दिसंबर का महीना । शाम के पाँच बज रहे थे । स्टेशन खचा-खच भरा हुआ था । अल्का मद्रास से बेंगलूर कम्पनी की मीटिंग के लिए जा रही थी । वह ट्रेन से बहुत कम यात्रा करती थी लेकिन आज कुछ आवश्यक अनिवार्यताओं के कारण ट्रेन पकड़नी पड रही थी । यहाँ की भीड़ ने उसके तनाव को और भी बढ़ा दिया था । उसकी नज़र घड़ी पर और कान गाड़ी के आगमन की घोषणा पर टिके हुए थे । गाड़ी आधा घंटा देर से आ रही थी । बड़ी खीज उत्पन्न हो रही थी उसे । बार बार वह अपने निर्णय को कोस रही थी कि क्यों उसने ट्रेन से जाने का विचार किया । शोर -शराबे से वह कोसों दूर भागती थी । और आज यहाँ कान फटे जा रहे थे । बड़ी बडी गाडियाँ इस समय यहाँ से सभी शहरों के लिए निकलती हैं । शायद इसी कारण प्लेटफॉर्म पर कहीं भी पाँव रखने की जगह न दिख रही थी ।
असाधारण भीड़ ।
लोगों का जैसे रेला निकल रहा हो । सब अपनी अपनी जल्दी में थे । शोर इतना कि एक गज की दूरी पर खड़े हुए लोग भी चिल्ला चिल्ला कर बोल रहे थे । कुछ यात्री नीचे जमीन पर ही चादर बिछाकर वहीं सोए पड़े थे । लोग उनके ऊपर से टाप -टाप कर गिरते-संभलते दौड रहे थे । कोई दायें से निकल जाता तो कोई बाएं से घिसट कर चला जाता । अजीब सी हड़बड़ी थी ।
किसी को किसी की परवाह नहीं थी । उसे डर लग रहा था कि कहीं एन मौके पर प्लेटफॉर्म न बदल दिया जाए जैसा कि हर बार होता है । । हाथ में था तो एक छोटा सा ही बैग लेकिन फिर भी यहाँ से वहाँ भागते हुए जाना… लोगों को धक्का देते हुए …. उफ्फ … सोच कर ही मन बैठा जा रहा था ।
हाँ … एक बात की सुविधा यहाँ थी कि प्लेटफॉर्म तक जाने के लिए सीढीयाँ नहीं चढनी पड़ती । सब के सब प्लेटफॉर्म कतार में खड़े हुए मिलते है । और तो और ….कोढ़ में खाज की तरह बुरी तरह से परेशान कर रही थी मछली की जानलेवा दुर्गंध । सामने की माल गाड़ी में मछलियों के कंटेनर रखे जा रहे थे । उसका जी मिचला रहा था । बडी जोर की उबकाई आ रही थी । लगा खाया-पिया अभी सब बाहर निकलेगा । यहाँ खड़ा होना दूभर हो रहा था । वह झल्लाती हुई नाक में रूमाल घुसेड़े .. खड़े होने की जगह ढूंढ रही थी ।
ट्रेन आने में अभी आधा घंटा बाकी था । अल्का ने सोचा यहाँ खड़े होकर लोगों के धक्के खाने से तो अच्छा है चलकर एक कैपिचिनो पी जाए । सामने कतार में कई रेस्तरां थे लेकिन देखा …वहाँ भी भीड़ थी। लोग भरे हुए थे । बस एक कॉफी हाउस थोड़ा खाली नजर आया । जान में जान आयी । समय भी काटना था और कॉफी की तो अब सबसे ज्यादा जरूरत थी । फिर तो बाद में तो बेंगलूर में ही कॉफी मिलनी थी । । ठंड की शाम में कैपिचिनो पीने का मजा ही कुछ और होता है । सोच कर ही मन रोमांचित हो गया । ये तो वही जानें जिन्हें कॉफी की लत है । अल्का के कदम तेजी से कॉफी हाउस की ओर बढने लगे ।
काउंटर पर पहुँच कर उसने पाँच सौ का नोट रखा … कॉफी खरीदी और बाकी रुपये वापस हाथ में दबोचे कॉफी मशीन की ओर मुड़ी । उसने बड़े से पेपर गिलास में सावधानी से कॉफी भरी और एक कोने में जाकर ऊँची सी कुर्सी खींच ली । बैग रखा और पाँव पसार लिए । कमर सीधी कर चैन की साँस ली । गरम कॉफी को देखकर ही राहत मिल गई थी । गले में दो घूँट जाते ही बड़ा आराम आया । मन शांत हो गया था । गरम कॉफी की चुस्कियाँ लेते उसकी निगाहें चारों ओर के वातावरण का मुआयना करने लगी । बाहर की हलचल ने कुछ पलों के लिए आंतरिक तनाव भुला दिया था । और अब तो कॉफी की भाप के साथ वह उड़ा चला जा रहा था । सोचा… चलो अच्छा किया । वहाँ के शोर से दूर आकर । सच में बहुत राहत महसूस हो रही थी । यही तो मजा होता है कॉफी में और कॉफी हाउस में । घूमती हुई उसकी निगाहें दूर एक आकृति पर पडी …झुकी हुई सी ..सर को ढाँपे हुए अपने आप को छिपाते आने जाने वालों को कातर आँखों से ओर देख रही थी । शायद कोई भिखारिन बुढ़िया थी ।
