रेष्ठ हैं?”
“गोरे देवर, श्याम उन्हीं के ज्येष्ठ हैं।”
वैदेही यह सरल भाव से कह गईं,
तब भी वे कुछ तरल हँसी हँस रह गईं।
यों स्वच्छन्द विराम लाभ करते हुए,
मार्ग-जनों में भूरिभाव भरते हुए,
पर दिन तीनों तीर्थराज में आ गये,
द्विगुण पर्व-सा भरद्वाज मुनि पा गये।
स्वयं त्रिवेणी धन्य हुईं उन तीन से,
बोल उठे सौमित्रि अमृत में लीन-से-
“देखो भाभी, तीर्थराज की यह छटा,
वर्षा से आ मिली शरद् की-सी घटा।”
हँस कर बोलीं जनकसुता सस्नेह यों-
“श्याम-गौर तुम एक प्राण, दो देह ज्यों!”
रामानुज ने कहा कि “भाभी, क्यों नहीं,
सरस्वती-सी प्रकट जहाँ तुम हो रहीं!”
“देवर, मेरी सरस्वती अब है कहाँ?
संगम-शोभा निरख निमग्न हुई यहाँ!
धूप-छाँह का वस्त्र मात्र उसका बड़ा,
मन्द पवन से लहर रहा है यह पड़ा!”
प्रभु बोले-“यह गीत-काव्य-चित्रावली!
तुम माई के लाल! जनक की वे लली!
अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला,
किन्तु आप अनुभूति यहाँ है निश्चला!
तुम ये दो दो कलाकार जीते रहो,
मुझे प्रशंसा कठिन एक की भी अहो!
सुनों, मिलन ही महातीर्थ संसार में,
पृथ्वी परिणत यहीं एक परिवार में;
एक तीसरे हुए मिले जब दो जहाँ,
गंगा-जमुना बनीं त्रिवेणी ज्यों यहाँ।
त्याग और अनुराग चाहिए बस, यही।”
भरद्वाज ने कहा-“भरा तुम में वही।
जाओगे तुम जहाँ, तीर्थ होगा वहीं;
मेरी इच्छा है कि रहो गृह-सम यहीं।”
प्रभु बोले-“कृत्कृत्य देव, यह दास है;
पर जनपद के पास उचित क्या वास है?
ऐसा वन निर्देश कीजिए अब हमें,
जहाँ सुमन-सा जनकसुता का मन रमें।
अपनी सुध ये कुलस्त्रियाँ लेती नहीं,
पुरुष न लें तो उपालम्भ देती नहीं।”
“कर देती हैं दान न अपने आपको,
कैसे अनुभव करें स्वात्म-संताप को।
वैदेही की जाति सदैव विदेहिनी,
वन में भी प्रिय-संग सुखी कुल-गेहिनी।
चित्रकूट तब तात, तुम्हारे योग्य है,
जहाँ अचल सुख, शान्ति और आरोग्य है।”
“जो आज्ञा कह राम सहर्ष प्रयाग से,
चित्रकूट की ओर चले अनुराग से।
दिखला आये मार्ग आप मुनिवर उन्हें,
मिली सूर्य की सुता धन्य धुनिवर उन्हें।
जल था इतना अमल कि नभ-सा नील था,
विभु-वपु के ही वर्ण-योग्य समशील था।
राजपुत्र भी कलाकार थे वे कृती,
धीर, धारणाधार, धुरन्धर, ध्रुवधृती।
लक्ष्मण लाये दारु-लताएँ तोड़ कर,
नौका निर्मित हुई उन्हीं को जोड़ कर।
सभी निछावर स्वावलम्ब के भाव पर,
सीता प्रभु-कर पकड़, चढ़ीं निज नाव पर।
ज्यों पुरेंन पर फुल्ल पद्मिनीं तर चली;
चले सहारा दिये हंस-सम युग बली।
करके यमुना-स्नान, बिलम वट के तले;
लक्ष्मण, सीता, राम विकट वन को चले।
वहाँ विविध वैचित्र्य, विलक्षण ठाठ थे;
अगणित आकृति-दृश्य, प्रकृति के पाठ थे।
“वन में अग्रज अनुग, अनुज हैं अग्रणी।”
सीता ने हँस कहा-“न हो कोई व्रणी।”
“भाभी, फिर भी गईं न आईं तुम कहीं,
मध्यभाग की मध्यभाग में ही रहीं!”
