चिरकाल रसाल ही रहा
जिस भावज्ञ कवीन्द्र का कहा,
जय हो उस कालिदास की-
कविता-केलि-कला-विलास की!
रजनी! उस पार कोक है;
हत कोकी इस पार, शोक है!
शत सारव वीचियाँ वहाँ
मिलते हा-रव बीच में जहाँ!
लहरें उठतीं, लथेड़तीं,
धर नीचे कितना थपेड़तीं,
पर ऊपर, एक चाल से,
स्थित नक्षत्र अदृष्ट-जाल-से!
तम में क्षिति-लोक लुप्त यों
अलि नीलोत्पल में प्रसुप्त ज्यों।
हिम-बिन्दु-मयी, गली-ढली,
उसके ऊपर है नभस्थली।
निज स्वप्न-निमग्न भोग है,
रखता शान्ति-सुषुप्ति योग है।
थक तन्द्रित राग-रोग है,
अब जो जाग्रत है वियोग है!
जल से तट है सटा पड़ा,
तट के ऊपर अट्ट है खड़ा।
खिड़की पर उर्मिला खड़ी,
मुँह छोटा, अँखियाँ बड़ी बड़ी!
कृश देह, विभा भरी भरी,
घृति सूखी, स्मृति ही हरी हरी!
उड़ती अलकें जटा बनी,
बनने को प्रिय-पाद-मार्जनी!
सजनी चुप पार्श्व से छुई,
अथवा देह स्वयं द्विधा हुई!
तब बोल उठी वियोगिनी,
जिसके सम्मुख तुच्छ योगिनी।
“तम फूट पड़ा, नहीं अटा,
यह ब्रह्माण्ड फटा, फटा, फटा!
किस कानन-कोण में, हला,
निज आलोक-समाधि निश्वला?
सखि, देख, दिगन्त है खुला,
तम है, किन्तु प्रकाश से धुला।
यह तारक जो खचे-रचे,
निशि में वासर-बीज-से बचे।
निज वासर क्या न आयँगे?
दृग क्या देख उन्हें न पायँगे?
जब लौं प्रिय लक्ष लायँगे,
यह तारे मुँद तो न जायँगे?
अलि, मैं बलि; ठीक बात है-
‘कल होगा दिन, आज रात है।’
उडु-बीज न दृष्टियाँ चुगें,
सविता और शशी उगें उगें।
तब ऊपर दृष्टि क्यों करूँ?
यह नीचे सरयू, इसे धरूँ।
इसका कल कर्ण में भरूँ,
जल क्या है, बस डूब ही मरूँ!
धर यों मत, बात थी अरी;
मरती हूँ कब मैं मरी मरी?
मुझको वह डूबना कहाँ?
बस यों ही यह ऊबना यहाँ!
शिशु ज्यों विधि है खिला रहा,
ध्रुव विश्वास सुधा पिला रहा।
वह लोभ मुझे हिला रहा,
प्रिय का ध्यान यहाँ जिला रहा।
उनके गुण-जाल में पड़ी,
स्मृतिबद्धा जिसकी कड़ी कड़ी,
तड़पे यह प्रीति पक्षिणी;
सखि, है किन्तु प्रतीति रक्षिणी।
विकराल अराल काल है,
कर में दण्ड लिये विशाल है।
पर दाहक आह है यहाँ,
करती चर्वण चाह है यहाँ!
भय में मत आप पैठ जा,
सखि, बैठें हम, नेंक बैठ जा।
यह गन्ध नहीं बिखेरता,
वन-सोता वन-पार्श्व फेरता।
सुनसान सभी सपाट हैं,
अब सूने सब घाट-बाट हैं।
जड़-चेतन एक हो रहे,
हम जागें, सब और सो रहे!
निधि निर्जन में निहारती,
अपने ऊपर रत्न वारती,
कितनी सुविशाल सृष्टि है,
जितनी हा लघु लोक-दृष्टि है!
तम भूतल-वस्त्र है बना,
नभ है भूमि-वितान-सा तना।
वह पावक सुप्त राख में,
अब तो हैं जल-वायु साख में।
सरयू कब क्लान्ति पा रही,
अब भी सागर ओर जा रही।
सखि री, अभिसार है यही,
जन का जीवन-सार है यही।
सरयू, रघुराज वंश की,
रवि के उज्ज्वल उच्च अंश की,
सुन, तू चिरकाल संगिनी,
अयि साकेत-निकेत-अंगिनी!
इस सत्कुल की परम्परा,
जिससे धन्य ससागरा धरा;
जिसका सुरलोक भी ऋणी,
उसकी तू ध्रुव सत्य-साक्षिणी।
किसका वह तीर है भला,
जिससे मानव-धर्म है चला?
पहले वह है यहीं पला,
सरयू, तू मनु कीर्ति-मंगला!
रण-वाहन इन्द्र आप था,
कितना तेज तथा प्रताप था!
यश गाकर देव-नारियाँ
कहती हैं-बलि और वारियाँ!
किसने निज पुत्र भी तजा?
किसने यों कृत्कृत्य की प्रजा?
