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बसंत-खंड-20 पद्मावत/जायसी

दैऊ देउ कै सो ऋतु गँवाई । सिरी-पंचमी पहुँची आई ॥
भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ । खिन न सोहाइ धूप औ छाहाँ ॥
पदमावति सब सखी हँकारी । जावत सिंघलदीप कै बारी ॥
आजु बसंत नवल ऋतुराजा । पंचमि होइ, जगत सब साजा ॥
नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा । सीस परासहि सेंदुर दीन्हा ॥
बिगसि फूल फूले बहु बासा । भौंर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
पियर-पात -दुख झरे निपाते । सुख पल्लव उपने होइ राते ॥

अवधि आइ सो पूजी जो हींछा मन कीन्ह ।
चलहु देवगढ़ गोहने, चहहुँ सो पूजा दीन्ह ॥1॥

(देउ देउ कै=किसी प्रकार से,आसरा देखते देखते, हँकारा=
बुलाया, बारी=कुमारियाँ, गोहने=साथ में,सेवा में)

फिरी आन ऋतु-बाजन बाजे । ओ सिंगार बारिन्ह सब साजे ॥
कवँल-कली पदमावति रानी । होइ मालति जानौं बिगसानी ॥
तारा-मँडल पहिरि भल चोला । भरे सीस सब नखत अमोला ॥
सखी कुमोद सहस दस संगा । सबै सुगंध चढ़ाए अंगा ॥
सब राजा रायन्ह कै बारी । बरन बरन पहिरे सब सारी ॥
सबै सुरूप, पदमिनी जाती । पान, फूल सेंदुर सब राती ॥
करहिं किलोल सुरंग-रँगीली । औ चोवा चंदन सब गीली ॥

चहुँ दिसि रही सो बासना फुलवारी अस फूलि ।
वै बसंत सौं भूलीं, गा बसंत उन्ह भूलि ॥2॥

(आन=राजा की आज्ञा,डौंडी, होइ मालति=श्वेत हास द्वारा
मालती के समान होकर, तारा-मंडल=एक वस्त्र का नाम,
चाँद तारा, कुमोद=कुमुदिनी)

भै आहा पदमावति चली छत्तिस कुरि भइँ गोहन भली ॥
भइँ गोरी सँग पहिरि पटोरा । बाम्हनि ठाँव सहस अँग मोरा ॥
अगरवारि गज गौन करेई । बैसिनि पावँ हंसगति देई ॥
चंदेलिनि ठमकहिं पगु धारा । चली चौहानि, होइ झनकारा ॥
चली सोनारि सोहाग सोहाती । औ कलवारि पेम-मधु-माती ॥
बानिनि चली सेंदुर दिए माँगा । कयथिनि चली समाइँ न आँगा ॥
पटइनि पहिरि सुरँग-तन चोला । औ बरइनि मुख खात तमोला ॥

चलीं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ ।
बिस्वनाथ कै पूजा, पदमावति के साथ ॥3॥

(आहा=वाह वाह,धन्य धन्य, छत्तिस कुरि=क्षत्रियों के छत्तीसों
कुलों की, बौसिनि=बैस क्षत्रियों की स्त्रियाँ, बानिनि=बनियाइन,
पउनि=पानेवाली,आश्रित,पौनी,परजा, डार=डाला)

कवँल सहाय चलीं फुलवारी । फर फूलन सब करहिं धमारी ॥
आपु आपु महँ करहिं जोहारू । यह बसंत सब कर तिवहारू ॥
चहै मनोरा झूमक होई । फर औ फूल लिएउ सब कोई ॥
फागु खेलि पुनि दाहब होरी । सैंतब खेह, उड़ाउब झोरी ॥
आजु साज पुनि दिवस न दूजा । खेलि बसंत लेहु कै पूजा ॥
भा आयसु पदमावति केरा । बहुरि न आइ करब हम फेरा ॥
तस हम कहँ होइहि रखवारी । पुनि हम कहाँ, कहाँ यह बारी ॥

पुनि रे चलब घर आपने पूजि बिसेसर-देव ।
जेहि काहुहि होइ खेलना आजु खेलि हँसि लेव ॥4॥

(धमारि=होली की क्रीड़ा, जोहार=प्रणाम आदि, मनोरा
झूमक=एक प्रकार के गीत जिसे स्त्रियाँ झुँड बाँधकर
गाती हैं;इसके प्रत्येक पद में “मनोरा झूमक हो” यह
वाक्य आता है, सैंतब=समेट कर इकट्ठा करेंगी)

