दो शब्द :
इस सृष्टि की अनमोल विभूति है माँ । माँ शब्द अमृत तुल्य है । माँ पृथ्वी पर ऐसा वरदान है जिसको पाने के लिए तीनों लोकों के स्वामी परम पिता परमेश्वर भी इस भूमि पर मानव रुप में अवतार लेते हैं । ऐसी ही ममतामय माँ के आँचल से दूर होकर हीरालाल ने जीवन में सब कुछ गवा दिया था । लेकिन पश्चाताप की अग्नि में तपकर आज वह घर लौट रहा था अपनी उसी बूढ़ी माँ के पास। क्या उसका वापस आना सार्थक हुआ ? आगे पढिए …..
वापसी
हीरानंद चला जा रहा था दूर बहुत दूर जितनी जल्दी हो सके वह काशी नगरी पार कर देना चाहता था ताकि उजाले में कोई उसे देखना सके ।रात साथ छोड़ रही थी ।प्रत्युषा की हल्की हल्की किरणें आसमान में साधिकार प्रवेश कर लालिमा बिखेर रही थी !
उसने सोचा, शहर की सरहद पार करके पक्की सड़क ले लूंगा और कुछ दूर जाकर सुस्ता भी लूँगा लेकिन अभी नहीं ,समय अधिक नहीं है । जितनी जल्दी हो सके वह निकल जाना चाहता था । वहाँ से वह बस पकड़ेगा और सीधा अपने गाँव की ओर चल देगा !
भागते भागते हीरानंद हाँफ रहा था ।गलियां,सड़कें चॉक बाज़ार कितने ही मोड़ पार करता हुआ बेतहाशा दौड़ रहा था । वह पीछे मुड़कर भी देखना नहीं चाहता था । दौड़ते दौड़ते देखा सूर्य क्षितिज पर आ गया था । कुछ दूर राजमार्ग पर उसे एक बस आती दिखाई दी ।बड़ी मुश्किल से बस को रोका और फटाफट बस में चढ़ गया ।कंडक्टर को पैसे दिए और मुंह ढाँपकर एक कोने में जाकर बैठ गया। !
चंपापुर चार धंटे की दूरी पर था जिसे पाटने में हीरानंद को चार वर्ष लग गए थे । अचानक मन पुरानी यादों से बेस्वाद हो गया । जब वह घर छोड़ भागा था बाबूजी नहीं रहे थे । माँ और भाई थे ,खेती थी ,लेकिन गुज़ारा बहुत मुश्किल से होता था । परिवार कर्ज़ में गले तक डूबे हुआ था । खेती गिरवी थी ,घर गिरवी था खाने पीने के लाले पड़े हुए थे । वह घर का बड़ा बेटा हीरालाल बचपन से ही आलसी और मनमौजी स्वभाव का था ।
काम करने से घबराता रहता। भाई मानसिक रोगी था। माई और बाबूजी दिन रात काम कर इन दोनों निष्क्रिय प्राणियों का पेट भर रहे थे! बाबूजी के चले जाने के बाद घर का पूरा भार उसके कंधों पर आ गया था ।
हीरालाल का काम में मन नहीं लगता था । परिस्थितियां बर्दाश्त के बाहर हो रही थी ।उसने मन बना लिया था कि वह घर छोड़ कर भाग जाएगा और एक रात चुपचाप उसने अपने निर्णय को अंजाम दे दिया । माँ और छोटे भाई का ख़याल भी नहीं आया ।
कुछ वक़्त भटकता रहा और फिर एक साधुओं की टोली से जा मिला । वह हीरालाल से हीरानंद बन गया ।बहुत जल्द वहाँ घुल मिल गया था और छोटे मोटे चमत्कार करने भी सीख गया था । आराम से गुज़ारा होने लगा था ।भिक्षाटन करना भभूत लगा कर शाम को चिलम पीना । मजे ही मजे थे ।
पर कुछ दिन तो आराम से बीते लेकिन हीरालाल का मन हमेशा कचोटता रहता । घर की याद भी हमेशा सताती रहती । माँ की बहुत याद आती रही ।
एक रात भी ऐसी न थी जो शान्ति से गुजरी हो। चार वर्ष तड़पने के बाद आज सब को छोड़ कर वह वापस अपने माँ भाई के पास गाँव लौट रहा था । गलती जो हुई थी उसे सुधारना चाहता था ।उसे यह अहसास हो गया था कि जीवन में प्रेम और अपनापन ही सब कुछ है । चार साल घर व अपनों की दूरी ने सब सिखा दिया था ।