मुसकाये प्रभु, मधुर मोदधारा बही,-
“वन में नागर भाव प्रिये, अपना यही।
बीते यों ही अवधि यहाँ हँस-खेल कर
तो हम सब कृत्कृत्य, कष्ट भी झेल कर।”
“आहा! मैं तो चौंक पड़ी, यह कक्ष से,-
फड़ फड़ करके कौन उड़ा दृढ़ पक्ष से।
देखो, पहुँचा हाल कहीं का वह कहीं!
वैमानिक हो, किन्तु मनुज पक्षी नहीं।
ऊपर विस्तृत व्योम, विपुल वसुधा तले;
फिर भी, कैसे फाड़ फाड़ अपने गले-
वे तीतर नख-चंचु मार कर लड़ रहे;
कौन कहे, किस तुच्छ बात पर अड़ रहे।
यहाँ सरल संकुचित घनी वनवीथि है,
वनस्थली की माँग बनी वनवीथि है!
वनलक्ष्मी सौभाग्यवती फूले-फले,
झूले शिशु-सी शांति, पवन पंखा झले।
आगे आगे भाग रहा है मोर यह,
पक्षों से पथ झाड़, चपल चितचोर यह।
मचक मचक वह कीश-मण्डली खेलती,
लचक लचक बच डाल भार है झेलती!
नाथ, सभी कुछ त्याग, जान कर झूठ ही,
खड़े तपस्वी-तुल्य कहीं ये ठूँठ ही!”
“इन पर भी तो प्रिये, लताएँ चढ़ रहीं;
मानों फिर वे इन्हें हरा कर, बढ़ रहीं!”
“कहीं सहज तरुतले कुसुम-शय्या बनी,
ऊँघ रही है पड़ी जहाँ छाया घनी!
घुस धीरे से किरण लोल दलपुंज में,
जगा रही है उसे हिला कर कुंज में।
किन्तु वहाँ से उठा चाहती वह नहीं,
कुछ करवट-सी पलट, लेटती है वहीं।
सखि, तरुवर-पद-मूल न छोड़ो तुम कभी,
एक रूप हैं वहाँ फूल-काँटे सभी!
फैलाये यह एक पक्ष, लीला किये,
छाती पर भर दिये, अंग ढीला किये,-
देखो, ग्रीवाभंग-संग किस ढंग से,
देख रहा है हमें विहंग उमंग से।
पाता है जो जहाँ ठौर, उगता वहीं;
मिलता है जो जिसे जहाँ, चुगता वहीं।
अत्र तत्र उद्योग सर्व सुखसत्र है,
पर सुयोग-संयोग मुख्य सर्वत्र है।”
“माना आर्ये, सभी भाग्य का भोग है;
किन्तु भाग्य भी पूर्वकर्म का योग है।”
“प्रिये, ठीक है, भेद रहा है, नाम का,
लक्ष्मण का उद्योग, भाग्य है राम का।”
“नाथ, भाग्य तो आज मैथिली का बड़ा,
जिसको यह सुख छोड़, न घर रहना पड़ा।
वह किंशुक क्या हृदय खोलकर खिल गया,
लो, पलाश को पुष्प नाम भी मिल गया।
ओहो! कितनी बड़ी केंचुली यह पड़ी।
पवन-पान कर फूल न हो फिर उठ खड़ी!”
“आर्ये, तब भी हमें कौन भय है भला?
वह मरने भी चला, मारने जो चला।
अच्छा, ये क्या पड़े? बताओ तो सही;”
“देवर, सब सब नहीं जानते, बस यही।
विविध वस्तुएँ हमें यहाँ हैं देखनी,
पर इनसे क्या बनें न सुन्दर लेखनी?”
“ठीक, यहाँ पर शल्य छोड़कर शल गया,
नाम रहै पर काम बराबर चल गया।
मुस्तकगन्धा खुदी मृत्तिका है उधर,
बनें आर्द्रपदचिन्ह, गये शूकर जिधर।
देखो, शुकशिशु निकल निकल वह नीड़ से,
घुसता है फिर वहीं भीत-सा भीड़ से।
नीरस तरु का प्राण शान्ति पाता नहीं,
जा जाकर भी, अवधि बिना जाता नहीं!”
