वो माँ ही थी
जो मुझे खिलाकर खाती थी
कभी न सोचा क्यों ऐसा था
शायद बर्तन खाली होता था
जब भी जिद की संग खाने की
प्यार से मुझे सुनाती कहानी थी
अपने हाथों खिलाती निवाला थी
वो माँ ही थी
जो देकर मुझे बिछौना
खुद धरती पर सोती थी
अपना आँचल डाल मुझ पर
बाँहों में भर लेती थी
कष्ट होने न देती मुझको
करती पहरेदारी थी
वो माँ ही थी
मेरे रोने पर रोती थी
मेरे हँसने पर हँसती थी
सोचूँ तो लगता है ऐसा
क्या मैं उनको दे पाई हूँ
फिर भी सदा मुस्काती रहती
लेती बारम्बार बलाएँ थी
देती अनगिनत दुआएँ थी
वो माँ ही थी।
कीर्ति श्रीवास्तव
वो माँ ही थी/कीर्ति श्रीवास्तव