1.माँ
माँ गंगा सी
निश्छल
जिसके दो किनारे
समाज और संस्कार
समेट लेती है जो सबके गम
और भर देती है नई उमंग
बच्चों संग अठखेलियां करती है तो
शांत हो जाती बड़ों में
जानती है झूठ और सच
पर बनी रहती है अंजान
लगी रहती है धोने
अपनों के मन में जमी फरेब की मैल
भरती है जख़्मो को
फैला कर प्यार का दामन
बना देती है रास्ता
उज्वल भविष्य का
और खुद वहीं रहती है
अनगिनत कलमें पढ़ती
सिर्फ माँ बने रहने के लिए
2.माँ मेरी कुम्हार
माँ मेरी कहीं कुम्हार तो नहीं
जो जलती है रात दिन
मेहनत की भट्टी में…
बनाती अपनी चाक सी कोख में
कुछ निराले से खिलौने
आकार दे कर अलग-अलग …
भरती है खुशियों के रँग
इबादतों इबारतों संस्कारों की
अलग अलग कूचियों से…
ताकि कभी फ़ीका न हो रँग
मुश्किलों से भरे समंदर में
और बना सके हक़ीक़त…
बिखरे रँग बिरंगे ख्वाबों को
3.माँ का आशा दीप
हर सुबह..
चाहत की बाती ले
विश्वास के तेल से
मन के मंदिर में
जलता है रोज़
आशा का दीप
जरूरत के साथ
दिखाने नये रास्ते
सूरज की तरह
और रोज़…
जरूरत के लिये
जलती हैं चाहत
डगमगाता है विश्वास
सूरज के साथ साथ
हर शाम..
थक जाती है आशा
पसर जाती है निराशा
अंधियारी रात में
बुझने लगता है
दीप आशा का
मगर…
सपने तो अपने हैं
सहारा देते हैं लौ को
छूटने नहीं देते
हाथ आशा का
नींद के झोंकों में
प्यार से करते हैं
तैयार एक और
नई आशा का दीप
अगली सुबह के लिए
4.माँ और कुआँ
कुएं के जल सी माँ
समेटे रखती है अपने अंदर
सड़े गले..
सदियों पुराने रिवाज़
जिसे बाँध कर रिश्तो की रस्सी से
कोई भी इस्तेमाल कर सकता है
अपनी जरूरत के अनुसार
5.मिलेगी ,,मुझे भी रोशनी!
अक्सर पूछा करते हैं मुझसे कुछ लोग
कैसे लगा तेरी देह को मेहनत का रोग
क्यों आलस का घुन्न तुझे नही लग पाया
आखिर किस फ़कीर का है तुझ पर साया?
पगली! क्यों बालक को साथ लिए फिरती है?
अभी इसने बचपन की जी ही साँसें कितनी हैं,
इतना भी न अब उस पर अत्याचार कर,
महंगे न सही पर सरकारी स्कूल ही भेजाकर।
चुप रहती हूँ मैं कुछ कहती नहीं उनसे,
लिखती हूँ अपने इरादों को नित्य पसीने से,
जो हिम्मत देते हैं ज़िन्दगी की मुश्किलों में,
वैसे भी आलस का घुन्न गरीबों को कहाँ लगता,
क्योंकि.. जिसने दिया है पेट भी वही भरेगा,
जुमला हम पर तो बिल्कुल नहीं जमता।
और.. मेहनत ही तो है सफलता की चाबी,
फिर क्यों हो शर्म ?बेचने में फल, तरकारी।
पगली नहीं हूँ मैं जो बालक साथ ले आई ,
हाँ ..मैं माँ हूँ न ….इसीलिए ही..
उसे अकेले घर में छोड़ नहीं पाई।
सिखाया है उसे मैंने कि भाग्य के दरवाज़े,
सुकर्म के तूफ़ानों से ही खुला करते हैं,
जिसके लिए बेटा पढ़ना बहुत जरूरी है,
वरना तेरी किस्मत में भी लिखी गरीबी है,
साहेब.. जानते हैं हम..
कि जुगनू कभी रोशनी के मोहताज नहीं होते…
वो ढूँढ लेते हैं अंधेरों में भी अपनी मंजिल ,
बस..कोशिश ज्यादा करनी होगी,
हिम्मत को बाँधे रखने में,
मेहनत की डोरियों से.. ।
6.मां
बंजर सपने
बसते आँखों में
कुछ तेरे कुछ मेरे अपने
जिनकी चाहत,उम्मीद के बादल
मेहनत से गिरती,स्वेद की बूंदें
हिम्मत की खाद,धैर्य की धूप
और.. कल्पना की चाँदनी
सीधे सीधे यथार्थ पर गिरती
ताकि …उगा सके सुनहरा कल
भगा सके मायूसी
पा सके आत्म संघर्ष की बारिश..
थोड़ी नमी के लिए
उन्हें बचना भी है.. अवसाद के टिड्डी दल से
जो विचारों को छिन्न-भिन्न कर
लगा रहता है सपने बर्बाद करने में
उन्हें पत्थर बनाने में…
हांफते भागते जूझते सपने
नहीं चाहते आँख का खारा पानी नहीं
चाहते हैं स्नेह की गंगा ,प्रेम की झप्पी
तलाशते हैं संवेदना का सहारा
खोल कर अक्ल की खिड़की..
संघर्ष करते हैं चेतन से
आस की भोर के लिए
जीवन दान पाने के लिए
सच कहूँ …तो सपने बंजर
कभी होते ही नहीं
यह तो रंगीन पंख हैं विकास के
बस.. बदलनी है सोच
जगानी होगी ,मन में लगन, सजगता
बिना टूटे, बिना रुके पूरा करने की ज़िद
फिर देखिए ये तथाकथित बंजर सपने भी
लद जाएंगे सब्र की लहलहाती फसलों से
जहाँ बैठेगी,जीवन राग सुनाती
कोयल….
रचना निर्मल
दिल्ली
माँ/रचना निर्मल