काहू गही आँब कै डारा । काहू जाँबु बिरह अति झारा ॥
कोइ नारँग कोइ झाड़ चिरौंजी । कोइ कटहर, बड़हर, कोइ न्यौजी ॥
कोइ दारिउँ कोइ दाख औ खीरी । कोइ सदाफर, तुरँज जँभीरी ॥
कोइ जायफर, लौंग, सुपारी । कोइ नरियर, कोइ गुवा, छोहारी ॥
कोइ बिजौंर, करौंदा-जूरी । कोइ अमिली, कोइ महुअ, खजूरी ॥
काहू हरफारेवरि कसौंदा । कोइ अँवरा, कोइ राय-करौंदा ॥
काहू गही केरा कै घौरी । काहू हाथ परी निंबकौरी ॥

काहू पाई णीयरे, कोउ गए किछु दूरि ।
काहू खेल भएउ बिष, काहू अमृत-मूरि ॥5॥

(जाँबु…झारा=जामुन जो विरह की ज्वाला से झुलसी सी
दिखाई देती है, न्योजी=चिलगोजा, खीरी=खिरनी, गुवा=
गुवाक,दक्खिनि सुपारी)

पुनि बीनहिं सब फूल सहेली । खोजहिं आस-पास सब बेली ॥
कोइ केवड़ा, कोइ चंप नेवारी । कोइ केतकि मालति फुलवारी ॥
कोइ सदबरग, कुंद, कोइ करना । कोइ चमेलि, नागेसर बरना ॥
कोइ मौलसिरि, पुहुप बकौरी । कोई रूपमंजरी गौरी ॥
कोइ सिंगारहार तेहि पाहाँ । कोइ सेवती, कदम के छाहाँ ॥
कोइ चंदन फूलहिं जनु फूली । कोइ अजान-बीरो तर भूली ॥

(कोइ) फूल पाव, कोइ पाती, जेहि के हाथ जो आँट ॥
(कोइ) हारचीर अरुझाना, जहाँ छुवै तहँ काँट ॥6॥

(कूजा=कुब्जक,सफेदजंगली गुलाब, गौरी=श्वेत मल्लिका,
अजानबीरो=एक बड़ा पेड़ जिसके संबंध में कहा जाता है
कि उसके नीचे जाने से आदमी को सुध-बुध भूल जाती है)

फर फूलन्ह सब डार ओढ़ाई । झुंड बाँधि कै पंचम गाई ॥
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी । मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी ॥
सिंगि संख, डफ बाजन बाजे । बंसी, महुअर सुरसँग साजे ॥
और कहिय जो बाजन भले । भाँति भाँति सब बाजत चले ॥
रथहिं चढ़ी सब रूप-सोहाई । लेइ बसंत मठ-मँडप सिधाई ॥
नवल बसंत; नवल सब बारी । सेंदुर बुक्का होइ धमारी ॥
खिनहिं चलहिं; खिन चाँचरि होई । नाच कूद भूला सब कोई ॥

सेंदुर-खेह उड़ा अस, गगन भएउ सब रात ।
राती सगरिउ धरती, राते बिरिछन्ह पात ॥7॥

(पंचम=पंचम स्वर में, मादर=मर्दल,एक प्रकार का मृदंग)

एहिं बिधि खेलति सिंघलरानी । महादेव-मढ़ जाइ तुलानी ॥
सकल देवता देखै लागे । दिस्टि पाप सब ततछन भागै ॥
एइ कबिलास इंद्र कै अछरी । की कहुँ तें आईं परमेसरी ॥
कोई कहै पदमिनी आईं । कोइ कहै ससि नखत तराईं ॥
कोई कहै फूली फुलवारी । फूल ऐसि देखहु सब बारी ॥
एक सुरूप औ सुंदर सारी । जानहु दिया सकल महि बारी ॥
मुरुछि परै जोई मुख जोहै । जानहु मिरिग दियारहि मोहै ॥

कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु चाँप ।
कोइ पतंग भा दीपक, कोइ अधजर तन काँप ॥8॥

(जाइ तुलानी=जा पहुँची, दियारा=लुक जो गीले कछारों
में दिखाई पड़ता है;मृगतृष्णा, चाँप=चंपा,चंपे की महक
भौंरा नहीं सह सकता)