अल्का ने घडी की ओर देखा … कहीं कॉफी के चक्कर में देर न हो जाए और ट्रेन न निकल जाए ।
नहीं … अभी समय था । आराम से पीने के लिए । उसने राहत की सांस ली । अचानक पीछे से उसकी दाहिनी कोहनी पर ठंड़ा सा हाथ का दबाव लगा.. किसी ने उसकी बाँह दबोच ली थी और साथ ही क्षीण सी आवाज सुनाई दी…मुझे भी एक कॉफी खरीद दे ’ ।
अल्का ने हड़बड़ाकर पीछे मुड़कर देखा …तो उसकी चीख निकल गई । वही आकृति उसके बहुत पास खडी थी उसका हाथ दबोचे हुए । उस बुढ़िया की शक्ल ने उसे बुरी तरह डरा दिया । अल्का कुर्सी से इतनी ज़ोर से उछली कि उसकी कॉफी छलक कर उसके कपडों पर गिरने के साथ-साथ मेज पर भी फैल गई ।अचानक उस बुढ़िया का इस तरह उसका हाथ पकड़ना उसे चौंका गया था और पकड़ भी ऐसी मजबूत कि पूछो मत । उसकी नाजुक पतली त्वचा पर हाथ के अंगुलियों के निशान उभर आए थे । वैसे उस बुढ़िया ने काफी जोर से पकड़ा था । उसके नाखून भी चुभ गए थे । सब इतनी जल्दी हुआ कि पता ही नहीं चला …वह बुढ़िया कब अंदर घुसी… कब उसने अल्का को देखा … और कब उसका हाथ पकड़ा । वह अब भी हाथ पकड़े खडी प्रश्न सूचक दृष्टि से उसे ही देख रही थी ।
ग़ुस्से से अल्का के दांत भिंच गए , भौंहें सिकुड़ गई । नथुने फड़फड़ाने लगे ।वह संभलती हुई उठी और पूरा बल लगाकर उसका हाथ खींच कर झटक दिया । बुढ़िया गिरते-गिरते बची और सामने की दीवार से जा टकराई । बूढे हाथों में इतनी ताकत नहीं थी और अल्का ने कुछ ज्यादा ही जोर से झटका दिया था । इससे पहले वह उस बुढ़िया पर बरस पड़ती … अचानक उसकी दृष्टि उसके मुरझाए से चेहरे पर ठहर गई । गुस्से से निकली भद्दी गाली उसके गले में ही अटक कर रह गई। उसने उस औरत को ध्यान से देखा । वेश-भूषा से वह भिखारिन तो नहीं लग रही थी । कपड़े भी ठीक-ठाक ही थे । लेकिन हाँ ! किस्मत की मारी अवश्य दिख रही थी । पोपला-सा मुंह, आँखें धंसी हुई, गालों की हड्डियाँ बाहर निकली हुई, झुके हुए कंधे , आधा गंजा सिर …. हल्की सी शॉल ओढ़े हुए …. आंखों पर मोटा सा चश्मा जो भार के कारण पतली सी नाक पर झुक गया था । सूखे पत्ते जैसे होंठ लेकिन धारदार पैनी आवाज ।
बुढ़िया डबडबाई आँखों से बड़बडाने लगी, ‘अरे …कॉफी ही तो मांगी है .. इतना गुस्सा काहे को करती है … कोई तेरा पैसा तो नहीं लूट लिया … देख तो कैसे गिरा दिया … दो महीने से नहीं पी थी .. इसलिए तुझे देखा तो लगा तू खरीद देगी … आस से आ गई … भूख लगी थी ..इतना गुस्सा ..मत मार …रहने दे… न .. न चाहिए’।
अल्का को धक्का सा लगा । उसका दिमाग झनझना गया । ऐसा होगा सोचा ही न था । उससे यह अचानक कैसे हो गया ? किसी पर हाथ उठाना ? वह तो कभी ऊँचे स्वर में किसी को डाँटती तक नहीं थी । और आज अनावश्यक क्रोध ….इतना गुस्सा… ….उसका यह पाशविक व्यवहार ! वह भी एक असहाय बुढ़िया पर ? इतना बल प्रयोग? क्या ज़रूरत थी? उफ़ ! यह क्या कर डाला?
