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नहुष/मैथिलीशरण गुप्त

1. मंगलाचरण

क्योंकर हो मेरे मन मानिक की रक्षा ओह!
मार्ग के लुटेरे-काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह ।
किन्तु मैं बढ़ूँगा राम,-
लेकर तुम्हारा नाम ।
रक्खो बस तात, तुम थोड़ी क्षमा, थोड़ा छोह ।

2. शची

मणिमय बालुका के तट-पट खोल के,
क्या क्या कल वाक्य नैश निर्जन बोल के ।
श्रान्त सुर-सरिता समीर को है भेटती,
क्लान्ति दिन की है उसकी भी मेटती ।

यह रहा मानस तो अमरों के ओक में,
गात्र मात्र ही है मोतियों का नरलोक में ।
पानी चढ़ने से यही चन्द्र-कर चमके ।
पाकर इसी को रवि-रश्मि-शर दमके ।

होती है सदैव नयी वृद्धि परमायु में,
अमर न होगा कौन इस जल-वायु में?
गन्ध पृथिवी का गुन, व्योम भर जो बढ़ा,
आके यहीं उन्नति की चूढ़ा पर है चढ़ा!

मिलता दरस से ही सुख है परस का,
पार क्या परस के बरसते-से रस का ।
डोलता-सा, बोलता-सा एक एक पर्ण है,
वर्ण-पीतता में भी सुवर्ण ही सुवर्ण है।

धूल उड़ती है तब फूलों के पराग की,
पत्र-रचना-सी पड़ती है अनुराग की!
अंक धन का क्या यहां जीवन अशंक है ।
कितनी सजलता है, किन्तु कहाँ पंक है?

फैली सब ओर शान्ति मग्न सुरलोक है,
किन्तु कान्ति-हीना आज इन्द्राणी सशोक है ।
शान्त-सी सखी के साथ तीर पर आ गयी,
शान्त वायुमण्डल में मानो कान्ति छा गयी ।

आज सुरराज शक्र स्वर्गभ्रष्ट हो गया,
और स्वर्ग-वैभव शचि का सब खो गया ।
जी रही है देवराज्ञी, कैसे मरे अमरी,
मंडरा रही है शून्य वृन्त पर भ्रमरी!

दगता है अन्तर, सुलगता ज्यों तुष है;
इन्द्रासनासीन हुआ सहसा नहुष है ।
सह्य किसे स्वाधिकार दूसरे के बस में,
देना पड़ा हो वह भले ही रस रस में ।

“देवि, यथा” बोली सखि-“दनुज दनुज ही,
देव देव ही हैं क्या मनुज मनुज ही ।
सीमा जहाँ जिसकी, रहेगा वहीं वह तो,
सह लो विनोद-सा विपर्यय है यह तो।”

हाय रे विपर्यय! सखी की बात सुनके,
बोली अमरेश्वरी अधीरा सिर धुनके-
“सखी, क्या विपर्यय है जो जहाँ था है वहीं,
सब तो वही के वही, मैं ही वह हूँ नहीं ।

क्या थी, अब कौन हूँ कहाँ थी, अब मैं कहाँ,
क्या न था, परन्तु अब मेरा क्या रहा यहाँ?
आज मैं विदेशिनी हूँ अपने ही देश मैं-
वन्दिनी-सी आप निज निर्मम निवेश में!

हा! दु:स्वप्न ही मैं इसे मान कहीं सकती,
कैसे समझाऊँ मन, जान नहीं सक्ती।
मेरी यह दिव्य धरा आज पराधीना है,
इन्द्राणी अभागिनी है, देवेश्वरी दीना है!

चर्चा कल्प-वृक्ष के फलों की क्या चलाऊँ मैं,
पारिजात-पुष्प ही तो एक चुन लाऊँ मैं,
मेरे उस नन्दन की हाय! कैसी लाज है,
सूखी हरियाली तक मेरे लिए आज है!

निज मुख देखने का इच्छुक क्यों उर है,
सखि, क्या मृगांक मेरा अब भी मुकुर है?”
चिर नवयौवना शची क्या हंसी खेद से,
निकली क्षणिक धूप वर्षा के विभेद से!

“यह मुख-चन्द्र देवि, नित्य परिपूर्ण है,
उड़ता अवश्य आज कुज्झटिका-चूर्ण है,
तूर्ण ही विकीर्ण होंगी किरणें प्रथम-सी,
बैठी ही रहेगी यह वेला क्या विषम-सी ?

