उसकी हथेलियों पर आ बैठी धूप गौरैया सी, जब उसने खिड़की के सामने अपनी हथेलियाँ फैलाईं।
उसने झट दोनों हथेलियाँ बंद कर लीं। मुट्ठी में नहीं समा पाई धूप। छिटक कर बाहर आ गई। बंद मुट्ठी के ऊपर।
उसने पिछले महीने ही फ्लैट में गृहप्रवेश पूजा की थी। तब से धूप के एक-एक कतरे के लिए तरसता रहा था। दिसंबर की भयंकर शीत लहरी में भी फ्लैट को उसके हिस्से की नहीं मिली थी।
आज सूर्य के उत्तरायण होने पर पहली बार दोपहर को थोड़ी सी धूप थोड़ी देर के लिए नजर आई।
उसने अपने वातायन के बाहर झाँका। चारों ओर से बिल्डिंगों की अनगिन कतारों ने उसकी इमारत को घेर रखा था।
उसने सर ऊपर उठाकर सूर्य को देखने की कोशिश की। वह निगाहों की जद में आ न सका। सूर्य कह रहा था,
“ईश्वर द्वारा दी गई खूबसूरती को नकार सब नई खूबसूरती गढ़ने का लालच पालेंगे तो और होगा क्या?”
धूप आदमी के हाथ से छिटक गायब हो चुकी थी।
‘सबकी जिंदगी से भी गायब न हो जाए।’
आदमी चारों ओर से घिरते आ रहे कंक्रीट के जंगलों को देख आशंकित।
ईश्वर को चुनौती/अनिता रश्मि