इससे पहले वह अपनी गलती की माफ़ी माँगतीं, वह बुढ़िया बिफर कर बोली,’ जब तक बुड्ढा जिंदा था .. मेरे लिए हमेशा खरीदता था यहीं से महंगी वाली कॉफी … कूली जो था यहीं पर …. उसे गुजरे दो महीने हो गए…… अब और कोई भी तो नहीं है… जो मेरी आस पूरी कर ले । अब इस उम्र में कुछ काम भी न हो पाता है … फिर भी थोड़ा बहुत जो भी कमा लेती हूँ और खाती हूँ … मैं भिखारी नहीं …. हाँ भिखारी नहीं … अपना कमाया खाती हूँ.. लेकिन … महंगी वाली कॉफी न पी उसके जाने के बाद … नहीं … नहीं … इस मुई कॉफी को मन बहुत मचलता है …. कोई बात नहीं … रहने दे … न खरीद… लेकिन धक्का तो न मार … … अब नहीं माँगूँगी… कभी नहीं । आज सुबह से कुछ नहीं खाया , तेरे पास मुठ्ठी में रुपये है न, क्यों नहीं खरीदती ? क्या सोच रही है ?कोई बात नहीं .. रहने दे….अब न मांगूंगी । किसी से भी नहीं । मैं भिखारी थोडी न हूं । न मांगूंगी’ । वह न जाने क्या बड़बड़ाती जाने को मुड़ी ।
अल्का ने उसका हाथ पकड़ लिया । बुढ़िया भय से चिल्लाई,’ अरे .. अरे …न मार .. न मार । नहीं माँगूँगी । अब माफ भी कर….छोड़ दे…छोड़ दे मार ही देगी क्या ’।
‘चुप…चुप…चुप… तुम यहीं बैठो । बिलकुल चुप । मैं अभी आती हूँ। हिलना मत’ ।अलका ने कुर्सी खींच कर उसे बैठने का इशारा किया और लपक कर काउन्टर पर गई ..एक कैपिचिनो खरीदी ।
कॉफी गिलास में शक्कर मिलाकर जैसे ही मुड़ने को हुई , तो एक बार फिर उसकी चीख निकलते निकलते बची ।
वह बुढ़िया तो फिर से एकदम उसके पीछे खड़ी थी । न जाने इतनी फुर्ती कहाँ से आ गई थी उस क्षीण शरीर में । उसने अल्का के हाथ से गिलास ऐसे अधिकार से झपटा कि वह पिचक गया और गरम कॉफी का गोल झाग उसकी हथेली पर गिर पड़ा … ।
चट से वह उसे चाट गई और दोनों हाथों से गिलास को पकड़ कर एक कोने में बडी -बडी फूंकें मारती भद्दी आवाजें करती हुई बैठकर कॉफी पीने लगी ।
‘हाँ… यही खरीदता था मेरे लिए …. यही … बडी अच्छी लगती है मुझे …झाग वाली कॉफी … ….बड़ी अच्छी । बहुत महंगी है न इसलिए… पता है वह यहाँ इसी जगह काम करता था सुबह शाम ..साफ सफाई करता था यहीं ….जब कूली नहीं मिलती थी न तब … कहता था यह अमीरों की कॉफी है … मोटी कमाई वालों की … पर एक बार मुझे पिलाई थी … मुझे अच्छी लगी झाग वाली कॉफी …..तो कहने लगा… बूढ़ी…. यह शौक मत पाल … यह हमारे लिए नहीं है …. मैं भी कम नहीं … कहती थी बाबू साहब से माँग ले कभी -कभी … यहीं काम करता है न … दे देंगे … पर कहता था .. माँगते नहीं है … मैं तेरे लिए खरीदूँगा रुपये बचाकर … अब कितनी मंहगी है मैं तो नहीं जानती … पर खरीदता था मेरे लिए …. मुझे अच्छी लगती थी न इसलिए ।
बुढ़िया की आँखों में लाल डोरे तैर गए …. बड़बड़ा रही थी ….खो खो कर हंसने लगी …अपने बुढ़े को याद कर …. । आँखों के कौर गीले हो गए थे …। फूँक मारते समय उसके पिचके हुए गाल अंदर बाहर हिल रहे थे । पुतलियाँ नचाती हुई उसकी शुष्क आंखें चमक रही थी । गरम कॉफी की भाप से उसका चश्मा धुंधला हो रहा था लेकिन वह केवल कॉफी को ही देख रही थी .. खुश हो रही थी …. मस्ती से पी रही थी ।
कॉफी हाउस का शोर बढ़ रहा था । आस-पास अच्छी खासी चहल पहल आ गई थी । लेकिन सभी अपने -अपने में व्यस्त । किसी को दूसरे की ओर देखने तक की भी फुरसत कहाँ थी?