अचानक बस रुकी । वह उतर गया और गाँव की ओर कच्ची सड़क पर चलने लगा ।
कुछ दूर चलकर सामने वाली गली में मुड़ते ही वह अपने घर पहुँच गया । वहाँ की हालत देखते ही हीरालाल का दिल बैठ गया । गाय, भैंस ,बकरियाँ अहाते में घूम रहीं थीं । घर जीर्ण शीर्ण अवस्था में था । छत से खपरैल गायब थी । दरवाजा नदारद था । घर कहने लायक वहाँ कुछ बचा नहीं था ।
सामने से करमन बाबू आते दिखाई दिए । हीरानंद ने पहचान लिया । प्रणाम किया और कहा,‘चाचा माँ कहाँ है, दिखाई नहीं दे रही.’
‘ किसकी माँ? और तुम कौन हो बेटा?’ चाचा ने बढ़ी हुई दाड़ी और बदले हुए हुलिये के कारण उसे नहीं पहचाना।
‘ हीरालाल की माँ’ कुछ अनिष्ट की आशंका से काँपते हुए उसके शब्द निकले ।
‘ वो .. न जाने जंगल में कहाँ कहाँ भटक रही होगी ,किस चक्की का आटा खाया है बुढ़िया ने, बड़ा भाग गया, छोटा गुजर गया फिर भी न जाने किस आस में जिए जा रही है , पूरा दिन खोजती रहती है अपने दोनों बेटों को ,पगला गई है, पता नहीं आज किस ओर हो? भगवान ऐसी सजा दुश्मन को भी न दे ‘ !
हीरानंद और सुन न सका।
भागने लगा था जंगल की ओर । इधर उधर चिल्ला चिल्ला कर पागलों की तरह पुकारने लगा ..माँ…माँ…माँ…। कितनी दूर निकल गया पता ही न चला ।
छोर के अंत में दूर एक परछाई दिखी । आस बंध गई । हो न हो माँ ही होगी । हाँ ..माँ ही थी । माँ को देख कर गति और भी बढ़ गई । काँटों में धूल मिट्टी किसी की परवाह किए बिना वह भागने लगा । चारों ओर कीचड़ भरी हुई थी,कीचड़ में पैर छपाक छपाक पड़ रहे थे, कीच उड़कर दाड़ी सर के बालों में लग रही थी ।बुरी तरह हाँफने लगा और पास जाकर लपककर माँ के कदमों में गिर गया ।
‘कौन हो बेटा?’ कच्ची मिट्टी पर बैठी माँ ने घबरा कर पीछे हटते हुए पूछा ।
हीरालाल कांप रहा था ,बोला …‘माँ …माँ देख , मैं तेरा अभागा हीरालाल ‘।
“ क्या? माँ की निगाहें निर्विकार ही रहीं , बोली “ कौन हीरालाल … नहीं .. नहीं ..झूठ न बोलते बेटा! ’
कुछ देर आराम कर ,हाँफ रहा है. लगता है बहुत भागा है. पता नहीं कुछ खाया है कि नहीं , ले कुछ फल खा ले” । माँ ने अपनी मैली झोली में से कच्चे पके धूल से सने फल बढ़ाए । “ कुछ देर बैठ कर अपने घर चले जाना । अच्छा !.वहाँ लोग इंतज़ार कर रहे हैं न इसलिए । उन्हें न सता बेटा ..किसी को इंतज़ार न कराते बेटा.. तेरी माँ ताकती होगी न … जा । चला जा…’ चला जा …. जल्दी जा …जा न .! माँ उसे धक्का देते हुए न जाने क्या बड़बड़ा रही थी और वह कुछ सुनने की स्थिति में ही नहीं था ।
पागलों ही तरह माँ के पैरो से लिपट कर फूट फूट कर रो रहा था ।
वह चाहता था कि चीख चीख कर कहे,.. माँ मुझे माफ कर दे , माँ मैं तेरा दोषी हूँ , लेकिन शब्द उसके मुंह में ही अटक कर रह गए । बाहर ही नहीं निकले । केवल फटी सी चीख ही निकल रही थी । उसका चेहरा आँसुओं से तरबतर हो गया था ।
कुछ क्षण बाद संभल कर उस ने अचानक माँ की ओर देखा तो स्तंभित सा देखता ही रह गया ।
माँ कितनी सुंदर हुआ करती थी । गोल मटोल सलौना सा भरा भरा मुख … प्यारी हंसी , हमेशा चुस्त और फुर्तीली .।
हाय वक्त और किस्मत की मार, क्या से क्या हो गई माँ .. इतनी जल्द इतना बुढा गई .