पदमावति गै देव-दुवारा । भीतर मँडप कीन्ह पैसारा ॥
देवहि संसै भा जिउ केरा । भागौं केहि दिसि मंडप घेरा ॥
एक जोहार कीन्ह औ दूजा । तिसरे आइ चढ़ाएसि पूजा ॥
फर फूलन्ह सब मँडप भरावा । चंदन अगर देव नहवावा ॥
लेइ सेंदुर आगे भै खरी । परसि देव पुनि पायन्ह परी ॥
`और सहेली सबै बियाहीं । मो कहँ देव! कतहुँ बर नाहीं ॥
हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा । गुनि निरगुनि दाता तुम देवा ॥

बर सौं जोग मोहि मेरवहु, कलस जाति हौं मानि ।
जेहि दिन हींछा पूजै बेगि चढ़ावहुँ आनि ॥9॥

(एक…दूजा=दो बार प्रणाम किया)

हींछि हींछि बिनवा जस जानी । पुनि कर जोरि ठाड़ि भइ रानी ॥
उतरु को देइ, देव मरि गएउ । सबत अकूत मँडप महँ भएउ ॥
काटि पवारा जैस परेवा । सोएव ईस, और को देवा ॥
भा बिनु जिउ नहिं आवत ओझा । बिष भइ पूरि, काल भा गोझा ॥
जो देखै जनु बिसहर-डसा । देखि चरित पदमावति हँसा ॥
भल हम आइ मनावा देवा । गा जनु सोइ, को मानै सेवा? ॥
कौ हींछा पूरै, दुख खोवा । जेहि मानै आए सोइ सोवा ॥

जेहि धरि सखी उठावहिं, सीस विकल नहिं डोल ।
धर कोइ जीव न जानौं, मुख रे बकत कुबोल ॥10॥

(हींछि=इच्छा करके, अकूत=परोक्ष,आकास-वाणी, ओझा=
उपाध्याय,पुजारी, पूरि=पूरी, गोझा=एक पकवान, पिराक,
खोवा=खोव, धर=शरीर)

ततखन एक सखी बिहँसानी । कौतुक आइ न देखहु रानी ॥
पुरुब द्वार मढ़ जोगी छाए । न जनौं कौन देस तें आए ॥
जनु उन्ह जोग तंत तन खेला । सिद्ध होइ निसरे सब चेला ॥
उन्ह महँ एक गुरू जो कहावा । जनु गुड़ देइ काहू बौरावा ॥
कुँवर बतीसौ लच्छन राता । दसएँ लछन कहै एक बाता ॥
जानौं आहि गोपिचंद जोगी । की सो आहि भरथरी वियोगी ॥
वै पिंगला गए कजरी-आरन । ए सिंघल आए केहि कारन?॥

यह मूरति, यह मुद्रा, हम न देख अवधूत ।
जानौं होहिं न जोगी कोइ राजा कर पूत ॥11॥

(तंत=तत्त्व, दसएँ लछन=योगियों के बत्तीस लक्षणों में
दसवाँ लक्षण `सत्य’ है, पिंगला=पिंगला नाड़ी साधने के
लिये अथवा पिंगला नाम की अपनी रानी के कारण,
कजरी आरन=कदलीबन)

सुनि सो बात रानी रथ चढ़ी । कहँ अस जोगी देखौं मढ़ी ॥
लेइ सँग सखी कीन्ह तहँ फेरा । जोगिन्ह आइ अपछरन्ह घेरा ॥
नयन कचोर पेम-पद भरे । भइ सुदिस्टि जोगी सहुँ टरे ॥
जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा । नैन रोपि नैनहिं जिउ दीन्हा ॥
जेहि मद चढ़ा परा तेहि पाले । सुधि न रही ओहि एक पियाले ॥
परा माति गोरख कर चेला । जिउ तन छाँड़ि सरग कहँ खेला ॥
किंगरी गहे जो हुत बैरागी । मरतिहु बार उहै धुनि लागी ॥
जेहि धंधा जाकर मन लागै सपनेहु सूझ सो धंध ।
तेहि कारन तपसी तप साधहिं, करहिं पेम मन बंध ॥12॥

