आज फिर उड़ चली हूँ मैं
सपनों के पँख लगाए
पहले सपने तो थे
पर पँख न थे
आँखों में आशाएँ लिए
ताकती थी
खिडक़ी के बाहर
और जोहती थी
इक तिनके की बाट
जो आये और बता जाए
अपना अस्तित्व
और कर जाए
मेरी सहनशीलता
को सलाम
सुन मेरी पुकार
आया वो तिनका
और रखकर मेरे सर पर हाथ
मेरे सब्र को
मेरी कमजोरी बता
मेरी मजबूरी को
मेरी ताकत
बना गया
यही था मेरा प्रारब्ध
और वही है मेरा अंत
आज उस तिनके ने
दे दिए हैं पँख
और उड़ चली सँग उसके
बनाने अपनी पहचान
और करने इस दुनिया को
सलाम।
कीर्ति श्रीवास्तव
प्रारब्ध/कीर्ति श्रीवास्तव