फिर भी नहुष तो हमारे चिरभक्त हैं,
दानव नहीं वे महामानव सशक्त हैं,
अपना सहायक हमीने है उन्हें चुना ।
उनके लिए क्या अभी और कुछ है सुना?”

“नहीं किन्तु पद में सदैव एक मद है;
सीमा लांघ जाता उमड़ता जो नद है ।
निश्चय है कब क्या किसी के मन का कहीं,
शंकित हो मेरा मन, आतंकित है यहीं ।

देव सदा देव तथा दनुज दनुज हैं,
जा सकते किन्तु दोनों ओर ही मनुज हैं ।
रह सकती हूँ सावधान दानवों से मैं,
शंकित ही रहती हूँ हाय! मानवों से मैं ।

स्वामी भी कहाँ गये न जाने, मुझे छोड़ के,
वे भी छिप बैठे दु:खनी से मुंह मोड़ के!”
“ऐसा कहना क्या देवि आपको उचित है?
आपसे क्या उनका विभिन्न हिताहित है?

धीरज न छोड़िए, प्रतीक्षा कर रहिए,
निष्क्रिय हो बैठेंगे कभी वे भला कहिए,”
“ठीक सखि, किन्तु मन कैसे रहे हाथ का,
गेह गया और साथ छूटा निज नाथ का ।

कोई युक्ति हाय! मुझे आज नहीं सूझती,
सम्भव जो होता युद्ध तो मैं आप जूझती ।
और मैं दिखाती, रस-मात्र नहीं चखती,
देखते सभी, क्या शक्ति साहस हूँ रखती ।

आहा! जब युद्ध हुआ शुम्भ से, निशुम्भ से,
दैत्यों ने किये थे पान दो दो मद-कुम्भ से,
प्रलय मचा रही थीं धारें खरे पानी की,
तब थी शची ही पक्ष-रक्षिणी भवानी की ।”

होकर भी स्वर्गेश्वरी घोर चिन्ता-चर्चिता,
हो उठी प्रदीप्त आत्म-गौरव से गर्विता ।
दीख उड़ी अश्रुमुखी धूल-धुली माला-सी,
किंवा धूम-राशि में से जागी हुई ज्वाला-सी!

“शक्ति से जो साध्य होगा, साधेगी उसे शची,
किन्तु क्या विवेकी-बुद्धि आज उसमें बची?
कोई भी दिखा दे मार्ग; गति मैं दिखाऊंगी,
चल, गुरु-चरण अभी मैं सखि जाऊँगी ।”

स्नान कर शीघ्र और ध्यान धर पति का,
लेने वरदान चली मानिनी सुमति का ।
जल से निकल के भी डूबी-सी बनी रही ।
तब भी निशा थी, सूक्ष्म चाँदनी तनी रही ।

3. नहुष

‘‘नारायण ! नारायण ! साधु नर-साधना,
इन्द्र-पद ने भी की उसी की शुभाराधना।’’
बोल उठी नारद की वल्लकी गगन में,
जा रहे थे घूमने वे गंगातीर वन में ।

उस स्वर-लहरी में लोट उठा गन्धवाह,
चाह की-सी आह उठी किन्तु वन वाह वाह ?
चौंक अप्सराएं उठ बैठीं और झूमीं वे,
नूपुर बजा के ताल ताल पर घूमीं वे!

किन्तु शची विमना, क्या देखती क्या सुनती,
कितने विचार-सूत्र लेकर थी बुनती,
देव-ॠषि आप उसे देखा किये रुक के,
उसने प्रणाम उन्हें क्यों न किया झुक के?

दुर्वासा न थे वे यही बात थी कुशल की,
क्रोध नहीं, खेद हुआ और दया झलकी ।
“क्षम्य है विपन्ना, दयनीय यह दोष है,
स्वस्थ रहे कैसे गया, धाम-धन-कोष है ।

लज्जानत नेत्र, यह देखे-पहचाने क्या,
भीतर है कोलाहल, बाहर की जाने क्या?
ओहो!” क्षण मौन रहे फिर हिल डोले वे,
सहज, विनोदी, आप अपने से बोले वे…

“फिर भी प्रणाम बिना आशीर्वाद कैसे हो?
और अपराध अपराध ही है, जैसे हो ।
प्रायश्चित रुप कुछ दण्ड नहीं पायगा,
तो हे दये! दूषित ही दोषी रह जायगा।

मैं अपनी ओर से करूँगा कुछ भी नहीं,
किन्तु रुके विधि के अदृश्य कर भी कहीं?
मानता हूं सारे परिणाम मैं उचित ही।
रहता निहित है अहित में हित ही।

देख ली शची की दशा; अबला है अन्त में,
तस्कर-सा शक्र-दुरा बैठा है दिगन्त में ।
देखूँ नये इन्द्र का भी कैसा चमत्कार क्या?
मैं तो हूँ तटस्थ, यहाँ मौज मंझधार क्या?