“पास पास ये उभय वृक्ष देखो, अहा!
फूल रहा है एक, दूसरा झड़ रहा।”
“है ऐसी ही दशा प्रिये, नर लोक की,
कहीं हर्ष की बात, कहीं पर शोक की।
झाड़ विषम झंखाड़ बनें वन में खड़े,
काँटे भी हैं कुसुम-संग बाँटे पड़े!”
“काँटो का भी भार मही माता सहै,
जिसमें पशुता यहाँ तनिक डरती रहै।
वन तो मेरे लिये कूतुहल हो गया,
कौन यहाँ पर विपुल बीज ये बोगया?
अरे, भयंकर नाद कौन यह भर रहा?”
“भाभी, स्वागत सिंह हमारा कर रहा।
देखा चाहो शब्दवेध तुम, तो कहो?”
“फिर देखूँगी, अभी शान्त ही तुम रहो।
वन में सौ सौ भरे पड़े रस के घड़े,
ये मटके-से लटक रहे कितने बड़े!
क्या कर सकती नहीं क्षुद्र की भी क्रिया?”
पुलक उठीं मधुचक्र देख प्रभु की प्रिया।
“माली हारें सींच जिन्हें आराम में,
बढ़ते हैं वे वृक्ष सहज वन धाम में।
आहा! ये गजदन्त और मोती पड़े,
पके फलों के साथ साथ मानों झड़े।
जिन रत्नों पर बिकें प्राण भी पण्य में,
वे कंकड़ हैं निपट नगण्य अरण्य में!”
चल यों सब वाल्मीकि महामुनि से मिले,
ध्यानमूर्ति निज प्रकट प्राप्त कर वे खिले।
वे ज्यों कविकुलदेव धरा पर धन्य थे,
ये नायक नरदेव अपूर्व अनन्य थे।
“कवे, दाशरथि राम आज कृतकृत्य है,
करता तुम्हें प्रणाम सपरिकर भृत्य है।”
“राम, तुम्हारा वृत्त आप ही काव्य है;
कोई कवि बन जाय, सहज सम्भाव्य है।”
आये फिर सब चित्रकूट मोदितमना,
जो अटूट गढ़ गहन वन-श्री का बना।
जहाँ गर्भगृह और अनेक सुरंग थे,
विविध धातु-पाषाण-पूर्ण सब अंग थे।
जिसकी शृंगावली विचित्र बढ़ी-चढ़ी,
हरियाली की झूल, फूल-पत्ती कढ़ी।
गिरि हरि का हरवेष देख वृष बन मिला,
उन पहले ही वृषारूढ़ का मन खिला।
“शिला-कलश से छोड़ उत्स उद्रेक-सा,
करता है नगनाग प्रकृति-अभिषेक-सा।
क्षिप्त सलिलकण किरणयोग पाकर सदा,
वार रहे हैं रुचिर रत्न-मणि-सम्पदा।
वन-मुद्रा में चित्रकूट का नग जड़ा,
किसे न होगा यहाँ हर्ष-विस्मय बड़ा?”
लक्ष्मण ने झट रची मन्दिराकृति कुटी,
मधु-सुगन्धि के हेतु सरोरुह-सम्पुटी।
वास्तु शान्ति-सी स्वयं प्रकट थीं जानकी,
की मुनियों ने रीति तथापि विधान की।
वनचारी जन जुड़े जोड़ कर डालियाँ,
नृत्य-गान-रत हुए, बजाकर तालियाँ।
“लेकर पवित्र नेत्रनीर रघुवीर धीर,
वन में तुम्हारा अभिषेक करें, आओ तुम;
व्योम के वितान तेल चन्द्रमा का छत्र तान,
सच्चा सिंह-आसन बिछादें, बैठ जाओ तुम।
अर्ध्यपाद्य और मधुपर्क यहाँ भूरि भूरि,
अतिथि समादर नवीन नित्य पाओ तुम;
जंगल में मंगल मनाओ, अपनाओ देव,
शासन जनाओ, हमें नागर बनाओ तुम।”
पृथ्वी की मन्दाकिनी लेने लगी हिलोर,
स्वर्गंगा उसमें उतर डूबी अम्बर बोर।