(कचोर=कटोरा, जोगी सहुँ=जोगी के सामने,जोगी की ओर,
नैन रोपि…दीन्हा=आँखों में ही पद्मावती के नेत्रों के मद को
लेकर बेसुध हो गया)

पदमावति जस सुना बखानू । सहस-करा देखेसि तस भानू ॥
मेलेसि चंदन मकु खिन जागा । अधिकौ सूत, सीर तन लागा ॥
तब चंदन आखर हिय लिखे । भीख लेइ तुइ जोग न सिखे ॥
घरी आइ तब गा तूँ सोई । कैसे भुगुति परापति होई?॥
अब जौं सूर अहौ ससि राता । आएउ चढ़ि सो गगन पुनि साता ॥
लिखि कै बात सखिन सौं कही । इहै ठाँव हौं बारति रही ॥
परगट होहुँ न होइ अस भंगू । जगत या कर होइ पतंगू ॥

जा सहुँ हौं चख हेरौं सोइ ठाँव जिउ देइ ।
एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ?॥13॥

(मकु=कदाचित्, सूत=सोया, सीर=शीतल,ठंडा, आखर=
अक्षर, ठाँव=अवसर,मौका, बारति रही=बचाती रही, भगू=
रंग में भंग,उपद्रव)

कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका । परबत छाँड़ि सिंगलगढ़ ताका ॥
बलि भए सबै देवता बली । हात्यारि हत्या लेइ चली ॥
को अस हितू मुए गह बाहीं । जौं पै जिउ अपने घट नाहीं ॥
जौ लहि जिउ आपन सब कोई । बिनु जिउ कोइ न आपन होई ॥
भाइ बंधु औ मीत पियारा । बिनु जिउ घरी न राखै पारा ॥
बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा । छार मिलावै सौ हित पूरा ॥
तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा । को उठि बैठि गरब सौं गाजा ॥

परी कथा भुइँ लोटे, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ ।
को उठाइ बैठारै बाज पियारे जीव ॥14॥

(ताका=उस ओर बढ़ा, मरि भा=मर गया,मर चुका, बलि
भीउँ=बलि और भीम कहलाने वाला, बाज=बिना,बगैर,छोड़कर)

पदमावति सो मँदिर पईठी । हँसत सिंघासन जाइ बईठी ॥
निसि सूती सुनि कथा बिहारी । भा बिहान कह सखी हँकारी ॥
देव पूजि जस आइउँ काली । सपन एक निसि देखिउँ, आली ॥
जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा । ओ रवि उदय पछिउँ दिसि कीन्हा ॥
पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा । चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा ॥
दिन औ राति भए जनु एका । राम आइ रावन-गढ़ छेकाँ ॥
तस किछु कहा न जाइ निखेधा । अरजुन-बान राहु गा बेधा ॥

जानहु लंक सब लूटी, हनुवँ बिधंसी बारि ।
जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कहु सपन बिचारि ॥15॥

(बिहार=बिहार या सैर की, मेरावा=मिलन, निखेधा=वह
ऐसी निषिद्ध या बुरी बात है, राहु=रोहू मछली, राहु गा
बेधा=मत्स्यबेध हुआ)

सखी सो बोली सपन-बिचारू । काल्हि जो गइहुँ देव के बारू ॥
पूजि मनाइहुँ बहुतै भाँती । परसन आइ भए तुम्ह राती ॥
सूरुज पुरुष चाँद तुम रानी । अस वर दैउ मेरावै आनी ॥
पच्छिउँ खंड कर राजा कोई । सो आवा बर तुम्ह कहँ होई ॥
किछु पुनि जूझ लागि तुम्ह रामा । रावन सौं होइहि सँगरामा ॥
चाँद सुरुज सौं होइ बियाहू । बारि बिधंसब बेधब राहू ॥
जस ऊषा कहँ अनिरुध मिला । मेटि न जाइ लिखा पुरबिला ॥

सुख सोहाग जो तुम्ह कहँ पान फूल रस भोग ।
आजु काल्हि भा चाहै, अस सपने क सँजोग ॥16॥

(जूझ …रामा=हे बाला! तुम्हारे लिये राम कुछ लड़ेंगे
राम=रत्नसेन, रावण=गंधर्वसेन), बारि बिधंसब=संभोग
के समय श्रंगार के अस्तव्यस्त होने का संकेत,बगीचा,
पुरबिला=पूर्व जन्म का, संजोग=फल या व्यवस्था)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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