किसने शत यज्ञ हैं किये-
पदवी वासन की बिना लिये?
सुन, हैं कहते कृती कवि-
मिलती सागर को न जान्हवी,
स्व-भगीरथ-यत्न जो कहीं,
करते वे सरयू-सखा नहीं।
किसने मख विश्वजित् किया?
रख मृतपात्र सभी लुटा दिया?
न-न, बेच दिया स्वगात्र ही,-
रख दानव्रत-मान मात्र ही?
जिसका गत यों महान है,
सबके सम्मुख वर्त्तमान है,
कल से यह आज चौगुना,
उसका हो सुभविष्य सौगुना।
वश में जिनका भविष्य है,
श्रुति-द्रष्टा ऋषि-वृन्द शिष्य है,
जनकाख्य उन्हीं विदेह की
दुहिता मैं, प्रिय सर्व गेह की।
वह मैं इस वंश की बधू-
(यह सम्बन्ध अहा महा मधु!)
पद देकर जो मुझे मिला,
सुकृती थे विधि और उर्मिला।
पर हा! सुन सृष्टि मौन है,
मुझ-सा दुर्विध आज कौन है?
सरयू, वह दुःख क्या कहूँ,
अपनी ही करनी, न क्यों सहूँ?
कहला कर दिश्य सम्पदा,
हम चारों सुख से पलीं सदा।
मुझको अति प्यार से पिता
कहते थे निज साम-संहिता।
कुछ चंचल मैं सदा रही,
फिरती थी तुझ सी बही-बही।
इस कारण उर्मिला हुई,
गति में मैं अति दुर्मिला हुई।
नचती श्रुतकीर्ति ताण्डवी,
नदि, देती करताल माण्डवी।
भरती स्वर उर्मिला सजा,
गढ़तीं गीत गभीर अग्रजा।
सरयू, बिसरा विवेक है,
फिर भी तू सुन एक टेक है:-
‘मुझसे समभाग छाँट ले,
पुतली, जी उठ, जीव बाँट ले!
अपना कह आप मोल तू,
स्वपदों से उठ, खेल, डोल तू।
मन की कह, नेंक बोल तू;
यह निर्जीव समाधि खोल तू।
पुचकार मुझे कि डाँट ले,
पुतली, जी उठ, जीव बाँट ले!
सुन-देख, स्वकर्ण-दृष्टि है;
कितनी कूजित-कान्त सृष्टि है।
मुझमें यह हार्द हृष्टि है,
सुख की आँगन में सुवृष्टि है।
अपना रस आप आँट ले,
पुतली, जी उठ,-जीव बाँट ले!’
फिरती सब घूम चौक में,
गिरती थीं झुक-झूम चौक में,
मचती वह धूम चौक में,
नचती माँ तक चूम चौक में!
दिखला कर दृश्य हाथ से,
कहतीं वे निज मग्न नाथ से-
‘यह लो, अब तो बनी भली,
घर की ही यह नाट्यमण्डली!’
कर छोड़, शरीर तोल के,
हम लेतीं मिचकी किलोल के;
कहतीं तब त्रस्त धात्रियाँ-
‘गुण को छोड़ बनो न पात्रियाँ!’
तटिनी, हम क्या कहें भला
निज विद्या, कर-कण्ठ की कला?
वह बोध पयोधि मूर्त्ति है;
फिर भी क्या घट-तृप्ति पूर्त्ति है?
मिथिलापुर धन्य धाम की
सरिता है कमला सुनाम की।
वह भी बस स्वानुकूल थी,
रखती प्लावित मोद-मूल थी।
तुझमें बहु वारि-चक्र हैं,
कितने कच्छप और नक्र हैं।
वह तो चिर काल बालिका,
लघु मीना, लघु वीचि-मालिका।
बहु मीन समीप डोलते,
हमको घेर मराल बोलते।
सब प्रत्यय के अधीन हैं,
खग हैं या मृग हैं कि मीन हैं।
वह सैकत शिल्प-युक्तियाँ,
वह मुक्ताधिक शंख-शुक्तियाँ,
सब छूट गईं वहीं वहीं;
सखियाँ भी ससुराल जा रहीं।
कमला-तट वाटिका बड़ी,
जिसमें हैं सर, कूप, बावड़ी।
मणि-मन्दिर में महासती,
गिरिजा हैमवती विराजती।
विहगावलि नित्य कूजती,
जननी पावन मूर्त्ति पूजती।
मिलता सबको प्रसाद था,
वह था जो सुख और स्वाद था।
यह यौवन आप भोग है,
सुख का शैशव-संग योग है।
वह शैशव हा! गया-गया,
अब तो यौवन-भोग है नया!
तितली उड़ नित्य नाचती,
सुमनों के सब वर्ण जाँचती।
जड़ पुष्प उसे निहारते,
निज सर्वस्व सदैव वारते।
यदि, तू खिलती हुई कली,
उड़ जाता जब है जहाँ अली,
उड़ जा सकती स्वयं वहीं,
सुख का तो फिर पार था कहीं?