विपिन नहीं तो आज इन्द्रोद्यान ही सही,
आवे जो अपने रस आप, अच्छा है वही ।
रस अभिनेता नहीं, दर्शक ही होने में,
ठौर तो मिलेगा ही मिलेगा किसी कोने में ।

वीणा बजी सप्त स्वर और तीन ग्राम में,
पहुँचे विचरते वे वैजयन्त धाम में ।
था सब प्रबन्ध यथा पूर्व भी नया नया,
ढीला पड़ा तन्त्र फिर तान-सा दिया गया ।

अभ्युत्थान देके नये इन्द्र ने उन्हें लिया,
मानी ने विनम्र व्यवहार विधि से किया।
”आज का प्रभात सुप्रभात, आप आये हैं,
दीजिए, जो आज्ञा स्वयं मेरे लिए लाये हैं!

उत्सुकता आगे चलती है सदा आपके,
विविध विषय पीछे विश्व-वार्तालाप के ।
सत्साहित्य, सत्संगीत दोनों ओर रहता,
लोकोत्तरानन्द दूना होकर है बहता ।”

आद्र जो है क्यों न वह आप ही बहे-बहे ।
मानस भी तो हो, जहाँ रस रमता रहे ।
धन्य है मनस्विता हमारे मनुजेन्द्र की,
रखते अमर भी हैं आशा इसी केन्द्र की!”

‘मेरा अहोभाग्ये’ “हां, तुम्हारा पुरुषार्थ है,
दुर्लभ तुम्हें क्या आज कोई भी पदार्थ है?”
“सीमा क्या यही है पुरुषार्थ की पुरुष के?”
मुद्रा कुछ उत्सुक थी मुख की नहुष के ।

मुनि मुसकाये और बोले-“यह प्रश्न? धन्य ।
कौन पुरुषार्थ भला इससे अधिक अन्य?
शेष अब कौन-सा सुफल तुम्हें पाने को?”
“फल से क्या, उत्सुक मैं कुछ कर जाने को ।”

“वीर करने को यहां स्वर्ग-सुख-भोग ही,
जिसमें न तो है जरा-जीर्णता, न रोग ही ।
साधन बड़ा है, किन्तु साध्य ही के अर्थ है,
अन्यथा प्रवृति-पथ सर्वथा ही व्यर्थ है ।

जोता और बोया फिर सींचा, फल छोड़ोगे?
जो है स्वयं प्राप्त क्या उसी से मुंह मोड़ोगे?”
बोला हंस नहुष-“समृद्धि स्वर्ग तक ही?
स्वर्ग जो न हो तो क्या ठिकाना है नरक ही?”-

“मर्त्य है, रसातल है, किन्तु है पतन ही;
मुक्ति-पथ भी है, वहाँ गृह भी है वन ही ।”
“पथिक उसी का जगती में यह जन था,
बीच में परन्तु वह नन्दन-भवन था?”

“देव राज्य-रक्षण भी कौन थोड़ा श्रेय है,
जिसका प्रसाद रूप प्राप्त यह पेय है ।
ऐसा रस पृथ्वी पर-” “मैंने नहीं पाया है,
यद्यपि क्या अन्त अभी उसका भी आया है?