अल्का हैरान ..मंत्रमुग्ध सी बैठी उसे ही देखे जा रही थी । उसने कभी किसी को इस तरह खुश होते नहीं देखा था और वो भी एक कॉफी के लिए ….वह सोच भी नही सकती थी । उसके हाथों में उसकी बची -खुची कॉफी ठंडी हो चुकी थी । वह तो जैसे पीना ही भूल गई थी ।
बुढ़िया ने फुर्र की आवाज़ से आख़िरी घूँट पिया । गिलास के अन्दर अच्छी तरह से झाँक कर देखा और जब तसल्ली हो गई कि कॉफी ख़त्म हो गई है तो गिलास नीचे रख हथेली के बल धीरे से लड़खड़ाती हुई उठी … एक लंबी डकार ली …और बिना मुड़े ….बिना कुछ कहे …..बिना उसकी ओर देखे निर्लिप्त भाव से …. धीमे धीमे कदम रखती बाहर निकल गई ।
अल्का भीगी आँखों से उसे जाते देखती रही ..चेतना शून्य । कुछ पलों बाद उसकी तंद्रा टूटी । होश आया । घड़ी देखी .. निकलने का समय हो गया था ।
बुढ़िया जा चुकी थी । उसका तृप्त होकर बिना कुछ कहे निकल जाना न जाने क्यों अलका के मन को लुभा गया …. मीठा सा सुकून दे गया जिसमें उसकी सारी ‘कृतघ्नता’ कपूर की तरह पिघल गई । अच्छा ही हुआ था कि वह उदासीन तटस्थ भाव से निकल गई थी । उसका यूँ चले जाना अलका को एक निरीह असहाय पर ‘महान’ उपकार कर गुजरने की आत्म मुग्धता से मुक्त कर गया था । उसका मन हल्का हो गया । होंठ अनायास मुसकुराने लगे ।
उसने बैग उठाया । बाहर गाड़ी के प्लेटफ़ार्म की घोषणा हुई .. प्लेटफॉर्म बदल गया था लेकिन उसे अब गुस्सा नहीं आया । वह तेज कदमों से चलने लगी । मन तरंगित हो रहा था । मच्छी की गंध भी उतनी ज्यादा बुरी नहीं लग रही थी । शोर कानों को भला लगने लगा था । सबको बचाते हुए मुसकुराते हुए वह अपने वातानुकूलित डिब्बे के अंदर चढ़ गई । याद आया कि वह तो अपने लिए खाना बंधवाना ही भूल गई थी । महसूस हुआ कि आज शायद उसकी कोई जरूरत नहीं थी । उसकी सारी भूख तो बहुत पहले ही स्वतः मिट चुकी थी । और कॉफी… कॉफी तो उसने अब तक बहुत बार पी थी लेकिन असली स्वाद तो आज मिला था …… ‘बिन पिए’ ।
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लेखिका ;
नाम – डॉ. पद्मावती
जन्म स्थान -दिल्ली,
मातृ भाषा- तेलुगु
शैक्षिक योग्यता – एम ए ,एम फ़िल, पी.एच डी , स्लेट. (हिंदी)
अध्यापन कार्य -गत 15 वर्षों से हिंदी भाषा साहित्य का अध्ययन और अध्यापन कार्य, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अतिथि व्याख्यान .
प्रकाशन – विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में कई शोध आलेखों का प्रकाशन .
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्टियो में प्रतिभगिता और शोध पत्रों का प्रस्तुतीकरण .
प्रसारण- आकाशवाणी पर आलेखों का प्रसारण .
विभिन्न साहित्य शिविरों और कार्यशालाओं में सक्रिय सहभागिता .
रुचि- दर्शन , इतिहास , यात्रा, साहित्य में विशेष रुचि .
सम्पर्क; सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, आसन मेमोरियल महाविद्यालय ,चेन्नई, तमिलनाडु.