अब भी वह वाटिका वहाँ,
पर बैठी यह उर्मिला यहाँ।
करुणाकृति माँ विसूरती,
गिरिजा भी बन मूर्त्ति घूरती।
सुनती कितने प्रसंग मैं,
कर देती कुछ रंग भंग मैं।
चुनती नर-वृत्त मोद से,
सुनती देव-कथा विनोद से।
शिवि की न दधीचि की व्यथा,
कहती हो किस शक्र की कथा!
यदि दानव एक भी मिला,
समझो तो सुर-मंत्र ही किला!
अमरों पर देख टिप्पणी,
कहतीं ‘नास्तिक’ खीज माँ मणी।
हँस मैं कहती-प्रसाद दो,
तज दूँ तो यह नास्ति-वाद दो!
पितृ-पूजन आप ठानतीं,
सुर ही पूज्य तथापि मानतीं।
कहतीं तब माँ दया-भरी,-
‘वह तेरे पितृ-देव हैं अरी।
सुन, मैं पति-देव-सेविनी।
तब तेरी प्रिय मातृ-देविनी।’
कहतीं तब यों ममाग्रजा-
‘तुम देवाधिक हो प्रजा-व्रजा!’
सुर हों, नर हों, सुरारि हों,
विधि हों, माधव हों, पुरारि हों,
सरयू, यह राज-नन्दिनी,
सब की सुन्दर भाव-वन्दिनी।
सुनती जब मैं उमा-कथा,
तब होती मुझको बड़ी व्यथा।
‘सुध’-माँ कहतीं कि ‘खो उठी,
यह है देव-चरित्र रो उठी!’
निज शंकर-हेतु शंकरी,
तपती थीं कितनी भयंकरी।
उनकी शिव-साधना वही,
अयि, मेरी यह सान्त्वना रही!
बनतीं विकराल कालिका,
जब स्वर्गच्युत भीरु-पालिका,
जय हो! भय भूल भूल के,
कहती मैं तब ऊल ऊल के-
जब शुम्भ-निशुम्भ-मर्दिनी
बनती काम्य-कला कपर्दिनी,
करता तब चित्त बाल-सा,
जन-धात्री-स्तन-पान-लालसा!
हम भी सब क्षत्र-बालिका,
बन जावें निज-स्वर्ग-पालिका।
पर अस्त्र कहाँ? ‘सभी कहीं।’
बढ़ जीजी कहने लगीं-‘यहीं।’
दल विस्मय से अवाक था,
उनके हाथ उठा पिनाक था!
उस काल गिरा, उमा, रमा,
उनमें दीख पड़ीं सभी समा!!
सबने कल नाद-सा किया-
‘कलिका ने नभ को उठा लिया!
कन ने मन की तोल-माप की,
यह बेटी निज धन्य बाप की!’
जन ने मन हाथ में लिया;
यह जीजीधन ने दिखा दिया।
वह हैं भुवनापराजिता,
तटिनी, गद्गद हो गये पिता-
‘निज मानस-मग्न मीन मैं,
श्रुत हूँ सन्तत आत्म-लीन मैं;
पर प्राप्त मुझे महाद्भुता
वह माया बन मैथिली सुता।’
सुख था भरपूर तात को,
सरयू, सोच परन्तु मात को-
‘वरदायिनि माँ, निबाहिए,
वर-ऐसे वर-चार चाहिए!’
उनसे तब तात ने कहा-
‘करती हो तुम सोच क्यों अहा!
वर-देव अवश्य हैं, बढ़ें,
अपनी ये कलियाँ जिन्हें चढ़ें।
सरिते, वरदेव भी मिले,
वह तेरे प्रिय पद्म थे खिले।
वह श्यामल-गौर गात्र थे,
उनके-से कह, कौन पात्र थे?
वह पुण्यकृती अपाप थे,
पहले ही अवतीर्ण आप थे।
दुगुने वह धीर-वीर थे,
सुकृती ये कल-नीर-तीर थे।
प्रभु दायक जो उदार थे,
जननी तीन, सुपुत्र चार थे।
कुल-पादप-पुण्य-मूलता,
फल चारों फल क्यों न फूलता?
वह बाल्य कथा विनोदिनी,
कहना तू कल-मूर्त्ति मोदिनी।
सुनना भर शक्य था मुझे,
जिसके दर्शन हो चुके तुझे।
समझी अब मैं प्रवाहिणी,
यह तू क्यों बहु ग्राह-ग्राहिणी।
निज वीर-विनोद-पक्ष के,
वह हैं साधन लोल-लक्ष के।
तुमको शर थे न सालते?
शर, जो पत्थर फाड़ डालते।
सहिए शत साल शूल-से,
फलते हैं तब लाल-फूल से।
कितने खुल खेल हैं हुए,
कितने विग्रह-मेल हैं हुए,
कितनी ध्वनि-धूम है मची-
इन फूलों पर, कल्पना बची!
सरयू, कह दूँ तवस्मृति?-
उछला कन्दुक मोदकाकृति,
वह अंचल में लिया लिया-
जब तूने, शर ने उड़ा दिया!