लेखक

  • मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव झाँसी जिला स्थित चिरगाँव नामक गांव में 3 अगस्त, सन् 1886 ई0 में हुआ था| इनके पिता का नाम प्रेम गुप्ता तथा माता का नाम काशीबाई गुप्ता था| काव्य-रचना की ओर छोटी अवस्था से ही इनका झुकाव था| आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से इन्होंने हिन्दी काव्य की नवीन धारा को पुष्ट कर उसमें अपना विशेष स्थान बना लिए थे| इनकी कविताओ में देश भक्ति एवं राष्ट्र प्रेम की प्रमुख विशेषता होने के कारण इन्हें हिंदी-साहित्य ने ‘राष्ट्रकवि’ का सम्मान दिया| राष्ट्रपति ने इन्हें संसद् सदस्य मनोनीत किया| इस महान कवि की मृत्यु 12 दिसम्बर, सन् 1964 ई० मे हो गई| मैथिलीशरण गुप्त का साहित्यिक परिचय​ search मैथिलीशरण गुप्त की रचना-संग्रह विशाल है| इनकी विशेष ख्याति रामचरित पर आधारित महाकाव्य ‘साकेत’ के कारण प्राप्त हुई है| ‘जयद्रथ वध’, ‘द्वापर’, ‘अनघ’, ‘पंचवटी’, ‘सिद्धराज’, ‘भारत-भारती’, ‘यशोधरा’ आदि गुप्तजी की अनेक प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं| ‘यशोधरा’ एक चम्पूकाव्य कृति है| जिसमें गुप्त जी ने महान महात्मा बद्ध के चरित्र का वर्णन किया है| मैथिलीशरण गुप्त जी का पहला काव्य-संग्रह ‘भारत-भारती’ था, जिसमें भारत की दुर्दशा एवं भ्रष्टाचार का वर्णन हुआ है| माइकेल मधुसूदन की वीरांगना, मेघनाद-वध, विरहिणी ब्रजांगना, और नवीन चन्द्र के पलाशीर युद्ध का इन्होंने विस्तृत अनुवाद किये हैं| देश कालानुसार बदलती भावनाओं तथा विचारों को भी अपनी रचना में स्थान देने की इनमें क्षमता है| छायावाद के आगमन के साथ गुप्तजी की कविता में भी लाक्षणिक वैचित्र्य और मनोभावों की सूक्ष्मता की मार्मिकता आयी| गीति काव्य की ओर मैथिलीशरण गुप्त का झुकाव रहा है| प्रबन्ध के भीतर ही गीति-काव्य का समावेश करके गुप्तजी ने भाव-सौन्दर्य के मार्मिक स्थलों से परिपूर्ण ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ जैसे उत्कृष्ट काव्य-कृतियों का सृजन किया| गुप्तजी के काव्य की यह प्रमुख विशेषता रही है कि गीति काव्य के तत्त्वों को अपनाने के कारण उसमें सरसता आयी है, पर प्रबन्ध की धारा की भी उपेक्षा नहीं हुई| गुप्तजी के कवित्व के विकास के साथ इनकी भाषा का बहुत परिमार्जन हुआ। उसमें धीरे-धीरे लाक्षणिकता, संगीत और लय के तत्त्वों का प्राधान्य हो गया| देश-प्रेम गुप्त जी की कविता का प्रमुख स्वर है| ‘भारत-भारती’ में प्राचीन भारत के संस्कृति का प्रेरणादायक चित्रण किया है| इस रचना में व्यक्त देश-प्रेम ही इनकी परवर्ती रचनाओं में देश-प्रेम और नवीन राष्ट्रीय भावनाओं में परिपूर्ण हो गया| इनकी कविता में वर्तमान की समस्याओं और विचारों के स्पष्ट दर्शन होते हैं| गाँधीवाद तथा कहीं-कहीं आर्य समाज का प्रभाव भी उन पर पड़ा है| अपने काव्यों की कथावस्तु गुप्तजी ने वर्तमान जीवन से न लेकर प्राचीन इतिहास अथवा पुराणों से ली है| ये अतीत की गौरव-गाथाओं को वर्तमान जीवन के लिए मानवतावादी एवं नैतिक प्रेरणा देने के उद्देश्य से ही अपनाते हैं| मैथिलीशरण गुप्त की चरित्र कल्पना में कहीं भी अलौकिकता शक्तियों के लिए स्थान नहीं है| इनके सारे चरित्र मानव ही होते हैं, उनमें देवता और राक्षस नहीं होते हैं| इनके राम, कृष्ण, गौतम आदि सभी प्राचीन और चिरकाल से हमारे महान पुरुष पात्र हैं, इसीलिए वे जीवन प्रेरणा और स्फूर्ति प्रदान करते हैं। ‘साकेत’ के राम ‘ईश्वर’ होते हुए भी तुलसी की भाँति ‘आराध्य’ नहीं, हमारे ही बीच के एक व्यक्ति हैं| राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय थे| खड़ी बोली को काव्य के साँचे में ढालकर परिष्कृत करने का कौशल इन्होंने दिखाया, वह विचारणीय योग्य है| इन्होंने देश प्रेम की एकता को जगाया और उसकी चेतना को वाणी दी है। ये भारतीय संस्कृति के महान एवं परम वैष्णव होते हुए भी विश्व-एकता की भावना से ओत-प्रोत थे| हिंदी साहित्य में यह सच्चे मायने में इस देश के सच्चे राष्ट्रकवि थे।

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