उसने माँ का चेहरा अपने दोनों हाथों में ले लिया,… गड्ढों में धसीं हुई बुझी सी आंखें, गाढी झुर्रियां, लटकती त्वचा , खोपडी पर गिने चुने बाल जिसके नीचे की पपडी तक दिखाई दे रही थी, उभरी हुई नसें , पतला बदन जिस पर मांस न के बराबर था । कुल मिलाकर वह एक भयंकर कंकाल सी लग रही थी ।
हीरालाल अब अपने आपको रोक नहीं सका । उसकी रुलाई और तेज हो गई, आँखों से अश्रु धाराएं बहने लगी । उसने अपनी ठुड्डी माँ के सिर से टिका दी और माँ को चूमता हुआ दहाडे मार कर रोने लगा। उसके आँसू माँ के सिर को गीला कर माथे और कान पर नीचे पानी की लकीर बनाकर बह रहे थे ।
आज माँ का अभिषेक अपने आँसुओं से कर हीरालाल ने वो सब पाप धो लिए जिसे चार साल गंगा मैया भी न धो पाई थी ।
न जाने कितनी वह देर रोता रहा । रोकर थक जाने के बाद वह उठा ,..
टूटी आवाज में कहा , “ माँ … चलो.. ।
माँ असमंजस में उसे देख रही थी .. बिना कुछ कहे, बिना कुछ समझे , विक्षिप्त सी …
“ माँ चलो.. .” यहाँ से दूर … अब तुम कहीं नहीं भटकोगी ।
उसने माँ का हाथ मजबूती से पकड़ा और उसे उठाने की कोशिश की ।
माँ लडखडा कर धीमे से उठी और उसका मुंह ताकने लगी , न जाने क्या सोचती हुई…
उसने माँ को भींच कर गले से लगा लिया , अपने से कस कर चिपका लिया और बडे प्रेम से माँ का चेहरा सहलाने लगा ।
अचानक उसे लगा जैसे उसकी माँ एक छोटी सी बच्ची बन गई है… । प्यारी सी निरीह …बच्ची ।
माँ मुस्करा रही थी ,मासूम , निश्चल सी मुस्कान… बिल्कुल नन्हे बच्चे की तरह ।
धीरे धीरे दोनों गांव की सड़क पर चलने लगे …चुप्प … एक अंजान सफर पर .. ।
पीछे करमन चाचा और बस्ती के लोग आश्चर्य से उन्हें जाते हुए देख रहे थे ।
दूर क्षितिज पर सूर्य अस्त हो रहा था । ढलती लालिमा में हीरालाल ने माँ को ओर देखा, उसकी बूढ़ी आँखों में अनगिनत तारे चमक रहे थे । हीरालाल का हाथ माँ के कंधों पर कस गया अधिकार और विश्वास के साथ…..
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