जननी इस सौध-धाम में
उनके ही शुभ-सौख्य-काम में,
करतीं कितने प्रयोग थीं,
रचतीं व्यंजन-बाल-भोग थीं।
तनुजों पर प्राण वारतीं,
तनु की भी सुध थीं विसारतीं।
करतीं व्रत वे नये नये,
कृश होतीं, पर मग्न थीं अये!
वह अंचल धूल पोंछते,
कर कंघी धर बाल ओंछते।
हँस बालक दूर भागते,
कुल के दीप अखण्ड जागते।
तटिनी, उन तात की कथा,
तनयों-सा प्रिय प्राण भी न था।
बस एक नभोमयंक था,
रखता चार उदार अंक था।
गुह और गणेश ईश के,
बस प्रद्युम्न प्रसिद्ध श्रीश के,
पर कोसलराज के चुने,
दुगुने थे यह और चौगुने!
वर मौक्तिक-माल्य तोड़ते,
उसको वे फिर छींट छोड़ते।
कहते-‘हम चौक पूरते।’
‘लड़की हो?’-हँस तात घूरते।
करती जब नाट्य ठाठ का,
धर मैं भी करवाल काठ का;
तब माँ अति मोद मानतीं,
मुझको वे ‘लड़का’ बखानतीं!
उनके प्रिय पुत्र थे यहाँ,
इनकी थीं हम पुत्रियाँ वहाँ।
मिलनावधि ही प्रतीक्ष्य थी,
अब-सी हन्त न किन्तु वीक्ष्य थी!
वह जो शुभ भाग्य था छिपा,
प्रकटा कौशिक-रूप में, दिपा।
दिव में वह दस्यु हों सुखी,
मुनि आये जिनसे दुखी दुखी!
जिस आत्मज युग्म के बिना
अपना जीवन त्याज्य ही गिना;
वह भी मुनि को दिया, दिया,
कितना दुष्कर तात ने किया!
जननी कुल-धर्म पालतीं,
तब भी थीं सब अश्रु डालतीं।
सरयू, रह भाव-गद्गदा,
रघुवंशी बलि धर्म के सदा।
कसतीं कटि थीं कनिष्ठ माँ,
असि देतीं मँझली घनिष्ठ माँ।
कह-‘क्यों न हमें किया प्रजा?’
पहनातीं वह ज्येष्ठ माँ स्रजा।
प्रभु ने चलते हुए कहा-
‘अब शान्ते, भय-सोच क्या रहा,
भगिनी, जय-मूर्त्ति-सी झुकी,
यह राखी जब बाँध तू चुकी?’
कृति में दृढ़, कोमलाकृति,
मुनि के संग गये महाघृति।
भय की परिकल्पना बड़ी,
पथ में आकर ताड़का अड़ी।
प्रभु ने, वह लोक-भक्षिणी,
अबला ही समझी अलक्षिणी।
पर थी वह आततायिनी,
हत होती फिर क्यों न डाइनी।
सुख-शान्ति रहे स्वदेश की,
यह सच्ची छवि क्षात्र वेश की।
कृषि-गो-द्विज-धर्म-वृद्धि हो,
रिपु से रक्षित राज्य-ऋद्धि हो।
प्रभु ने भय-मूर्त्ति बिद्ध की,
मुनि ने भी मख-पूर्त्ति सिद्ध की।
बहु राक्षस विघ्न से बने,
पर दो ने सब सामने हने।
विकराल बली सुबाहु था,
विधु थे ये न, सुबाहु राहु था।
उसके भुज केतु-से पड़े,
रवि से भी प्रभु किन्तु थे बड़े।
दल खेत रहा सभी वहाँ,
खल मारीच उड़ा, गया कहाँ?
मुनि हर्षित आज थे बड़े,
पर क्या दें, इस सोच में पड़े।
प्रभु का उपहार धर्म था,
ध्रुव निष्काम स्वकीय कर्म था।
मुनि का जय-पूर्ण घोष था,
पर यों ही उनको न तोष था।
सरयू, वर-देव थे यही,
वरदर्शी पितृ-वाक्य था सही-
‘वर-देव अवश्य हैं-बढ़ें,
अपनी ये कलियाँ जिन्हें चढ़ें।’
सच को किस ओर आँच है,
पर आवश्यक एक जाँच है।
सुपरीक्षक सिद्ध आप था
वर का, जो वह शम्भु चाप था।
स्थिर था यह तात ने किया-
‘जिसने खींच इसे चढ़ा दिया,
पण-रूप, वही रणाग्रणी,
वर लेगा यह मैथिली-मणि!’
अब भूपति-वृन्द आ चला,
विचली-सी मिथिला महाचला।
जन – सिन्धु-तरंग – वेष्टिता
नगरी थी अब द्वीप-चेष्टिता।
‘भव की यह भेंट भुक्ति लो,
वह सीता, वह मुक्ति-युक्ति दो!’
फिरता मन था उड़ा उड़ा,
मिथिला में भव-संघ था जुड़ा।
कहता भव-चाप-‘आइये,
मुझ-सा निश्चल चित्त लाइये।
तन का बल ही न तोलिए,
मन की भी वह गाँठ खोलिए!’
वह रौद्र कटाक्ष-रूप था,
सहता जो, वह कौन भूप था?
भट रावण-बाण-से कटे,-
जिनसे थे सुर-शक्र भी हटे!
हँसतीं हम, खेल लेखतीं,
चढ़ अट्टों पर दृश्य देखतीं।
पर हा! वह मातृ-चित्त था,
चल जो सन्तति के निमित्त था।
सबको सब माँ सहेजतीं,
हमको पूजन-हेतु भेजतीं।
हमने कृतकृत्य हो लिये,-
वरदा ने वर भी बुला दिये!
ऋषि के मख-विघ्न टाल के,
निज वीर-व्रत पूर्ण पाल के,
मुनि की गृहिणी उवार के,
वर आये नर-रूप धार के!
सरयू, वह फुल्ल वाटिका
बन बैठी वर-वीथि-नाटिका!
युग श्यामल-गौर मूर्त्तियाँ,
हम दो की शत पुण्य-पूर्त्तियाँ।
सजते सब भूप न्यून थे,
चुनते वे मुनि-हेतु सून थे।
निज भूषण आप भानु है,
रखता दूषण क्या कृशानु है?
दृग दर्शन-हेतु क्या बढ़े,
उन पैरों पर फूल-से चढ़े!
उनकी मुसकान देख ली,
अपनी स्वीकृति आप लेख ली।
‘नभ नील अनन्त है अहा!’
धर जीजीधन ने मुझे कहा-
‘अपनी जगती अधीन-सी
चरणों में चुपचाप लीन-सी!’
निकली उनकी उसाँस-सी,
उसने दी यह एक आँस-सी-
‘उनकी पद-धूलि जो धरूँ,
न अहल्या-अपकीर्ति से ड़रूँ!’
मुझको कुछ आत्म-गर्व था;
क्षण में ही अब सर्व खर्व था।
नत थी यह देह सर्वथा,
सरयू, सिन्धु-समीप तू यथा।
झषकेतन-केतु नम्र थे,
(तब ये लोचन मीन-कम्र थे!)
विजयी वर थे विनीत क्या,
हम हारीं, पर तुच्छ जीत क्या?
वर आकर धीर-वीर-से,
सहसा लौट गये गभीर-से।
सुनस्फुट हाथ में गये,
मन पैरों पड़ साथ में गये।
कुछ मर्मर-पूर्ण मर्म था,
श्रम क्या था, पर हाय! धर्म था।
यह कण्टक-पूर्ण चर्म था,
गद-सा गद्गद प्रेम धर्म था!
वह अल्हड़ बाल्य क्या हुआ?
नयनों में कुछ नीर-सा चुआ।
इस यौवन ने मुझे धरा,
नव संकोच भरा, भरा, भरा!
दिखला कर दृश्य ही नया
यह संसार समक्ष आ गया।
करता रव दूर द्रोण था,
मुझको इच्छित एक कोण था।
तिरछी यह दृष्टि हो उठी,
तकती-सी सब सृष्टि हो उठी।
मन मोहित-सा विमूढ़ था,
प्रकटा कौन रहस्य गूढ़ था?
घर था भरपूर पूर्व-सा,
पर विश्राम सुदूर पूर्व-सा।
मन में कुछ क्या अभाव था?
तन में भी अब कौन हाव था?
यह देह-लता छुई-मुई,
निशि आई, पर नींद क्या हुई?
जिसका यह भूरि भोग था,
वह था जो पहला वियोग था!
चुपचाप गवाक्ष खोल के,
अपने आप नवाक्ष खोल के,
निशि का शशि देखने लगी,
सब सोये, पर मैं जगी-जगी!
जब थे सब जागने लगे,
दब रात्रिचर भागने लगे,
निशि हार उतारने लगी,
तब मैं स्वप्न निहारने लगी।
फट पौ उर थी दिखा रही,
कलि, यों फूट, यही सिखा रही!
बढ़ दीपक की शिखा रही;
अलि-लेखा नलिनी लिखा रही।
कलिकावलि फूटने लगी;
अलि-आली उड़ टूटने लगी।
नभ की मसि छूटने लगी;
हरियाली हिम लूटने लगी।
विहगावलि बोलने लगी;
यह प्राची पट खोलने लगी;
अटवी हिल डोलने लगी;
सरसी सौरभ घोलने लगी।
मिलती यह थी स्वकोक थे
हत कोकी बच दुःख-शोक से।
वह सूर्य्यमुखी प्रसन्न थी;
फिर भी चेतन सृष्टि सन्न थी।
अविलोड़ित था जमा दही,
तिमिराम्भोधि-समुद्घृता मही।
मृदु वायु विहारने लगी,
तब मैं स्वप्न निहारने लगी।
वह स्वप्न कि सत्य, क्या कहूँ?
सरयू, तू बह और मैं बहूँ।
प्रकटी प्रिय-मूर्त्ति मोदिता,
कब सोई यह दृष्टि रोदिता!
यह मानस लास्य-पूर्ण था,
वह पद्मानन हास्य-पूर्ण था,
झड़ता उड़ अंशु-चूर्ण था,
सरिते, सम्मुख स्वर्ग-घूर्ण था।
अब भी यह देह की लता
कितनी कण्टकिता-नता-हता!
कँपते बस अंध्रि-वेत्र थे,
नत भी हो सकते न नेत्र थे।
अयि चेतन-वृत्ति निष्क्रिये!
हँस बोले प्रिय प्रेम से-‘प्रिये!’
प्रति रोम स्वतन्त्र तन्त्र-था,
बजता जो सुन सिद्धि-मन्त्र था।
तटिनी, यह तुच्छ किंकरी
सुख से क्यों न, बता, वहीं मरी?
वह जीवन का निमेष था,
पर आगे यह काल शेष था!
कितनी उस इन्दु में सुधा,
सरयू, मैं कहती नहीं मुधा।
वह रूप-पयोधि पी सकी,
तब तो मैं यह आज जी सकी।
मुझको प्रिय स्वप्न में मिले;
पर बोले वह-‘हाय उर्मिले!
वर हूँ, पर वीर हूँ, वरो,
धर लो धीरज तो मुझे धरो।’
मुखरा मति मौन ही रही,
पर थी सम्मति-सी हुई वही।
‘अबला तुम!’-हाय रे छली!
वरती हूँ तब तो महाबली।
‘वह मानस क्या गभीर है?
रखता मज्जन-योग्य नीर है?’
लघु है यह, आप थाह लो;
पर जो हो, अब तो निबाह लो!
‘तब क्या उपहार दूँ, कहो?
धन क्या, मैं मन वार दूँ अहो!
कर में शर है कि शूल है।’
निरखूँ तो वह एक फूल है!
प्रिय ने कर जो बढ़ा दिया,
धर मैंने सिर से चढ़ा लिया।
पलकें ढ़ल हाय! जो खुलीं,
हँसती थी किरणें मिली जुली!
सहसा यह क्या हुआ अरे!
उघरे क्यों फिर नेत्र ये मरे?
बस था वह स्वप्न ही सही,
सब मिथ्या, ध्रुव सत्य था वही!
जिसने मम यातना सही,
यह पार्श्वस्थ सुलक्षणा वही।
यह भी उस काल थी खली,
मुझको जो घर संग ले चली।
सब ओर विशेष धूम थी,
इस जी में बस एक घूम थी।
जिसके वह आसपास थी,
करती हा! वह मूर्त्ति हास थी!
निज सौध-समक्ष ही भली,
स्थित थी दीर्घ स्वयंवरस्थली;-
जिसमें वर ही बधू वरे,
यदि निर्धारित धीरता धरे।
दृग-दीपक थे बुझे बुझे,
पहला सोच हुआ यही मुझे-
प्रभु चाप न जो चढ़ा सके?
उड़ता था मन, अंग थे थके।
तब मैं अति आर्त हो उठी,
धर जीजी-धन को भिगो उठी।
हँस वे कहने लगीं-‘अरी,
यह तू क्यों इतना डरी डरी?
चढ़ता उनसे न चाप जो,
वह होते न समर्थ आप जो,
उठती यह भोंह भी भला
उनके ऊपर तो अचंचला?
दृढ़ प्रत्यय के बिना कहीं
यह आत्मार्पण दीखता नहीं।
मधु को निज पत्र क्यों, बता,
करती अर्पित पूर्व ही लता?
बनती जब आप अर्पिता,
वह वर्त्ती वह स्नेह-तर्पिता,-
उसको भर अंक भेटता,
तब पीछे तम दीप मेटता।
निज निश्वय-हानि क्यों हुई?
तुझको भी यह ग्लानि क्यों हुई?
पगली, कह, बात क्या हुई?
घृति भी अर्पित रात क्या हुई?’
उस प्रत्यय प्रेम में पगीं,
मुझको वे फिर भेटने लगीं।
तब विस्मित-मूढ़-सी निरी,
चरणों में चुपचाप मैं गिरी।
अनुजा यह मैं उपासिका,
उनकी क्या कम किन्तु दासिका?
लघु चित्त हुआ, न ताप था,
गुरु तो भी वह शम्भु चाप था।
तब प्रस्तुत रंगभूमि में,
नृप-भावाम्बु-तरंग-भूमि में,
निज मानस-हंस-सद्मिनी;
पहुँचीं वे प्रभु-प्रेम-पद्मिनी।
वरमाल्य-पराग छोड़ के,
उनके ऊपर सैन्य जोड़ के,
नृप-नेत्र-मिलिन्द जो जुड़े,
सजनी-चामर से परे उड़े।
बल-यौवन-रूप-वेश का,
अपने शिष्ट-विशिष्ट देश का,
दिखला कर लोभ लुब्ध था,
फिर भी राज-समाज क्षुब्ध था।
नृप-सम्मुख नम्र नाक था,
पर मध्यस्थ महापिनाक था।
सिर मार मरे नहीं हटा,
न रही नाक, पिनाक था डटा।
सब का बल व्यर्थ ही बहा,
तब दुःखी-सम तात ने कहा-
‘बस वाहुजता विलीन है,
वसुधा वीर-विहीन दीन है!’
‘कहता यह बात कौन है?
सुनता सत्कुलजात कौन है?
गरजे प्रिय जो ‘नहीं नहीं’
सरयू, ये हत नेत्र थे वहीं।
शिखरस्थित सिंह-गर्जना-
वह मंचोपरि कान्त-तर्जना।
अरुणोदय देख आग-सा
न उठा कौन मनुष्य जाग-सा?
‘अब भी रवि का विकास है,
अब भी सागर रत्न-वास है।
अब भी रवि-वंश शेष है,
वसुधा है, वृहदंस शेष है।
अब भी जल-पूर्ण जन्हुजा,
अब भी राघव की महा भुजा।
शत कार्मुक इक्षु-खण्ड हैं,
मम शुण्डोपम बाहुदण्ड हैं।
यह बात महापमान की,
मम आर्या वह किन्तु जानकी।
उठ आर्य, स्वकार्य कीजिये,
घन को रोहित-दीप्ति दीजिये।’
सुनते सब लोग सन्न थे,
नत भी तात बड़े प्रसन्न थे।
यह भी सुध थी किसे नदि,-
प्रभु धन्वा न चढ़ा सके यदि?
रखता नृप कौन दर्प था?
मणि जीजी, शिव-चाप सर्प था।
कुछ गारुड़-मन्त्र-सा किया,
प्रभु ने जा उसको उठा लिया।
रस का परिपाक हो गया,
चढ़ता चाप चड़ाक हो गया!
प्रभु-साम्य समुद्र-संग था,-
धनुरुल्लोल उठा कि भंग था!
सब हर्ष-निमग्न हो गये,
क्षितिपों के मन भग्न हो गये।
कुछ बोल उठे यही वहाँ-
‘बल ही था यह, वीरता कहाँ?’
किसका यह लोभ रो उठा?
मुझको भी सुन क्षोभ हो उठा।
भृकुटी जबलों चढ़े यहाँ
प्रिय ने चाप चढ़ा लिया वहाँ।
निकला रव रोर चीरता-
‘किसमें है वह वीर्य-वीरता?
जिसको उसका प्रमाद है,
उसके ऊपर वाम पाद है!’
ध्वनि मण्डप-मध्य छा गई,
तबलों भार्गव-मूर्त्ति आ गई।
प्रभु से भव-चाप भंग था,
प्रिय से भार्गव का प्रसंग था।
मुनि की निज गर्व-गर्जना,
प्रिय की तत्क्षण योग्य तर्जना।
प्रभु की वह सौम्य वर्जना,
सब की थी बस एक अर्जना।
‘डरते हम धर्म-शाप से,
न डराओ मुनि, आप चाप से।
द्विजता तक आततायिनी,
वध में है कब दोष-दायिनी?’
सुन-देख हुई विभोर मैं,
बटती थी परिधान-छोर मैं।
अब भी वह ऐंठ सूझती,
तब तो हूँ यह आज जूझती!
प्रभु को निज चाप दे गये,
मुनिता ही मुनि आप ले गये।
सुरलोक जहाँ नगण्य है,
वह व्रज्या-व्रत धन्य धन्य है।
सरयू, जय-दुन्दुभी बजी,
वह बारात बड़ी यहाँ सजी।
भगिनी युग और थीं वहाँ,
वर भ्राता द्वय और थे यहाँ।
कर-पीड़न प्रेम-याग था,
कह, स्वीकार कहूँ कि त्याग था?
वह मोद-विनोद-वाद था,-
जिसमें मग्न स्वयं विषाद था।
वह बन्धन-मुक्ति-मेल-सा,
विधि का सत्य, परन्तु खेल सा!
नर का अमरत्व तत्व था,
वह नारीकुल का महत्व था।
बहु जाग्रत स्वप्न थे नये,
दिन आये कब और वे गये?
कब हा! उस स्वप्न से जगीं,
जब माँ से हम छूटने लगीं।
बिछुड़ा बिछुड़ा विषाद है;
तुझको तो स्ववियोग याद है।
जब तू इस आर्द्र देह से,
पति के गेह चली स्वगेह से।
शतधा स्राविता हुए बिना,
सरिते, क्या द्रविता हुए बिना,
घर से चल तू सकी बता?
कितनी हाय-पछाड़, तू बता!
‘मत रो’-कह आप रो उठीं,
‘तुम क्यों माँ, यह धैर्य खो उठीं?
‘यह मैं जननी प्रपीड़िता,
पर तू है शिशु आप आप क्रीड़िता!’
फिर क्यों शिशु को हटा रहीं?
तुम माँ की ममता घटा रहीं।
‘हटती यह आप मैं यहाँ,
तुम हो और सुखी सदा वहाँ।
सुन, मैं यह एक दीन माँ,
तुमको हैं अब प्राप्त तीन माँ।
पति का सुख मुख्य मानियो।’
‘सुख को भी सहनीय जानियो।’
पिछला उपदेश तात का,
बिसरा-सा वह वेश तात का,
अब भी यह याद आ रहा;
बिसरा-सा सब भान जा रहा।
उनको कब लोभ-मोह था,
पर भाँ भाँ करता बिछोह था।
हम तो उस गोद में रहीं,
उनकी ब्रह्म-दया कहाँ नहीं?
हम पैर पलोटने लगीं-
पड़ पैरों पर लोटने लगीं।
‘फिर आकर अंक भेटियो,
थल भूलीं तुम आज बेटियो!’
उस आँगन में खड़ी खड़ी,
भर आँखें अपनी बड़ी बड़ी,
अब भी सुध माँ बिसारतीं,
सहसा चौंक हमें पुकारतीं।
अब आँगन भाँय भाँय है,
करता मारुत साँय साँय है।
झड़ते सब फूल फूट के,
पड़ते हैं बस अश्रु टूट के।
प्रिय आप न जो उबार लें,
हमको मातृवियोग मार लें।
तटिनी, यह ज्ञात है तुझे,
प्रिय ने दुःख भुला दिया मुझे।
सरयू, वह सौख्य क्या कहूँ?
अब तो मैं यह दुःख ही सहूँ।
उतना रस भोग जो जिये,
वह दुर्दैव दृगम्बु भी पिये!
वह हूँ यह मैं अभागिनी,
अपना-सा धन आप त्यागिनी।
विष-सा यह जो वियोग है,
अपना ही सब कर्म-भोग है।
बिनती यह हाथ जोड़ के—
कह, मैंने प्रिय-संग छोड़ के
कुल के प्रतिकूल तो कहीं
अपना धर्म घटा दिया नहीं?
सु-बधू इस गण्य गेह की,
दुहिता होकर मैं विदेह की,
प्रिय को, घर देह-भोग से,
करती वंचित क्या सुयोग से?
रहते घर नाथ, तो निरा
कहती स्त्रैण उन्हें यही गिरा।
जिसमें पुरुषार्थ-गर्व था,
मुझको तो यह एक पर्व था।
करती कल नीर-नाद तू,
सुख पाती अथवा विषाद तू?
अनुमोदन या विरोध है?
मुझको क्या यह आज बोध है?
मन के प्रतिकूल तो कहीं
करते लोग कुभावना नहीं।
तुझको कल-कान्त-नादिनी,
गिनती हूँ अनुकूल वादिनी।
जितना यह दुःख है कड़ा,
उससे प्रत्यय और भी बड़ा।
यदि लीक धरे न मैं रही,
मुझको लीक धरे, यही सही!
सुख शान्ति नहीं, न हो यहाँ,
तुम सन्तोष, बने रहो यहाँ।
सुख-सा यह दुःख भी झिले,
मुझको शान्ति अशान्ति में मिले!
तब जा सुख-नाट्य-नर्तिनी,
बन तू सागर-पार्श्व-वर्तिनी।
पथ देख रही तरंगिणी,
त्रिपथा-सी वह संग-रंगिणी।
यह ओघ अमोघ जायगा;
पथ तो पान्थ स्वयं बनायगा।
चल चित्त तुझे चला रहा,
जलता स्नेह मुझे जला रहा।
गति जीवन में मिली तुझे,
सरिते, बन्धन की व्यथा मुझे।
तन से न सही, अभंगिनी,
मन से हैं हम किन्तु संगिनी।
कह, क्या उपहार दूँ तुझे?
अलकें ही यह दीखतीं मुझे।
लट ले यह एक प्रेम से,
रख राखी, यह नित्य क्षेम से।
सजनी, यह व्यर्थ कोंचती,
मिष से मैं कब बाल नोंचती?
यह बन्धन एक प्रीति का,
इसमें क्या कुछ काम भीति का?
अयि, शुक्तिमयी, सँभाल तू,
रख थाती, यह अश्रु पाल तू!
यदि मैं न रहूँ, नहीं सही,
प्रिय की भेंट बनें यहाँ यही।
अथवा यह क्षार नीर है,
प्रिय क्षाराब्धि तुझे गभीर है।
तब ले दृग-बिन्दु क्षुद्र ये,
बढ़ हो जायँ स्वयं समुद्र ये,
घन पान करें कभी इन्हें,
रुचता है परमार्थ ही जिन्हें।
यह भी इस भाँति धन्य हों,
जगती के उपकार-जन्य हों।
प्रिय के पद धूल से भरे,
सपरागाम्बुजता जहाँ धरे,
यह भी उस धूल में गिरें,
इनके भी दिन यों फिरें फिरें।
वह धूल स्वयं समेट लूँ,
तुझको तो निज ‘फूल’ भेंट दूँ!
यश गा निज वीर वृन्द का,
ध्रुव-से धीर गभीर वृन्द का।”
टप टप गिरते थे अश्रु नीचे निशा में,
झड़ झड़ पड़ते थे तुच्छ तारे दिशा में।
कर पटक रही थी निम्नगा पीट छाती,
सन सन करके थी शून्य की साँस आती!
सखी ने अंक में खींचा, दुःखिनी पड़ सो रही,
स्वप्न में हँसती थी हा! सखी थी देख रो रही।